गुरुवार, 2 जुलाई 2009
अपना घर
भारती परिमल
अपना घर होने का सपना भला किन आँखों में नहीं पलता। आँखे चाहे अमीर की हो, या गरीब की, वो यह सपना देखती है और इसके पूरा होते ही वह स्वयं को दुनिया का सबसे अमीर आदमी समझने लगता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि इस विशाल धरती पर ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा उसका अपना होता है। इसी टुकड़े पर बसती है अरमानों की दुनिया। बनता है सपनों का महल जिसे हम घर ‘‘अपना घर’’ नाम देते हैं।
ऐसा ही सपना था प्रकाश बाबू का। नाम के अनुरूप अपने स्वभाव से उजाला फैलाने वाले प्रकाश बाबू की ज़िन्दगी में उजालों ने कम मगर अंधेरों ने ज़्यादा दस्तक दी थी, बल्कि यँू कहें कि पड़ाव डाल दिया था। अंधेरों के फंदे बुनते चले गए और इनमें परेशानियाँ, दुःख-दर्द, तनाव, उलझनें उलझती चली गई। हर सुबह एक नई परेशानी के साथ जन्म लेती। तनाव मे दिन गुज़रता और आने वाले कल की फिक्र में दिन डूब जाता। चिंताओं की बनती-बिगड़ती रेखाओं के बीच रात का सफर तय होता और फिर एक नया दिन शुरू होता। जिससे जूझने के लिए प्रकाश बाबू स्वयं को तैयार करते।
यह तस्वीर हर उस मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया की मिल जाएगी जो अमीरी के ठाट-बाट अपना नहीं सकता, दिखावे की ज़िन्दगी जी नहीं सकता और समाज जिसे ग़रीबी की श्रेणी में रख नहीं सकता। ऐसे त्रिशंकु मुखिया की क्या हालत होती है यह वह खुद ही समझ सकता है। प्रकाश बाबू की हालत भी वैसी ही थी। उस पर मेहरबानी यह कि बड़ा परिवार जिसमें एक बूढ़ी माँ, तीन जवान होती बेटियाँ और जमाने की हवा के साथ रूख बदलते दो लड़के। हाँ गृहस्थी की चक्की में उनके साथ-साथ पिसने वाली जीवनसंगिनी भी थी। परिवार का मुखिया होने के नाते घर का पूरा दायित्व उन पर ही था। जिसे वे निभाने की पूरी कोशिश भी करते। एक मशीन की तरह जुटे हुए थे वे अपनी गृहस्थी में। दुनिया की तमाम रंगीनियों से दूर उनकी आँखों में एक ही सपना था- अपना घर बनाने का सपना। जिसके लिए वे पिछले कई वर्षो से मेहनत करते चले आ रहे थे। आर्थिक तंगी के बावजूद वे ओवर-टाईम करके, अपने हिस्से का चाय, सिगरेट और पान का खर्चा बचाकर उसे जोड़ते और बैंक में जमा करते। पत्नी कभी टोकती तो उसे समझााते हुए प्यार से कहते- एक ही तो सपना है मेरा। बस उसे पूरा हो जाने दो फिर तो आराम से रहँूगा। अपने आप पर खूब खर्च करूँगा। यह कहते हुए, पैबंद लगी पेंट पहने, घिसी हुई चप्पल को जबरदस्ती पैर में डाले, चश्मे की छड़ी को अपनी ही हाथों दुरस्त करते वे निकल पड़ते मिल की ओर। मिल के काम में उन्होंने कभी लापरवाही नहीं की। हमेशा जी-तोड़ मेहनत की। इसी मेहनत का नतीजा था कि बड़े बाबूओं की उस पर विशेष मेहरबानी थी। उनहें माह में 20-22 दिन का ओवर-टाईम मिल ही जाता था। इसीलिए उनका सपना बड़ा होता गया।
नन्हीं रितु जब तीन साल की थी, तब उन्होेंने यह सपना अपनी आँखों में बसाया था। आज रितु के साथ-साथ यह सपना भी जवान हो गया और उनकी आँखे बूढ़ी! मगर इतने वर्षो में भी वे इतने रुपए नहीं जोड़ पाए कि जिससे वे अपनी जमीन ले सके या बना-बनाया लेट खरीद सके।
