डॉ. महेश परिमल
लो, अब केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी कह दिया है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोगों का सरकार में भरोसा कम हुआ है। वहां के कुछ लोगों को सरकार का विरोध करने वाली ताकतों पर ज्यादा यकीन है। विकास के लिए उद्योग क्षेत्र को लाभ-हानि का गणित छोड़कर आगे आना चाहिए। आँकड़ों के हिसाब से हमारे देश कितना भी विकास कर ले, पर मूल विकास तो उन क्षेत्रों का होना चाहिए, जो वास्तव में पिछड़े हैं। दुर्भाग्य यही है कि देश में आज उन्हीं क्षेत्रों में माओवादी सक्रिय हैं, जहाँ विकास के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते। देर से ही सही, पर गृहमंत्री ने स्वीकारा तो सही। अक्सर हमारे मंत्री वास्तविकता को नकारते रहते हैं। वे जमीनी रिपोर्ट पर भरोसा नहीं करते, उन्हें अपनों उन कथित लोगों पर अधिक विश्वास होता है, जो मूल स्थिति को गलत तरीके से पेश करते हैं। यही नजरिया सरकार को मुश्किल में डालता है। नक्सली आखिर क्यों सक्रिय हुए, क्यों उनकी ताकत बढ़ी, कैसे उन्होंने आदिवासियों का विश्वास प्राप्त किया, कैसे उन्होंने अपना नेटवर्क बनाया, किस तरह से उन्होंने आदिवासियों को पुलिस के चंगुल से बचाया। इन सब बातों पर गौर किया जाए, तो इस नक्सली समस्या से निपटने में आसानी हो जाएगी। अभी तो यही कहा जा रहा है कि नक्सलियों के खिलाफ अत्याधुनिक शस्त्रों से लैस होकर हमारे जवान उनका मुकाबला करेंगे। ऐसा काफी समय से कहा जा रहा है, पर हो कुछ नहीं पाता। सरकार को यह पता चल जाता है कि नक्सली बड़ा हमला करने वाले हैं, पर वह सचेत नहीं हो पाती और नक्सली हमला कर देते हैं। हमले के बाद जो स्थिति आती है, वह बड़ी शर्मनाक होती है।
कितने शर्म की बात है कि छत्तीसगढ़ सरकार के पास नक्सलियों की गोली के शिकार जवानों के मृत शरीर को सही स्थान पर ले जाने के लिए वाहन नहीं मिले। यही राज्य है, जहाँ ढेर सारी कारों के साथ मुख्यमंत्री का काफिला चलता है। दो-तीन एकड़ की जमीन पर मुख्यमंत्री निवास होता है। 5 एकड़ की जमीन पर राजभवन होता है। दूसरी ओर टेंट में रहकर नक्सलियों का मुकाबला करने वाले जवानों को एक बोतल पानी के लिए 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का कुत्ता बीमार पड़ जाता है, तो उसे इलाज के लिए विशेष विमान से जबलपुर ले जाया जा सकता है। एक मंत्री बीमार पड़ जाए, तो तुरंत ही उसके लिए विशेष विमान की व्यवस्था हो जाती है। डॉक्टरों की फौज तैयार हो जाती है। पर नक्सलियों से जूझने के लिए हमारे जवानों को बिना किसी तैयारी के भेज दिया जाता है। जवान नाहक ही मारे जाते हैं। उसके बाद भी उनका सम्मान नहीं हो पाता। परिजन उनके मृत शरीर के अंतिम दर्शन के लिए तरसते रहते हैं और सरकारी लापरवाहियों के चलते मृत शरीर भी समय पर नहीं पहुँच पाते। किस बात पर आखिर हम गर्व करें कि हमारी सरकार संवेदनशील है। विमान से बाढ़ का दृश्य देखने वाले और कारों के काफिले के साथ चलने वाले देश के कथित वीआईपी आज हमारे लिए सबसे बड़े सरदर्द बन गए हैं।
इस देश को जितना अधिक वीआईपी ने नुकसान पहुँचाया है, उतना तो किसी ने नहीं। कितने वीआईपी ऐसे हैं, जिन्होंने बस्तर के जंगलों में जवानों के साथ रात बिताई है? उनकी जीवनचर्या को दिल से महसूस किया है? उनकी पीड़ाओं को समझने की छोटी-सी भी कोशिश की है? उनके साथ भोजन कर उनके सुख-दु:ख में शामिल होने का एक छोटा-सा प्रयास किया है। सरकारी अफसर जाते तो हैं, पर रेस्ट हाउस तक ही सीमित रहते हैं। थोड़ी-सी भी असुविधा उनके लिए बहुत बड़ी पीड़ा बन जाती है। कितने अफसर हैं, जो जमीन से जुड़े हैं, जिन्हें आदिवासियों की तमाम समस्याओं की जानकारी है। उनका निराकरण कैसे किया जाए, इसके लिए उनके पास क्या उत्तम विचार हैं? जवानों को नक्सलियों के सामने भेज देना ठीक वैसा ही है, जैसे शेर के सामने बकरी को भेजना। अत्याधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों के सामने जंग खाई हुई आदिकाल की बंदूकें भला कहाँ तक टिक पाएँगी?
