मंगलवार, 9 जून 2009

दक्षिण भारत में बदल रहा है हिंदी के प्रति दृष्टिकोण


डॉ. महेश परिमल
पिछले माह गोवा जाना हुआ, उसके पहले एक बार चेन्नई जाने का अवसर मिला था। इन दोनों स्थानों पर जाकर ऐसा बिलकुल ही नहीं लगा कि मैं किसी अहिंदीभाषी क्षेत्र में हूँ। गोवा तो खैर पर्यटन के कारण हिंदी को महत्व दे रहा है। पर चेन्नई, वह तो हिंदी का घोर विरोधी रहा है। वह हिंदी के प्रति इतना नर्म क्यों होने लगा भला? एक तरफ देश और समाज में कंप्यूटर का प्रयोग बढ़ रहा है, जिसे सारे निर्देश अँगरेज़ी में ही देने होते हैं, तो दूसरी तरफ दक्षिण भारतीय फिल्मों में कहीं-कहीं हिंदी के संवाद सुनने को मिलने लगे हैं। अब तो चेन्नई में भी विभिन्न स्थानों पर बिहारी, भोजपुरी, गुजराती ढाबे दिखाई देने लगे हैं। चेन्नई के सावकार पेठ इलाके पर चले जाओ, तो पता ही नहीं चलेगा कि हम किसी अहिंदीभाषी क्षेत्र में हैं। इस स्थान पर मारवाडिय़ों एवं गुजरातियों की भरमार है।
हिंदी को लेकर अब कहीं-कहीं पूर्वग्रह के बादल छँट रहे हैं। तमिल फिल्मों में उत्तर-दक्षिण लोगों का रोमांस दिखाया जा रहा है। पहले चेन्नई पहुँचकर रिक्शेवाले से बात करना मुश्किल होता था, उसे तमिल के सिवाय कोई भाषा नहीं आती थी, पर वे भी समझने लगे हैं कि बिना हिंदी जाने और बोलने के सिवाया उनके पास कोई चारा नहीं है। इसलिए उन्होंने भी हिंदी को सहजता से लेना शुरू कर दिया है। बदलते सिनेरियो के बीच अब हिंदी के प्रति नजरिया बदलने लगा है। फिल्म 'दशावतारम्Ó में कमल हासन के दस पात्रों में एक पात्र अवतार सिंह का भी है, जो भांगड़ा करता सिख है। एक और तमिल फिल्म है 'अभियुन नानुमÓ (अभि और मैं) में एक पात्र प्रकाशराज अपनी पत्नी से कहता है 'राजम्मा कोटु दाÓ अर्थात् मुझे राजमा परोसो। इस फिल्म में प्रकाशराज एक ऐसे तमिल व्यक्ति की भूमिका कर रहे हैं, जिसकी पुत्री एक सिख युवक से शादी कर घर ले आती है। इससे घर का वातावरण बदल जाता है। हिंदी परिवार की मुख्य भाषा बन जाती है। कालांतर में उसकी पत्नी भी हिंदी बोलने लग जाती है। इतना ही नहीं डायनिंग टेबल पर अब सांभर या रसम के बजाए दाल मखानी और राजमा परोसा जाने लगता है। यह देखकर घर के मुखिया प्रकाशराज भीतर ही भीतर कुढऩे लगते हैं।
एक और उदाहरण:- चेन्नई के मध्यम वर्ग की बस्ती अन्नानगर में योग की क्लास चल रही है। एक विद्यार्थी क्लास में देर से पहुँचता है। इस पर शिक्षक उसे तमिल में डाँटते हुए कहते हैं कि कल से यदि तुम देर से आए, तो तुम्हें गुरु बनकर क्लास लेनी पड़ेगी। इस पर देर से आने वाले छात्र के मुँह से निकल पड़ता है 'अच्छा, यह तो बहुत ही मुश्किल होगा।Ó विद्यार्थी ने 'अच्छाÓ शब्द मुँह से निकाला, पर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया, किसी की भवें नहीं तनीं। इसका मतलब यही कि अब इस प्रकार के शब्द उनकी भाषा में प्रचलित होते जा रहे हैं। उपरोक्त प्रसंगों से यह साफ हो जाता है कि राजनीति के क्षेत्र में दक्षिण भारत के लोग भले ही हिंदी को अनदेखा कर रहे हों और उसके विरोध में अपना परचम लहराना न भूलते हों, पर आम-आदमी में हिंदी का विरोध अब दिखाई नहीं देता। अब वहाँ भी हिंदी फिल्में जुबली मनाने लगी हैं।
दक्षिण भारत की फिल्मों की कहानी उत्तर भारतीय पात्र होने लगे हैं। अब यह पात्र तो अपनी बात हिंदी में ही करेगा। कुछ ऐसा ही हुआ फिल्म 'वारानाम आपीरामÓ नामक तमिल फिल्म का नायक आर्मी में मेजर है। एक सीन में मेजर डॉन के अड्डे पर एक अपहृत बच्चे को छुड़ाने जाता है, तब डॉन उससे पूछता 'क्या तू पुलिस हैÓ? जवाब में मेजर कहता है 'हाँ मैं पुलिस हूँ और थोड़ी देर में पुलिसवाले सरेंडर करेंगे।Ó इस संवाद को उचित ठहराते हुए फिल्म के डायरेक्टर गौतम वासुदेव मेनन कहते हैं कि हीरो दिल्ली का रहने वाला है और हिंदी में बात हो, ऐसी माँग स्क्रिप्ट में की गई थी। इसलिए मैंने अधिक सोच-विचार न करते हुए डायलॉग को हिंदी में ही रहने दिया।
