मंगलवार, 30 जून 2009

शिक्षारूपी अंधेरी गुफाओं के साथी, आज के विद्यार्थी


डॉ. महेश परिमल
स्कूल-कॉलेज खुलने के दिन करीब आ गए। इसी के साथ शुरू हो गई बच्चों और पालकों की जद्दोजहद। यह बड़े ही दु:ख की बात है कि आज की शिक्षा किसी भी रूप में बच्चों को आत्मनिर्भर नहीं बनाती, फिर भी पालक अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देने के लिए विवश है। देश में शिक्षा माफिया इतना अधिक बलशाली है कि सत्ता किसी की भी हो, इनका काम कभी नहीं रुकता। यह तंत्र बेखौफ अपना काम कर रहा है और सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। आज की शिक्षा के बोझ तले देश के मासूम कुचले जा रहे हैं, उनका भविष्य चौपट हो रहा है और सरकार तमाशा देख रही है। यह बताते हुए शर्म आती है कि सीबीएससी बोर्ड की परीक्षा में हर वर्ष 6 लाख विद्यार्थी शामिल होते हैं, इसमें से 4 हजार आत्महत्या कर लेते हैं। आत्महत्या की वजह वे स्वयं नहीं, बल्कि वे व्यवस्थाएँ हैं, जो हमारे देश को खोखला कर रही हैं। इसके अलावा जो बच्चे आत्महत्या नहीं कर पाते हैं, वे तनावग्रस्त होकर मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
मामला एक, स्थान-कोलकाता, यहाँ की एक छात्रा पिंकी ने एसएससी की परीक्षा में इतिहास के परचे में मात्र 11 अंक मिले। पिंकी के पालकों ने पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया, तो जवाब मिला कि जितने अंक दिए गए हैं, वे सही हैं। इस जवाब से पिंकी के पालक संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि पिंकी मेघावी छात्रा थी, उसके अंक इतने कम हो ही नहीं सकते। अब पालकों ने हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश बारिन घोष ने अपने सामने पिंकी के परचे की जाँच करवाई। उसमें पिंकी के अंक 70 हो गए।
मामला दो, स्थान कोलकाता, पिंकी के मामले से उत्साहित होकर कई पालकों ने हाईकोर्ट में आवेदन किया, इसमें फिरोज हुसैन के भूगोल में केवल 16अंक थे, जो बढ़कर 64 हो गए। एक विद्यार्थी को बंगला भाषा में केवल 0 अंक मिले थे, उसके अंक बढ़कर 47 हो गए।
मामला 3, स्थान महाराष्ट्र: यहाँ एचएससी बोर्ड की परीक्षा में निकुंज गांधी को जर्मन भाषा में 64 अंक मिले थे। उसने पुनर्मूल्यांकन करवाया, तो अंक बढ़कर 93 हो गए। केवल इसी अंक के आधार पर निकुंज विज्ञान शाखा में प्रावीण्य सूची में तीसरे स्थान पर पहुँच गया।
ये कुछ मामले हैं, जो आज की शिक्षा प्रणाली पर कई सवालिया निशान दागते हैं। कामचोर और आलसी परीक्षक, अल्पशिक्षित अध्यापक और अफसरशाही के बीच आज की शिक्षा एकदम पंगु हो गई है। इस दिशा में कई बार गंभीर प्रयास करने की घोषणा तो हुई, पर शिक्षा माफिया के दबाव में सरकार कुछ नहीं कर पाई। हमारे देश में मेकाले की शिक्षा पध्दति की शुरुआत नहीं हुई थी, तब लिखित परीक्षा का चलन नही था। विद्यार्थियों से जो परीक्षा ली जाती, उसका स्वरूप मौखिक होता। वह भी उसी शिक्षक द्वारा ली जाती, जिसने उसे पढ़ाया हो। इसके बाद भी यदि कोई बालक किसी विषय में कमजोर होता है, तो इसे बालक का दोष नहीं, बल्कि शिक्षक का दोष माना जाता। विद्यार्थी को हर विषय में होशियार बनाना शिक्षक की जिम्मेदारी होती। यही कारण है कि उस समय विद्यार्थियों को किसी प्रकार का भय नहीं रहता। वे हँसते-खेलते परीक्षा देते थे। हमारे देश में 19 सदी में होरेस मेन नाम ब्रिटिश अधिकारी ने लिखित परीक्षा की प्रणाली शुरू की थी,जो आज भी जारी है। हमारे यहाँ परीक्षा की जो पध्दति प्रचलित है, वह बिलकुल ही अवैज्ञानिक है। मान लो एक विद्यार्थी को गणित में 91 अंक मिले और दूसरे को 92, तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि जिसने 91 अंक प्राप्त किए है, वह 92 अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी से कमतर है। बिलकुल नहीं। विद्यार्थियों की प्रतिभा ऑंकने की यह प्रणाली सही नहीं है। लेकिन यह प्रणाली हमारे देश में जारी है। आज कल परीक्षा की जो प्रणाली है, वह अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने की कवायद भर है। इसी को आधार बनाकर तमाम गाइड तैयार होती है। अब बोर्ड परीक्षा में लिखित प्रश्नों की जो पध्दति होती है, उसमें विद्यार्थी के विश्लेषण करने, प्रयोग करने या समीक्षा करने की क्षमताओं की कोई कीमत नहीं होती। इसलिए विद्यार्थी केवल रट्टू तोता बनकर रह जाते हैं।
स्वतंत्रता मिलने के बाद डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। 1948-49 में इसने जो रिपोर्ट दी, उसमें शैक्षणिक रूप से किए जाने वाले सुधारों विशेषकर परीक्षा पध्दति में सुधार पर जोर दिया। इसके बाद शिक्षा में सुधार के लिए कोठारी कमीशन ने भी परीक्षा पध्दति में सुधार पर जोर दिया। 1964-66में गठित की गई कोठीरी समिति के अध्यक्ष डॉ. डी.एस. कोठारी ने एक सेमिनार में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा था कि विद्यार्थियों के ज्ञान का स्तर भी उसके अंक से ऊपर नहीं जा सकता। हमारी परीक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यही है कि यहाँ विद्यार्थी परीक्षार्थी की भूमिका में होता है और शिक्षक न्यायाधीश की भूमिका में। सच्चाई तो यह है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी की बराबर की भागीदारी होती है। कोई विद्यार्थी जब अनुत्तीर्ण होता है, तो विद्यार्थी नहीं, बल्कि उसे पढ़ाने वाला शिक्षक अनुत्तीर्ण होता है। परीक्षा का परिणाम घोषित होते ही शिक्षा की प्रक्रिया पूर्ण मानी जाती है। वास्तव में शिक्षा की यह प्रक्रिया तो परीक्षा के बाद ही शुरू होनी चाहिए। आज तो परीक्षा प्रणाली का उपयोग विद्यार्थियों के माथे पर पास-फेल की मुहर लगाने के लिए ही हो रहा है।
परीक्षा के इस चक्रव्यूह में पालक जहाँ स्कूल-कॉलेजों में धन दे-देकर परेशान हैं, वहीं विद्यार्थी पढ़ाई कर-कर परेशान हैं। दोनों के पास एक-दूसरे की समस्याओं को समझने का वक्त नहीं है। पालक बच्चे पर अधिक से अधिक अंक लाने का दबाव डालते हैं, उन्हें पता होता है कि यदि अच्छे अंक नहीं आए, तो उसका एडमिशन कॉलेज में नहीं हो पाएगा। फिर बिना कॉलेज के पढ़ाई कैसी? आज स्कूल-कॉलेज के नाम पर जो दुकानें सजी हैं, जरा एक नजर उन पर डालें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि किसी ने भी विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए स्कूल-कॉलेज नहीं खोला है। यहाँ तो केवल धन का ही बोलबाला है। जितना अधिक धन लगाओगे, उतनी ही बेहतर शिक्षा दी जाएगी। सरकारी स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा माफिया सरकार पर इस कदर हावी है कि सरकार के सारी अच्छी नीतियाँ ताक पर रह जाती हैं। कहीं कोई आशा की किरण दिखाई नहीं देती। एक अंधेरा, स्याह अंधेरा, जिस रास्ते पर हमारी भावी पीढ़ी को जाना है। कहाँ से लाएं वह रोशनी, जो हमारे देश के नेताओं के मस्तिष्क के स्वार्थी अंधेरे को दूर कर सके। क्या हम अपने बच्चों को इस अंधेरे रास्ते से गुजरने देंगे भला!
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 29 जून 2009

बैसाखी

डा. महेश परिमल
‘‘ अच्छा तो डाक्टर साहब ! मैं चलती हूँ। शिप्रा ने उठते हुए कहा।
‘‘ठीक है, तुम उसे एक बार यहाँ ले आओ, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उसे ठीक कर दूँगा डाक्टर मेहता ने कहा।
‘अच्छा नमस्ते।’ ‘नमस्ते।’ कहते हुए डाक्टर मेहता अन्य रोगियों को देखने लगे। हाॅस्पीटल से बाहर आकर शिप्रा ने घर की ओर कदम बढ़ाए। चेहरे पर आत्म संतोष की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही थी। जो सोचा था, वहीं होने जा रहा है, वह खुश थी, बहुत खुश। खुशी के मारे यह भी पता नहीं चला कि कब घर आ गया।
‘‘दीदी आ गई, दीदी आ गई’’ कहते हुए रीतु और गुड्डू दोनों उससे लिपट गए। ‘‘दीदी हमारे लिए क्या लाई हो ?’’ कहते हुए दोनों उसके बैग को देखने लगे।‘‘ये लो टाफियाँ’’ शिप्रा ने दोनेां को टाॅफियाँ थमा दी। अंदर पहुँचकर उसने हाथ-मुँह धोए, इतने में माँ चाय का प्याला लेकर उसके कमरे में आती दिखाई दी।-
आज कुछ देर हो गई बेटी ? माँ ने स्नेह से पूछा।
हाँ, माँ, आज वेतन मिलने में समय कुछ ज़्यादा लग गया। फिर आजकल आॅफिस में काम भी कुछ ज़्यादा है।-
अच्छा ले चाय पी। थकान कुछ कम हो जाएगी। और हाँ, तेरे नाम एक लिफाफा आया है, ठहर लाती हूँ, कहकर माँ दूसरे कमरे में चली गई। शिप्रा ने चाय का प्याला उठाया और दूसरे कमरे में गई, माँ के आने की प्रतीक्षा करने लगी। चाय की चुस्कियों के बीच वह उतावली हो रही थी कि किसका लिफाफा आया है। कुछ देर बाद माँ ने उसके हाथ में एक लिफाफा थमाया और चाय का खाली प्याला लेकर भीतर चली गई।
शिप्रा ने लिफाफा खोला, देखा अमोल का खत है, लिखा था -प्रिय शिप्रा, हाॅस्पीटल की ज़िन्दगी कितनी उबाऊ और जानलेवा होती है, यह मैं पिछले चार महीनों से देख रहा हूँ। वहीं दवाइयाँ, वही इंजेक्शन - - और वही हिदायतें ! सुन-सुन कर तो मेरे दिमाग की ग्रंथियाँ ढीली पड़ने लगी हैं। मैं जानता हूँ शिप्रा, ज़िम्मेदारियों ने तुम्हें कितना खामोश कर दिया है। तुम्हारा प्यार ही तो है, जो मुझे इस हालत में भी अभी तक ज़िन्दा रखे हुए है। उस दिन मुझे पहली ज़िन्दगी मिली थी, जिस दिन तुमने मेरे प्यार को स्वीकारते हुए मेरे साथ जीवन जीने की शपथ ली थी। मैं इस दिन को साकार करने के लिए जी जान से जुट गया - - - पर शायद नियति को यह मंज़ूर न था। हमारे प्यार के फूलों, की महक शायद ईश्वर को अच्छी न लगी और मुझसे मेरे अंग छिन लिए- - - ।
उन क्षणों को याद करता हँू, शिप्रा, तो सच बताऊँ उस दिन मैंने जाना कि आज मेरी पहली मौत हुई है। सड़क में पीछे से आने वाले ट्रक ने मुझे जिस ढंग से रौंदा, उसे याद करते हुए सोचता हँू, पूरी तरह से रौंद दिया होता, तो कितना अच्छा होता ? इस तरह अपाहिज होकर जीने से तो वही अच्छा। सोचा था माता-पिता का बोझ कम करूँगा, तुम्हारी माँग का सिन्दूर बन जीवन-पथ पर तुम्हारे संग चलूँगा, पर हुआ इसके विपरीत। आज तुमसे - - तुमसे तो बहुत दूर - - नितांत अकेला हूँ।
उस समय पहली मौत के बाद मैं यहाँ पिछले चार महीनों से रोज़ ही ऐसी मौत मर रहा हूँ। ज़िन्दगी मुझसे काफी दूर है। हाँ, तुम्हारे संबल देने वाले ख़त अवश्य ही कभी-कभी मौत को दूर धकेेलकर ज़िन्दगी को करीब ला देते हैं। पर अब लगता है भूल-भूलैया से दूर जाना पड़ेगा। सच के धरातल पर पाँव रखना पड़ेगा। कुछ ही दिनों बाद मेरी इस हाॅस्पीटल से छुट्टी हो जाएगी और जाते वक़्त मुझे मिलेगा, बैसाखियों का उपहार। इसके पहले कि मैं मौत के गड्ढे में गिर पडूँ, तुम मेरी बैसाखी बन कर मुझे बचा लो शिप्रा- - -। तुम्हारा सहारा पाकर मैं जीवन पथ पर फिर आशा और उम्मीद के साथ चल पडूँगा। तुम्हारा संबल बहुत ज़रूरी है मेरे लिए, क्योंकि अब निराशा घेरने लगी है। तुम्हारे खतों का विलंब से आना मुझे भीतर से तोड़ने लगा है। इसके पहले कि मैं टूट कर बिखर जाऊँ - - - मुझे आकर बचा लो - शिप्रा।
ख़त पढ़कर शिप्रा कुछ देर तक शून्य में निहारती रही, सोचती रही, कितना महात्वाकांक्षी था अमोल। ‘ये करूँगा, वो करूँगा’ कहते-कहते उसका मुँह न थकता। कहता - शिप्रा, तुम्हारा प्यार मिलता रहे, तो देखना एक दिन मैं कहाँ से कहाँ पहुँच जाऊँगा। इतनी दूर - - इतनी दूर - - कि फिर जब भी तुम अपने भीतर झांकोगी तो मुझे पाओगी और शिप्रा मुस्कराकर रह जाती। - - - पर आज यह कैसी परिस्थिति है ? शिप्रा ने सोच रखा है कि जब तक छोटे भाई विकल की इंजीनियर की पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती, और वह कमाने लायक नहीं हो जाता तब तक मैं माता-पिता को अपना सहारा देती रहूँगी, और न ही तब तक अपने विवाह के बारे में सोचूँगी। अमोल ने भी तो इसे स्वीकारा था और अच्छी सर्विस मिलते ही उससे दूर दूसरे शहर चला गया था और जाते हुए विश्वासपूर्वक कहा था, शिप्रा मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा । पर आज तो - - आज तो - - -।
सोच की तरंगे कुछ और दूर पहुँचती कि माँ ने पुकारा - ‘चल बेटी खाना खा ले। ‘जी, अच्छा माँ, तुम परोसो, मैं अभी आई। शिप्रा बाथरूम की ओर बढ़ गई। खाना खाते समय पिता ने पूछा - शिप्रा बेटी ! वह जो आॅफ़िस से प्राॅविडेंट फंड के पच्चीस हज़ार रूपये निकालने के लिए कहा था, उसका क्या हुआ ? ‘वह तो मैंने निकाल लिए और डाक्टर को दे दिए’ ‘डाक्टर को! डाक्टर को क्यों दिए ? पिता ने आश्चर्य से पूछा । ‘अमोल के इलाज के लिए ’
‘अमोल, अमोल, अमोल - - - ! मैंने कितनी बार कहा तुमसे कि उसे अब भूल जाओ। ‘कैसे भूल जाऊँ पिताजी, आपने ही तो हमारे प्यार को स्वीकारते हुए शादी का वचन दिया था’ कहते हुए शिप्रा हाथ धोकर सीधे अपने कमरे में चली गई। पलंग पर गिरकर तकिए में मुँह छिपाकर फफक कर रो पड़ी। कुछ देर बाद उसके सर पर किसी ने प्यार से हाथ फेरा, देखा - पिताजी थे ! जो अश्रुपूरित नेत्रों से उसे देख रहे थे।
-‘ बेटी, मैं तेरा दुःख समझ रहा हूँ, पर मैं अपनी फूल-सी बेटी को कैसे किसी के साथ बाँध दूँ। जो स्वयं अपना भार उठाने में असमर्थ है, वह कैसे तुम्हारा भार उठाएगा ? पिता ने रूँधे गले से कहा। नहीं, नहीं- - -, नहीं पिताजी। जब तक अमोल अच्छा था, तो आप भी उसे बेटे-बेटे कहते नहीं अघाते थे, साथ ही गर्व भी करते थे, अपनी इस बेटी पर कि कितना अच्छा वर चुना है इसने। याद है, जब उसने अपनी सर्विस की और दिल्ली आफ़िस ज्वाइन करने की ख़बर सुनाई थी, तो कितने खुश हुए थे आप? पर आज जब वह नियति के क्रूर हाथों से अपनी एक टाँग गँवा बैठे हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अब वह मेरे लायक नहीं रहे, मानो टाँग के साथ-साथ उनकी योग्यता, उनका आचरण, उनका स्वभाव और उनका चऱि़त्रा भी चला गया। शिप्रा ने सजल नेत्रों से पूछा - मान लीजिए, पिताजी यदि ये ही हादसा मेरी शादी के बाद होता, तो क्या तब भी आप ऐसा ही कहते ? नहीं, पिताजी मुझे पूरा विश्वास है, कि तब आप मुझे मेरा कर्तव्य याद दिलाते। क्या सिंदूरी रेखा अधिकार और कर्तव्य के मायने बदल देती है? तो पिताजी, मेरे प्यार की रेखा उस सिंदूरी रेखा से भी ज़्यादा गहरी है, जहाँ सिर्फ और सिर्फ अमोल हंै।
- - पर बेटी ! तुम्हीं सोचो कि - - - बस कीजिए पिताजी। मैं समझ गई, आप नहीं चाहते कि आपकी बेटी किसी अपाहिज की बैसाखी बने। आप नहीं चाहते कि मैं अमोल से ब्याह कर सुखी रहूँ। लेकिन आप ग़लती कर रहे हैं पिताजी, अगर भावनाओं में बह कर आप मेरी शादी किसी और कर देंगे, तो वह जीवन मेरे लिए नरक से भी गया-बीता हो जाएगा। शिप्रा ने कुछ रूक कर फिर कहा - मैंने अपने मन-मंदिर में अमोल को बसाया है और जीवन भर उसे ही पूजती रहँूगी।
कुछ समय बाद पिताजी भारी कदमों से अपने कमरे की ओर चले गए और वह पलंग पर ढेर हो गई। कमरे में उसकी धीमी-धीमी सिसकियाँ सुनाई पड़ रही थी। आवाज़ सुन कर माँ ने धीरे से शिप्रा के कमरे में प्रवेश किया और उसे अपनी छाती से लगाकर सांत्वना देती रही। जब उन्हें लगा कि शिप्रा सो रही है, तब धीरे से वह दूसरे कमरे में चली गई। जाते ही शिप्रा उठी और अमोल का खत फिर से पढ़ने लगी। उसे लगा, उसका अमोल टूट रहा है, निराशा के गहरे सागर में डूब रहा है। नहीं, वह उसे यूँ निराश होने नहीं देगी। वह उठी और टेबल लेम्प जला कर अमोल को ख़त लिखने लगी। ख़त में उसने इस बात का ज़िक्र कर दिया कि उसने यहाँ एक डाक्टर से बात कर ली है और उन्होंने उसे आश्वासन दिया है कि अमोल पूरी तरह से ठीक हो जाएगा। वे ऐसे कई केस में सफल आॅपरेशन कर चुके हैं, इसीलिए वह अपने प्रोव्हीडेंट फं़ड में से पच्चीस हज़ार रूपए भी उन्हें दे चुकी है। तुम आ जाओ। फिर तुम्हारा इलाज यहाँ शुरू हो जाएगा और तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे। मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ और सदैव रहूँगी। इस प्रेरणादायी ख़त को लिखने के बाद वह स्वयं को हल्का महसूस कर रही थी। सुबह आॅफ़िस जाते हुए सबसे पहले उसने अपना ख़त पोस्ट किया फिर आॅफिस की सीढ़ियों पर कदम रखा। दिन भर शिप्रा आॅफिस के कार्यो में व्यस्त रही। समय का पता ही न चला। छुट्टी होने के पंद्रह मिनट पहले उसका एक फोन आया। फोन रमेश का था। अमोल का दोस्त रमेश, जो अभी अमोल के पास ही हाॅस्पीटल में था। रमेश की बात सुन कर वह धक् से रह गई। उसके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गई। रमेश के कहे अनुसार अमोल ने ‘स्यूसाइड’ कर लिया था। उसका अमोल, यह दुनिया छोड़कर जा चुका था। उसका दिमाग सन्न हो गया। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। रिसीवर उसके हाथ से गिर पड़ा। वह निढाल हो कर कुर्सी पर बैठ गई। अचानक मानों उसे कहीं से शक्ति प्राप्त हो गई, वह संयत हो उठी। सब घर जाने लगे थे, उसने अपना बैग उठाया और निकल पड़ी। रास्ते में क्लिनिक के सामने से गुज़रते हुए डा. मेहता ने उसे देख लिया। ‘अरे बेटी, वो तुम्हारे पेशेंट का क्या हाल है ? उसे तुम मेरे पास नहीं लाई ? डाक्टर ने पूछा !
‘जी, वो नहीं आएँगे।’ ‘क्यों आखिर क्या बात है ?’
‘जी, अब वो उस डाक्टर के पास चले गए हैं, जो हर तरह के रोगों से मुक्ति दिलाते हैं।’
- ‘मैं समझा नहीं बेटी ?’
तब शिप्रा ने अमोल के ‘स्यूसाइड’ वाली बात डाॅ. मेहता को बता दी।
‘ओह’ कहते हुए डाक्टर मेहता चश्मा निकाल कर अपनी आँखों को मलने लगे।
‘एक मिनट ठहरो बेटी, यह कह कर डाॅॅ. मेहता अंदर गए और साथ में पच्चीस हज़ार रुपए की गड्डी लेते आए। ‘लोे बेटी, इसे रख लो, अब इसकी ज़रूरत नहीं।’ ‘इसे आप ही रख लीजिए डा. साहब - - -।’ ‘पर क्यों बेटी ? यह तो तुम्हारे ही रुपए हैं। जो तुमने अमोल के इलाज के लिए मुझे दिए थे।
‘इसे मैं अब नहीं लँूगी डाक्टर साहब ! इन रुपयों को उन मरीजों के लिए रख दीजिए, जो रुपयों के अभाव में अपना इलाज नहीं करवा पाते हैं। ताकि भविष्य में कोई मेरी तरह दुःखी न हो।’ यह कहते हुए शिप्रा ने अपने आँसू पोंछे और चलने लगी।
डाक्टर मेहता दूर तक शिप्रा को सजल नेत्रों से जाते हुए देखते रहे। नोट की गड्डियाँ अब भी उनके हाथोें में थी।
डा. महेश परिमल

