बुधवार, 26 मई 2010
जीवन में दु:ख का भी स्वागत करें
मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सुख तो चाहता है लेकिन दुख से हमेशा दूर भागने की कोशिश करता है किन्तु देखा जाए तो दुख की घड़ी में ही मनुष्य के आत्मबल.धैर्य. विवेक और जीवटता की असली परीक्षा होती है। यह दुख ही है. जो अपने और पराए की पहचान कराता है और व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण पर मजबूर करते हुए उसे अपनी गलतियों को दूर करने का महत्वपूर्ण सबक सिखाता है। प्रसिध्द कवि दुष्यंत कुमार ने अपनी एक कविता में कहा है, दुख को बहुत सहेज कर रखना पड़ा हमें. सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया।, सुख कपूर की टिकिया है. जो आग लगी नहीं कि तेजी से भभक कर जल उठता है और फिर बुझ जाता है। सुख गरम तवे पर पानी की बूंदों की तरह छन्न से पड़ता है और उड़ जाता है। हालांकि उसकी स्मृति लंबे समय तक बनी रहती है और ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है। दरअसल अस्वाभाविक यह सोच है कि हमेशा सुखी बने रहें। यह सोच ही व्यक्ति को भीर और पलायनवादी बनाती है। हमेशा सुखबोध की कल्पनाएं संजोने वाला मन दुख के आते ही डर जाता है। दुख किसी अनजान और भयानक अतिथि की तरह होता है जिससे निपटने में पसीना छूट जाता है। दुख या प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति का नजरिया शुर से ही पलायनवादी होता है और वह उससे लड़ने की बजाय उससे बचने में अपनी शक्ति अधिक लगाता है। दुख के समय दूसरों को दोषी ठहराना व्यक्ति का प्रिय शगल होता है जबकि जीवन की सच्चाई यही है कि दुख ही मनुष्य का सच्चा साथी है। तुलसीदास ने कहा है, धीरज. धर्म. मित्र अर नारी. आपतकाल परखिए चारी।, यानी संकट के समय ही धीरज. धर्म. मित्र और नारी की परीक्षा होती है। जो विवेकशील होते हैं. वे आने वाले कठिन समय का अनुमान बहुत पहले ही करते हुए उससे निपटने की तैयारी में जुट जाते हैं। सुख किसी व्यक्ति को अहंकारी. गैर जिम्मेदार और लापरवाह बना सकता है लेकिन दुख की भट्ठी में जलने के बाद बहुत से दुर्गुण भी जल जाते हैं। वास्तव में दुख जीवन का सर्वश्रोष्ठ शिक्षक है लेकिन दुर्भाग्य से मनुष्य उसकी पाठ ठीक से पढते नहीं हैं। कोशिश करिए कि जीवन में सुख के साथ दुख का भी प्रसन्नता से स्वागत किया जाए। यह काम मुश्किल जरूर है लेकिन असंभव नहीं।
लेबल:
चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
आपकी बात एकदम सही है ....दुःख आने वाले सुख की ही चिट्ठी है
जवाब देंहटाएंगगन ये समझे चाँद सुखी है चंदा कहे सितारे ,
सागर की लहरे ये समझे हम से सुखी किनारे ,
ओ साथी दुःख में ही सुखा है छिपा रे {एक पसंदीदा गीत}
सही कहा है , दुःख का वक्त तो ऐसी युक्तियों से ही कटेगा ।
जवाब देंहटाएंwell said
जवाब देंहटाएंअमृत वचन।
जवाब देंहटाएं