सोमवार, 15 जून 2009
बिना गणित का शहर
भारती परिमल
एक था लड़का। काम का लल्लू, स्वभाव का लल्लू और उससे भी पहले नाम का भी लल्लू! पढऩा तो जैसे उसे बिलकुल भी नहीं भाता था, पर मम्मी-पापा की डाँट और शिक्षक की मार का असर था कि वह थोड़ी-बहुत पढ़ाई मन लगाकर कर लेता था। उसमें भी गणित विषय तो उसका शत्रु ही था। गणित की पुस्तक देखते ही वह उससे बचने का प्रयास करता। फिर भी जोड़-घटाना तो उसने अच्छी तरह से सीख ही लिया था। हाँ, जहाँ गुणा या भाग की बात आती, वह उससे दूर ही भागता। उसे लगता था कि गणित में जोड़-घटाना ही मुख्य है और इतना तो मुझे आता ही है। बस इससे आगे न भी आए, तो कोई बात नहीं। इसीलिए वह गणित के दूसरे सवालों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था। जब कक्षा में शिक्षक जोड़-घटाने के सवाल करवाते तो वह खुशी से उन्हें हल करता, लेकिन जैसे ही गुणा-भाग के सवाल शुरू होते, वह टेबल के नीचे सिर करके बैठ जाता और कभी-कभी तो सो भी जाता।
एक बार लल्लू इसी तरह कक्षा में सो गया और उसने एक सपना देखा। सपने में देखा कि वह एक अनोखे शहर में पहुँच गया है। शहर की सीमा पर ही एक बड़ा सा दरवाजा बना है और उस पर लिखा है - बिना गणित का शहर। यह पढ़ते ही लल्लू की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। वाह! कितना अच्छा शहर है। मुझे तो यहाँ रहना बहुत अच्छा लगेगा, क्योंकि यहाँ तो गणित का कोई झंझट ही नहीं है। गणित का कोई सवाल नहीं, जोड़-घटाने की कोई परेशानी नहीं, वाह! यहाँ तो खूब मजा आएगा। मजा ही मजा। भरपूर मजा!!
लल्लू तो खुश होते हुए उस दरवाजे से शहर के अंदर चला गया। बड़े-बडे मकान, चारों ओर हरियाली। दौड़ते-भागते, खेलते बच्चे और हँसी-खुशी अपना काम करते लोग। लल्लू को यह सब बहुत अच्छा लगा। इतने में एक जगह लल्लू ने देखा कि दो लोग आपस में बहस कर रहे हैं। दोनों के पास एक-एक टोकरी थी और उसमें संतरे भरे हुए थे। अब दोनों ही इस बात को लेकर बहस कर रहे थे कि दोनों टोकरियाँ मिलाकर कुल कितने संतरे हैं? बिना गणित का यह नगर था इसलिए वहाँ के लोगों को जोडऩा तो आता नहीं था। लल्लू उन्हें झगड़ते हुए देखकर उनके पास पहुँचा और कहा- आप दोनों आपस में झगड़ा न करें। मैं आप दोनों की समस्या हल कर देता हूँ। अभी गिनकर बता देता हूँ कि कुल कितने संतरे हैं। लल्लू को तो वैसे भी जोड़ के सवाल अच्छी तरह से आते थे, इसलिए उसने उनकी यह समस्या तुरंत ही हल कर दी। दोनों बहुत खुश हुए और बदले में दोनों ने एक-एक संतरा उसे ईनाम में दिया।
स्वादिष्ट संतरा पाकर लल्लू बहुत खुश हुआ और उन्हें खाते हुए आगे बढ़ा। चलते-चलते वह शहर के दूसरे छोर पर पहुँच गया। यहाँ उसे समुद्र दिखाई दिया। कुछ मछुआरे समुद्र से मछलियाँ पकड़ रहे थे। वे लोग टोकरी में रखी मछलियों को गिनना चाहते थे, लेकिन उन्हें गणित तो आता नहीं था इसलिए समुद्र के किनारे बने पेड़ पर एक-एक मछली के हिसाब से लकीरें खींचते और मछली को दूसरी टोकरी में रख देते। इतने में दूर से एक बच्चा दौड़ते हुए आया और उसका पैर उस टोकरी से टकरा गया, जिसमें वे लोग गिनकर मछलियाँ भर रहे थे। कुछ मछलियाँ टोकरी से बाहर गिर गई। वे लोग उसे उठाते कि तभी समुद्र की लहरें आईं और उन नीचे पड़ी मछलियों को अपने साथ बहाकर ले गईं। अब वे दोनों आपस में ही झगडऩे लगे कि अब कैसे पता चलेगा कि कितनी मछलियाँ कम हो गई हैं? लल्लू ने उनकी समस्या समझ ली थी। वह उन्हें समझाते हुए बोला- रूक जाओ। मैं अभी तुम्हारी समस्या हल कर देता हूँ। उसने टोकरी में रखी हुई बाकी मछलियों को गिना और फिर उस पेड़ के पास पहुँचा, जहाँ उन्होंने मछलियों को गिनकर लकीरें खींची थीं। उन लकीरों में से उसने गिनी हुई मछलियों की लकीरों को काट दिया और बाकी की लकीरों को गिन कर बताया कि आप लोगों की कुल आठ मछलियाँ पानी में बह गई हैं। अपनी समस्या का समाधान होते ही वे मछुआरे तो बहुत खुश हुए। उन्होंने लल्लू को सीप, शंख और अन्य समुद्री चीजें उपहार में दी। उपहार पाकर लल्लू बहुत खुश हुआ। साथ ही उन्होंने उसे 'चतुर पंडितÓ भी कहा। 'चतुर पंडितÓ की उपाधि पाकर तो लल्लू बहुत ही खुश हुआ।