शनिवार, 27 जून 2009

बादल, बिजली और बारिश


भारती परिमल
शीर्षक पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि यह किसी फिल्म की कहानी तो नहीं है ना। नहीं, न तो यह किसी फिल्म की कहानी है और न ही किसी छबिगृहों के नाम हैं। मैं तो उस बादल, बिजली और बारिश की बात कह रही हूँ, जिनका सामना हमें इन दिनों करना ही पड़ रहा है। आओ इन तीनों भाई-बहनों के बारे में कुछ जानने का प्रयास करें।
रविवार का दिन, यानि मौज-मस्ती और छुट्टी का दिन! एकाएक आकाश में बादल घिर आए। सूरज बादलों में छिप गया। चारों ओर घना अंधकार छा गया। भरी दोपहर थी, उसके बावजूद ऐसा लग रहा था, मानों शाम हो गई हो। अंशुल घर के अहाते में ही था, कि माँ ने आवाज लगाई- अंशुल, अंदर आ जाओ। अभी बारिश शुरू हो जाएगी। देखो, कैसे काले बादल घिर आए हैं।
इतने में बौछारें शुरू हो गई। छोटी-छोटी बूँदों ने बड़ी बूँदों का रूप ले लिया। थोड़ी देर में ही मूसलधार बारिश शुरू हो गई। साथ ही आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट भी होने लगी। ऐसी तेज आवाज मानों आकाश अभी फट पड़ेगा।
घड़ घड़ धड़ाम धम्म! धड़ाम धम्म!
आकाश में खुली ऑंखों से देखना मुश्किल हो गया। कुछ देर पहले जो खुला आकाश था, वही अब पानी का प्रपात बना हुआ था। बिजली का चमकना ऐसे लग रहा था मानों आकाश में हजारों वॉल्ट के अनेक बल्ब जल गए हों। साथ ही बादलों की तेज गड़गड़ाहट! मानों आकाश फट कर अभी धरती पर गिर पडेग़ा!
ये सब देखना अच्छा भी लग रहा था और भयभीत भी कर रहा था। पिताजी भी बदले मौसम का नजारा देखने के लिए खिड़की के पास आकर खड़े हो गए। खिड़की के बाहर हाथ निकालकर वे बारिश का मजा लेने लगे। उन्हें ऐसा करते देख मेरी भी हिम्मत बढ़ी, मैं भी उनके पास आकर खड़ा हो गया। बारिश की बूँदें हथेली पर सहेजने के लिए हाथ बाहर निकाला ही था कि जोर से बिजली कड़की और मैं भीतर तक काँप गया।

पिताजी ने हँसते हुए मेरे कँधे पर हाथ रखा। मैंने पापा से पूछा-पापा, आकाश में बिजली कैसे चमकती है? पिताजी बोले- अंशुल, तुम जरा अपनी दोनों हथेलियों को आपस में जोर से रगड़ो तो भला। अंशुल ने वैसा ही किया, उसकी दोनों हथेलियाँ गरम हो गई। पिताजी ने समझाया- हथेली घिसने से घर्षण हुआ और एक प्रकार की बिजली पैदा हुई। आकाश में बादल हैं, वे वैसे तो रूई की फाहे की तरह नरम हैं। ऊपर हवा भी है, ऐसे में हवा के साथ दौड़ते-भागते बादल एक-दूसरे से टकराते हैं, जिस तरह से तुम्हारी हथेली के घर्षण से गरमाहट के साथ बिजली उत्पन्न हुई, उसी तरह बादलों के टकराने से बिजली उत्पन्न होती है।
बिजली की बात होते ही घर की बिजली गुल हो गई। तब माँ ने माचिस ली और उसमें से दियासलाई निकालकर उसे माचिस से लगे फास्पोरस वाली जगह पर रगड़ा, जिससे दियासलाई जल उठी। माँ ने उससे मोमबत्ती जला ली। इस पर पिताजी ने अंशुल को बताया कि अभी तुमने देखा कि तुम्हारी माँ ने किस तरह माचिस की तीली को रगड़कर आग जलाई। ठीक इसी तरह जब बादल आपस में रगड़ खाते हैं, तब उसमें बिजली उत्पन्न होती है। तब अंशुल ने कहा- पिताजी क्या यह बिजली जमीन तक आ पाती है, क्या यह हमारे घर के भीतर भी आ सकती है? हाँ कई बार यह हमारे घर के अंदर तक आ सकती है- पिताजी ने कहा।

अब अंशुल तुम सुनो कि किस तरह से इस बिजली से बचा जाए। माँ-पिताजी ने अंशुल को मोमबत्ती की रोशनी में अपने पास बिठा लिया। पिताजी ने बताया- यह बिजली बहुत ही भयानक चीज है। यदि यह जमीन पर उतर जाए, तो वहाँ एक गहरा गङ्ढा हो जाता है। यदि यह किसी मकान या पेड़ पर गिरे, तो उसे जलाकर राख में बदल देती है। तो पिताजी इस भयानक बिजली से बचा कैसे जाए? हाँ मेरे बच्चे मैं तुम्हें यही बताने जा रहा हूँ, सुनो- यदि इस तरह का मौसम हो और हम कहीं बाहर हों, तो रास्ते से अलग हटकर पास के किसी मकान में चले जाना चाहिए। शहर के घर इसीलिए सुरक्षित हैं, क्योंकि इसमें लोहे की सामग्री इस्तेमाल में लाई जाती है। उन लोहों के माध्यम से बिजली जमीन में चली जाती है।
यदि तुम कहीं जा रहे हो और बिजली लगातार चमकने लगे, आसपास कोई घर दिखाई न दे, तो ऐसे में यदि तुम्हें कोई कार या जीप दिखाई दे जाए, तो तुम उसमें भी बैठ सकते हो। यह भी बिजली से बचाव का सुरक्षित स्थान है। यदि भारी तूफान आ रहा हो और बारिश के साथ बिजली भी चमक रही हो, तो इस स्थिति में नाव से नदी या तालाब पार नहीं करना चाहिए। यह खतरनाक हो सकता है। तैरकर नदी, नाला, या तालाब पार करना तो बहुत अधिक खतरनाक हो सकता है। किसी प्रकार की लोहे की जाली या रेलिंग के पास भी खड़े नहीं होना चाहिए, किसी पेड़ के नीचे या खेत में भी खड़े नहीं होना चाहिए।
तो, इसका मतलब यह हुआ कि जब बारिश हो रही हो, तो हमें घर पर ही रहना चाहिए, अंशुल ने कहा। हाँ बेटे, अब तो तुम इस बादल, बिजली और बारिश के बारे में बहुत-कुछ जान गए। ये सब जानकारियाँ तुम कल शाला में अपने दोस्तों को बता सकते हो।
भारती परिमल

शुक्रवार, 26 जून 2009

चुनमुन का स्कूल का पहला दिन


भारती परिमल
स्कूल का पहला दिन, भला इस दिन को कौन याद रखना नहीं चाहेगा? यही दिन तो होता है, जब एक बच्चे को पहली बार घर से बाहर एक अलग ही दुनिया से वास्ता पड़ता है।यह एक ऐसी दुनिया होती है, जहाँ उसे प्यार मिले, तो वह उसे ही अपना दूसरा घर मान लेता है, पर यदि वहाँ उसे प्यार न मिले और उसका सामना किसी ऐसे षिक्षक या षिक्षिका से हो, जो गुस्सैल हों, तो फिर बच्चे का भविष्य चौपट ही समझो।यही दिन होता है, जब बच्चे के अचेतन मन में संस्कार का बीज प्रस्फुटित होता है।पहले दिन ही यदि बच्चे को मनचाहा वातावरण नहीं मिलता, तो वह काफी कुंठित हो जाता है।स्कूल आने के पहले उसे कई हिदायतें दी जाती हैं, जिन्हें वह स्कूल में आकर जानना चाहता है।यदि उन हिदायतों के एवज में स्कूल का वातावरण अनचाहा है, तो उसकी हरकतों में एक तरह का विरोध उजागर होता है।कुछ ऐसा ही हुआ उस दिन चुनमुन के साथ।
आज चुनमुन का स्कूल का पहला दिन है। पिछले एक महीने से लगातार घर के सभी लोग उसे स्कूल जाने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं। मम्मी उसे एक के बाद एक पोएम सिखाए जा रही है। पेंसिल पकड़ना, किताब सीधी कहाँ से है, कॉपी में किस तरफ लिखना है, उसका पूरा नाम, घर का पता, मम्मी-पापा का नाम सब कुछ रटवाया जा रहा है। कहीं घूमने जाने पर वहाँ भी लोगों के बीच इस बात की चर्चा जरूर होती है कि हमारी चुनमुन भी इस बार स्कूल जाएगी। शाम की सैर के समय दादाजी चुनमुन को स्कूल जाने संबंधी हिदायत जरूर देते हैं। रात को दादी कहानियों में भी स्कूल का ज़िक्र करती है। बड़ा भाई भोलू तो उसे स्कूल के नाम से चिढ़ाया ही करता है। कुल मिलाकर सभी उसके पीछे पड़े हैं। सभी की बस यही इच्छा है कि वह स्कूल जाए। मम्मी-पापा ने बाजार से उसके लिए बहुत सा सामान खरीदा है- स्कूल बैग, कम्पास बॉक्स, टिफिन, पानी की बॉटल और भी न जाने क्या-क्या स्कूल से जुड़ी हुई चीजें.... उसे तो सभी के नाम भी अभी नहीं मालूम। अब धीरे-धीरे इन सभी के नाम याद करने होंगे। आज वह दिन आ ही गया।
चुनमुन पूरी रात ठीक से सो नहीं पाई। उसे रात को अजीब-अजीब सपने आते रहे, कभी बहुत से लोगों के एकसाथ चिल्लाने की आवाज, तो कभी किसी के हाथों में बड़ा सा डंडा लेकर उसे फटकारने की आवाज, तो कभी वाहनों का शोर। वह एकदम से चौंक पड़ती और उसकी नींद खुल जाती।सुबह मम्मी ने उसे जल्दी जगा दिया और पूरे उत्साह के साथ उसे तैयार करने लगी। वह एक रोबोट की तरह मम्मी के इषारों पर नाचती हुई अंत में तैयार हो गई और उसे गाल पर एक प्यारी-सी पप्पी देते हुए स्कूल बस में चढ़ाकर बाय कह दिया गया।
स्कूल में आकर चुनमुन को एक नई ही दुनिया दिखाई दी।चारों ओर बच्चे ही बच्चे। दौड़ते-भागते, उछलते-कूदते मस्ती करते बच्चे। वाह! ये तो बहुत अच्छी जगह है। यहाँ तो सभी अपने मन से जहाँ चाहे वहाँ भाग सकते हैं। खेल सकते हैं। कोई रोक-टोक नहीं। घर में तो दिन भर दादी, मम्मी और बुआ की डाँट ही सुनते रहो। चुनमुन ऐसा नहीं करो, चुनमुन वैसा नहीं करो। यहाँ तो सभी बच्चे मिलकर अपनी मनमानी कर रहे हैं।मैं भी इनके साथ मिलकर अपने मन की करूँगी और खूब मस्ती करूँगी।इतने में प्रार्थना की घंटी बजी और टीचर ने सभी बच्चों को एक पंक्ति में खड़े होने का निर्देष दिया।कुछ समय के लिए शोरगुल थम गया और सारे बच्चे टीचर के कहे अनुसार करने लगे।

