बुधवार, 19 मई 2010
नजीर अकबराबादी की तीन रचनाऍं
रोटियाँ
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ।
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ।
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ।।
रोटी से जिसका नाक तलक पेट है भरा।
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा।
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया।
ठट्ठा हँसी, शराब, सनम, साक़ी, इस सिवा।
सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ।।
जिस जा पे हाँडी, चूल्हा तवा और तनूर है।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है।
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ।।
आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम।
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम।
वां सर झुका के कीजे दंडवत और सलाम।
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम।
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ।।
इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर।
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर।
पेड़ा हर एक उसका है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर।
इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ।।
पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से।
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के।
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते।
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ।।
फिर पूछा उसने कहिये ये है दिल का नूर क्या?
इसके मुशाहिदे में है खिलता ज़हूर क्या?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या?
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या?
जितने ही कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ।।
रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गये।
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गये।
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गये।
चौदा तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गये।
ये कश्फ़ ये कमाल दिखाती हैं रोटियाँ।।
रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो।
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो।
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो।
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ।।
अब जिन के आगे मालपूये भर के थाल हैं।
पूरे भगत उन्हें कहो, साहब के लाल हैं।
और जिनके आगे रोग़नी और शीरमाल हैं।
आरिफ़ वही हैं और वही साहब कमाल हैं।
पक्की पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ।।
कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते।
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते।
जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ।।
रोटी से नाचे पयादा क़वायद दिखा दिखा।
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा लगा।
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है जा ब जा।
और इस सिवा जो ग़ौर से देखा तो जा ब जा।
सौ सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ।।
दुनिया में अब बदी न कहीं औ निकोई है।
ना दुश्मनी न दोस्ती ना तुन्दखोई है।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है।
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ।।
रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर।
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर।
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर।
गेहूं जुआर, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘।
हमको सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ।।
कश्फ़=प्रदर्शन; क़ुलूब=हृदय
आदमी
दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वह भी आदमी
ज़रदार बेनवा है सो है वह भी आदमी।
नेमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वह भी आदमी।।
मस्ज़िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ।
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्वाँ।
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज़ यां।
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ।
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी।।
यां आदमी पै जान को वारे है आदमी।
और आदमी पै तेग को मारे है आदमी।
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी।
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी।
और सुनके दौड़ता है सो है वह भी आदमी।।
अशराफ़ और कमीने से ले शाह ता वज़ीर।
ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर।
यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर।
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ए 'नज़ीर'।
और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी।।
रीछ का बच्चा
कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा।
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा।
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा।
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा।
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा ।।
था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा।
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा।
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला।
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा।
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा ।।
था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर।
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर।
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर।
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र।
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा ।।
झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल।
मुक़्क़ैश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल।
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल।
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल।
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा ।।
एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें।
एक तरफ़ को थीं, पीर-जवानों की कतारें।
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें।
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें।
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा ।।
कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर।
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर।
हम उनसे यह कहते थे 'यह पेशा है "क़लन्दर"।
हां छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले के अन्दर।
जिस दिन से ख़ुदा ने दिया, ये रीछ का बच्चा' ।।
मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया।
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया।
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया।
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया।
जो सबकी निगाहों में खुबा रीछ का बच्चा ।।
फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह।
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"।
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"।
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां वाह"।
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा ।।
इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद।
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद।
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद।
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’।
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा" ।।
जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया।
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया।
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया।
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया।
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा ।।
जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा।
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा।
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा।
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा।
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा ।।
यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर।
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर।
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा" ।।
कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछ का बच्चा ।।
जिस दिन से 'नज़ीर' अपने तो दिलशाद यही हैं।
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं।
सब कहते हैं वह साहिब-ए-ईजाद यही हैं।
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं।
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा ।।
नजीर अकबराबादी
लेबल:
कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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