सोमवार, 3 मई 2010

बैठे-बिठाए हो जाना बुद्धिजीवी


अनुज खरे
विचार का भुर्ता बनाए सो बुद्धिजीवी। जो विचार से निकले ज्ञान को सामने वाले पर दे मारे। नहीं ले तो उसे जमकर कोसने में लग जाए। सामने वाला बिदककर भागे तो फिर उसे बिठाके दचक डाले। ज्ञान के नाखूनों से हर मनुष्य का मूं भंभोड़ दे। एक विचार की दाल न गले तो तो हार न माने, नए विचार का अचार डाल सबको नए सिरे से चटावे। इतना ज्ञानी-ध्यानी। दूसरों का भेजा खा कर अपने चेहरे पर चमक लाने वाला। दुनिया में फिलहाल बुद्धिजीवी कहलाता है। उपरोक्त अवस्था बड़ी परम होती है। समां इकदम ही मार्मिक एवं बड़ा अत्याचारी किस्म का होता है। पिछले जन्मों के कर्मों से कुछ मनुष्य बुद्धिजीवी होते हैं एवं पिछले जन्मों के कर्मों के कारण ही कुछ मनुष्य इन बुद्धिजीवियों को झेलने पर विवश होते हैं। सब अपना-अपना भाग्य है, संसार विविध है अलखनिरंजन..!, अलखनिरंजन..!
विचार की गठान बांधने में बुद्धिजीवी सबसे निष्णात होता है। अब विचार तो किसी भी दिशा से, किसी भी कोने से निकलकर आ सकते हैं। विचार हाथ में आते ही बुद्धिजीवी काम में जुट जाता है। विचार की कच्ची मिट्टी को पुराने विचारकों के कथोप-कथनों का पानी डाल-डालकर गूंथता है। मौका आने पर पैरों से भी कूंचता है। पुराने विचार यूं ही रौंदने के लिए होते हैं जानता है बुद्धिजीवी। कूंचो। मलीदा बना दो। कुछ न हो तो कचूमर ही निकाल दो। ताकी हमारे नए विचार मार्केट में चलन में आ सकें। पुराने नहीं रौंदे जाएंगे तो नए की थोक सप्लाई कैसे होगी। व्यावसायिक गणित दिमाग में होता है, पैर इस व्यावसायिक का पालन करने में जुटते हैं। प्रेरणा लेकर कूं च देता है बुद्धिजीवी । फिर गढ़ता है नए विचार। जमाने में नए चलन के लिए। फैशनपरस्त होता है बुद्धिजीवी नित नए चलन फेंकता रहता है बाजार में।

सुधार हो ना हो नित नए विचार फेंकना जरूरी है, जानता है बुद्धिजीवी, फेंकता भी रहता है। समाज भ्रष्टाचार पर उतारू है, तो प्राचीनकालीन नैतिकता और मूल्यहीनता की कॉकटेल से गढ़ देता है नए बुद्धिबम। फिर हर जगह बरसाता है। भाषण के साथ भावों पर भी पूरा ध्यान रहता है। अनुकूल मुख-मुद्राएं बनाने में प्रवीण होता है बुद्धिजीवी। मूल्यहीनता पर उसकी आंखों में उदासी छाती है। नैतिकता विहीनता के दौरान जेब में रखा पर्स टटोलकर निश्चित होकर एक आह सी निकालता है। जमाने को ज्ञान देने से पहले पर्स टटोलना जरूरी समझता है। मंच पर बैठे अन्यों पर उसे जरा भी भरोसा नहीं है। तभी तो इस भाषण की जरूरत पड़ी, बुद्धिजीवी को पता है। पर्स टटोलने के साथ तो उसकी इच्छा अंदर के रुपए तक दोबारा गिनने की होती है, लेकिन मंचीय मर्यादा का खयालकर विचार त्याग देता है। अन्यथा तो धुक-धुकी सी लगी रहती है। किसी का भी भरोसा नहीं है भैइया। आपको पता ही है कि जमाना खराब है।

इसी के साथ उसे दूसरी कई निजी नैतिकताएं भी घेर लेती हैं। आयोजक मानदेय देंगे कि नहीं? दो घंटे से गला फाड़ रहा हूं लिफाफा तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। वर्मा जी ने कहा तो था कि देंगे। हो सकता है न दे। आजकल लोगों की नैतिकता का कोई भरोसा नहीं है। किसी का भी माल मारने में कोई संकोच नहीं लगता है। फिर वर्मा का पिछला रिकॉर्ड तो खराब है। पंखों की खरीद में घपला कर चुका है। बड़ा आयोजक बनाता है, भ्रष्टाचारी कहीं का, टाइप के कुछ विचार भी बह निकलते हैं। तो इस तरह कई बार बुद्धिजीवी की चिंता लोगों को तारने के स्थान पर मानदेय के मामले में अटक जाती है।