अब शुरू हुई चुनमुन की स्कूल की दिनचर्या। प्रार्थना के बाद क्लास में आने पर उसने अपने आसपास देखा तो सारे अपरिचित बच्चे नजर आए।इतने में मम्मी जैसी एक महिला ने क्लास में प्रवेष किया।यही उनकी क्लास टीचर थी। वह उन्हें देखकर सहम गई क्योंकि वे दिखने में बड़ी गुस्सेवाली दिखाई दे रही थी।उसने एक-एक कर सभी बच्चों से उनके नाम पूछे।एक बच्चे ने जब कोई जवाब नहीं दिया, तो उन्होंने उससे जरा ऊँची आवाज में पूछा, वह बच्चा डर गया और रोने लगा। टीचर उसे चुप कराने के बदले उसकी इस हरकत पर उसे डाँटने लगी। ये देखकर चुनमुन भी घबरा गई। जब उसकी बारी आई तो उससे भी कुछ कहते नहीं बना। वह चुपचाप उनका चेहरा ही देखने लगी।जब उन्हाेंने ऑंखे दिखाते हुए फिर से उसका नाम पूछा तो उनकी ऑंखे देखकर तो चुनमुन की रही सही हिम्मत भी जवाब दे गई। वह तो अपना स्कूल वाला नाम ही भूल गई। उसे तो चुनमुन नाम ही याद था और मम्मी ने कहा था, यह नाम स्कूल में किसी को नहीं बताना है। अब स्कूल वाला नाम याद आए तभी तो वह बोले। टीचर उसे घूर कर देखे जा रही है और उसका नाम पूछे जा रही है। यहाँ चुनमुन की हालत बड़ी खराब हो रही है। आखिर उसने हार कर जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। टीचर उसके पास से चली गई। चुनमुन पूरे पीरियड में रोती ही रही।टीचर ने क्या पढ़ाया, दूसरे बच्चों से किस तरह बातें की उसे कुछ नहीं मालूम।
जब घंटी बजी तो थोड़ी देर बाद दूसरी टीचर ने क्लास में प्रवेष किया।वह सबसे पहले तो सभी बच्चों की तरफ देखकर मुस्कराई और फिर सबके पास जा कर प्यार से सबके सिर पर हाथ फेरते हुए, उनके हाथ में टॉफी देते हुए उनका नाम पूछा।बच्चे टॉफी की लालच में बिना डरे टीचर को अपना नाम बताने लगे। जब टीचर चुनमुन के पास आई, तो उन्होंने उसे रोते हुए पाया। उसका ऑंसुओं से भीगा चेहरा देखकर टीचर ने उसे गोद में उठा लिया और कहा- इतनी प्यारी सी गुड़िया की ऑंखों में ऑंसू क्यों? चुनमुन को लगा- उसे किसी अपरिचित ने नहीं बल्कि मम्मी ने ही गोद में लिया है। उस टीचर की गोद में वह अपना दु:ख भूल गई, साथ ही पहली टीचर का रौबीला चेहरा भी भूल गई। इस टीचर के अपनेपन में उसे अपना स्कूल वाला नाम याद आ गया और वह मुस्कराते हुए बोल उठी- मेरा नाम मुस्कान है। टीचर को नाम बहुत पसंद आया । वे बोली- जब तुम्हारा नाम मुस्कान है, तो ऑंखों में ऑंसू क्यों? हमेषा मुस्कराती रहो। उसकी टीचर से दोस्ती हो गई। सभी बच्चों को ये टीचर बहुत अच्छी लगी और सभी ने उनके साथ बाकी का समय अच्छे से बिताया।इस तरह चुनमुन का पहला दिन स्कूल में आधा रोते हुए और आधा हँसते हुए बीता।
बच्चे स्कूल में आकर एक नए जीवन की शुरूआत करते हैं। एक नई दुनिया में प्रवेष करते हैं।उनके साथ पहले दिन ही किया गया गलत या सही व्यवहार उनके कोमल मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ता है।बच्चों के मन से स्कूल का डर निकालने के लिए जरूरी है कि पहले दिन उनके साथ बड़ी नरमी से व्यवहार किया जाए। उनका स्कूल का पहला दिन उन्हें हर दिन स्कूल आने के लिए प्रेरित करे, ऐसा होना चाहिए। इसके लिए मुख्य भूमिका क्लासटीचर को निभानी होती है। नए शाला सत्र के साथ ही कई बच्चे स्कूल में प्रवेष लेते हैं, कई बच्चों के मन में स्कूल का, टीचर का डर समाया होता है, तो कई बच्चे इन सभी से अनजान होते हैं। यदि आप भी टीचर हैं और आपके सामने भी ऐसे बच्चों की जवाबदारी है, तो आपका पहलार् कत्तव्य यह है कि इन बच्चों के मन से स्कूल का डर निकाल कर इन्हें प्यार दें, अपनापन दें, ताकि इनका पहला दिन ही नहीं, हर दिन हँसते-मुस्कराते हुए गुजरे।बच्चे को केवल प्यार के ही भूखे होते हैं, फिर वह प्यार उन्हें जहाँ से मिले, जैसे भी मिले, वे उसे स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकते।वे प्यार की भाषा समझते हैं, यही भाषा ही उन्हें अपने और परायों का फर्क समझाती है।यह क्षण होते हैं, जब उनके कोरे मस्तिष्क में शिक्षा का ककहरा लिखा जाता है, तो क्यों न इस माटी के इस अनगढ़ पिंड को सही आकार दिया जाए।
भारती परिमल

गुरुवार, 25 जून 2009

कैसे करें जीडी की तैयारी


ग्रुप डिस्कशन यानी जीडी दूसरे चरण की परीक्षा का महत्वपूर्ण अंग है। जो स्टूडेंटस अभी पढाई कर रहे हैं, उन्हें इसके लिए अपने विषय और समसामयिक विषयों की तैयारी पर फोकस करना चाहिए। चूंकि एक एमबीए से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपनी लीडरशिप क्वालिटी और एक टीम के रूप में बेहतरीन नतीजा देगा और इसी क्वालिटी की जांच के लिए ही जीडी का आयोजन किया जाता है। इसके तहत किसी सिचुएशन पर आधारित कोई टॉपिक देकर कुछ समय उस पर विचार के लिए दिया जाता है। चूंकि जीडी में चार से आठ कैंडिडेट हिस्सा लेते हैं, इसलिए उस विषय पर प्रत्येक को लगभग १० मिनट में अपनी बात रखने का मौका दिया जाता है। कई बार उक्त विषय पर कई चक्रों में भी अभ्यर्थी अपनी बात रखते हैं। इसकी तैयारी के लिए निम्नलिखित स्ट्रेटेजी बनाकर अच्छा प्रदर्शन किया जा सकता है :
समूह में अध्ययन करें और विभिन्न विषयों पर आपस में परिचर्चा करें।
किसी भी विषय पर गहन चिंतन करें और उस पर अपने निष्कर्ष निकालें, जिससे कि उस पर आपकी मौलिक सोच सामने आए।
अपनी बात को तार्किक ढंग से रखें। आपकी भाषा और शैली प्रभावशाली होनी चाहिए।
जागरूक रहें और देश-दुनिया में घट रही घटनाओं की अद्यतन जानकारी रखें।
पढाई कर रहे स्टूडेंटस अपने विषय पर पूरी पकड रखें।
सभी कैंडिडेटस कम्युनिकेशन स्किल डेवलॅप करने पर भी अधिकतम ध्यान दें।
इंटरव्यू में डालें अपनी छाप
साक्षात्कार का उद्देश्य यह जानना होता है कि आप कितने कॉन्फिडेंट हैं। चूंकि लिखित परीक्षा के रूप में आपकी टेक्निकल और कॉन्सेप्चुअल जानकारी की परख पहले ही की जा चुकी होती है, इसलिए इंटरव्यू में एक लीडर और एक मैनेजर के रूप में आपकी क्वालिटी को जांचने-परखने की कोशिश की जाती है। इसके तहत आपकी पर्सनैलिटी, अनुशासन, सेल्फ अवेयरनेस, आप अपने लक्ष्य के प्रति कितने स्पष्ट हैं, आदि की परख की जाती है। इन सभी के बारे में आप कितने कॉन्फिडेंस के साथ अपनी बात को रखते हैं और सामने वाले को प्रभावित करते हैं, इस बात का भी पूरा ध्यान इंटरव्यू के दौरान रखा जाता है। इंटरव्यू की तैयारी करते समय निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए :
यदि आपने रट कर परीक्षा पास कर ली है, तो ऐसी स्थिति में विषयों पर धारणात्मक समझ विकसित करें।
अगर कहीं काम कर रहे हैं, तो उसके बारे में आपको गहरी जानकारी है या नहीं!
अपनी अकेडमिक उपलब्धियों का विश्लेषण करें।
अगर आपकी कोई हॉबी है, तो इंटरव्यू में इस बारे में भी चर्चा करें।
खुद में कॉन्फिडेंस डेवलॅप करें और जो भी कहें पूरे विश्वास से कहें।
इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों की बात ध्यान से सुनने के बाद ही अपनी बात पूरी विनम्रता से कहें।
क्रॉस क्वेश्चन खुद कभी न करें।

बुधवार, 24 जून 2009

हार गए कहार


डॉ.महेश परिमल
अब इसे कुछ भी कह लें, डोली या पालकी। यह जब भी उठती है, कई कलेजे बैठने लगते हैं। इसका उठना शुभ होते हुए भी उस क्षण के लिए अतिदु:खदायी होता है। पालकी उठाने वालों को कहार कहा जाता है। यह अमीरी की निशानी है। जितनी अच्छी पालकी, उतना बड़ा रुतबा। तंदरुस्त कहार, सजी हुई पालकी और एक लोकगीत। फिर वह 'डोला हो डोला हो या फिर 'चलो रे डोली उठाओ रे कहार, पिया मिलन की रुत आई । अलग-अलग क्षेत्रों के अनुसार पालकी की सजावट भी अलग-अलग हो सकती है। पर उसके पीछे की भावना वही रहती है। पालकी का ही दूसरा रूप डोली है। जिसमें दुल्हन को विदा किया जाता है। विदाई का क्षण ऐसा होता है कि अच्छे-अच्छों का कलेजा भी दहल जाता है। इसका उठना कई आँखें गीली कर देता है।
आधुनिकता के साथ अब डोली या कह लें पालकी का स्वरूप कार ने ले लिया है। कार का सजाना अब डोली को सजाने की तरह होता है। महँगी कार और महँगी सजावट अब शान का प्रतीक बन गई है। अब उसमें कहारों की कोई भूमिका नहीं है। इसलिए कहारों के दुर्दिन शुरू हो गए हैं। अब कहारों ने अपना रास्ता बदल दिया है। अब वे रोजगार की तलाश में निकल पड़े हैं। अब उन्हें जो भी रोजगार मिल जाए, उससे ही संतुष्ट हो जाते हैं। अब न तो शहनाई की धुन है और न ही कहारों द्वारा गाया जाने वाला गीत। दुल्हन की विदाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ये कहार अब इस धंधे से ही विदाई ले रहे हैं। अब शादी-ब्याह में उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। माँग कम हो गई है, इसलिए वे अब दूसरे रोजगार की ओर बढऩे लगे हैं।
पश्चिम बंगाल में उत्तर-24 परगना जिले के निबाधुनी गांव और कोलकाता के भीड़भरे इलाके बीके पाल एवेन्यू में क्या समानता है? वैसे तो ये दोनों जगहें सामाजिक और भौगोलिक रूप से अलग-अलग हैं, लेकिन पालकी उठाने और कान साफ करने जैसे विलुप्त होते जा रहे पारंपरिक व्यवसायों से जुड़े लोग यहां रहते हैं।

निबाधुनी में करीब 25 परिवार रहते हैं जो पालकी उठाने के अपने पारंपरिक पेशे को जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि आजादी से पहले पालकी की मांग बहुत ज्यादा थी और उनके पूर्वज इससे अच्छी खासी कमाई कर लेते थे। लेकिन अब मांग खत्म होने के साथ ही इन परिवारों के सदस्य किसान बन गए हैं, या फिर मजदूरी करने लगे हैं।
ऐसे ही एक परिवार के सदस्य असीत अधिकारी ने कहा, 'पालकी की मांग सीमित है। हमें कभी-कभी सिनेमा, रंगमंच आदि के निर्देशक बुला लेते हैं। यदाकदा शादियों में दुल्हन को ससुराल तक पहुंचाने का काम भी मिल जाता है।Ó
दूसरी ओर, लोगों के कान से मैल साफ करने का परंपरागत काम भी अंतिम सांसें गिन रहा है। यह काम करने वाले अब केवल 20 लोग बचे हैं, जो बीके पाल एवेन्यू में एक छोटे से कमरे में एकसाथ रहते हैं। कसीम नामक व्यक्ति ने बताया, 'सामाजिक स्थिति बदलने के कारण हमारा काम काफी प्रभावित हुआ है। पहले हमारी बहुत मांग होती थी, खासकर सामाजिक कार्यक्रमों में, जब खुशबूदार तेल से अपने कान साफ करवाने को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था।Ó
डॉ.महेश परिमल

मंगलवार, 23 जून 2009

शापित परी


भारती परिमल
रंगबिरंगी परियों का लोक-परीलोक। इस लोक में तरह-तरह की परियाँ रहती थीं। इन्हीं में एक परी थी, जो सबसे अलग थी। यूँ तो वह भी दूसरी परियों के समान ही सुंदर थी, लेकिन स्वभाव दूसरी परियों जैसा कोमल और दयालु न होकर कठोर था। वह थी भी बहुत तेज और गुस्सैल। बात-बात में गुस्सा हो जाती थी। तुनकमिजाज इतन की अपनी सहेलियों से भी छोटी-छोटी बातों में लड़ पड़ती थी। फिर नाराज हो कर एक कोने में बैठ जाती थी। उसमें सबसे बड़ी खराबी यह थी कि वह परीलोक के बाग में लगे उन फूलों से झगड़ा करती थी, जो उसे अच्छे नहीं लगते थे या फिर जिनके आसपास काँटे लगे हों। गुलाब के सुंदर पंखुड़ियों वाले फूल, जिनकी सारी परियाँ दीवानी थी, उसे तो वह बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। वह उन्हें हाथों से मसलकर नष्ट कर देती थी। उसकी इस हरकत से सभी परियाँ दु:खी हो जाती थी। गुस्सैल परी को यदि इस बारे में समझाया भी जाए, तो वह तो तुरंत ही नाराज हो जाती। इसलिए उसे तो कुछ बोलना ही बेकार था। आखिरकार सभी परियाँ मिलकर पहुँची रानी परी के पास और उनसे उसकी हरकतों की श िकायत की। रानी परी ने उसे प्यार से समझाया- बेटी, तुम्हें दूसरों के साथ मिलजुलकर रहना चाहिए। सभी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। यदि तुम सभी के साथ बुरा व्यवहार करोगी तो विवश होकर मुझे तुम्हें सज़ा देनी होगी। फिर तुम पत्थर या काँटेदार पेड़ बना दी जाओगी, इसलिए किसी से लड़ाई-झगड़ा न करो और हिलमिलकर रहो। फूलों से प्यार करो, सहेलियों से प्यार करो और हमेशा खुश रहो।
परी रानी के समझाने का उस घमंडी परी पर उल्टा ही असर हुआ। वह और गुस्सा हो गई। उसने सोचा- देखती हूँ कि मेरी शिकायत कौन करता है। मैं ऐसे फूलों को जादू से जला दूँगी। आखिर उसकी मनमानी बढ़ती गई और एक बार फिर उसकी शिकायत परी रानी के सामने आ पहुँची। अब तो परी रानी बहुत नाराज हो गई। उन्होंने घमंडी परी को बुलाया और कहा- नादान परी, मैंने तुम्हें समझाया था कि सबसे मिलजुलकर रहो, पर तुमने मेरी बात नहीं मानी। तुमने अपना नुकसान खुद किया है, अब सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। जब घमंडी परी ने देखा कि रानी परी तो बहुत गुस्से में है और उसे सजा देकर ही रहेगी, तो उसे थोड़ी अक्ल आई। वह रुऑंसी हो कर बोली- मैं पेड़ या पत्थर नहीं बनना चाहती। मैं तो परीलोक को केवल सुंदर फूलों से सजा हुआ देखना चाहती थी इसीलिए कम सुंदर और काँटेवाले फूलों को नष्ट कर देती थी। मगर रानी ने उसकी एक न सुनी और अपनी जादू की छड़ी हाथ में लेकर कहा- मैं तुम्हें पेड़ या पत्थर नहीं, उससे सुंदर चीज बनाकर धरती पर भेज रही हूँ। उसके बाद रानी परी के जादू से धमंडी परी धरती पर आ गिरी।
तुम जानना चाहोगे, वह परी किस रूप में धरती पर है? हमारे आसपास उड़ती, फूलों पर मँडराती रंग-बिरंगी तितलियाँ ही वह घमंडी परी है। वह इस धरती पर तितली के रूप में जीवन बिता रही है। उड़-उड़ कर हर टहनी के फूलों और काँटों से माफी माँगती है। उसे इनसे कितनी बार माफी माँगनी है, कोई नहीं जानता। हाँ, जब वह सभी फूलों और काँटों से माफी माँग लेगी, तो परीलोक में रानी का दिल पिघल जाएगा और वह उसे वापस परीलोक बुला लेंगी। तब यह तितलियाँ धरती को छोड़कर परीलोक चली जाएँगी। इसलिए इन मेहमान परियों को सताना मत और न ही उन्हें पकड़ना। इन्हें हमेशा प्यार करते रहना, जिससे ये जल्दी से जल्दी अपना काम पूरा कर लें और अपने लोक वापस लौट जाएँ। आखिर उन्हें भी तो अपने घर की याद आती है न!
भारती परिमल

सोमवार, 22 जून 2009

कौसरबानो की अजन्मी बिटिया की ओर से


कविता
सब कुछ ठीक था अम्मा
तेरे खाये अचार की खटास
तेरी चखी हुई मिट्टी
अक्सर पहुँचते थे मेरे पास...।
सूरज तेरी कोख से छनकर
आता था मुझ तक।

मैं बहुत खुश थी अम्मा
मुझे लेनी थी जल्दी ही
अपने हिस्से की साँस
मुझे लगनी थी
अपने हिस्से की भूख
मुझे देखनी थी
अपने हिस्से की धूप।

मैं बहुत खुश थी अम्मा
अब्बू की हथेली की छाया
तेरे पेट पर देखी थी मैंने
मुझे उनका चेहरा देखना था
मुझे अपने हिस्से के अब्बू देखने थे
मुझे अपने हिस्से की दुनिया देखनी थी।

मैं बहुत खुश थी अम्मा!