प्रकाश बाबू मरने से पहले मरना नहीं चाहते थे। सपने टूटने से पहले टूटना नहीं चाहते थे। एक चिड़िया भी तिनका-तिनका जोड़कर अपना घोंसला बनाती है। सरदी, गरमी और बरसात से बचने के लिए, अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए जी-तोड़ मेहनत करती है। फिर वे तो एक इंसान थे। यदि वे हास स्वीकार कर लेते, तो उनकी अब तक की मेहनत बेकार चली जाती। इस उलझी हुई ज़िन्दगी में तमाम परेशानियों के बावजूद उन्होंने आशाओं के दामन की ओट में सपनों के दीप को जलाए रखा था। यह बूझ न जाए, सतत जलता रहे, इसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ा फैसला किया। एक ऐसा फैसला जो कोई भी कमज़ोर व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसा फैसला जोे उन्हें उनकी वर्षो की प्रतीक्षारत् मंज़िल के करीब पहुँचा दे। इस फैसले से उन्होंने घरवालों को भी शामिल नहीं किया और चल पडे़ अपने सपने को पूरा करने की आखिरी कोशिश में।
दो दिन पहले अख़बार में एक विज्ञापन छपा था- ‘‘किडनी चाहिए’’, ‘‘कृपया वे ही व्यक्ति संपर्क करें जिनका ब्लड गू्रप ‘बी-निगेटिव’ हो।’’ उनका ब्लड गू्र्रप ‘बी-निगेटिव’ ही था। वे विज्ञापन की कटिंग लेकर उसमें बताए गए हाॅस्पीटल की ओर चल पड़े। इसे उस बीमार व्यक्ति का सौभाग्य कहें या प्रकाश बाबू का कि डाक्टरों ने उनकी किड़नी निकालने का निर्णय लिया। करीब दो-तीन दिन की हाॅस्पीटल की भाग दौड़ के बाद अंत में उन्होंने अपने शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग खोकर नोटों की मोटी गड्डियाँ पा ली। उनकी हथेली पर गड्डियोें के रूप में ‘‘अपना घर’’ का सपना सच हो रहा था। अब उनके पास इस सपने को सच करने के लिए पर्याप्त रकम थी। फिर क्या था- शुरू हो गई उनकी भागमभाग। मंज़िल के करीब आने पर, थक कर चूर हो जाने पर भी इंसान के हौसले इतने बुलंद हो जाते हैं कि उन्हें थकान महसूस ही नहीं होती। यही हाल प्रकाश बाबू का था। उनकी आँखों में चमक थी। पैरों में वह गति थी, जो हवा को भी मात दे दे। आवाज़ में वह जोश कि सामने वाला उनकी बात मानने को सहज तैयार हो जाए। कई दलालों के चक्कर लगाने के बाद, कितने ही अपार्टमेंट देखने के बाद, कहीं पर बिजली पानी की सुविधा तो कहीं पर आसपास का वातावरण, तो कहीं पैसों की ऊँच-नीच। इन सबके बाद एक जगह सौदा तय हुआ मगर लाख कोेशिश करने के बाद भी उन्हें ग्राउंड लोर का मकान नहीं मिल पाया। इतने वर्षो की मेहनत से बचाए गए पैसे और किडनी बेच कर मिले पैसों से भी बढ़ती महँगाई में इतने पैसे जमा न हो सके कि वे नीचे का ्लेट खरीद पाते। आखिर ग्राउंड लोर की कीमतें ही इतनी अधिक थी कि उन्हें लेना प्रकाश बाबू के वश में न था। फिर भी एक रुपया भी कर्ज़ नहीं लेना चाहते थे।
यह जानते हुए भी कि एक किडनी के सहारे ज़िंदा रहने वाले मनुष्य के लिए सीढ़ियाँ चढ़ना उतरना ज़िन्दगी से खेलने के बराबर होता है, फिर भी उन्होंने चैथी मंज़िल का मकान खरीद ही लिया। सिर्फ इसलिए कि उनका ‘‘अपना घर’’ होने का वर्षो का पलता सपना पूरा हो।
