शनिवार, 6 जून 2009
बीहड़ में कूदने के इत्ते सारे कारण...
अनुज खरे
मेरे पास इत्ते सारे रेडीमेड कारण हैं चंबल के बीहड़ में कूदने के । कारण नंबर एक तो यही है कि इस समय चंबल में डकैतों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। चूंकि अधिकांश शहरों में ही सैटल हो गए हैं सो मेरे लिए मैदान साफ है। शहरों में भी इनमें से कई तो बाल छोटे करवाकर पुलिस में भर्ती हो गए हैं। अब वे हर मौके पर इत्ते भयानक ढंग से डकै ती के चांस ढूंढते रहते हैं की उनसे बचकर कहां जाओगे। मान लो उनके शिकार हो ही गए तो शिकायत करने कहां जाओगे, क्योंकि ऊपर भी तो उन्हीं जैसे पुराने प्रमोशन पाकर जमे हुए हैं। अर्थात् जब कहीं कोई राहत नहीं मिलेगी तो आखिर में कूदोगे न बीहड़ों में। बंदूक-अंदूक का तो यार बाद में भी इंतजाम होता रहेगा। वैसे आदमी गैरतमंद होगा तो फालतू के पचड़े में पडऩे की जगह गुब्बारे फोडऩे वाली बंदूक तक लेकर चंबल में कूद सकता है। चूंकि महत्वपूर्ण साध्य की राह में साधनों का ज्यादा महत्व नहीं है। हालांकि साधनों के संबंध में भी डर आम लोगों से ही है। पुलिसवाले तो खैर असली-नकली में ज्यादा अंतर नहीं जानते, लोग जरूर पहचान सकते हैं। खैर इन सबकी अभी से चिंता करने की जरूरत ही क्या है। पहले कूदेंगे फिर देख लेंगे।
इसी तरह कारण नंबर दो भी है। सफेदपोश नेताओं के चंगुल से आप कैसे बचोगे। हालांकि ऐसा नहीं है कि नेता देश का कल्याण नहीं करते। करते हैं, देश का ही तो कल्याण करते हैं। इनकी कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत घर से ही होती है। पहले भाई का कल्याण, फिर भतीजे का कल्याण, फिर भांजे का, सगों से निपटने के बाद चचेरों का, उनके पश्चात दोस्तों का, फिर कुछ हमप्यालों का, फिर एकाध कल्याणकारी योजना -अपनी उनके- लिए भी खोल दी जाती है, फिर अपने भविष्य के दृष्टिगत कुछ महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं का तत्काल शिलान्यास कर दिया जाता है। हालांकि होता ये सब देश के नाम, जिम्मेदारी के तहत, कत्र्तव्यों के निर्वहन के अनुरूप ही है। अब आप ही सोचिए इन सबमें -हम- कहां हैं। इसी कारण हमारे जैसे लोग अंतिम विकल्प के रूप में बीहड़ों से निकलते समय चलती बस से छलांग लगाकर वहां कूद ही जाएंगे ना। ताकी समान पेशे में आकर आपस में विशुद्ध समरसता का निर्माण किया जा सके। फिर वो कहावत तो सुनी होगी आपने-चोर-चोर मौसेरे भाई। यानी जब हम उनके मौसेरे भाई हो जाएंगे तो कुछ कल्याणकारी योजनाएं हमारे लिए भी तो शुरू की जाएंगी ही...। और इस बारेे में आपकी कोई बात हम नहीं सुनेंगे भाई साब..नईं-नईं आप हमें मना मत करियो हम तो कूदेंगे ही...।
अब इसी तरह ऊपर की इतनी सौजन्यताभरी प्लानिंग के बाद आप हमारे कारण नंबर तीन पर आइए...