एक दिन
मैं घबराई... बिछली
जैसे मछली-
तेरी कोख के पानी में
पानी में किस चीज की छाया थी
अनजानी....

मुझे लगा
तू चल नहीं, घिसट रही है
मुझे चोट लग रही थी अम्मा!
फिर जाने क्या हुआ
मैं तेरी कोख के
गुनगुने मुलायम अँधेरे से निकलकर
चटक धूप
फिर...
चटक आग में पहुँच गई।

वह बहुत बड़ा ऑपरेशन था अम्मा!

अपनी उन आँखों से
जो कभी नहीं खुलीं
मैंने देखा
बड़े-बड़े डॉक्टर तुझ पर झुके हुए थे
उनके हाथ में तीन मुँहवाले
बड़े-बड़े नश्तर थे अम्मा...
वे मुझे देख चीखे!

चीखे किसलिए अम्मा-
क्या खुश हुए थे मुझे देखकर!
बाहर निकलते ही
आग के खिलौने दिए उन्होंने अम्मा...
फिर तो मैं खेल में ऐसा बिसरी
कि तुझे देखा नहीं-
तू ने भी अंतिम हिचकी से सोहर गाई होगी अम्मा!
मैं कभी नहीं जन्मी अम्मा
और इसी तरह कभी नहीं मरी
अस्पताल में रंगीन पानी में रखे हुए
अजन्मे बच्चों की तरह
मैं अमर हो गई अम्मा!
लेकिन यहाँ रंगीन पानी नहीं
चुभती हुई आग है!
मुझे कब तक जलना होगा... अम्मा।

(कौसर बानो की बस्ती पर 28 फरवरी 2002 को हमला हुआ। वह गर्भवती थी। हत्यारों ने उसका पेट चीरकर गर्भस्थ शिशु को आग के हवाले कर दिया।
इस कविता में उस शिशु को लड़की माना गया है- कुछ अन्य संकेतो के लिए। )
- अंशु मालवीय

शनिवार, 20 जून 2009

मेरा दर्द : कहाँ है फुटपाथ


डॉ. महेश परिमल
एक बड़े शहर का छोटा-सा नागरिक हूँ मैं। पहले यही शहर अपने बचपन में मेरे बचपन के साथ खेलता था, फुदकता था। हम साथ-साथ बड़े हुए। अचानक शहर ने कुलाँचे मारना शुरू किया। मैं जीवन की जद्दोजहद में फँस गया। शहर फैलता गया, मैं सिमटता गया। शहर का दायरा दस-बीस नहीं तीस किलोमीटर हो गया। मैं दो कमरों के फ्लैट में सिमटता गया। मैं नागरिक बना रहा और शहर 'मेट्रोपोलिटन सिटीÓ बन गया।
आज मैं शहर में अपने चलने लायक जगह ढूँढ रहा हूँ। कहते हैं, शहर में पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ होते हैं, पर मेरे शहर में तो कहीं नहीं दिखता फुटपाथ। कहाँ है फुटपाथ? लोग जिसे फुटपाथ कहते हैं, वहाँ तो दुकानें लगी हैं। मैं आगे कैसे बढूँ? क्या मैं इस शहर में पैदल भी नहीं चल सकता? मैं नागरिक हूँ, वरिष्ठ नागरिक हूँ। सरकार के तमाम करों की अदायगी करता हूँ। तब फिर मुझे मेरे शहर में पैदल चलने का अधिकार क्यों नहीं है?
सुना है, शहर जब बड़ा होने लगता है, तब उससे भी बड़े अधिकारी आने लगते हैं। वे शहर के भविष्य पर चिंता करते हैं, योजना बनाते हैं ताकि बड़े होते शहर के नागरिकों को कोई तकलीफ न हो। बड़ी-बड़ी योजना बनाते हैं, नागरिकों की आँखों में सपना डाल देते हैं। शहर में अब ऐसा होगा, शहर में अब ऐसा होगा। कुछ वर्ष बाद सपने तो बूढ़े हो जाते हैं, पर शहर के सीने में ऊग आती हैं बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें। कई आवासीय कॉलोनियाँ, बड़े-बड़े कार्यालय और बड़ी-बड़ी दुकानें। शहर कांक्रीट का जंगल बनकर रह जाता है। लोगों का जीना मुहाल हो जाता है।
तब हो जाता है शहर अलमस्त। दिन भर जागता है, पर रात को सोता नहीं, आराम नहीं करता। रात को उसकी रफ्तार और तेज हो जाती है। तब भी फुटपाथ खाली नहीं मिलता। फुटपाथ तब शरणस्थली हो जाता है- गरीब, बेसहारा लोगों का। उनको फाँदकर तो जा नहीं सकता। इतनी मानवता तो शेष है मुझमें। फिर भी मैं अपने इस शहर में चलने के लिए फुटपाथ की तलाश में हूँ। आप मेरी मदद करेंगे? कहाँ है फुटपाथ इस शहर में? या फिर मुझे ऐसी जगह बता दें, जहाँ मैं कुछ पल सुकून के गुजार सकूँ, जहाँ न शोर हो, न वायु प्रदूषण और न ही हो सांस्कृतिक प्रदूषण। आप बता सकते हैं ऐसी जगह कहाँ है, इस शहर में?
मुझे लगता है आप मेरी कोई सहायता नहीं कर पाएँगे क्योंकि आप भी इस शहर का एक हिस्सा हैं। अगर आप इस शहर का हिस्सा नहीं बन पाए हैं, तो फिर आप इस शहर के बारे में अच्छा कैसे सोच सकते हैं? जब आप इस शहर को अपने भीतर महसूस करेंगे, तभी इसे समझ पाएँगे। मेरे बहुत से हमउम्र साथी हैं, जो इस शहर को अपने भीतर महसूस करते हैं, हमने तय किया है कि हम इस शहर में फुटपाथों को फिर से आबाद करेंगे, इसे पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित करेंगे। हमें चाहिए आपका नैतिक समर्थन, आप देंगे ना?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 19 जून 2009

पैसों का पेड़


भारती परिमल
भोलू मौज-मस्ती में जीने वाला एक लापरवाह लड़का था। घर पर मम्मी यदि उसे कोई काम बताती तो किसी न किसी बहाने से वह उनके सामने से गायब हो जाता। बस, दिन भर मौज-मस्ती करना और मम्मी को तंग करना, यही उसका काम था। हाँ, मम्मी से जेबखर्च माँगना वह कभी नहीं भूलता था। जब तक मम्मी उसे पैसे न देती, वह उनसे नाराज रहता और कोई बात न करता। बल्कि अपने कमरे में जाकर नाराज होकर सो जाता। उसकी इन हरकतों के कारण मम्मी प्राय: उससे नाराज ही रहती।
रोज की तरह उस दिन भी भोलू ने मम्मी से पैसे माँगे। मम्मी बोली - बेटे, मैंने तुम्हें सुबह ही तो पाँच रूपए दिए थे, वह कहाँ गए? वह तो मैंने खर्च कर दिए- भोलू लापरवाही से बोला।
- तो फिर तुम्हें दूसरे पैसे नहीं मिलेंगे, लेकिन भोलू ने पैसे लेने की जिद पकड़ ली कि मुझे तो पैसे चाहिए ही। तब मम्मी ने थोड़ा डाँटते हुए और थोड़ा समझाते हुए कहा - देखो, भोलू। पैसे कोई पेड़ पर तो उगते नहीं है, कि जब चाहो तब तोड़ लो।
भोलू तो अपनी बात पर ही अड़ा रहा कि मुझे तो किसी भी हालत में पैसे चाहिए ही। मुझे और कुछ नहीं सुनना है। भोलू की जिद को देखते हुए मम्मी ने इच्छा न होते हुए भी चुपचाप उसके हाथ में पाँच रूपए का नोट रख दिया। भोलू पैसे लेकर घर से बाहर निकल गया। सामने अमरूद का पेड़ था। उसकी डालियों पर ताजे-ताजे अमरूद लटक रहे थे। भोलू सोचने लगा - काश, अमरूद की तरह यदि पैसों का पेड़ होता तो? और उसने पैसों का पेड़ उगाने का निश्चय किया, लेकिन क्या पैसों का पेड़ भी उगाया जा सकता है भला? उसने कभी पैसों के पेड़ के बारे में नहीं सुना था और न ही किसी के घर पर उसने पैसों का पेड़ ही देखा था। इसका अर्थ यह हुआ कि यह तो संभव ही नहीं है।
दूसरे ही क्षण भोलू के मन में विचार आया - क्यों संभव नहीं है? इस दुनिया में ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो असंभव हो। हो सकता है आज तक किसी ने इस बारे में सोचा ही न हो और कोई प्रयत्न भी न किया हो। क्यों न इस अच्छे काम की शुरूआत मंै ही करू? भोलू ने एक बगीचे में जाकर वहाँ पर अच्छी गीली मिट्टी देखकर गड्ढा खोदा और उसमें एक रूपए का सिक्का गड़ा दिया। फिर गड्ढे को अच्छी तरह से पाट दिया। पास के नल से पानी लाकर उस पर डाल दिया। उसने तय कर लिया कि अब वह रोज उस पर पानी डालेगा और एक दिन पैसों का पेड़ उग जाएगा। फिर तो उस पेड़ की डालियों पर अमरूद की तरह पैसे उगेंगे। तब मैं उन्हें अपनी जरूरत के मुताबिक तोड़ लूँगा। बल्कि मम्मी को भी ले जाकर दूँगा। आज तक मम्मी ने मुझे जितने भी पैसे दिए हैं, मैं उसके दोगुने पैसे उन्हें लौटा दूँगा। इस तरह भोलू अपनी कल्पनाओं की दुनिया में खो गया।
अचानक ही दूसरे दिन भोलू को अपनी मम्मी के साथ नानी के घर जाना पड़ा। उसकी नानी पास के ही एक गाँव में रहती थी। गरमी की छुट्टियाँ थी, सो मम्मी तीन-चार दिन के लिए गई थी, लेकिन नाना-नानी और मौसी-मामा की मान-मनुहार के कारण वह ज्यादा दिनों तक वहाँ ठहर गई। पंद्रह दिनों बाद जब वे लोग वापस आए, तो भोलू को फिर से अपने पैसों का पेड़ याद आया। वह दौड़ते हुए बगीचे की तरफ गया। वहाँ उसने जिस जगह एक रूपए का सिक्का गाड़ा था, उस जगह को अंदाज से खोज निकाला। उसने देखा कि वहाँ तो एक बड़ा सा पेड़ उग गया था। पेड़ को देखकर भोलू बड़ा खुश हुआ। वह दौड़ता हुआ मम्मी के पास आया और चहकते हुए बोला- मम्मी- मम्मी, मैंने पैसों का पेड उगाया है। मम्मी ने उसकी बात की तरफ ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लगी रही। जब उसने फिर से जोर देकर अपनी बात कही, तो मम्मी ने जवाब दिया- पैसों का भी कहीं पेड़ होता है? भोलू बोला- हाँ, होता है ना? चलो मेरे साथ। मैं आपको दिखाता हूँ। वह मम्मी का हाथ पकड़कर उन्हें खींचते हुए अपने साथ बगीचे में ले गया। वहाँ पर बड़ा सा पेड़ दिखाते हुए बोला- ये देखो मम्मी, ये रहा पैसों का पेड़। मम्मी को आश्चर्य हुआ - क्या, ये पैसों का पेड़ है? भोलू खुश होते हुए बोला- हाँ, मम्मी। यही है मेरा पैसों का पेड़। इसे मैंने ही उगाया है। मम्मी बोली- लेकिन भोलू, यह तो नीम का पेड़ है। अब चौंकने की बारी भोलू की थी- वह आश्चर्य से बोला- यदि ये नीम का पेड़ है, तो मेरा पैसों का पेड़ कहाँ है? मैं नानी के घर गया था, उसके पहले एक रूपए का सिक्का इसी जगह पर जमीन में गाड़ कर गया था। उसे मैं ने सींचा भी था। जब मैं नानी के घर से वापस आया, तो इस जगह पर यह पेड़ देखा।
मम्मी बोली- लेकिन बेटा, यह पेड़ तो कई सालों से यहीं पर है। तुमने किसी और जगह पर अपना सिक्का गाड़ दिया होगा। फिर उसे समझाते हुए बोली- बेटा, पैसों का कोई पेड़ नहीं होता। यदि ऐसा संभव होता तो किसी को कोई काम करने की जरूरत ही नहीं होती। सभी पैसों का पेड़ उगाते और उसे पानी देकर बड़ा करते। पैसे तो मेहनत के बल पर कमाए जाते हैं। तुम्हारे पापा भी इसीलिए रात-दिन मेहनत करते हैं। जिससे तुम अच्छी तरह पढ़ाई कर सको। हम तीनों सारी सुख-सुविधाओं के साथ खुशी-खुशी रह सकें।
मम्मी की बात अब भोलू की समझ में आ गई थी।
भारती परिमल

