सोमवार, 8 जून 2009
कुछ आस, जिस पर टिकी हैं नजरें
किशोर महबुबानी
इस वर्ष दुनिया पर निराशा और दुर्भाग्य के काले बादल मंडराते रहेंगे. अर्थव्यस्था धन के लिए मोहताज रहेगी, सरकारें गिरेंगी और कंपनियां असफ़ल होती जायेंगी. इन वैश्विक परेशानियों के अलावा, जो सबसे बड़ा खतरा वैश्विक समुदाय के सामने होगा, वह है निराशा की मानसिकता का घर कर जाना. इससे बचने का सिर्फ़ एक ही उपाय हो सकता है कि कुछ बड़ी मुश्किलों को सुलझाया जाये. दोहा में संपन्न हुए विश्व व्यापार वार्ता ने इसके लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान किया, लेकिन इससे भी कारगर मौका हमें इस्रइल और फ़िलिस्तीन विवाद ने दिया है.दुनिया के अधिकतर लोग, खास कर पश्चिमी देशों के लोगों ने खुद से यह मान लिया है कि यह मसला सुलझाने लायक नहीं है. ओस्लो में संपन्न हुए 1993 के समझौते के बाद भी अरब-इस्राइल के संघर्ष को सुलझाने के लिएकाफ़ी प्रयास किये गये. लेकिन ये सारे प्रयास विफ़ल रहे. दुनिया के कुछ लोगों का मानना है कि इसके समाधान के लिए कुछ वैश्विक ताकतें आगे आयी हैं, जिससे इसके समाधान की आशा बंधती नजर आ रही है. ऐसे भू-राजनीतिक अवसर कम ही मिलते हैं. इसलिए, अगर इसे नहीं भुनाया गया तो दुर्भाग्य ही कहा जायेगा.शुरुआती दौर में इस मसले को सुलझाने के लिए एक विश्वव्यापी समझौते की जरूरत पड़ेगी. इसका समाधान 2001 में बिल क्िलंटन द्वारा तैयार ताबा समझौता हो सकता है. फ़िलिस्तीन के राजनयिकों ने इसे मानने पर हामी भी भरी है.इसके समाधान निकल आने की बात जितनी अहम है, उतनी ही अहम अरबों के मन में इस ख्याल का आना है कि अरब-इस्रइल समाधान उनके हित में है. मध्य-पूर्व के ज्यादातर देश, जिसमें मिस्र् और सऊदी अरब शामिल हैं, उनके क्षेत्र में ईरान के बढ़ते प्रभाव को लेकर सावधान हैं. इस्रइल के साथ इनका कोई भी समझौता ईरान को संभालने के लिए इन्हें मजबूत बनायेगा. इसके साथ ही ईरान के उस मंशा पर भी आघात लगेगा, जिसमें वह फ़िलिस्तीनियों को अरब देशों के खिलाफ़ भड़काता है. इससे जुड़ा बड़ा सवाल यह है कि क्या इजरायल इसके समाधान के लिए तैयार है? लेकिन इस्रइल के आंतरिक राजनीतिक स्थिति को देखते हुए वहां के अधिकतर संभ्रांत लोगों का मानना है कि अभी इस्रइल के लिए यह उपयुक्त समय नहीं होगा.इस्रइल के विदेश नीति की कमान अभी दो कट्टर लोग बेंजामिन नेतनयाहू और ऐवगडर लिबरमैन के हाथों में है. नेतनयाहू को अभी एक वैसे शांति समझौते की जरूरत है, जो पश्चिमी किनारे स्थित सभी तरह के सेटलमेंट को वापस कर ले. 1997 में जब मैं इस्राइल गया था, तब के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू ने मुङो बुलावा भेजा. हमारे बीच एक अच्छा रिश्ता था, क्योंकि हम दोनों एक ही साथ संयुक्त राष्ट्र में राजदूत रहे थे. उस वक्त नेतनयाहू ने जो बात मुझसे कही थी, वह मुङो अब तक याद है. उनका कहना था कि वे शांति के पूरी तरह से पैरोकार हैं. लिबरमैन और एहुद ओलमर्ट भी एक साझा गुट बना कर शांति को अंजाम दे सकते हैं.किसी भी शांति समझौते को अंजाम देने के लिए एक सशक्त मध्यस्थ की आवश्यकता होती है. सौभाग्यवश, इस काम के लिए अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्िलंटन तैयार हैं. हिलेरी के दोनों पूर्वाधिकारी कॉलिन पॉवेल और कोंडोलिजा राइस ने इस काम पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. इन लोगों ने दोनों पक्षों का विश्वास नहीं जीता. लेकिन हिलेरी ने ऐसा किया है. यहूदी समुदाय को हिलेरी में बहुत ज्यादा विश्वास भी है और यह बात मध्य-पूर्व में मध्यस्थता के लिए काफ़ी मायने रखती है.वर्ष 2009 में हिलेरी ने इस क्षेत्र का दौरा कर अपने राजनयिक गुण- कौशल का परिचय भी दे दिया है. उन्होंने दौरे के दौरान इस्रइल के सुरक्षा का आश्वासन दिया था. गाजा के नागरिकों पर होने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों को लेकर चिंता जतायी थी. मामले सुलझाने की उनके निपुणता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. उनके पति बिल क्िलंटन ने मध्य-पूर्व की समस्याओं के बारे में काफ़ी अध्ययन किया है. इसकी झलक उनके द्वारा पेश की गयी इस क्षेत्र से संबंधित समाधान उपायों में देखी जा सकती है. नि:संदेह, जिस काम को उनके पति ने शुरू किया, अगर वे समाप्त करें, तो इसे बहुत अच्छा माना जायेगा. इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि अगर हिलेरी अरब-इजरायल समस्या का समाधान दो देशों को बना कर करें, तो इस मध्यस्थता के लिए उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिलेगा. समाधान के इस तरीके को पूरी दुनिया में सराहा जायेगा.कुछ अमेरीकियों को यह पता है कि मुसलिम जगत में हो रही तेज भौगोलीक बदल ने दुनिया के सवा अरब मुसलमानों को एक साथ बांधा है. अरब-इस्रइल मतभेदों का नकारात्मक राजनीतिक प्रभाव इसलाम जगत के सभी देशों को प्रभावित किया है. बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना और मुसलिम देशों में उनकी सकारात्मक छवि ने इस मसले को सुलझाये जाने की एक नयी राह बनायी है. वैश्विक ओर्थक मंदी के इस समय में अगर शांति का यह समाधान हो जाता है, तो दुनिया पर छाने वाले निराशा और दुर्भाग्य के बादल कम होते नजर आयेंगे. आशा पूरी होने की बात तभी सफ़ल हो पायेगी, जब दुनिया क्या चाहती है, इसे पूरा किया जाये.
किशोर महबुबानी
(लेखक नेशनल यूनिवर्सिटी, सिंगापुर में डीन हैं.)
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
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