अब आते हैं खान-पान पर। अध्ययन के लिए कई राज्यों के लोग अब चेन्नई जाने लगे हैं। वहाँ उन्हें भोजन के सिवाय अन्य कोई तकलीफ नहीं होती। ये विद्यार्थी जब भी अपने घर फोन पर बात करते हैं, तो भोजन की समस्या पर अवश्य बात करते हैं। जो मांसाहार ग्रहण करते हैं, उनके लिए कोई विशेष समस्या नहीं होती, पर शाकाहारियों के भोजन एक विकट समस्या है। इसलिए सन 2004 में गौरव कुमार नाम के एक विद्यार्थी ने 20 हजार रुपए की अपनी पूँजी और कुछ दोस्तों से लेकर एक ढाबा शुरू किया, इसके लिए उसने भागलपुर से एक कुक भी बुलवा लिया, आज उसका ढाबा चल निकला है, अब वहाँ ने केवल बिहार के, बल्कि अन्य राज्यों के विद्यार्थी एवं प्रोफेसर भोजन के लिए आने लगे हैं। आज उसके ढाबे में 5 अन्य लोग भी काम करने लगे हैं। महीने में 8 से 10 हजार रुपए वे आसानी से कमा लेते हैं। इसकी देखा-देखी में अब चेन्नई में करीब 20-25 ढाबे विभिन्न प्रांतों से आए विद्याथर््िायों ने खोल लिए हैं। अब वहाँ गुजराती होटल, मारवाड़ी बासा,विशुद्ध शाकाहारी भोजनालय आदि के बोर्ड आसानी से देखने को मिल जाते हैं। निश्चित यहाँ आने वाले लोग हिंदी में ही बातचीत करते होंगे। यदि यहाँ स्थानीय लोग भी आते हैं, तो उन्हें भी हिंदी में ही बोलना पड़ता है। तो इस तरह से हिंदी अनजाने में उनके भीतर शामिल हो रही है, जिसे वे अच्छी तरह से समझ रहे हैं।
अब आते हैं राजनीति पर, जब करुणानिधि ने राम सेतु पर अपना विवादास्पद बयान दिया, तो उसका काफी विरोध हुआ। इससे बचने के लिए दूसरे ही दिन उन्होंने अपना बयान बदल दिया और राम भगवान की प्रशंसा पर कई कसीदे गढ़े। यही नहीं उन्होंने हिंदी में लिखी कविता भी सुनाई। अब इसे क्या कहा जाए? राजनीति के बाहरी स्वरूप में हिंदी का विरोध करने वाले यह समझने लगे हैं कि हिंदी के बिना उनका गुजारा नहीं हो सकता। इसलिए हिंदी विरोधी होते हुए भी हिंदी का खुलकर विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। दूसरी ओर 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान द्रमुक के एक प्रत्याशी ने अपने इलाके के 20 हजार हिंदीभाषियों को रिझाने के लिए एक पुस्तिका प्रकाशित की। बाद में विरोध के चलते पुस्तिका वापस ले ली गई। इसका आशय यही हुआ कि हिंदी का विरोध केवल वे बाहरी तौर पर करते हैं। दिल से नहीं।
कला विश्लेषक और लेखक सदानंद मेनन कहते हैं कि तमिल फिल्में अब समग्र भारत के दर्शकों के लिए बनाई जा रही है, इसलिए तमिल फिल्मों की हिंदी का प्रभाव अनिवार्य बन गया है। एक सिनेमाप्रेमी और कम्युनिकेशन कंसल्टंट राधारमन का कहना है कि लोग अब हिंदी विरोधी नहीं रहे। तमिलनाड़ु की आईटी कंपनियों में अनेक हिंदी शब्दों का प्रयोग होता है। इस कारण अब दक्षिण भारतीयों का सम्पर्क उत्तर भारतीयों से होने लगा है। उनमें अब भाषा का भेद गौण होने लगा है। इसलिए जब कमल हासन की पहली फिल्म 'एक दूजे के लिए आई थी, जिसमें एक दक्षिण भारतीय युवक का प्रेम उत्तर भारतीय लड़की से होता है, तो समाज इस संबंध को स्वीकार नहीं कर पाता। अंतत: उन दोनों को आत्महत्या करनी पड़ती है। लेकिन अब हालात बदल गए हैं, अब हिंदी के प्रति उन्हें हृदय से घृणा नहीं है, यदि थोड़ी-बहुत है, तो उसका कारण राजनीति है। अब लोग बेखौफ होकर दक्षिण भारत जा सकते हैं, अब उन्हें न तो भाषा की दिक्कत झेलनी होगी और न ही भोजन की।
पूर्वोत्तर के होंठों पर हिंदी
मंत्रिमंडल की सबसे युवा सदस्य अगाथा संगमा को हिंदी में शपथ लेते देखना सुखद और विस्मयकारी था। केवल एक जगह 'अंत:करण पर वह थोड़ा अटकीं, लेकिन इसके अलावा उन्होंने बिल्कुल साफ धाराप्रवाह हिंदी में शपथ ली। 'संसूचितÓ जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों पर भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। इससे पहले टीवी चैनलों पर उन्हें अच्छी अंग्रेजी बोलते हुए सुन ही चुके हैं। यह बताता है कि युवा भारत बहुभाषीय है और व्यापक देश तक पहुँचना चाहता है। संगमा की यह पहल मुख्यधारा से लगभग कटे पूर्वोत्तर इलाके को बाकी देश से सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से जोडऩे में मददगार होगी।

डॉ. महेश परिमल

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