हर विषय पर चिंतित रहना, उसके लिए उपाय सोचना यही तो बुद्धिजीवी का फुल टाइम जॉब है। देश को ज्ञान की पुड़िया थमाने के धंधे में रत हैं भैइया। सब तो अपने-अपने में लगे हैं हमीं नहीं ध्यान देंगे तो गर्त में जाएगा सब गर्त में। सो चिंताएं विराट हैं बुद्धिजीवी के सामने। समय का अभाव है। एक विचार फेंक नहीं पाता है कि लो पांच और पड़े हैं। इन पर कब काम करेगा। उनका मलीदा बनाकर नई दिशा प्रदान करने का डौल भी तो बिठाना है। फिर विचार ही तो काफी नहीं। उसका छापा जाना, भाषण आदि होना भी तो जरूरी है। फिर कई निजी चिंताएं भी तो हैं। तो ऐसे में निजी और सामाजिक चिंताओं के द्वंद्व में भी घिर जाता है। द्वंद्व उसे प्रिय है। दो-चार घंटे तो इसके आसरे निकल ही जाएंगे। फिर शाम तक कोई न कोई आ ही जाएगा। फिर उसका माथा खाएंगे। जब तक विचार से ही माथा-फोड़ी चलती है।

फिर शाम को कोई दिख जाता है तो बांछें खिल जाती हैं। शिकार पर तगड़ी पकड़ रखते हैं बुद्धिजीवी। कुछ तो शारीरिक रूप से भी बलशाली होते हैं। समाज के उत्थान के धंधे में उतरे हैं कहां, कब, कैसी जरूरत पड़ जाए। सो, भैइया दंड आदि पेल रखे हैं। मुंह से काम न चला तो आड़े बखत के लिए हाथ-पांव मजबूत होना चाहिए। ससुरो को वहीं मंच पर गिरा देंगे या पब्लिक में बिछा देंगे। आजकल साली मुफ्त की सलाह भी दो तो लोग किच-किच पर उतर आते हैं। बुद्धिजीवी दूर-दृष्टि रखते हैं और चश्मा भी पहनते हैं। पता नहीं किस टाइप की दृष्टि की कब जरूरत पड़ जाए।

देश की हर समस्या पर बुद्धिजीवी विचलित हो जाता है। उसका मन खौलने लगता है। हम यहीं बैठे हैं भाषण वे कल के छोकरे दे रहे हैं। हमारी भांति-भांति के विषयों पर बरसों की साधना व्यर्थ गई। लेखक का नाम उड़ाकर किताबों-किताबों ज्ञान दिमाग में भरा था, काम ना आएगा क्या? हतभाग्य! कैसे दिन आ गए हैं बुद्धिजीवी पड़ा है नए-नकोरे देश की समस्याएं सुलझा रहे हैं। और कहीं सच में सुलझा ना लें, इसका अलग डर है। फिर हमारी प्रखरता तो धरी रह जाएगी। तपस्या निष्फल ही रहेगी क्या? ज्ञान भरा है तो मौका नहीं, मौका मिला तो दूसरे को। हे! ईश्वर न्याय कर। कहीं सारी समस्याएं न सुलझा जाएं फिर हमारे होने का क्या? प्रभु, कोई चक्कर चला। कोई गुंतारा लगा। कोई मुद्दा हमारे लिए बना। ज्ञान न देंगे तो जी ना पाएंगे। अवसर दिला, प्रभु अवसर दिला। बुद्धिजीवी का एकाकी क्रंदन धरती का सीना फाड़ देता है। पर किसी को पता नहीं चलता। आसमान से बारिश वगैरहा की संभावना बन जाती है, पर होती नहीं है। कोई बात नहीं जाने दीजिए।

फिर विषय-मुद्दे को लेकर भी ज्यादा आग्रह नहीं है उसका। कोई भी चलेगा। कैसा भी चलेगा। काम चला ही लेंगे भैइया। न्यौतने वाली संस्था की भी ज्यादा परवाह नहीं है। अरे, जमाने के उत्थान में उतरे हैं, छोटा-बड़ा क्या? फूलों की माला की मोटाई से भी ज्यादा मतलब नहीं। मुद्दा सॉलिड होना चाहिए, तभी ना भाषण पेल पाएंगे। खैर, सॉलिड ना भी हो तो हम कहै के लिए हैं सॉलिड बना देंगे। तुम बस संस्था को छेंककर ले आओ। उसे बता भर दो हमीं हैं आसपास के कई कस्बों के एकमात्र बुद्धिजीवी। आर्डर पर ज्ञान देने को तत्पर। तुरंत सप्लाई की विशेषता से युक्त। सहज। आप गाड़ी न भेजोगे तो ऑटो में बैठकर आ जाएंगे। ऑटो न होगा तो किसी से भी लिफ्ट ले के आ जाएंगे। रास्ते में उसका भी भेजा खाते रहेंगे।