गुरुवार, 18 जून 2009

मुझे आधार नहीं चाहिए


भारती परिमल
ढलती दोपहर को जब माया घर पहुँची, तो घर के आसपास सन्नाटा पसरा पड़ा था। वैसे भी झुलसाने वाली गरमी में कौन सी चहल-पहल होगी। चहल-पहल तो घर के अंदर ही होगी। कई बार घर के लोगों से कहा है कि दोपहर को सो जाया करो, लेकिन नहीं कोई नहीं मानता। उनके दोपहर के आराम में अवरोध न हो, इसलिए वह घर की एक चाबी अपने पास ही रखती है और जैसे ही इंटरलॉक खोलने की कोशिश करती है, कि उसके पहले ही दीपा को दरवाजा खोलकर सामने खड़ा पाती है। माँ-बाबूजी और दीपा तीनों ही उसके इंतजार में ड्रॉईंगरूम में बैठे रहते हैं। दीपा चहकते हुए उसका स्वागत करती है। बाबूजी पेपर की ओट से उसे देखते हैं और देखने के बाद 'आ गई बेटीÓ कहते हुए फिर से निश्चिंत होकर पेपर पढऩे में लग जाते हैं। माँ उसके हाथों से पर्स और अन्य सामान ले लेती है और दो मिनट बाद उसके हाथ में पानी का गिलास थमा देती है।
आज हकीकत कुछ और थी। भीतर से कोई शोर सुनाई नहीं दिया। इंटरलॉक खोलकर ही उसे अंदर आना पड़ा। ड्रॉईंगरूम एकदम सूना पड़ा था। चहकते हुए स्वागत करने वाली दीपा कहीं दिखाई नहीं दी। बाबूजी की कुर्सी खाली पड़ी थी। माया का मन अनजानी आशंका से काँप उठा। दो दिन से बाबूजी की तबियत कुछ खराब थी। सुबह कॉलेज जाते हुए उसने डॉक्टर के पास चलने की बात कही, तो उन्होंने यह कहते हुए टाल दिया कि अब तबियत ठीक है, मगर आवाज की कमजोरी कुछ और ही कह रही थी। उसने सुबह ही तय कर लिया था कि शाम को बाबूजी कितना भी ना-नुकुर करे, वह उन्हें डॉक्टर के पास ले ही जाएगी। ड्रॉईंगरूम में पसरे सन्नाटे को देखकर वह अनजानी आशंका से घिर गई और पर्स व फाईलें लगभग फेंकते हुए बाबूजी के कमरे में दौड़ती हुई पहुँची। देखा तो बाबूजी आराम से सो रहे थे और माँ उनके सिरहाने बैठी हुई कोई किताब पढ़ रही थी। उसे देखते ही उठ खड़ी हुई और थोड़ी देर बाद चुपचाप उसके सामने एक गिलास पानी रख दिया। माँ के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं थी। माया पानी पीकर अपने कमरे में चली गई।
ड्रेस बदलकर जैसे ही बाथरूम से निकली तो दीपा को सामने खड़ा पाया। तुम कहाँ थी अब तक? प्रत्युत्तर में दीपा ने उसके हाथ में एक पत्र पकड़ा दिया और दूसरे कमरे में चली गई। माया ने महसूस किया कि रोज उसके सामने बक-बक करने वाली दीपा आज बातें करते हुए कतरा रही है।
पत्र हाथ में लेते ही भेजने वाले का नाम पढ़कर उसे आश्चर्य हुआ। जिस अध्याय को खत्म हुए पूरे दो साल बीत गए थे, उसी अध्याय का एक अंश आज पत्र के रूप में उसके सामने था। पत्र मनोज के पिताजी का था। वही मनोज जिसे लेकर उसने भविष्य के सपने सजाए थे। दो साल पहले इसी लिखावट ने उसके दिल को गुदगुदा दिया था। उसी मीठास को महसूस करते वह अतीत में पहुँच गई। उस समय पत्र उसके हाथ में ही आया था और पिताजी के कहने पर उसने ही पढ़ा था। लिखा था- कैलाश बाबू, आपकी लड़की हमें पसंद है। बस औपचारिकता ही बाकी है। लड़के के चाचा होने वाली बहू को देखना चाहते हैं, इसलिए मैं, मनोज और उसके चाचा हम तीनों ही अगले सोमवार को आपके घर आ रहे हैं।
खबर सुनकर सभी के चेहरे पर रौनक आ गई थी। दीपा तो उसे चिढ़ाती हुई बोली- दीदी, मेरे होनेवाले जीजाजी से मिलने की तैयारी कर लो, बस तीन दिन ही बाकी है। सभी लोग मेहमानों के स्वागत की तैयारी में जुट गए थे। माया ने माँ-बाबूजी और दीपा के लिए नए कपड़े खरीदे। नए परदे, कुशन, बोनचाइना के कप, सभी कुछ दो दिनों में नया आ गया। नाश्ते ओर खाने का मेनू दो बार तय करके फाड़ चुकी थी। वह सोचने लगी माँ अपनी पसंद की खीर तो बनाएगी ही। फिर मीठे में और क्या बनाया जाए? तभी दीपा बोली- दीदी, जीजाजी को अपने हाथ का बनाया लौकी का हलवा जरूर खिलाना। वो तो ऊँगलियाँ ही चाटते ही रह जाएँगे। रात को एकांत में उसने मनोज की तस्वीर निकाली और मुस्कराते हुए पूछा- क्यों डॉक्टर साहब, लौकी का हलवा खाएँगे? सागर की लहरों के समान उसके मन में भी लहरें उठने लगीं। उसने अपनी कल्पना में ही मनोज के साथ ढेरों बातें कर लीं।
निश्चित दिन को तीनों घर आए। सभी ने मिल बैठकर हँसी-मजाक के बीच बहुत सारी बातें की। नन्हीं दीपा बहुत चालाक थी। बोली - दीदी, जीजाजी को आपने अपना बगीचा तो दिखाया ही नहीं। चलो, हम उन्हें बगीचा दिखाते हैं। यह कहते हुए दोनों को ही हाथ पकड़कर बाहर ले गई। वहाँ पहुँचकर खुद किसी बहाने से चली गई। रह गए मनोज और माया। एकांत के क्षणों में मनोज ने शालीनता के साथ माया से कहा- माया, तुम्हें एक बार देख लेने के बाद भूलना मुश्किल है। वह मूर्ख ही होगा, जो तुमसे मिलने के बाद अलग होना चाहेगा। इस छोटी सी बातचीत में मनोज ने अपने मन की बात कह दी थी। जाते हुए मनोज के पिता बोले- कैलाश बाबू, हम लोग मुंबई पहुँचते ही शादी की तारीख तय कर आपको सूचना देंगे। दिन बीतते गए। सप्ताह महीने में बदल गए, पर कोई सूचना नहीं मिली। इस बीच माँ-बाबूजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें बनती-बिगड़ती। करीब तीन महीने बाद एक पत्र आया, जिसमें लिखा था- कैलाश बाबू, हमने घर-परिवार, लड़की सभी कुछ देख लिया। बातचीत भी कर ली, पर आपस में लेनदेन की बात तो की नहीं। यहाँ आने के बाद मुंबई का ही एक रिश्ता मनोज के लिए आया। वे लोग मनोज की पढ़ाई में हुआ पूरा खर्च देने के लिए तैयार हैं। सो हमने मनोज की शादी उसी परिवार में करना तय किया है। इसी महीने की 20 तारीख को शादी है। हमें खेद है कि हम आपके यहाँ रिश्ता नहीं जोड़ सके। ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी बेटी का भी रिश्ता किसी अच्छे घर में तय हो जाए।
पत्र पढ़कर तो उसके पैरों तले की जमीन ही सरक गई। एक जोरदार झटका लगा और उसकी कल्पनाओं का आकाश बेरंग हो गया। माँ-बाबूजी की खातिर उसने अपने आँसूओं को पलकों में ही कैद कर लिया। साथ ही एक निर्णय ले लिया कि अब वह कभी शादी नहीं करेगी। अब तक वह अपनी शादी के लिए धन जुटाने के प्रयास में कॉलेज की नौकरी कर रही थी और अब दीपा की शादी के लिए धन जुटाने में लग गई। कभी-कभी वह रात को तारों भरा आकाश देखकर मन ही मन कहती - क्यों डॉक्टर साहब, आप भी आ गए पैसों के लालच में और कभी भूल न पाने वाली माया को एक क्षण में ही भूल गए! इस बीच नन्हीं दीपा एकाएक बहुत बड़ी हो गई। जीजाजी के नाम से उसे छेडऩे वाली अब इस बात का ध्यान रखती कि कहीं उसके मुँह से गलती से भी ऐसी कोई बात न निकले जिससे उसकी दीदी को दुख पहुँचे।
इसी तरह दिन बितते गए। उसने स्वयं को परिस्थिति के अनुसार ढाल लिया। कॉलेज और घर के बीच ऐसा व्यस्त कर लिया कि माँ-बाबूजी जब भी उसकी शादी की बात करते वह उसे टाल जाती। वह मन ही मन शादी न करने का निर्णय तो ले चुकी थी, पर यह बात उन्हें बताकर दुखी नहीं करना चाहती थी।
आज दो साल बाद पत्र पाकर पुराना अध्याय आँखों के सामने तैर गया था। पत्र खुला हुआ था यानी पत्र पढ़ा जा चुका है और यही घर के लोगों की चुप्पी का कारण है। उसने पत्र पढ़ा और गुस्से से काँपने लगी। उसने तेज आवाज में दीपा से कहा- दीपा, मेरे हाथ में यह पत्र क्यों दिया? दीदी का ऐसा गुस्सा दीपा ने पहली बार देखा था। वह चुपचाप माँ के पास जाकर खड़ी हो गई। माया बाबूजी से बोली - बाबूजी, इसे पढ़ते ही फाड़कर क्यों नहीं फेंक दिया? वाह क्या पत्र लिखा है- कैलाश बाबू, हमने पैसों के लालच में मनोज की शादी एक अमीर घर में कर तो दी लेकिन अब बड़ी शर्म महसूस कर रहे हैं। पिछले साल नीता की प्रसव के दौरान मौत हो गई और वह अपनी निशानी एक बच्ची मनोज की गोद में छोड़ गई। मनोज दूसरी शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है। वह केवल आपकी बेटी से शादी करने के लिए ही तैयार हुआ है। हमने पता लगाया तो मालूम पड़ा कि आपकी बेटी अभी भी कुंवारी है। इसलिए हम पर उपकार कीजिए और अपनी बेटी की शादी मनोज के साथ कर दीजिए। वह इस घर की बहू बनकर मनोज और उसकी बेटी दोनों को ही संभाल लेगी। आपकी हाँ से मेरे बेटे का घर फिर से बस जाएगा।
नहीं, बाबूजी। बिलकुल नहीं। आप हाँ कह सकते हैं, पर मैं हाँ बिलकुल नहीं कह सकती। मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ। मुझे किसी भी आधार की जरूरत नहीं है।
'लेकिन बेटा.. Ó बाबूजी ने कुछ कहना चाहा, पर माया ने अपना निर्णय सुना दिया- बाबूजी, अब लेकिन की कोई गुंजाईश ही नहीं है। मैं अपने जीवन का निर्णय ले चुकी हूँ। मुझे कोई आधार नहीं चाहिए। उसके चेहरे पर स्वाभिमान का तेज था।
भारती परिमल

बुधवार, 17 जून 2009

गिरते पत्तों का संदेश


भारती परिमल
दीपू एक नटखट बालक था। स्कूल में उसकी शरारतों से जहाँ शिक्षक परेशान रहते थे, तो घर में उसके आलसीपन और लापरवाही से मम्मी-पापा को भी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उसे सबसे ज्यादा मजा आता था, फूल-पत्तों को तोड़ने में और पौधों को उखाड़ फेंकने में। स्कूल में जब किसी दिन बच्चों को मैदान की या बगीचे की सफाई का काम सौंपा जाता, तो उस दिन तो दीपू के मजे हो जाते। वह पत्तों के साथ फूलों को भी तोड़ देता और कई छोटे-छोटे पौधों को तो जड़ सहित उखाड़ कर फिर से गमले में लगा देता। उसे फूलों की पंखुड़ियों को मसलना, पेड़ की शाखाओं को तोड़ना, चिड़िया के घोंसले को नष्ट करना ये सभी काम करने बहुत अच्छे लगते। उसके दोस्त भी उसकी शरारतों में उसके साथ शामिल होते। वे सभी मिल कर कोई न कोई ऐसी शरारत करते कि जिससे बेचारे मूक पेड़-पौधे और पक्षियों को परेशानी होती।
दिसम्बर की छुट्टियों में जब उन्हें स्कूल की तरफ से पिकनिक ले जाया गया, तो वहाँ दीपू और उसके सभी दोस्तों ने मिलकर बगीचे के बहुत सारे फूल तोड़ लिए और उन्हें बिखेर दिया। इतने से ही उन्हें संतोष न हुआ तो पेड़़ पर चढ़कर चिड़िया का घोंसला भी नीचे गिरा दिया। बेचारी चिड़िया के चार अंडे फूट गए और वह चीं-ची करती चिल्लाती ही रह गई। शीना, मीना और उसकी सहेलियों ने उनकी शिकायत गेम्स टीचर से कर दी, फिर क्या था गेम्स टीचर ने उन्हें ऐसा डाँटा कि उनका पिकनिक का मजा ही जाता रहा।
एक दिन पापा ने उसे गमलों में पानी डालने के लिए कहा। उसे तो यह काम भाता ही नहीं था, सो उसने हाँ कह कर आदेश टाल दिया। बाद में जब पिता ने देखा कि सारे गमले सूखे ही सूखे हैं, तो उन्होंने दीपू से उसका कारण पूछा। दीपू ने फिर बहाना बनाया और कहने लगा कि मैं भूल गया था। ऐसा कहकर वह दूसरे काम में लग गया। उस दिन तो गमलों में पापा ने पानी डाल दिया। कुछ दिन बाद पापा ने सख्ती के साथ दीपू से कहा कि आज तुम्हें गमलों में पानी डालना ही है। ऐसा कह कर वे किसी काम से बाहर चले गए।
दीपू गमलों में पानी डालने लगा। पानी डालते हुए अचानक उसे शरारत सूझी- कुछ गमलों को तो उसने पानी से लबालब भर दिया और कुछ छोटे-छोटे पौधों को उखाड़ दिया। ऐसा करते हुए उसे बहुत अच्छा लगा। अपनी शरारत पर वह बहुत खुश था। फिर पापा की डाँट के डर से उसने उखाड़े हुए पौधों को फिर से गमले में ऐसे ही रख दिया। शाम को पापा ने पौधों की जो हालत देखी तो उन्हें दीपू की कारस्तानी का पता चला। उन्हें गुस्सा तो बहुत आया पर उन्होंने धैर्य से काम लिया। वे दीपू का स्वभाव जानते थे कि ये शरारती है, किंतु पेड़-पौधो के प्रति उसके मन में जरा भी दया भाव नहीं है, यह बात उन्हें दुःखी कर गई। उन्होंने दीपू के मन में पेड़-पौधों के प्रति प्यार जगाने का संकल्प लिया।
दूसरे दिन रविवार था। वे बाजार गए और एक सुंदर सा गुलाब का पौधा ले आए। इसे दीपू के हाथों में सौंपते हुए बोले- ये तुम्हारे लिए है। इसकी सारी जवाबदारी तुम्हारी है। इसे आज ही गमले में लगा दो और रोज सुबह-शाम इसमें पानी डालो। एक महीने बाद मैं तुमसे इस पोधे की प्रगति के बारे में पूछूँगा। मुझे विश्वास है, तुम इसकी अच्छी तरह देखभाल करोगे। ऐसा कहते हुए पापा ने दीपू के सर पर प्यार से हाथ फेरा। दीपू इस जवाबदारी से घबरा गया, पर पापा के प्यार और विश्वास के सामने कुछ कह न पाया। उसने इच्छा न होते हुए भी पौधे को गमले में लगा दिया।
बस यहाँ आकर दीपू का काम पूरा हो गया। उसने गमले को एक कोने में रख दिया और फिर स्वभाव के अनुसार उसे भूल गया। कभी याद भी आ जाता तो कल पानी डाल दूँगा ऐसा सोचता हुआ काम को टाल देता। इस तरह से एक महीना गुजर गया। इस दौरान दीपू के पापा ने भी उस पौधे की दुर्दशा देखी, पर चूँकि उन्होंने एक महीने बाद उस संबंध में बात करने को कहा था, इसलिए वे चुप रहे। एक दिन उन्होंने दीपू को अपने पास बुलाया और उस पौधे के बारे में पूछा। जब दीपू उन्हें कोई जवाब न दे पाया, तो वे उसे स्वयं ही गमले के पास ले गए। दीपू ने देखा- पौधा पूरी तरह से सूख चुका है, पत्ते सारे पीले पड़ चुके हैं। उसे यकीन हो गया अब तो पापा जरूर डाँटेंगे। वह उनकी डाँट से बचने का और अपनी सफाई देने का उपाय सोचने लगा। ऐसा करते हुए उसने चारों तरफ, ऊपर-नीचे निगाह दौड़ाई और उसे उपाय सूझ गया।
पापा ने जैसे ही उसकी लापरवाही को लेकर उसे डाँटना शुरू किया कि दीपू बोल पड़ा- पापा मेरा इसमें कोई दोष नहीं। सभी पेड़-पौधो की यही हालत है। ये पौधा ही नहीं आस-पास के सभी पौधे तो मुरझा रहे हैं, पत्ते पीले पड़ रहे हैं, वो देखिए उस पेड़ के तो पत्ते भी किस तरह से झड़ कर नीचे गिरे हुए हैं, बिना पत्तों का पेड़ कितना डरावना दिख रहा है। जब पेड़-पौधों की यही हालत होनी है, तो फिर भला इनकी देखभाल का क्या मतलब?
पापा ने प्यार से समझाया- मेरे बेटे, सभी चीजों का कुछ न कुछ मतलब होता है। ये पतझड़ का मौसम है। इस मौसम में पेड़ से पुराने ़पत्ते झड़ जाते हैं। ये मौसम पेड़-पौधों के लिए वस्त्र बदलने की तरह है। जिस तरह हम पुराने वस्त्र उतारकर नए वस्त्र पहनते हैं, उसी तरह प्रकृति भी इन पेड़ों को इस मौसम में नए वस्त्र धारण करने के लिए कहती है, सो उसके लिए पुराने पत्तों का झड़ना आवश्यक है। इस परिवर्तन के द्वारा पेड़-पौधो पर नई कोंपल आती है और हमें शुद्ध प्राणवायु मिलती है। ये पौधे ही हैं जो हमें जीवन देते हैं। इनके बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं है।
तुम पेड़ से पत्तों का गिरना मत देखो, बल्कि इस मौसम के बाद आती हरियाली की आवश्यकता को समझो। ये हरियाली हमारे लिए, संसार के सभी प्राणियों के लिए जरूरी है। पतझड़ आएगा, तभी सावन भी आएगा और सावन अपने साथ फिर हरियाली लाएगा। कल्पना करो यदि केवल पतझड़ ही रहे, तो धरती कितनी सूखी, पीली, खाली-खाली सी दिखाई देगी। ये धरती हरी-भरी रहे, इसीलिए पतझड़ आता है और पुराने पत्तों को गिरा कर नई कोंपले लाता है। इसलिए तुम भी केवल पतझड़ की बात न करो बल्कि उसके बाद आनेवाली हरियाली की तरफ कदम बढ़ाओ। ये पौधा जो आज सूख रहा है उसमें फिर से पानी डालो, उसकी पूरे मन से नियमित देखभाल करो, तो कुछ दिन बाद ही तुम्हें यह पौधा भी नई कोंपलो के साथ हरा-भरा मुस्काता दिखाई देगा। तुम्हारी मेहनत से इसमंे नई कोंपले आएँगी और फूल खिलंेगे। तब तुम्हें अपनी मेहनत पर गर्व होगा। एक बार ऐसा करके तो देखो।
अपने भीतर के आलस और लापरवाही को पतझड़ के पुराने पों की तरह गिरा दो और फिर देखो तुम्हारी मेहनत और स्फूर्ति से जो हरियाली तुम्हारे जीवन में आएगी, वो तुम्हें एक अनोखी खुशी देगी।
आज पापा की बात दीपू की समझ में आ गई उसने उसी क्षण नई स्फूर्ति के साथ कदम बढ़ाया और सभी पौधों पर पानी डालना शुरू कर दिया। आज वह आलस से नहीं पूरे मन से पौधों को सींच रहा था और उन पौधों पर नई कोंपले आने का इंतजार कर रहा था।
भारती परिमल