आज इस स्वप्न के पूरा होने पर प्रकाश बाबू बेहद खुश हैं। गृह प्रवेश में उन्होंने अपने तमाम छोटे-बड़े परिचितों को न्यौता दिया है। वे इस तरह से खुश नज़र आ रहे हैं, जैसे तीन साल का छोटा बच्चा अपने जन्म दिवस पर खुश होता है। उनकी भाग-दौड़ उम्र को पीछे धकेल रही है और वे अपने काम में पूरी तरह डूबे हुए हैं। घर की देहरी पर तोरण बांधना, कलश रखना, पंडित के आने पर उन्हें पूजन सामग्री देना। हर आने वाले का सत्कार करना। इस तरह सारे काम का बोझ चे खुद अपने कंधे पर उठाए हुए हैं।
सावित्राी कह भी रही है कि आप इतनी भागदौड मत कीजिए। हम सभी तो हैं। लेकिन वे किसी की भी सुनने को तैयार नहीं। आखिर गृह प्रवेश की रस्म पूरी हुई। ज़िन्दगी में पहली बार ही सही, लोगों ने प्रकाश बाबू के यहाँ दावत ली और मज़े से ली। सभी खुशी-खुशी अपने घर लौटे और सभी को विदा कर जब वे सीढ़िया चढ़ रहे थे तो दिन भर की थकान उनके चेहरे पर नज़र आई। हाथ चेहरे पर गए तो हथेली पसीने से तरबतर थी और माथा तप रहा था। उन्हें डाक्टर की सलाह याद आई कि कुछ महीनेे तक आपको आराम करना पडेगा, भारी काम, दौड़भाग का काम या सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने का काम रोकना पड़ेगा। इसके विपरित पिछले एक महीने से वे यही तो करते चले आ रहे थे। सीढ़ियों पर एक-एक कदम रखना उनके लिए भारी हो रहा था। पसीने से पूरा शरीर भीग गया था। कमज़ोरी के कारण पैर काँप रहे थे। वे अपने पूरे शरीर का भार उठाए हुए पूरी ताक़त के साथ एक-एक पैर ऊपर रख रहे थे। उनकी यह हालत देखकर लग ही नहीं रहा था कि ये वही प्रकाश बाबू हैं, जिन्होंने आज सारा दिन भागदौड़ की है। खुशी और उमंग में डूबे हुए प्रकाश बाबू के चेहरे पर थकान, निराशा नज़र आ रही थी। बड़ी मुश्किल से अपने आपको संभाले हुए वे चैथी मंज़िल तक पहुँचे। अपने घर की देहरी के पास पहुँचकर उनकी हिम्मत जवाब दे गई। वे वहीं गिर पड़े। देहरी पर दाँयी तरफ रखा मिट्टी का कलश टूट गया और पानी बिखर गया। साथ ही प्रकाश बाबू भी ! ! ?
प्रकाश बाबू जो ज़िन्दगी भर अपने सपने को पूरा करने का प्रयास करते रहे, आज वो सपना पूरा भी हुआ तो उनकी आँखे पथरा गई और उनकी पथरीली आँखों में रह गया अपने घर का सपना - - । जो आज पूरा होकर भी अधूरा था।
भारती परिमल
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कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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एक सशक्त रचना ..मध्यमवर्गीय सपने ऐसे ही टूटते हें ...
जवाब देंहटाएंapna ghar. aaj madyamvargiy logo ke liye ek sapna ban jo sirf kismat walo kohi mil paataa hey lekin sanskarit sataan ho tabhi nahi to apna ghar paraya hone me der nahi lagti dhanyavad ek achhi kahani ke liye
जवाब देंहटाएंsashakt aur sath hee marmeek......
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