सप्ताह में एकाधा भाषण हो जाए। दो-एक जगह प्रकाशन हो जाए। एक-दो संगोष्ठियों में जुगाली की व्यवस्था जम जाए। तो भैइया उस वीक का हाजमा दुरस्त रहता है। चूरन की जरूरत ही नहीं पड़ती। कब्जियत से राहत रहती है। हालांकि कब्जियत पर असाधारण ज्ञान रखते हैं बुद्धिजीवी। कई एंगलों से कई घंटों तक बोल सकते हैं। योग से दूर भगाइए कब्जियत। व्यायाम से कब्जियत पर कहर ढाइए। सुबह-सुबह तांबे के लोटे में कुएं का पानी पीजिए। अंगूठे से ठुड्डी रगड़िए। बरगद की जड़ें खाइए। फलां शहर के बालकराम वैद्य जी से दो पुड़िया बंधवा लीजिए। ढिकां शहर के फलांराम से चिरौंजी ले आइए। सुबह-शाम सैर कीजिए। बस के नीचे आ जाइए। ट्रेन से टकरा जाइए। भैसे को सिर की टक्कर मार दीजिए। वगैरहा-वगैरहा। समस्त संसार की कब्जियत छुड़ाने के सैकड़ों प्रकार के ज्ञान से युक्त होते हैं बुद्धिजीवी। बस, मौका दो, मुद्दा दो, ज्ञानगंगा में सराबोर करने को बैचेन रहते हैं बुद्धिजीवी।

ज्ञान सबसे बड़ा दान है। इस प्रकार के दान के महत्व को दुनिया में केवल बुद्धिजीवी ही जानता है। ज्ञानदान में भयंकर तौर पर लिप्त रहता है। दान दोनों हाथों से करना चाहिए, इस बात का सख्त कायल होता है। वो दोनों हाथों-पांवों, मुंह-सिर आदि जैसा उससे बन पड़ रहा है, देने में जुटा है। इस अभियान में पात्र-सुपात्र-कुपात्र आदि की परवाह भी नहीं करता है। सबको पर्याप्त मात्रा में, पर्याप्त तौर पर देता ही रहता है। आमने-सामने ले लो तो ठीक वरना, पर्याप्त मात्रा में साथ में बंधवाकर भी रवाना करना नहीं भूलता है, आए हो तो बिना लिए कहां जाओगे बच्चू।

ज्ञानदान के दौरान समाधिस्थ अवस्था में पहुंच जाता है बुद्धिजीवी। चाहो तो इस बीच उससे दो गुर्दे मांग लो मना नहीं करेगा। विश्व कल्याण की इतनी ऊंची ललक होती है बुद्धिजीवी में की देवता वरदान देने उतर आएं तो वर मांगने की बात तक ना करे विमर्श पर उतर आए। चार-छह घंटे तक देवता का भी माथा खा ले। जहां सीधे तौर पर उसे नहीं बुलाया जाता है वहां फटे में पर्याप्त मात्रा में अपनी टांग घुसेड़ने में नहीं चूकता है। ज्ञान दान के लिए 24 घंटे उपलब्ध है। जब जी चाहे टेस्ट कर लो। रात में उठा लो। न नहीं करेंगे। निराश नहीं करेंगे। हर जगह मौजूद हैं। कोई समस्या हमारे बिना न सुलझेगी। सुलझने भी ना देंगे। ऐसे ही तो परम अवस्था प्राप्त नहीं होती है। हालांकि जब कोई बुलाने नहीं आता। सब कन्नी काटने लगते हैं तो ऐसे में ये दीवारों तक से बात करते हैं। गमलों के पौधों को ढ़ंग से उगने का सलीका सिखाते हैं। शून्य में द्वंद्वात्मक विमर्श चलाते हैं। निर्वात से बतकही करते हैं। सोते समय भी विचार मंथन चलाते हैं। सपने में ही कई समस्याएं सुलझा देने का दावा करते हैं। चूंकि समस्याएं विकट हैं समय कम है जानता है बुद्धिजीवी सो 24 घंटे, सातों दिन लगा पड़ा रहता है।
बड़ी विकराल कहानी है उसकी।

वैसे मेरे बारे में आपका क्या खयाल है। पिछले 3-4 पृष्ठों में मैं भी तो विचार के रूमाल से ज्ञान का सूट सिलने में लगा हूं क्या कहते हैं आप। कहीं ऐसा तो नहीं सोच रहे हैं कि कौन मेरे.. मतलब इन बुद्धिजीवी के मुंह लगे।
अनुज खरे

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