मंगलवार, 16 जून 2009

रेगिस्तान की खुशी


भारती परिमल
एक थी नदी। वह बड़े ही अनोखे स्वभाव की थी। अपना हर काम दूसरों से अलग करना चाहती थी। अपने इसी अनोखे स्वभाव के कारण वह पहाड़ की लाड़-दुलारी बेटी थी। चंचल, नटखट, कलकल करती प्यारी-सी बेटी। पिता का घर छोड़कर वह तो चल पड़ी अपनी लहरों के साथ धरती की गोद में। कल-कल करती कभी इठलाती तो कभी इतराती। रास्ते में उसे जो भी मिला उससे रिश्ता जोड़ लिया। मिट्टी को भिगोया, पेड़-पौधों को हरा-भरा किया और पशु-पक्षियों को तृप्त किया। यहाँ तक कि मानव की भी प्यास बुझाई और अपनी धुन में मस्त सभी पर अपना स्नेह लुटाती वह तो आगे ही बढ़ती रही।
उसकी दौड़ तो सागर पर जाकर खत्म होनी थी। इसलिए वह सागर से मिलने के लिए दौड़ती रही-दौड़ती रही। उसे मालूम था कि सागर के खारे पानी में मिलकर उसका मीठा जल भी खारा हो जाएगा, लेकिन उसे तो अंत में सागर में ही मिलना था, उसी में डूब जाना था। इसलिए वह सागर से मिलने के लिए आगे बढ़ती रही।
एकाएक सामने से उसे एक बूढ़ा, अशक्त और प्यासा रेगिस्तान आता दिखाई दिया। प्यास के मारे उसका कंठ सूखा जा रहा था। वह इतना दुर्बल था कि बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ रहा था। नदी तो उसे देखती ही रह गई। चारों ओर फैला रेत का शरीर ही उसकी पहचान था। सूरज की किरणों से सुनहरा हुआ उसका शरीर पूरी तरह से तप रहा था। दूर-दूर तक हरियाली का नामो-निशान न था। नदी को उसकी हालत देखकर आश्चर्य हुआ। उसने पूछा- तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं पहचानती। बड़ी मुश्किल से उसने अपना मुँह खोला और बोला- बेटी, तुम मुझे नहीं पहचानोगी, क्योंकि हमारी मुलाकात ही पहली बार हो रही है, लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह से पहचानता हूँ। तुम अमृत का भंडार हो, लोगों को तृप्त करनेवाली तृप्ति का अवतार हो। जबकि मैं तो रेत का शरीर धारण करने वाला एक सूखा रेगिस्तान हूँ। हमेशा अतृप्त रहता हूँ और अपनी तृप्ति के लिए तड़पता रहता हूँ। कभी कोई बादल का टुकड़ा मेरे पास आता है और दया कर मुझ पर बरस पड़ता है, तो कुछ समय के लिए मेरी आत्मा तृप्त हो उठती है, पर अगले ही पल फिर से तड़प उठता हूँ। मैं प्यासा हूँ, प्यास के कारण मेरा कंठ सूख रहा है। क्या तुम मुझे थोड़ा-सा पानी पिला सकती हो?
नदी तो बूढ़े रेगिस्तान बाबा की बातों को सुनकर, उसकी दशा देखकर कांप उठी। उसे बूढ़े रेगिस्तान पर दया आ गई, कहने लगी- थोड़ा क्यों? आपको जितना पानी पीना है, पी लो और अपनी प्यास बुझा लो। वह सागर की ओर जाने वाली दिशा से वापस मुड़ गई और रेगिस्तान के बीच में समा गई। उसने रेगिस्तान की प्यास बुझाने के लिए अपनी लहरों को उसकी गोद में डाल दिया। लहरों में भीगकर रेगिस्तान खूब खुश हुआ। उसका एक-एक कण पानी में भीग गया। नदी को एक अनोखा काम करने की इतनी खुशी हुई कि वह सागर में समाने की बात ही भूल गई और हमेशा के लिए रेगिस्तान की दोस्त बन गई। वह आज भी दूसरी नदियों को सागर में जाते हुए देखती है, मगर उसे सागर तक न पहुँचने का कोई दुख नहीं है, बल्कि उसे खुशी है कि वह आज वहाँ है, जहाँ उसकी वास्तव में आवश्यकता है। किसी को सुखी करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, यह बात नदी ने अपने जीवन में अच्छी तरह से सीख ली है। आज वह खुश है, और बहुत खुश।
भारती परिमल

सोमवार, 15 जून 2009

बिना गणित का शहर


भारती परिमल
एक था लड़का। काम का लल्लू, स्वभाव का लल्लू और उससे भी पहले नाम का भी लल्लू! पढऩा तो जैसे उसे बिलकुल भी नहीं भाता था, पर मम्मी-पापा की डाँट और शिक्षक की मार का असर था कि वह थोड़ी-बहुत पढ़ाई मन लगाकर कर लेता था। उसमें भी गणित विषय तो उसका शत्रु ही था। गणित की पुस्तक देखते ही वह उससे बचने का प्रयास करता। फिर भी जोड़-घटाना तो उसने अच्छी तरह से सीख ही लिया था। हाँ, जहाँ गुणा या भाग की बात आती, वह उससे दूर ही भागता। उसे लगता था कि गणित में जोड़-घटाना ही मुख्य है और इतना तो मुझे आता ही है। बस इससे आगे न भी आए, तो कोई बात नहीं। इसीलिए वह गणित के दूसरे सवालों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था। जब कक्षा में शिक्षक जोड़-घटाने के सवाल करवाते तो वह खुशी से उन्हें हल करता, लेकिन जैसे ही गुणा-भाग के सवाल शुरू होते, वह टेबल के नीचे सिर करके बैठ जाता और कभी-कभी तो सो भी जाता।
एक बार लल्लू इसी तरह कक्षा में सो गया और उसने एक सपना देखा। सपने में देखा कि वह एक अनोखे शहर में पहुँच गया है। शहर की सीमा पर ही एक बड़ा सा दरवाजा बना है और उस पर लिखा है - बिना गणित का शहर। यह पढ़ते ही लल्लू की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। वाह! कितना अच्छा शहर है। मुझे तो यहाँ रहना बहुत अच्छा लगेगा, क्योंकि यहाँ तो गणित का कोई झंझट ही नहीं है। गणित का कोई सवाल नहीं, जोड़-घटाने की कोई परेशानी नहीं, वाह! यहाँ तो खूब मजा आएगा। मजा ही मजा। भरपूर मजा!!
लल्लू तो खुश होते हुए उस दरवाजे से शहर के अंदर चला गया। बड़े-बडे मकान, चारों ओर हरियाली। दौड़ते-भागते, खेलते बच्चे और हँसी-खुशी अपना काम करते लोग। लल्लू को यह सब बहुत अच्छा लगा। इतने में एक जगह लल्लू ने देखा कि दो लोग आपस में बहस कर रहे हैं। दोनों के पास एक-एक टोकरी थी और उसमें संतरे भरे हुए थे। अब दोनों ही इस बात को लेकर बहस कर रहे थे कि दोनों टोकरियाँ मिलाकर कुल कितने संतरे हैं? बिना गणित का यह नगर था इसलिए वहाँ के लोगों को जोडऩा तो आता नहीं था। लल्लू उन्हें झगड़ते हुए देखकर उनके पास पहुँचा और कहा- आप दोनों आपस में झगड़ा न करें। मैं आप दोनों की समस्या हल कर देता हूँ। अभी गिनकर बता देता हूँ कि कुल कितने संतरे हैं। लल्लू को तो वैसे भी जोड़ के सवाल अच्छी तरह से आते थे, इसलिए उसने उनकी यह समस्या तुरंत ही हल कर दी। दोनों बहुत खुश हुए और बदले में दोनों ने एक-एक संतरा उसे ईनाम में दिया।

स्वादिष्ट संतरा पाकर लल्लू बहुत खुश हुआ और उन्हें खाते हुए आगे बढ़ा। चलते-चलते वह शहर के दूसरे छोर पर पहुँच गया। यहाँ उसे समुद्र दिखाई दिया। कुछ मछुआरे समुद्र से मछलियाँ पकड़ रहे थे। वे लोग टोकरी में रखी मछलियों को गिनना चाहते थे, लेकिन उन्हें गणित तो आता नहीं था इसलिए समुद्र के किनारे बने पेड़ पर एक-एक मछली के हिसाब से लकीरें खींचते और मछली को दूसरी टोकरी में रख देते। इतने में दूर से एक बच्चा दौड़ते हुए आया और उसका पैर उस टोकरी से टकरा गया, जिसमें वे लोग गिनकर मछलियाँ भर रहे थे। कुछ मछलियाँ टोकरी से बाहर गिर गई। वे लोग उसे उठाते कि तभी समुद्र की लहरें आईं और उन नीचे पड़ी मछलियों को अपने साथ बहाकर ले गईं। अब वे दोनों आपस में ही झगडऩे लगे कि अब कैसे पता चलेगा कि कितनी मछलियाँ कम हो गई हैं? लल्लू ने उनकी समस्या समझ ली थी। वह उन्हें समझाते हुए बोला- रूक जाओ। मैं अभी तुम्हारी समस्या हल कर देता हूँ। उसने टोकरी में रखी हुई बाकी मछलियों को गिना और फिर उस पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ उन्होंने मछलियों को गिनकर लकीरें खींची थीं। उन लकीरों में से उसने गिनी हुई मछलियों की लकीरों को काट दिया और बाकी की लकीरों को गिन कर बताया कि आप लोगों की कुल आठ मछलियाँ पानी में बह गई हैं। अपनी समस्या का समाधान होते ही वे मछुआरे तो बहुत खुश हुए। उन्होंने लल्लू को सीप, शंख और अन्य समुद्री चीजें उपहार में दी। उपहार पाकर लल्लू बहुत खुश हुआ। साथ ही उन्होंने उसे 'चतुर पंडितÓ भी कहा। 'चतुर पंडितÓ की उपाधि पाकर तो लल्लू बहुत ही खुश हुआ।
अब वह बिना गणित के इस शहर में शान से घूमने लगा। घूमते-घूमते शाम होने को आई। वह एक खेत के पास से गुजर रहा था। कुछ औरतें खेत से पपीते तोड़कर टोकरियों में भर रही थीं और खेत का मालिक वहीं खड़ा था। टोकरियाँ भरने के बाद उन्होंने खेत के मालिक से मजदूरी के पैसे माँगे, लेकिन कितनी मजदूरी होती है, इसका हिसाब किसी को भी नहीं आता था। न ही खेत के मालिक को और न ही उन औरतों को। इतने में उन्होंने लल्लू को वहाँ से गुजरते हुए देखा तो बोली- वो देखो, वो 'चतुर पंडितÓ जा रहा है। मैं ने सुना है कि उसे गिनती से जुड़े हुए सभी झगड़े निपटाने आते हैं। क्यों न उसकी मदद ली जाए? उन्होंने लल्लू को आवाज दी और अपनी समस्या हल करने के लिए कहा।
लल्लू ने देखा कि पाँच औरतें हैं। उनके पास पाँच टोकरियाँ थीं। प्रत्येक टोकरी में करीब 30-30 पपीते थे। लेकिन कुल कितने पपीते हुए? इसका हिसाब तो लल्लू नहीं लगा पाया क्योंकि 30-30 करके कुल पाँच टोकरियों के पपीतों को गिनना लल्लू के बस की बात नहीं थी। वैसे लल्लू को इतना तो समझ आ ही गया था कि यह समस्या टोकरी और पपीते की संख्या का गुणा करने से ही हल होगी और गुणा करना तो उसे आता ही नहीं था। औरतें चिल्लाने लगीं- जल्दी करो, हमें घर जाने में देर हो रही है। अब बेचारा लल्लू यहाँ-वहाँ देखने लगा। लेकिन उसे गुणा करना नहीं आया। उसने वहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी। वह दौड़ कर भागा। औरतें उस पर खूब गुस्सा हुई और उस पर पपीते फेंक कर मारने लगीं।
भागते हुए लल्लू शहर के दूसरे किनारे पहुँच गया। वहाँ एक टापू पर कुछ लोग पिकनिक मना रहे थे। अब वे घर जाना चाहते थे। उनके पास कुल चार रिक्शे थे, पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि एक रिक्शे में कितने लोग बैठे? बस इसी बात पर उनमें झगड़ा हो रहा था। उन्हें आपस में बराबर भाग करना नहीं आ रहा था क्योंकि वे गणित तो जानते ही नहीं थे! उन्होंने लल्लू को देखा, तो उसे यह समस्या हल करने के लिए कहा। बेचारा लल्लू! गुणा के सवाल से तो अभी पीछा छुड़ाकर आ रहा था। अब सामने भाग का सवाल आ खड़ा हुआ। उसने हिसाब लगाया, पर कुछ समझ में नहीं आया। उसकी चुप्पी से उन लोगों को गुस्सा आ गया और वे लल्लू को मारने दौड़े। उनसे जान बचाते हुए लल्लू भागने लगा और ऐसा भागा कि गिरते -पड़ते शहर से बाहर ही निकल आया।
ठीक उसी समय लल्लू की नींद खुल गई और उसने अपने आपको गणित की कक्षा में पाया। सपने में गिरने वाला लल्लू वास्तव में गिर पड़ा था और उसके सिर का किनारा फूल गया था। इस फूले हुए भाग को देखकर उसे लगा कि बिना गणित के शहर के लोगों की मार खाने से तो शिक्षक की मार और मम्मी-पापा की डाँट ही अच्छी है। कम से कम इसके कारण मैं कुछ तो गणित सीख पाया। अब मैं कभी गणित से दूर नहीं भागूँगा और मन लगाकर पढ़ाई करूँगाा। बिना गणित के शहर में जाकर लल्लू ने गणित का महत्त्व समझ लिया था और अब वह गणित के पीरियड में कभी नहीं सोता था।
भारती परिमल

शनिवार, 13 जून 2009

किसी को नहीं मिली मलाई


भारती परिमल
किसी को नहीं मिली मलाई
चूँ चूँ चूहे ने दौड़ लगाई,
खाने को ठंडी ठंडी मलाई।
इतने में पीछे से पूसी आई,
मारा पँजा खूब डाँट लगाई।
सरपट भागा चूँ चूँ चूहा,
डर कर हाल जो बुरा हुआ।
दुबक कर बैठ गया कोने में,
पूसी ने मुँह डाला भगौने में।
तभी मम्मी ने झाँका धीरे से,
पूसी समझी चूँ चूँ आया पीछे से।
वापस पलटी दौड़ कर किया वार,
पर रहा सब वार बेकार।
पलट वार में उल्टा हुआ भगौना,
चूँ चूँ ने भी छोड़ दिया कोना।
अब तो सचमुच मम्मी आई,
डंडे से पूसी की हुई पिटाई।
ताली बजाते उछला चूँ चूँ,
किसी को नहीं मिली मलाई।

टेबल और कुर्सी

एक था टेबल, एक थी कुर्सी।
कुर्सी थी बड़ी सयानी,
खुद को समझे महारानी।
बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब,
नेता हो या मजदूर,
कुर्सी से नहीं रहते दूर।
अकड़म-बकड़म, गोल-गपक्कम,
करते फिरते सौ तिकड़म।
मंजिल को वे पा ही जाते,
कुर्सी पर तो बैठ ही जाते।
इसीलिए कुर्सी इतराती,
अपनी किस्मत पर इठलाती।
टेबल बेचारा आँसू बहाता,
अपना दु:ख सबसे छुपाता।
लेकिन ऐसा कब तक चलता?
आया परीक्षा का मौसम,
पढ़ाई ज्यादा मस्ती कम।
फिर तो चली ऐसी बयार,
टेबल बना बच्चों का यार।
टेबल पर ही पुस्तक-कॉपी जमती,
टेबल पर ही चुन्नू के हाथों से पेन है चलती।
बिना टेबल के कुर्सी हुई बेकार।
पढ़ाई करने वालों के लिए,
टेबल-कुर्सी दोनों पक्के यार।
कंप्यूटर का भी जमाना आया,
टेबल पर ही उसने अधिकार जमाया।
अब कुर्सी को समझ में आई अपनी भूल,
बेकार ही उसने बोया पेड़ बबूल।
टेबल के पास पहुँच वो बोली,
तेरे बिना मैं तो हुई अकेली।
मिलजुल कर हम साथ रहेंगे,
जन-जन से भी यही कहेंगे।

भारती परिमल

शुक्रवार, 12 जून 2009

प्रकृति से दूर हो रहे हैं लोग


प्लास्टिक के बढ़ते प्रचलन से प्रदूषण के खतरे से न तो सरकारें अंजान है और न ही पर्यावरणविद। पर्यावरण से संबधित तकरीबन हर संगोष्ठी में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया जाता है लेकिन यह बस अखबारों और पत्रिकाओं में कोने की खबर बन कर रह जाता है।दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में नदी-नाले प्लास्टिक के दलदल में तब्दील होते जा रहे हैं और यदि जल्द ही इस दिशा में कोई सार्थक पहल न हुई तो इसके गम्भीर परिणामों की चपेट से शायद ही कोई बच पाए।