हमारी अफसरशाही के काटे किसने पानी मांगा है। एक बिलकुल निजी कहावत है। कहावत निजी इसलिए है कि इसकी जानकारी केवल भुगतभोगियों को ही है। तो कहावत है कि यदि आपको अफसरशाही से काम करवाना हो तो आपको ईश्वर का विशेष कृपापात्र होना चाहिए। क्योंकि तभी वो आपको दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्रदान करेंगे, तभी आप निरंतर दशकों तक अपना अपना काम करवाने के लिए अफसरशाही के पीछे पड़ सकेंगे। क्योंकि छोटी सी उमर के बूते क्या तो आप फाइल चलवा सकोगे, क्या तो नोटिंग करवा सकोगे, क्या तो सही आदमी का पता लगा सकोगे, क्या तो सेटिंग बिठा सकोगे, क्या तो पइसे का इंतजाम कर सकोगे, क्या तो जूते-चप्पलों के घिस जाने पर नये खरीदने का खर्चा उठा सकोगे, यानी क्या-क्या के चक्कर में ही मैन उमर गुजर जाएगी। बुढ़ापे में कहां से तो ऑफिसों के चक्कर लगा पाओगे। हालांकि आप ये भी सवाल उठा सकते हैं कि ईश्वर के विशेष कृपापात्र होते तो आप भी अफसरशाही का हिस्सा होते, मंगतारों की भीड़ में क्यों खड़े होते। तो भाई साहब जब आदमी बीहड़ों में कूद ही जाएगा तो मंदी के दौरान बीच-बीच में ईश्वर की तपस्या आदि का काम भी कर लेगा। ईश्वर से इस विषयक अनुनय-विनय या पूछताछ भी कर ही लेगा, और नहीं तो क्या? नहीं तो आप क्या मानके चल रहे हो कि पूरे समय घोड़े पे लदे रहकर डकैती ही चलती रहती है क्या? नित्यकर्म और दीगर कर्म क्या ऑर्डर देकर करवाए जाते हैं...हालांकि तपस्या आदि मामले में भी ज्यादा ही गहराई भी आ गई तो इसमें ये चांस भी निहित है कि भगवान भले ही दीर्घायु होने का आशीर्वाद न दे लेकिन नेता बन जाने का आशीर्वाद तो दे ही सकता है। यानी बिना आपका पेशा बदले आपकी तपस्या से प्रसन्न होकर आपको लुटेरों को लूटने वाला डकैत हो जाने का वरदान दे सकते हैं।
इसी तरह आप कारण नंबर चार पर जाएं तो यहां आपको अपने यहां की स्वास्थ्य सेवाएं से प्रताडऩा के चलते चंबल में उतरने की बात मिलेगी। सरकारी अस्पतालों में जाओ तो आदमी के दिल से नरक का डर खत्म हो जाता है। धरती पर ही अस्पताल के बाहर के जीवन को स्वर्ग मान लेने के प्रति आश्वस्त हो जाता है। ऐसा इसलिए भी होता है कि अपने यहां डॉक्टरों से कहीं ज्यादा जानकारी कंपाउंडरों को होती है। कंपाउंडरों से ज्यादा जानकारी मेडिकल स्टोर वाले रखते हैं। मेडिकल स्टोर से ज्यादा जानकारी एम आर के पास होती है। उससे भी ज्यादा जानकारी आपको दादा-दादी, नाना-नानी फ्री फोकट में घर बैठे ही दे देते हैं। इतनी जानकारियों के आधार पर आदमी खुद ही जान जाता है कि बीमार पड़ो तो इलाज-विलाज के चक्कर में ना पड़ो। क्योंकि पड़े और वाया सरकारी अस्पताल प्राइवेट नर्सिंग होम में पहुंचे तो फिर बिल आने पर रकम के इंतजाम के लिए आपके पास बीहड़ में कूदने के अलावा कोई रास्ता है भला...।
तो एकाएक आपको भी मेरी बातों में भारी गहराई, कारणों में भारी तर्क दिखाई देने लगे होंगे। ज्यादा द्रवित होकर कहीं आप डकैती वाले सूट का ऑर्डर देने तो नहीं जाने वाले। अच्छा आपकी चिंता घोड़े को लेकर है। क्या? आप इस बात को लेकर परेशान है बीहड़ में मच्छर ज्यादा तो नहीं, गर्मियों में कूलर-एसी कहां फिट करेंगे। वहां लाइट-आइट की कटौती का ठीकठाक आइडिया नहीं है। आपको मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने का शौक है, कैसे देखेंगे वहां.... तो भाई साब आपके बस के नहीं हैं ये काम। हालांकि में भी अभी तक कारणों में ही अटका हूं। मेरी भी अभी तक प्लानिंग ही चल रही है। क्या करूं आम आदमी हूं ना प्लानिंग ही कर सकता हूं, एक भी देशवासी ने अपनी प्लानिंग को सही तरीके से क्रियांवित किया होता तो देश का ये हाल होता भला। खैर आपको एक बात बताऊं मैंने बचपन से सैकड़ों प्लानिंगें की हैं। कुछ तो वक्त से इतने आगे की हैं कि अभी उनके लिए वक्त ही नहीं आया है। हालांकि अपनी इतनी प्लानिंगों के बाद फिर मेरे दिमाग में एक और प्लानिंग आ रही है कि क्यों न में इन सारी प्लानिंगों पर एक किताब ही छपवा लूं, और छोटा-मोटा मैनेजमेंट गुुरु ही हो जाऊं। आखिर जनता को नए-नए आइडिए और राह दिखाने का काम किसी को तो करना ही है तो मैं क्यों नहीं? तो ऊपर वाले आइडिए की प्लानिंग कैंसिल करके इस आइडिए को कार्यरूप में परिणित करने में जुट जाऊं, क्या कहते हैं आप... क्या? आप ही मुझे मार के चंबल में कूद जाएंगे जो मैंने किसी को ऐसे आइडिए दिए तो... ।
इति।
अनुज खरे
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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वाह डाक्टर साहब...चम्बल में घुसने की कारण इतने जबरदस्त हैं की हमने भी बिस्तर बाँध लिया है..आपके साथ चले चलेंगे...बेटे की होली वाली पिचकारी बन्दूक भी रख ली है....क्यूँ ठीक है न...
जवाब देंहटाएंbehatareen rachnaa... bar-bar padhne layak
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