कितना आपत्तिजनक होता है वीआईपी का सफर? जब इनका काफिला चलता है, तो सारे कानून कायदों से ऊपर होकर चलता है। पुलिस के कई जवान इनकी सुरक्षा में होते हैं। इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो, इसलिए पूरे साजो-सामान के साथ इनका काफिला आगे सरकता है। इस दौरान किसी को न तो सुरक्षा जवानों की हालत पर किसी को तरस आता है और न ही उनकी पीड़ाओं पर कोई मरहम लगाता है। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उनका एक दौरा कितने के लिए त्रासदायी होता है, यह अभी तक किसी वीआईपी ने जानने की कोशिश नहीं की। ये वीआईपी शायद नहीं जानते कि समस्याओं को जानने के लिए आम आदमी बनना पड़ता है। आम आदमी बनकर ही अपनों की समस्याओं से वाकिफ हुआ जा सकता है। अपराधी को पकड़ने के लिए चुपचाप जाना पड़ता है, न कि चीखती हुई लालबत्ती गाड़ी में। ऐसे में अपराधी तो क्या उसका सुराग तक नहीं मिलेगा।
हाल ही में खरियार रोड में जिस वनकर्मी की लाश मिली, उसके पास नक्सलियों द्वारा लिखा गया पत्र भी बरामद किया गया। पत्र में स्पष्ट लिखा था कि यह वनकर्मी लोगों को नाके पर लूटता था, उनके सामान अपने पास रख लेता था। लोगों के घर तुड़वा देता था, हमने इसे कई बार समझाने की कोशिश की, पर यह नहीं माना। आखिरकार हमने इसे मार डाला। सोचो, आखिर कुछ तो दोष होगा उस वनकर्मी में। उसके खिलाफ रिपोर्ट तक का न होना, इस बात का गवाह है कि उसका आतंक पूरे क्षेत्र में था। उसकी संगत बुरे लोगों से थी। लोग उसके खिलाफ शिकायत नहीं कर पाते थे। जो करता भी था, तो उसका हश्र बहुत ही बुरा होता था। कहाँ गलत हैं नक्सली? जब प्रशासन कुछ नहीं कर पाता, तब ही नक्सली सक्रिय होते हैं। जहाँ प्रशासन अक्षम साबित होता है, नक्सलियों का काम वहीं से शुरू होता है।
छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कितना मजबूत है, यह तो वहाँ के गृहमंत्री ननकी राम कँवर के उस बयान से ही स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि नक्सलियों का खुफिया तंत्र हमारे पुलिस विभाग के खुफिया तंत्र से अधिक मजबूत है। इस तरह से देखा जाए, तो राज्य के गृह मंत्री राज्य की सुरक्षा पर सवाल खड़े कर रहे हैं। उन्हंे हमारे खुफिया तंंत्र से अधिक नक्सलियों के खुफिया तंत्र पर भरोसा है। ऐसे बयानों से हमारे जवानों का आत्मबल कम होता है। वे किस बल से जूझ पाएँगे, उन बीहड़ में जहाँ उनका अपना ऐसा कोई नहीं है, जिसे अपनी पीड़ा कह सकें।
देश में जब सुरक्षा बलों की भर्ती होती है, तब उनसे तमाम प्रमाणपत्र माँगे जाते हैं, उनके शरीर का नाप लिया जाता है। उनके परिवार के लोगों की जानकारी ली जाती है। प्रशिक्षण के पहले कई परीक्षाएँ देनी होती हैं। इसके बाद गहन प्रशिक्षण का सिलसिला शुरू होता है। तब कहीं जाकर एक जवान तैयार होता है। लेकिन नक्सली बनने के लिए केवल एक ही योग्यता चाहिए, आपके भीतर पुलिस के खिलाफ कितनी ज्वाला है? इसी ज्वाला को वे लावा बनाते हैं? ताकि वह पुलिस वालों पर जब भी टूटे, लावा बनकर ही टूटे। यदि हमें नक्सलियों के खिलाफ जवान तैयार करने हैं, तो नक्सलियों द्वारा पीड़ित परिवार के सदस्यों को तैयार करना होगा। इनके भीतर की आग को बराबर जलाए रखना होगा, इनकी पूरी देखभाल करनी होगी। इस देखभाल करने में जरा भी चूक हुई कि वह नक्सलियों की शरण में चला जाएगा, फिर वहाँ उसका ऐसा ब्रेनवॉश होगा, जिससे उसे लगेगा कि उनके परिजनों को मारकर नक्सलियों ने ठीक ही किया।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि नक्सलियों के खिलाफ जिन्हें भी खड़ा करना है, पहले उसका विश्वास जीतें, फिर पूरे विश्वास के साथ उसे नक्सलियों के सामने भेजें, जवान को भी विश्वास होगा कि इस दौरान यदि मुझे कुछ हो जाता है, तो मेरे परिवार को समुचित सुविधा सरकार देगी। विश्वास की यह नन्हीं सी लौ जलती रहे, तो इसे विश्वास का सूरज बनते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
सोमवार, 17 मई 2010
सरकार की विफलता वरदान है नक्सलियों के लिए
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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