अब वह बिना गणित के इस शहर में शान से घूमने लगा। घूमते-घूमते शाम होने को आई। वह एक खेत के पास से गुजर रहा था। कुछ औरतें खेत से पपीते तोड़कर टोकरियों में भर रही थीं और खेत का मालिक वहीं खड़ा था। टोकरियाँ भरने के बाद उन्होंने खेत के मालिक से मजदूरी के पैसे माँगे, लेकिन कितनी मजदूरी होती है, इसका हिसाब किसी को भी नहीं आता था। न ही खेत के मालिक को और न ही उन औरतों को। इतने में उन्होंने लल्लू को वहाँ से गुजरते हुए देखा तो बोली- वो देखो, वो 'चतुर पंडितÓ जा रहा है। मैं ने सुना है कि उसे गिनती से जुड़े हुए सभी झगड़े निपटाने आते हैं। क्यों न उसकी मदद ली जाए? उन्होंने लल्लू को आवाज दी और अपनी समस्या हल करने के लिए कहा।
लल्लू ने देखा कि पाँच औरतें हैं। उनके पास पाँच टोकरियाँ थीं। प्रत्येक टोकरी में करीब 30-30 पपीते थे। लेकिन कुल कितने पपीते हुए? इसका हिसाब तो लल्लू नहीं लगा पाया क्योंकि 30-30 करके कुल पाँच टोकरियों के पपीतों को गिनना लल्लू के बस की बात नहीं थी। वैसे लल्लू को इतना तो समझ आ ही गया था कि यह समस्या टोकरी और पपीते की संख्या का गुणा करने से ही हल होगी और गुणा करना तो उसे आता ही नहीं था। औरतें चिल्लाने लगीं- जल्दी करो, हमें घर जाने में देर हो रही है। अब बेचारा लल्लू यहाँ-वहाँ देखने लगा। लेकिन उसे गुणा करना नहीं आया। उसने वहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी। वह दौड़ कर भागा। औरतें उस पर खूब गुस्सा हुई और उस पर पपीते फेंक कर मारने लगीं।
भागते हुए लल्लू शहर के दूसरे किनारे पहुँच गया। वहाँ एक टापू पर कुछ लोग पिकनिक मना रहे थे। अब वे घर जाना चाहते थे। उनके पास कुल चार रिक्शे थे, पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि एक रिक्शे में कितने लोग बैठे? बस इसी बात पर उनमें झगड़ा हो रहा था। उन्हें आपस में बराबर भाग करना नहीं आ रहा था क्योंकि वे गणित तो जानते ही नहीं थे! उन्होंने लल्लू को देखा, तो उसे यह समस्या हल करने के लिए कहा। बेचारा लल्लू! गुणा के सवाल से तो अभी पीछा छुड़ाकर आ रहा था। अब सामने भाग का सवाल आ खड़ा हुआ। उसने हिसाब लगाया, पर कुछ समझ में नहीं आया। उसकी चुप्पी से उन लोगों को गुस्सा आ गया और वे लल्लू को मारने दौड़े। उनसे जान बचाते हुए लल्लू भागने लगा और ऐसा भागा कि गिरते -पड़ते शहर से बाहर ही निकल आया।
ठीक उसी समय लल्लू की नींद खुल गई और उसने अपने आपको गणित की कक्षा में पाया। सपने में गिरने वाला लल्लू वास्तव में गिर पड़ा था और उसके सिर का किनारा फूल गया था। इस फूले हुए भाग को देखकर उसे लगा कि बिना गणित के शहर के लोगों की मार खाने से तो शिक्षक की मार और मम्मी-पापा की डाँट ही अच्छी है। कम से कम इसके कारण मैं कुछ तो गणित सीख पाया। अब मैं कभी गणित से दूर नहीं भागूँगा और मन लगाकर पढ़ाई करूँगाा। बिना गणित के शहर में जाकर लल्लू ने गणित का महत्त्व समझ लिया था और अब वह गणित के पीरियड में कभी नहीं सोता था।
भारती परिमल
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बच्चों का कोना
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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