सोचिए कि यदि 50 वर्षों में इलेक्ट्रानिक्स इतनी उन्नति पर है तो अगले 50 वर्षों में हम कहाँ होंगे? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कहा जाना चाहिए, जैसा वैज्ञानिक कल्पना कर रहे हैं कि माइक्रोप्रोसेसर बेसड डिवाइसेज़ हमारा रहन-सहन, शिक्षा और विकास की गति को निरंतर बढ़ाती जायेंगी। हम आज माइक्रोप्रोसेसर को इस तरह से प्रोग्राम कर रहे हैं कि हम उसे समझ सकें और वह हमारे आदेशानुसार सभी कार्य सम्पन्न कर सकें। जी हाँ रोबॉट का दिमाग़ एक माइक्रोप्रोसेसर ही है जिसे सामान्यत: आप कम्पयूटर ही समझते अथवा जानते हैं।पर ऐसा नहीं कि हम सर्व-शक्तिमान प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। प्रकृति ने हमें जन्मा है और हमसे जुड़े सभी अधिकार उसके पास ही सुरक्षित हैं। जिस गति से अपने लाभ के लिए हम प्रकृतिक स्रोतों का दोहन कर रहे हैं और अपने विकास का झूठा और दिखावटी दम भर रहे हैं। प्रकृति हमसे चार हाथ आगे अपने अपमान का बदला लेने के लिए तत्परता से और मूक होकर कार्य कर रही है।जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ प्राकृतिक चक्रों की। उस उथल-पुथल की जिसने कभी पृथ्वी को पानी में डबो दिया और कभी हिम की परतों में समस्त जीव-मण्डल को जीवाश्म बनाकर रख दिया। जाने कितनी बार ऐसा हुआ और इस सौर मण्डल के अंत तक जाने ऐसा कितनी बार होता रहेगा?पहले चित्र में लाल रंग का क्षेत्र कोरे के चारों ओर घूमता हुआ मैग्गा है और नीली रेखाएँ उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र दर्शाता है। दूसरे चित्र में चुम्बकीय और भौगोलिक अक्ष दर्शाये गये हैं। आज तक पृथ्वी के अंत की बहुत सी धारणाएँ प्रस्तुत की गयीं हैं लेकिन सत्य का ज्ञान तो सिर्फ़ अंत ही करा पायेगा। पृथ्वी के अंत में सबसे बड़ा हाथ रहेगा पृथ्वी के अपने चुम्बकीय क्षेत्र का जो पृथ्वी के मध्य भाग में उपस्थित कोर के चारों ओर चक्कर काटते मैग्मा के कारण उत्पन्न होता है। वैसे तो 16,00,000 वर्षों में यह मैग्मा अपने घूर्णन की दिशा बदल देता है लेकिन पृथ्वी के अंदरूनी ढाँचों में बदलाव या अन्य किन्हीं के कारणों से ऐसा नहीं हो पाया है और 26,00,000 वर्षों से सभी अधिक समय बीत चुका है। मुझे तो यह सोचकर भी घबराहट हो जाती है कि कहीं अगला पल पृथ्वी का अंत तो नहीं। आपको ज़रा और सचेत कर दूँ कि वैज्ञानिकों ने परीक्षण शुरु कर दिये हैं और निष्कर्ष काफ़ी भयजनक है। कहा जा रहा है कि अगले 5,000 वर्षों के अंदर ही पृथ्वी का अंत हो जायेगा। अब आप शायद यह समझ रहे हों कि मैं बड़बोला बन रहा हूँ लेकिन आपको आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि कोर के चारों ओर घूमते हुए गर्म लावे 'मैग्मा' ने अपनी दिशा बदलनी शुरु कर दी है और यह लगभग 16 अंश घूम चुका है। जैसे जैसे यह घूमता जायेगा पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्र क्षीण (कमज़ोर) होता जायेगा और पृथ्वी पर पर चार क्षीण चुम्बकीय ध्रुव बन जायेंगे जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी तक आसानी से आने लगेंगी। इसका एक कारण यह भी होगा कि चुम्बकीय क्षेत्र का यह परिवर्तन ओज़ोन की परत को प्रभाव मुक्त कर देगा। इससे तरह-तरह की बीमारियाँ फैलेंगे जिनमें त्वचा सम्बंधित रोग प्रमुख रहेंगे। अब जिनकी त्वचा का रंग गहरा है या काला है उन पर इसका सबसे कम प्रभाव पड़ेगा। इस क्षीण होते चुम्बकीय क्षेत्र का असर प्रारम्भ हो चुका है और अब ज़रूरत है सजग और सचेत रहने की क्योंकि भूकम्प और ध्रुवों पर बर्फ़ पिघलने की प्रक्रिया किसी भी क्षण प्रारम्भ हो सकती है। आज-अभी या 5000 वर्षों के बीच किसी भी पल, सो सावधान बुद्धिजीवियों!अंतत: जब मैग्मा पूरी तरह से अपने घूमने की दिशा को बदल देगा तो आज का उत्तर ध्रुव दक्षिण ध्रुव हो जायेगा और इसी प्रकार से दक्षिण ध्रुव उत्तर ध्रुव हो जायेगा। ध्रुव बदलाव की यह प्रक्रिया बहुत ही विनाशकारी है। आज वैज्ञानिक इस सत्य से मुँह नहीं फेर पा रहे हैं इसीलिए चाँद और मंगल पर आवास की कल्पना करने लगे हैं।

गुरुवार, 11 जून 2009

आओ पियें, प्यार के कटोरे में गंगा का पानी

इलाहाबाद .यह कार्यशालाएं हैं छोटी-छोटी लेकिन इनके संदेश बड़े हैं। इनमें शामिल बच्चे न हिंदू हैं न और न मुसलमान। वे सिर्फ बच्चे हैं और हिंदुस्तानियत के मूल भाव में ही बड़े होना चाहते हैं।
इसीलिए करेली के आशीष कुमार की कुरान की आयतें पढ़ते हुए जरा सी भी झिझक नहीं महसूस होती और 12 साल के इमरान को सुबह उठकर सूर्य नमस्कार करते देखा जा सकता है। इन बच्चों की अपने धर्म में आस्था है लेकिन अन्य धर्मो के प्रति भी सम्मान है। इससे जुड़े लोग कहते हैं कि हमारी कोशिश इंसानियत की बुनियाद मजबूत करना है और हम इसी सोच के साथ काम कर रहे हैं।
शहर के मुस्लिम बहुल इलाके करेली में जब कुछ प्रगतिशील युवाओं ने 'आओ मजहब सीखें' करके कार्यशाला आयोजित करने का इरादा किया तो उन्हें लोगों के तंज भी सुनने पड़े। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें सबका सहयोग हासिल हुआ और उस वक्त तो उनका मकसद ही पूरा हो गया जब कई हिंदू बच्चे भी इस कार्यशाला में शामिल हो गए। इन बच्चों में अपने पड़ोसियों का धर्म जानने की जिज्ञासा थी।
गंगागंज में रहने वाली रेखा कुमारी एवं मोनिका कुशवाहा के मन में मुस्लिम महिलाओं को परदे में देख काफी जिज्ञासा हुआ करती थी। वे कहती हैं कि अब हमें परदे की हकीकत मालूम है। यह सभ्यता और महिलाओं के सम्मान से जुड़ा हुआ है। इसके अनुसरण की बात इस्लाम के साथ अन्य धर्मो में भी है।
कार्यशाला के संचालक मो. इकबाल अमीर कहते हैं कि हम बच्चों में मजहबी सम्मान की भावना पैबस्त करना चाहते थे और इसमें हमें सफलता मिलती दिख रही है। करेली के आशीष कुमार, सदियापुर के आकाश श्रीवास्तव एवं नूरउल्लारोड के अमित गुप्ता का कहना था कि यहां पर आकर उन्हें इस्लाम धर्म के पांचों फराएज- नमाज, हज, जकात, रोजा एवं तौहीद [एकेश्वरवाद] की जानकारी मिली। कार्यशाला के शिक्षक फैजान एक शेर में अपनी बात कुछ यूं पेश करते हैं-
तुम भी पियो हम भी पियें रब की मेहरबानी
प्यार के कटोरे में गंगा का पानी
धर्म जो हमारा है धर्म जो तुम्हारा है
धर्म सबका प्यारा है बस भरम ने मारा है
दूसरी तरफ तेलियरगंज स्थित चिन्मय मिशन में आयोजित बाल प्रतिभा विकास शिविर 'जागृत' में मुस्लिम बच्चों ने हिंदू रीति रिवाजों के संस्कार सीखे। यहां पर गत दो वर्षाें से प्रतिभाग कर रहे बारह वर्षीय इमरान सुबह नमाज-हदीस से फारिग होकर हिन्दू विधि विधान के अनुरूप दिनभर की गतिविधियों को भी संचालित करते हैं। उनकी दिनचर्या में सूर्य नमस्कार, भोजन के पूर्व हाथ धो कर भोजन मंत्र पढ़ना, संध्या आदि शामिल है।
इमरान के अलावा यहां पर काशिफ, जोजेफ रेहान सहित दर्जनों बच्चे हैं जो अन्य धर्म के होते हुए भी सनातन धर्म की बारीकियों से रूबरू होते रहे हैं। अजान सुन कर शुरू हुई सुबह की शुरुआत प्रात: स्मरण, शांति पाठ व ध्यान आदि जैसे कर्मकांडों तक पहुंचती है। चिन्मय मिशन के स्वामी चैतन्यानंद सामाजिक समरसता पर जोर देते हुए कहते हैं कि इन सब का मूल भाव यह है कि बच्चों में योग के अलावा श्लोक, नीतियुक्त, कहानियां, पर्यावरणदेश प्रेम, बड़ों का सम्मान, जीवों पर दया आदि के मौलिक भाव होने चाहिए और यही इस कार्यशाला का उद्देश्य रहा है। चिन्मय मिशन की कार्यशाला गत दिवस संपन्न हुई । बहरहाल यहां के लोग अपना संकल्प पूरा होने से खुश हैं।
अजहर अंसारी

बुधवार, 10 जून 2009

जेल वरदान है उन सबके लिए


डॉ. महेश परिमल
जेल यानी अपने किए की सजाओं को भुगतने का स्थान। कोई किसी को बद्दुआ भी नहीं देना चाहेगा कि वह ऐसी किसी जेल में जाए, जहाँ उसे अपनी सजा को शारीरिक पीड़ाओं के साथ भुगतना पड़े। अक्सर सलाखों के पीछे जाने वाले साधारण कैदी भी अपनी सजा पूरी करने के बाद एक खूंखार अपराधी के रूप में बाहर आते हैं। जेल से निकलने के बाद उसे रोजगार की तलाश होती है, जो उसे नहीं मिलता। इसलिए वह उन लोगों का आर्थिक संरक्षण प्राप्त करता है, जो उससे आपराधिक कार्य करवाते हैं। इस तरह से जेल उसके लिए बड़े अपराधी बनने का प्रशिक्षण केंद्र से अधिक कुछ नहीं होती। लेकिन यहाँ जिस जेल की चर्चा की जा रही है, उस जेल में हर कोई आना चाहता है। इस जेल में आने के पहले अपराधी को यह सिद्ध करना पड़ता है कि वह पेशेवर अपराधी नहीं है। आवेश में उससे गुनाह हो गया और वह जेल चला गया। इस जेल में अपराधी अपने परिवार के साथ घर में रहता है। शहर जाकर काम करता है। उसकी अपनी गाड़ी भी होती है, जिससे वह कहीं भी जा सकता है। इस जेल की एक खासियत यह भी है कि यहाँ महिला कैदियों को भी पुरुष कैदियों के साथ रखा जाता है, फिर भी महिला कैदी अपने-आप को सुरक्षित महसूस करती हैं। इस जेल के कैदियों का जीवन देखकर सामान्य आदमी को ईष्र्या हो सकती है।
यह जेल है राजस्थान के जयपुर हवाई अड्डे के पास स्थित सांगनेर 'ओपन जेल। मनीष दीक्षित इसी जेल के एक कैदी हैं। उसके पास कार है। वह आधुनिक सेलफोन का इस्तेमाल करता है। वह एक अत्याधुनिक घर में रहता है। वह एक सिविल इंजीनियर है। उसका रहन-सहन देखकर लगता है कि वह एक सफल व्यावसायिक है। वास्तव में वह एक हत्या के अपराध में सजा काटने वाला गुनाहगार है। पर वह अपनी सजा के 6 वर्ष ऊँची-ऊँची दीवारों वाली जेल में काटकर ही इस जेल में आ पाए हैं। बड़ी जेल में वे अपने स्वभाव से यह बताने में सफल रहे कि वे पेशेवर अपराधी नहीं हैं। बस उनकी इसी खासियत उन्हें इस ओपन जेल में ले आई।
राजस्थान सरकार ने सन 1963 में प्रयोग के तौर पर इस तरह की जेल की शुरुआत की थी। कुछ समय बाद यह प्रयोग इतना सफल रहा कि तीन और जेलें शुरू की गईं। अपराध को छोड़कर नया जीवन प्रारंभ करने का अवसर देने वाली इस जेल में अभी 504 कैदी सजा भोग रहे हैं। कुछ समय बाद यहाँ दस और खुली जेल बनाने की योजना है। इस जेल की कुछ और खासियतें हैं, यहाँ ऊँची-ऊँची दीवारें नहीं हैं और न ही कैदियों पर हर समय नजर रखने वाले बंदूकधारी सिपाही। इस जेल में करीब 170 सजायाफ्ता कैदी अपने परिवार के साथ रहते हैं। घर का भोजन करते हैं। उनके घर में टीवी, फ्रिज जैसी आधुनिक सुविधाएँ हैं। कई घरों के आँगन में कार आदि चार पहिया वाहन भी खड़े हैं। इस प्रकार की खुली जेल का प्रयोग राजस्थान के राज्यपाल संपूर्णानंद ने शुरू किया था। उन्हें इस तरह की खुली जेल की प्रेरणा पश्चिमी देशों से मिली थी। किसी भी सजायाफ्ता कैदी को तुरंत ही इस खुली जेल में नहीं लाया जाता। गंभीर अपराधों में शामिल होकर लंबी सजा काटने वाले कैदियों के अच्छे व्यवहार को ध्यान में रखकर उनका स्थानांतरण इस खुली जेल में किया जाता है। यहाँ आने के पहले उसे पारंपरिक जेल में कम से कम 6 वर्ष बिताने होते हैं। इसके बाद उस कैदी की शिक्षा भी देखी जाती है। शिक्षित लोगों के साथ यह होता है कि वे आवेश में आकर अपराध तो कर बैठते हैं, पर उसका पछतावा उन्हें जीवनभर होता है। इसी प्रायश्चित भरे जीवन को सँवारने का एक छोटा-सा प्रयास है, यह खुली जेल।
इस खुली जेल में कम खतरनाक कैदी अपनी सजा का अंतिम भाग अपने परिवार के साथ बिताते हैं। वे करीब के शहर में जाकर काम कर अपनी रोजी-रोटी प्राप्त कर सकते हैं। जेल परिसर में अपना घर भी बना सकते हैं। यहाँ आने के बाद बाद वे अपने जीवन को सँवारते हुए महिला अपराधियों से शादी भी कर सकते हैं। पूरे भारत में ऐसी 27 जेलें हैं। केवल राजस्थान ही ऐसा राज्य है, जहाँ अभी इस तरह की 13 जेल है। अगले वर्ष दस और जेल तैयार हो जाएंगी। इसके सफल होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि यह जेल शहर से करीब होने के कारण यहाँ के कैदी शहर जाकर अपनी रोजी-रोटी के लिए काम कर सकते हैं। कई जेल तो विश्वविद्यालय की तरह हैं। जहाँ कैदी विभिन्न तरह के काम कर सकते हैं। कोई अपनी अधूरी शिक्षा को पूर्ण करने लगता है, तो कोई लेबोटरी टेक्नीशियन के रूप में काम कर रहा है। यहाँ एक और कैदी सूरजमल है, जो अपने जीजाजी की हत्या करने के बाद सजा भोग रहा है। उसे जोधपुर के एग्रीकल्चर रिसर्च स्टेशन के केम्पस में रखा गया है। यहाँ वह अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहता है। जब वह बड़ी जेल में था, उसने फिलोसफी और पॉलीटिकल साइंस में अनुस्नातक किया था। रिसर्च स्टेशन के फार्म में काम करके वह हर महीने ढाई हजार रुपए कमा लेता है। इसके बाद वह वेल्डिंग का काम करके भी कुछ और धन प्राप्त कर लेता है। उसका मानना है कि इस खुली जेल ने उसे कुशल व्यवसायी बना दिया है। सजा पूरी होने के बाद भी उसे अपने पाँव पर खड़े होने में कोई परेशानी नहीं होगी। राजस्थान के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस पी. के. तिवारी मानते हैं कि वे यहाँ के हर अपराधी के जीवन से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। एक-एक कैदी के जीवन की कहानी दिलचस्प है। इस पर तो शोध भी हो रहे हैं।
इस जेल की परिकल्पना आदर्श जेल की तरह है। कैदी यहाँ आकर अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने का ही काम करते हैं। इससे उनके पुनर्वसन की समस्या आड़े नहीं आती। इसके बाद भी इस जेल से जुड़े कुछ अपवाद भी हैं। सन 1989 से 1997 तक इस जेल से 7 कैदी भाग भी चुके हैं। 1998 से 2008 तक यह आँकड़ा 32 तक पहुँच गया। इसके बाद भी यहाँ आकर यदि किसी कैदी ने यहाँ के नियम-कायदों को अनदेखा किया, उसे वापस बड़ी जेल भी भेजा गया है। फिर भी अधिकांश कैदियों का मानना है कि यहाँ आकर जब उनकी शिक्षा और व्यवसाय दोनों ही सफलीभूत हो रहे हों, तो फिर इस जेल के नियमों को मानने में कोई बुराई नहीं है। फिर यहाँ का स्वच्छंद जीवन फिर भला कहाँ मिलेगा?
इस तरह के विचारों और कैदियों के समग्र विकास की अवधारणा को लेकर खोली गई ये खुली जेल आज कैदियों के लिए वरदान साबित हो रही है, इसमें कोई शक नहीं।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 9 जून 2009

