शुक्रवार, 21 मई 2010
आज भी भाव-विभोर कर देता है बाँस गीत
अशोक कुमार टंडन
छत्तीसगढ के यदुवंशी कहे जाने वाले राउत समुदाय में प्रचलित बांस लोकवाद्य को फूंककर विशेष ध्वनि के साथ गीत एवं गाथा की प्रस्तुति बांस गीत की अद्भुत कला विलुप्तता के कगार पर पहुंच चुकी है । बावजूद इसके कहीं-कहीं अब भी इस कला की अभिव्यक्ति करते लोग नजर भी आ जाते हैं । वहीं कुछ कला मर्म ऐसी विधाओं को संरक्षित करने में जुटे हुए हैं ।
बांसगीत के बारे में कहा जाता है कि यह बांसुरी का ही एक रूप है । कभी वनों में पोले बांस से हवा गुजरने से उत्पन्न प्राकृतिक ध्वनि ही बंशी अथवा बांसुरी की प्रेरक बनी। तृण जाति की प्रसिद्ध वनस्पति विशेष बांस की ढाई से तीन हाथों तक लंबी इस बांस की पोली नली में बांसुरी की भांति छिद्र बना लेते हैं । चार की संख्या वाले छिद्रों में से एक आर.पार होता है और शेष तीन फलक तक सीमित होते हैं । इन्हीं छिद्रों से मुंह से फूंक कर स्वर लहरी प्राप्त की जाती है । वादक इसके छिद्रों को अपनी अंगुलियों से आवृत-अनावृत कर आरोह.अवरोह के जरिए स्वर संचालन करते हैं । सामाजिक.सांस्कृतिक संस्था.बिलासा कला मंच के संयोजक एवं बांसगीत के संदर्भ में शोध कार्य करने वाले डा.सोमनाथ यादव ने े बातचीत में बताया कि छत्तीसगढ में छरामीण अंचलों में निवासरत मुख्यत: राउत समुदाय के लोग इस कला में पारंगत माने जाते हैं । हालांकि अपवादस्वरूप कहीं कहीं अन्य लोग भी बांसगीत का प्रदर्शन करते देखे जाते हैं ।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ में बांस गीत जैसी कई लोक कलाओं को संरक्षित करने की दिशा में कई स्तर पर क्रियाशील रहने वाले डा. यादव को पिछले वर्ष राष्ट्रीय संगीत अकादमी ने बनारस में बांसगीत पर किए गए शोध पठन के लिए आमंत्नित किया गया था । इसी तरह दक्षिण मध्य क्षेत्नीय सांस्कृतिक केंद्र नागपुर द्वारा बांस गीत के संदर्भ में एक शोध ग्रंथ का प्रकाशन तथा डाक्यूमेंटरी फिल्म का निर्माण भी किया गया है । श्री यादव बताते हैं कि बांस गीत गायकों के लिए गांव की किसी गली का चबूतरा ही उनका मंच बन जाता है । बांसकहार अपने बांस से ध्वनि निकालकर स्वरों में ढालते हुए प्रचंड स्वरघोष उच्चारित करता है मानो शुभ कार्य के आरंभ से पूर्व शंखघोष कर मंगल ध्वनि से आपूरित कर देना चाहता हो । इस घोष को छत्तीसगढी में.घोर.कहा जाता है। बांसगीत गायकों की टोली में कम से कम तीन सदस्य होते हैं । एक बांस गीतों का गायन करने गीतकहार.दूसरा बांस वादन करने वाला बांसकहार तथा तीसरा गीतकहार के राग में राग मिलाने वाला रागी कहलाता है । गीतकहार अपने हाथों को कानों से लगाकर ही गाता है जिससे वह हाथों को संचालित करके गाने का अवसर नहीं जुटा पाता । फिर भी वह पूरी देह को लहराने.मुख पर विभिन्न भावों को व्यक्त करने तथा उठने बैठने का संयोजन कर ही लेता है । भाव भंगिमाओं के अतिरिक्त इनमें स्वरालाप एवं स्वर परिवर्तन की अद्भुत क्षमता होती है । गीतकहार बीच-बीच में अर्थ भी स्पष्ट करना नहीं भूलता ताकि सुनने वालों को कथानक को समझने में आसानी हो सके ।
बांस गीतों की टोली में शामिल रागी की भूमिका महत्वपूर्ण भले नहीं होती हो फिर भी वह टोली का सक्रिय सदस्य होता है । लोक कथाओं में हुंकृति भरते हुए वह गीतकहार के काम को सरल बनाता है। जब कभी गायक पंक्ति को शुरू करके छोड देता है उसे वही पूरा करता है ।
वैसे बांस गीत गायकों के टोली या मंडली का नायक गीतकहार ही माना जाता है । गीत कहार अपने कानों में हाथ लगाकर लहराते हुए विविध भाव. भंगिमाओं से अपनी तान छेडता है । गीतों का आरंभ में ये विभिन्न देवी.देवताओं को जोहार.प्रणाम.करते हैं जिसे स्थानीय बोली में ‘जोहारनीन’ कहते हैं । गीतों में अन्तर्निहीत भावों के अनुरूप गीतकहार स्वयं को नायक के स्थान पर प्रतिस्थापित कर प्रसंगानुकूल मुद्राओं का संयोजन भी करने लगता है । शोधकर्ता के मुताबिक ऐसे मौके पर इन्हें देखकर महाकवि निराला याद आ जाते हैं, जो कभी-कभी गाते हुए इतने तन्मय हो जाते थे कि अंगुलियां द्रुत वेग से ही नहीं चलते बल्कि उनका प्रहार इतना सबल हो जाता था मानों वह तबले के बोल भी हारमोनियम से ही निकाल कर मानेंगे । छन्दशा में नए प्रयोग करने वाले कवि को ताल से भी दिलचस्पी हो तो कोई अतिश्योक्ति नहीं ।
आधुनिक एवं वैश्विक उदारीकरण के जमाने की नई पीढ़ी के लोग जिस तरह अपने सांस्कृतिक मूल्यों को खोते जा रहे हैं, उससे अलग अलग सामाजिक पहचान बने अनेकों क्षेत्नीय और आंचलिक लोक कलाएं अतीत का विषय बनती जा रही है । सरकारी एवं निजी उपक्रम कभी कभी सामयिक अवसरों पर आयोजित कार्यक्रमों के जरिए ऐसे कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के लिए एक मंच जरूर उपलब्ध कराते हैं । सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ऐसी लोक कलाओं को किसी न किसी रूप में प्रोत्साहन की आवश्यकता भी लाजिमी है ।
अशोक कुमार टंडन
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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