शुक्रवार, 28 मई 2010
तांगे-रिक्शे पर बैन लगाकर क्या होगा
नीरज नैयर
आर्थिक प्रगति की दौड़ में भागे जा रही दिल्ली में अब तांगे दिखाई नहीं देंगे। नई दिल्ली के बाद पुरानी दिल्ली में भी घोड़ा गाड़ियों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वैसे तांगे वालों के पुर्नवास के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं लेकिन वो कितने कारगर साबित होंगे इसका इल्म सरकार को भी बखूबी होगा। तांगे शायद सरकार को संपन्नता की चादर में पैबंद की माफिक लग रहे होंगे, घोड़े के टापों की अवाज उसके लिए सिरदर्द बन रही होगी, इसलिए शीला सरकार को प्रतिबंध के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझा। घोड़ा गाड़ी पर बैन लगाने से महज तांगा चलाने वाले ही प्रभावित नहीं होंगे बल्कि घोड़े के पैरों में नाल लगाने वाले, चाबुक बनाने वाले, गाड़ी बनाने वाले जैसे लोगों को भी रोजगार के दूसरे विकल्प तलाशने होंगे। इसका सीधा सा मतलब है कि बेराजगारों की फेहरिस्त में कुछ लोग और शामिल हो जाएंगे। आधुनिक जमाने में जहां मेट्रो ट्रेन और ट्रांसपोर्ट के कई अन्य अत्याधुनिक साधन मौजूद हैं, तांगों को पुराना जरूर कहा जा सकता है मगर इनकी उपयोगिता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। ये बेहद चिंतनीय विषय है कि एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीरता बरतने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इको फ्रेंडली ट्रांसपोर्टेशन को हतोत्साहित करने में लगे हैं। हो सकता है कि तंग गलियों में घोड़े गाड़ियों की आवाजाही से परेशानियां बढ़ जाती हों लेकिन इसका हल प्रतिबंध लगाकर तो नहीं निकाला जा सकता। तांगे या रिक्शे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं देते बावजूद इसके भी हम महज आधुनिक दिखने की धुन में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर दुनिया के साथ कदम साथ कदम मिलना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन पारंगत साधनों को प्रोत्साहित करना जो हमारे भविष्य को प्रभावित करते हैं।
दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था, वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे। इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैरजिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 वर्ष की अवधि में करीब तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में पर्यावरण के लिए घातक कही जाने वाली गैसों के उत्सर्जन में 1994 की तुलना में 2007 तक आए परिवर्तन का आंकलन है। हालांकि ये रफ्तार अमेरिका और चीन के मुकाबले काफी कम है। अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है। पर फिर भी तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी को कहीं न कहीं रणनीति पर पुनर्विचार के संकेत के रूप में देखा ही जाना चाहिए। ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है। ये गैसंे खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा लगातार फैल रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है। इस कवच के कमजोर पड़ने का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना। मौजूदा वक्त में ही हम काफी हद तक उस स्थिति को महसूस कर रहे हैं। इस साल गर्मी ने अप्रैल-मई में ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। अब जरा सोचिए कि अगर तापमान बढ़ने की रफ्तार कुछ यही रही तो आने वाले कुछ सालों में क्या दिन में घर से बाहर निकलना मुमकिन हो पाएगा। हो सकता है कि दिन में लगने वाले बाजार रात में लगे, लोग रात को शॉपिंग पर जाएं, दफ्तरों में काम रात में हो। यानी दिन रात बन जाए और रात दिन। ये बातें अभी सुनने में जरूर अजीब लग रही होंगी, लेकिन जितनी तेजी से मौसम में परिवर्तन हो रहा है, उसमे कुछ भी मुमकिन है। इसलिए विश्व के हर मुल्क को अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करने जैसे कदम उठाने होंगे। छोटे-छोटे प्रयासों से ही बड़ी-बड़ी योजनाओं को मूर्तरूप दिया जा सकता है। अगर अब भी हम विकसित और विकासशील के झगड़े में उलझकर एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहेंगे तो हमारा आने वाला कल निश्चित ही अंधकार मे होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने का सबसे कारगर तरीका यही हो सकता है कि प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम किया जाए, और उसके लिए यातायात के परंपरागत साधनों को अपनाने में शर्म हरगिज महसूस नहीं होनी चाहिए। फिलीपिंस की राजधानी मनीला ने इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, जिसपर विचार किया जा सकता है। मनीला प्रशासन ने बैटरी चलित बसों को पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के काम में लगाया है और इसमें यात्रा बिल्कुल मुफ्त रखी गई है। ऐसा निजी वाहनों के प्रयोग में कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। सारा खर्चा प्रशासन खुद वहन कर रहा है। इस योजना के शुरू होने के बाद से काफी तादाद में लोगों ने दफ्तर आदि जाने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग बंद कर दिया है। जरा अंदाजा लगाइए कि प्रतिदिन यदि 100 वाहन भी सड़क पर नहीं दौड़े तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचा होगा। भारत में तांगे-रिक्शे के रूप में अच्छे-खासे विकल्प मौजूद हैं मगर स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार दोनों ही आधुनिकता का चोला ओढ़ने पर आमादा हैं। यूएन की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ समय पूर्व ये खुलासा किया गया था कि आने वाले 20 से 30 साल में भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में शुमार होगा। यहां, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसारएशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉमिर्ंग से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। ऐसे ही सांइस पत्रिका की प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस लिहाज से देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के खतरे को भारत सरकार जितना कम आंकती आई है, हालात उससे ज्यादा खराब होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकार जितनी ढुलमुल है उतनी ही सुस्त यहां की जनता भी है। अगर सरकार की तरफ से कोई पहल की भी जाती है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग उसका खुलेदिल से स्वागत करेंगे। अर्थ ऑवर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। देश की आबादी का एक बड़ा तबका इसे महज चोचलेबाजी करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है, जबकि ग्लोबल वॉमिर्ंग के खतरों से वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए पर्यावरण मंत्रालय को अब अपनी आराम तलबी की आदत से बाहर निकालकर कुछ कदम उठाने चाहिए, उसे महज अर्थ ऑवर जैसी अपील करने के बजाए दिशा निर्देश तय करने होंगे जिसका पालन करने के लिए हर कोई बाध्य हो। कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जैसे ताजमहल आदि के आस-पास एक निर्धारित परिधि में वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध है, केवल बैटरी चलित वाहन ही वहां जा सकते हैं। इस व्यवस्था का शुरूआत में जमकर विरोध हुआ लेकिन आज सब इसके आदि हो चुके हैं। इसी तरह वो प्रमुख शहर जो प्रदूषण फैलाने में सबसे आगे हैं, के कुछ इलाके चिन्हित करके वहां ऐसी व्यवस्था लागू करने पर विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। सड़कों पर जितने ज्यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही अल्हादित करने वाली होंगी। अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है। कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे।
नीरज नैयर
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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