दक्षिण भारत में बदल रहा है हिंदी के प्रति दृष्टिकोण


डॉ. महेश परिमल
पिछले माह गोवा जाना हुआ, उसके पहले एक बार चेन्नई जाने का अवसर मिला था। इन दोनों स्थानों पर जाकर ऐसा बिलकुल ही नहीं लगा कि मैं किसी अहिंदीभाषी क्षेत्र में हूँ। गोवा तो खैर पर्यटन के कारण हिंदी को महत्व दे रहा है। पर चेन्नई, वह तो हिंदी का घोर विरोधी रहा है। वह हिंदी के प्रति इतना नर्म क्यों होने लगा भला? एक तरफ देश और समाज में कंप्यूटर का प्रयोग बढ़ रहा है, जिसे सारे निर्देश अँगरेज़ी में ही देने होते हैं, तो दूसरी तरफ दक्षिण भारतीय फिल्मों में कहीं-कहीं हिंदी के संवाद सुनने को मिलने लगे हैं। अब तो चेन्नई में भी विभिन्न स्थानों पर बिहारी, भोजपुरी, गुजराती ढाबे दिखाई देने लगे हैं। चेन्नई के सावकार पेठ इलाके पर चले जाओ, तो पता ही नहीं चलेगा कि हम किसी अहिंदीभाषी क्षेत्र में हैं। इस स्थान पर मारवाडिय़ों एवं गुजरातियों की भरमार है।
हिंदी को लेकर अब कहीं-कहीं पूर्वग्रह के बादल छँट रहे हैं। तमिल फिल्मों में उत्तर-दक्षिण लोगों का रोमांस दिखाया जा रहा है। पहले चेन्नई पहुँचकर रिक्शेवाले से बात करना मुश्किल होता था, उसे तमिल के सिवाय कोई भाषा नहीं आती थी, पर वे भी समझने लगे हैं कि बिना हिंदी जाने और बोलने के सिवाया उनके पास कोई चारा नहीं है। इसलिए उन्होंने भी हिंदी को सहजता से लेना शुरू कर दिया है। बदलते सिनेरियो के बीच अब हिंदी के प्रति नजरिया बदलने लगा है। फिल्म 'दशावतारम्Ó में कमल हासन के दस पात्रों में एक पात्र अवतार सिंह का भी है, जो भांगड़ा करता सिख है। एक और तमिल फिल्म है 'अभियुन नानुमÓ (अभि और मैं) में एक पात्र प्रकाशराज अपनी पत्नी से कहता है 'राजम्मा कोटु दाÓ अर्थात् मुझे राजमा परोसो। इस फिल्म में प्रकाशराज एक ऐसे तमिल व्यक्ति की भूमिका कर रहे हैं, जिसकी पुत्री एक सिख युवक से शादी कर घर ले आती है। इससे घर का वातावरण बदल जाता है। हिंदी परिवार की मुख्य भाषा बन जाती है। कालांतर में उसकी पत्नी भी हिंदी बोलने लग जाती है। इतना ही नहीं डायनिंग टेबल पर अब सांभर या रसम के बजाए दाल मखानी और राजमा परोसा जाने लगता है। यह देखकर घर के मुखिया प्रकाशराज भीतर ही भीतर कुढऩे लगते हैं।
एक और उदाहरण:- चेन्नई के मध्यम वर्ग की बस्ती अन्नानगर में योग की क्लास चल रही है। एक विद्यार्थी क्लास में देर से पहुँचता है। इस पर शिक्षक उसे तमिल में डाँटते हुए कहते हैं कि कल से यदि तुम देर से आए, तो तुम्हें गुरु बनकर क्लास लेनी पड़ेगी। इस पर देर से आने वाले छात्र के मुँह से निकल पड़ता है 'अच्छा, यह तो बहुत ही मुश्किल होगा।Ó विद्यार्थी ने 'अच्छाÓ शब्द मुँह से निकाला, पर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया, किसी की भवें नहीं तनीं। इसका मतलब यही कि अब इस प्रकार के शब्द उनकी भाषा में प्रचलित होते जा रहे हैं। उपरोक्त प्रसंगों से यह साफ हो जाता है कि राजनीति के क्षेत्र में दक्षिण भारत के लोग भले ही हिंदी को अनदेखा कर रहे हों और उसके विरोध में अपना परचम लहराना न भूलते हों, पर आम-आदमी में हिंदी का विरोध अब दिखाई नहीं देता। अब वहाँ भी हिंदी फिल्में जुबली मनाने लगी हैं।
दक्षिण भारत की फिल्मों की कहानी उत्तर भारतीय पात्र होने लगे हैं। अब यह पात्र तो अपनी बात हिंदी में ही करेगा। कुछ ऐसा ही हुआ फिल्म 'वारानाम आपीरामÓ नामक तमिल फिल्म का नायक आर्मी में मेजर है। एक सीन में मेजर डॉन के अड्डे पर एक अपहृत बच्चे को छुड़ाने जाता है, तब डॉन उससे पूछता 'क्या तू पुलिस हैÓ? जवाब में मेजर कहता है 'हाँ मैं पुलिस हूँ और थोड़ी देर में पुलिसवाले सरेंडर करेंगे।Ó इस संवाद को उचित ठहराते हुए फिल्म के डायरेक्टर गौतम वासुदेव मेनन कहते हैं कि हीरो दिल्ली का रहने वाला है और हिंदी में बात हो, ऐसी माँग स्क्रिप्ट में की गई थी। इसलिए मैंने अधिक सोच-विचार न करते हुए डायलॉग को हिंदी में ही रहने दिया।
अब आते हैं खान-पान पर। अध्ययन के लिए कई राज्यों के लोग अब चेन्नई जाने लगे हैं। वहाँ उन्हें भोजन के सिवाय अन्य कोई तकलीफ नहीं होती। ये विद्यार्थी जब भी अपने घर फोन पर बात करते हैं, तो भोजन की समस्या पर अवश्य बात करते हैं। जो मांसाहार ग्रहण करते हैं, उनके लिए कोई विशेष समस्या नहीं होती, पर शाकाहारियों के भोजन एक विकट समस्या है। इसलिए सन 2004 में गौरव कुमार नाम के एक विद्यार्थी ने 20 हजार रुपए की अपनी पूँजी और कुछ दोस्तों से लेकर एक ढाबा शुरू किया, इसके लिए उसने भागलपुर से एक कुक भी बुलवा लिया, आज उसका ढाबा चल निकला है, अब वहाँ ने केवल बिहार के, बल्कि अन्य राज्यों के विद्यार्थी एवं प्रोफेसर भोजन के लिए आने लगे हैं। आज उसके ढाबे में 5 अन्य लोग भी काम करने लगे हैं। महीने में 8 से 10 हजार रुपए वे आसानी से कमा लेते हैं। इसकी देखा-देखी में अब चेन्नई में करीब 20-25 ढाबे विभिन्न प्रांतों से आए विद्याथर््िायों ने खोल लिए हैं। अब वहाँ गुजराती होटल, मारवाड़ी बासा,विशुद्ध शाकाहारी भोजनालय आदि के बोर्ड आसानी से देखने को मिल जाते हैं। निश्चित यहाँ आने वाले लोग हिंदी में ही बातचीत करते होंगे। यदि यहाँ स्थानीय लोग भी आते हैं, तो उन्हें भी हिंदी में ही बोलना पड़ता है। तो इस तरह से हिंदी अनजाने में उनके भीतर शामिल हो रही है, जिसे वे अच्छी तरह से समझ रहे हैं।
अब आते हैं राजनीति पर, जब करुणानिधि ने राम सेतु पर अपना विवादास्पद बयान दिया, तो उसका काफी विरोध हुआ। इससे बचने के लिए दूसरे ही दिन उन्होंने अपना बयान बदल दिया और राम भगवान की प्रशंसा पर कई कसीदे गढ़े। यही नहीं उन्होंने हिंदी में लिखी कविता भी सुनाई। अब इसे क्या कहा जाए? राजनीति के बाहरी स्वरूप में हिंदी का विरोध करने वाले यह समझने लगे हैं कि हिंदी के बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता। इसलिए हिंदी विरोधी होते हुए भी हिंदी का खुलकर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। दूसरी ओर 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान द्रमुक के एक प्रत्याशी ने अपने इलाके के 20 हजार हिंदीभाषियों को रिझाने के लिए एक पुस्तिका प्रकाशित की। बाद में विरोध के चलते पुस्तिका वापस ले ली गई। इसका आशय यही हुआ कि हिंदी का विरोध केवल वे बाहरी तौर पर करते हैं। दिल से नहीं।
कला विश्लेषक और लेखक सदानंद मेनन कहते हैं कि तमिल फिल्में अब समग्र भारत के दर्शकों के लिए बनाई जा रही है, इसलिए तमिल फिल्मों की हिंदी का प्रभाव अनिवार्य बन गया है। एक सिनेमाप्रेमी और कम्युनिकेशन कंसल्टंट राधारमन का कहना है कि लोग अब हिंदी विरोधी नहीं रहे। तमिलनाड़ु की आईटी कंपनियों में अनेक हिंदी शब्दों का प्रयोग होता है। इस कारण अब दक्षिण भारतीयों का सम्पर्क उत्तर भारतीयों से होने लगा है। उनमें अब भाषा का भेद गौण होने लगा है। इसलिए जब कमल हासन की पहली फिल्म 'एक दूजे के लिए आई थी, जिसमें एक दक्षिण भारतीय युवक का प्रेम उत्तर भारतीय लड़की से होता है, तो समाज इस संबंध को स्वीकार नहीं कर पाता। अंतत: उन दोनों को आत्महत्या करनी पड़ती है। लेकिन अब हालात बदल गए हैं, अब हिंदी के प्रति उन्हें हृदय से घृणा नहीं है, यदि थोड़ी-बहुत है, तो उसका कारण राजनीति है। अब लोग बेखौफ होकर दक्षिण भारत जा सकते हैं, अब उन्हें न तो भाषा की दिक्कत झेलनी होगी और न ही भोजन की।
पूर्वोत्तर के होंठों पर हिंदी
मंत्रिमंडल की सबसे युवा सदस्य अगाथा संगमा को हिंदी में शपथ लेते देखना सुखद और विस्मयकारी था। केवल एक जगह 'अंत:करण पर वह थोड़ा अटकीं, लेकिन इसके अलावा उन्होंने बिल्कुल साफ धाराप्रवाह हिंदी में शपथ ली। 'संसूचितÓ जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों पर भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। इससे पहले टीवी चैनलों पर उन्हें अच्छी अंग्रेजी बोलते हुए सुन ही चुके हैं। यह बताता है कि युवा भारत बहुभाषीय है और व्यापक देश तक पहुँचना चाहता है। संगमा की यह पहल मुख्यधारा से लगभग कटे पूर्वोत्तर इलाके को बाकी देश से सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से जोडऩे में मददगार होगी।

डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 8 जून 2009

कुछ आस, जिस पर टिकी हैं नजरें


किशोर महबुबानी
इस वर्ष दुनिया पर निराशा और दुर्भाग्य के काले बादल मंडराते रहेंगे. अर्थव्यस्था धन के लिए मोहताज रहेगी, सरकारें गिरेंगी और कंपनियां असफ़ल होती जायेंगी. इन वैश्विक परेशानियों के अलावा, जो सबसे बड़ा खतरा वैश्विक समुदाय के सामने होगा, वह है निराशा की मानसिकता का घर कर जाना. इससे बचने का सिर्फ़ एक ही उपाय हो सकता है कि कुछ बड़ी मुश्किलों को सुलझाया जाये. दोहा में संपन्न हुए विश्व व्यापार वार्ता ने इसके लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान किया, लेकिन इससे भी कारगर मौका हमें इस्रइल और फ़िलिस्तीन विवाद ने दिया है.दुनिया के अधिकतर लोग, खास कर पश्चिमी देशों के लोगों ने खुद से यह मान लिया है कि यह मसला सुलझाने लायक नहीं है. ओस्लो में संपन्न हुए 1993 के समझौते के बाद भी अरब-इस्राइल के संघर्ष को सुलझाने के लिएकाफ़ी प्रयास किये गये. लेकिन ये सारे प्रयास विफ़ल रहे. दुनिया के कुछ लोगों का मानना है कि इसके समाधान के लिए कुछ वैश्विक ताकतें आगे आयी हैं, जिससे इसके समाधान की आशा बंधती नजर आ रही है. ऐसे भू-राजनीतिक अवसर कम ही मिलते हैं. इसलिए, अगर इसे नहीं भुनाया गया तो दुर्भाग्य ही कहा जायेगा.शुरुआती दौर में इस मसले को सुलझाने के लिए एक विश्वव्यापी समझौते की जरूरत पड़ेगी. इसका समाधान 2001 में बिल क्िलंटन द्वारा तैयार ताबा समझौता हो सकता है. फ़िलिस्तीन के राजनयिकों ने इसे मानने पर हामी भी भरी है.इसके समाधान निकल आने की बात जितनी अहम है, उतनी ही अहम अरबों के मन में इस ख्याल का आना है कि अरब-इस्रइल समाधान उनके हित में है. मध्य-पूर्व के ज्यादातर देश, जिसमें मिस्र् और सऊदी अरब शामिल हैं, उनके क्षेत्र में ईरान के बढ़ते प्रभाव को लेकर सावधान हैं. इस्रइल के साथ इनका कोई भी समझौता ईरान को संभालने के लिए इन्हें मजबूत बनायेगा. इसके साथ ही ईरान के उस मंशा पर भी आघात लगेगा, जिसमें वह फ़िलिस्तीनियों को अरब देशों के खिलाफ़ भड़काता है. इससे जुड़ा बड़ा सवाल यह है कि क्या इजरायल इसके समाधान के लिए तैयार है? लेकिन इस्रइल के आंतरिक राजनीतिक स्थिति को देखते हुए वहां के अधिकतर संभ्रांत लोगों का मानना है कि अभी इस्रइल के लिए यह उपयुक्त समय नहीं होगा.इस्रइल के विदेश नीति की कमान अभी दो कट्टर लोग बेंजामिन नेतनयाहू और ऐवगडर लिबरमैन के हाथों में है. नेतनयाहू को अभी एक वैसे शांति समझौते की जरूरत है, जो पश्चिमी किनारे स्थित सभी तरह के सेटलमेंट को वापस कर ले. 1997 में जब मैं इस्राइल गया था, तब के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू ने मुङो बुलावा भेजा. हमारे बीच एक अच्छा रिश्ता था, क्योंकि हम दोनों एक ही साथ संयुक्त राष्ट्र में राजदूत रहे थे. उस वक्त नेतनयाहू ने जो बात मुझसे कही थी, वह मुङो अब तक याद है. उनका कहना था कि वे शांति के पूरी तरह से पैरोकार हैं. लिबरमैन और एहुद ओलमर्ट भी एक साझा गुट बना कर शांति को अंजाम दे सकते हैं.किसी भी शांति समझौते को अंजाम देने के लिए एक सशक्त मध्यस्थ की आवश्यकता होती है. सौभाग्यवश, इस काम के लिए अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्िलंटन तैयार हैं. हिलेरी के दोनों पूर्वाधिकारी कॉलिन पॉवेल और कोंडोलिजा राइस ने इस काम पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. इन लोगों ने दोनों पक्षों का विश्वास नहीं जीता. लेकिन हिलेरी ने ऐसा किया है. यहूदी समुदाय को हिलेरी में बहुत ज्यादा विश्वास भी है और यह बात मध्य-पूर्व में मध्यस्थता के लिए काफ़ी मायने रखती है.वर्ष 2009 में हिलेरी ने इस क्षेत्र का दौरा कर अपने राजनयिक गुण- कौशल का परिचय भी दे दिया है. उन्होंने दौरे के दौरान इस्रइल के सुरक्षा का आश्वासन दिया था. गाजा के नागरिकों पर होने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों को लेकर चिंता जतायी थी. मामले सुलझाने की उनके निपुणता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. उनके पति बिल क्िलंटन ने मध्य-पूर्व की समस्याओं के बारे में काफ़ी अध्ययन किया है. इसकी झलक उनके द्वारा पेश की गयी इस क्षेत्र से संबंधित समाधान उपायों में देखी जा सकती है. नि:संदेह, जिस काम को उनके पति ने शुरू किया, अगर वे समाप्त करें, तो इसे बहुत अच्छा माना जायेगा. इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि अगर हिलेरी अरब-इजरायल समस्या का समाधान दो देशों को बना कर करें, तो इस मध्यस्थता के लिए उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिलेगा. समाधान के इस तरीके को पूरी दुनिया में सराहा जायेगा.कुछ अमेरीकियों को यह पता है कि मुसलिम जगत में हो रही तेज भौगोलीक बदल ने दुनिया के सवा अरब मुसलमानों को एक साथ बांधा है. अरब-इस्रइल मतभेदों का नकारात्मक राजनीतिक प्रभाव इसलाम जगत के सभी देशों को प्रभावित किया है. बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना और मुसलिम देशों में उनकी सकारात्मक छवि ने इस मसले को सुलझाये जाने की एक नयी राह बनायी है. वैश्विक ओर्थक मंदी के इस समय में अगर शांति का यह समाधान हो जाता है, तो दुनिया पर छाने वाले निराशा और दुर्भाग्य के बादल कम होते नजर आयेंगे. आशा पूरी होने की बात तभी सफ़ल हो पायेगी, जब दुनिया क्या चाहती है, इसे पूरा किया जाये.
किशोर महबुबानी
(लेखक नेशनल यूनिवर्सिटी, सिंगापुर में डीन हैं.)

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