सोमवार, 10 मई 2010
देशी नार्को टेस्ट पर तो रोक नहीं लगी है ना
डॉ. महेश परिमल
कोर्ट ने कसाब को आखिर फाँसी की सजा सुना ही दी। इसके बाद भी फाँसी का फंदा कसाब की गर्दन से बरसों दूर है। कसाब तो उम्र में काफी छोटा है, इस देश में इससे भी शतिर अपराधी हुए हैं, जो किसी भी प्रताडऩा से टूटते नहीं हैं। गुजरात के दंगों के बाद से इस देश में नार्को टेस्ट की शुरुआत हुई। आज यह अपने बदले हुए स्वरूप में है। लेकिन ऐसे बहुत से मामले हैं, जिसमें इस टेस्ट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब यदि इसे अपराधी पर ही छोड़ दिया जाए कि वह नार्को टेस्ट से गुजरना चाहता है या नहीं, तो यह तय है कि शातिर अपराधी यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके भीतर का राज बाहर आए। वैसे जिन मानवाधिकार संस्थाओं द्वारा दायर की गई जनहित याचिका के संदर्भ में सुप्रीमकोर्ट ने यह निर्णय दिया है, वे संस्थाएँ जरा अपने आसपास ही देख लें, जहाँ रोज ही मानव अधिकारों का सरेआम उल्लंघन हो रहा है। सुप्रीमकोर्ट के एक नहीं अनेक निर्णय आज भी अमल में नहीं लाए जा रहे हैं। पुलिस थानों में आज भी जो देशी नार्को टेस्ट होते हैं, वे किसी से छिपे नहीं हैं। पर अपराधियों को तोडऩे के लिए कुछ तो ऐसा करना ही पड़ेगा, जिससे उनके भीतर का सच बाहर आ सके।
कानून होता ही है अपराधियों को सजा देने के लिए। पर जब उसी कानून का सहारा लेकर अपराधी सजा से बचने लगे, तो फिर कानून का क्या मतलब? कुछ ऐसी ही आशंकाएँ प्रकट की जा रहीं हैं, नार्को टेस्ट को लेकर सुप्रीमकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को लेकर। सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि अब किसी भी अपराधी का नार्को टेस्ट उसकी अनुमति के बिना नहीं लिया जा सकता। अपने फैसले में सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि बिना इजाजत किसी व्यक्ति के नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग परीक्षण नहीं किया जा सकता। इसे गैरकानूनी घोषित करके सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों की निजी स्वतंत्रता और निजता के अधिकार की रक्षा की है, जो हमारे संविधान में बुनियादी अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जांच एजेंसियों के लिए संदेश यह है कि वे जांच के तौर-तरीकों में ज्यादा कुशाग्रता व दक्षता लाएं। वे अक्सर घटनाओं की पड़ताल में घोर लापरवाही बरतती हैं और फिर उसकी भरपाई संदिग्ध व्यक्तियों के नार्को जैसे परीक्षणों से करती हैं। मुकम्मल जांच हो तो इन परीक्षणों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, जो वैसे भी प्रमाण के तौर पर वैध नहीं माने जाते।
अदालत ने आदेश दे दिया है, इस पर अब अमल भी शुरू हो जाएगा। पर इस फैसले का सबसे अधिक लाभ शातिर अपराधी ही उठाएँगे, यह तय है। यह सभी जानते हैं कि जब भी कोई बड़ा अपराधी पकड़ा जाता है, तो उससे सच उगलवाने के लिए नार्को टेस्ट किया जाता है। इससे अपराध की कई कडिय़ाँ जुड़ जाती हैं। इसे सभी स्वीकारते हैं कि यदि अबू सलेम और करीम तेलगी का नार्को टेस्ट न किया जाता, तो वह एक शब्द भी नहीं बोल पाते। इसी नार्को टेस्ट ने ही कई राज खुलवाए हैं। अपराधी यदि शातिर हो, तो अपनी ओर से पूरी कोशिश करता है कि सारी बातें छिपा ली जाएँ। पर नार्को टेस्ट पर उसका बस नहीं चलता। वह सच उगल देता है। उनका यही सच कई रहस्यों को उजागर करता है। लेकिन अब कोई भी अपराधी यह नहीं चाहेगा कि उसका नार्को टेस्ट हो। वह सच छिपा ले जाएगा। आतंकवाद से जुड़े कई रहस्य परदे के पीछे ही रह जाएँगे।
यह मामला मानवाधिकार का पोषण करने वाली अनेक संस्थाओं के प्रयासों से सामने आया है। ये संस्थाएँ यदि अपने ही आसपास नजर डालें, तो उनके सामने रोज ही मानव अधिकारों का हनन होने की घटनाएँ दिख जाएँगी। परिवार के साथ आप यदि कहीं जा रहे हों और आपका स्कूटर बिगड़ जाए, ऐसे में उसे मेकेनिक के पास ले जाना वाजिब हो, वहाँ पर मेकेनिक के नाम पर एक छोटा बच्चा मिलेगा, जिसमें यह क्षमता होती है कि वह आपका स्कूटर ठीक कर देगा। इस वक्त क्या आप यह सोचेंगे कि यह तो बाल श्रमिक है, इससे काम करवाना कानून के खिलाफ है। उस समय आपकी सबसे बड़ी जरुरत बिगड़ा स्कूटर बनवाना है। स्रुप्रीमकोर्ट ने तो कह दिया है कि शाम छह बजे के बाद होने वाले शोर पर नियंत्रण हो, पर क्या वह हो पा रहा है? सड़क किनारे ठेलो, गुमटियों पर बिकने वाली खाद्य सामग्री पर रोक लगाए तो बरसों हो गए, क्या उस पर अमल हो पाया? वाहनों में लगने वाले तेज आवाज करने वाले हार्न पर तो कब का प्रतिबंध लग चुका है, क्या आपने सचमुच कई बरसों से प्रेशन हार्न की आवाज नहीं सुनी? ऐसे कई निर्णय हैं, जो आज तक अमल में नहीं लाए जा सके हैं। फिर भी यदि सुप्रीमकोर्ट ने नार्को टेस्ट पर प्रतिबंध लगाया है, तो इसका स्वागत करना ही होगा। इसके बाद भी अपराधियों पर देशी नार्को टेस्ट पर तो रोक नहीं लगाई गई है। अपराधी न मानें, तो इस देशी टेस्ट के लिए भला कौन रोक सकता है? जाते-जाते यह भी जान लें कि आखिर क्या हैं, ये या है नार्को, पोलीग्राफ, और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट!
क्या है नार्को, पोलीग्राफ, और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट!
नार्को-परीक्षण में संदिग्ध से महत्वपूर्ण जानकारियां निकलवाने के लिए उसकी शिराओं के भीतर कृत्रिम निद्रावस्था की दवाएं (ट्रूथ ड्रग्स) दी जाती हैं। पोलीग्राफ को लाई डिटेक्ट टेस्ट या झूठ पकडऩे वाले परीक्षण के रूप में जाना जाता है। इसमें संदिग्ध से प्रश्नों की एक श्रृंखला पूछे जाने के दौरान उसमें होने वाले दैहिक परिवर्तनों जैसे रक्तचाप, नाड़ी, श्वसन और त्वचा संबंधी बदलावों पर नजर रखी जाती है। जब संदिग्ध प्रश्नों के भ्रामक या गलत जवाब देता है तो उसकी इन शारीरिक गतिविधियों में जो बदलाव देखे जाते हैं, वे सही जवाब देते समय होने वाले बदलावों से अलग होते हैं।
ब्रेन-मैपिंग में मस्तिष्क में उठने वाली विभिन्न आवृत्तियों की तरंगों का अध्ययन किया जाता है। परीक्षण में अपराध शाखा के विशेषज्ञ तंत्रिका विज्ञान की विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। अपराध के दृश्यों को पहचानने वाले संदिग्ध के मस्तिष्क की तरंगों में जो परिवर्तन देखे जाते हैं वे निर्दोष व्यक्ति के मस्तिष्क की तरंगों से अलग होते हैं।
ब्रेन-मैपिंग में व्यक्ति के सिर से सेंसर्स को जोड़ दिया जाता है और उसे एक कंप्यूटर के सामने बिठा दिया जाता है। इसके बाद संदिग्ध को अपराध से जुड़ी तस्वीरें दिखाई जाती हैं या उससे जुड़ी ध्वनियां सुनाई जाती हैं। सिर से जुड़े सेंसर तस्वीरों को देखते समय या ध्वनियां सुनते समय मस्तिष्क में उठने वाली तरंगों को दर्ज कर लेते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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As far as Kasab is concerned,if circumstances change we won't hesitate to send him to his home country accompanied by our home minister.
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा विवेचना / दरअसल न्याय कर देना न्याय नहीं है ,उसे आम जनता और अपराधियों को महसूस कराना, असल न्याय है / आज हमारी अदालतें ऐसा न्याय कर रही है या ऐसे फैसले ले रही है जो अव्यवहारिक और आम जनता के भावनाओं से काफी दूर होती है ,जिससे लोगों को न्याय महसूस ही नहीं होता / आज न्यायाधीशों से ज्यादा बुद्धिमान याचिका कर्ता और शातिर वकील हैं ,जिससे भी न्याय का स्तर गिरता जा रहा है / इस स्थिति में सुधार के लिए सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों को हर दो महीने पे,आम जनता से सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए ,जिससे न्याय को और प्रभावी बनाया जा सके / अभी तो न्याय सिर्फ उसी को मिल पता है जिसके पास ताकत और पैसा है और यह पूरी मानवता के लिए शर्मनाक है /
जवाब देंहटाएंlekh accha laga......
जवाब देंहटाएंdhanyvad.