गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
ठंड का समाजवाद
डॉ महेश परिमल
बारिश का ठंड से गहरा नाता है। कहते हैं कि जब बारिश अच्छी होती है, तब ठंड भी अधिक पड़ती है। इस बार तो बारिश अच्छी हुई है, तो फिर कैसे कटेगा किटकिटाती ठंड का सफर? इस बार तो कोई सहायता करने वाला भी नहीं है। पिछली बार माँ की साड़ी थी, जिसमें वह हमें हमारे ठंड का हिस्सा बाँट देती थी। एक कथरी ठंड हम दो भाइयों के बीच बँट जाती थी। पिछली बार ठंड ने तो नहीं, पर तेज बारिश ने माँ को हमसे जुदा कर दिया। पर इस बार कैसे बच पाएँगे हम दोनों भाई?
ये मेरे नहीं, उस मासूम के शब्द हैं, जो उसने कुछ दिनों पहले ही पुलिस थाने में अपने छोटे भाई के साथ बातचीत करते हुए व्यक्त किए थे। उस मासूम को स्टेशन में आवारा लड़कों के साथ चोरी करते हुए पकड़ा गया था। वह अपनी माँ के साथ मुरादाबाद से आया हुआ था। उसकी माँ बमुश्किल ही उन दोनों भाइयों को पाल रही थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उसने मौत का मतलब जान लिया था। माँ मर गई, कहने में उसे ज़रा भी संकोच नहीं होता था। साल भर से वे दोनों रेल्वे स्टेशन पर ही पल-बढ़ रहे थे। सारी गंदी आदतों के साथ। उसका छोटा भाई भी अब दुनियादारी समझने लगा था। चोरी के आरोप में उन दोनों मासूमों को पुलिस ने पकड़ लिया था। वे यहाँ आकर इसीलिए खुश थे कि उन्हें आज के खाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
यह एक खतरनाक सच है। हमारे आसपास ही मँडराने वाला सच। 'स्कूल चलें हम के नारे को समझे बिना ये मासूम पूरी दुनियादारी का ककहरा समझ लेते हैं। गरीबी में रहते हुए ये अपनी आँखों में अमीर होने का सपना तो पाल लेते हैं, उसे पूरा करने के लिए स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर आकर हर तरह के बुरे कार्य करते हैं। पैसे मिलने पर कभी वीडियो गेम, तो कभी जुआ भी खेल लेते हैं। कभी दु:खी हुए तो गाँजे-भाँग का सुट्टा भी मार लेते हैं। पूरे संसार का समीकरण इन्हें मालूम होता है। भविष्य की कोई चिंता नहीं होती इन्हें। ये जीते हैं, पूरी शान से।
ऐसे लोगों का दिन तो किसी तरह निकल ही जाता है। कभी इन्हें रात गुजारते देखा है किसी ने। पिताजी हमें अक्सर कहा करते कि जब हमें हमारा दु:ख बहुत बड़ा लगने लगे, तब हमें उन लोगों की तरफ देख लेना चाहिए, जिनके दु:ख हमसे भी बड़े हैं। इसे जानना हो, तो कभी कड़कड़ाती ठंड में रेल्वे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर जाकर देख लो कि लोग किस तरह ठंड गु$जारते हैं। कोई माँ अपने बच्चों को अपनी साड़ी से लपेट लेती है। कोई किसी जानवर के पास सोया हुआ है, गोया जानवर की गर्मी उसे मिल रही हो। शायद ऐसा ही जानवर भी सोचता है कि मुझे इससे गर्मी मिल रही है। ठंड और गर्मी के इस झगड़े में रात कट जाती है। सुबह फिर वही जिंदगी मुस्कराती हुई सामने खड़ी होती है।
ये है उन मासूमों की टूटी-फूटी जिंदगी का एक टुकड़ा। ये टुकड़ा लिहाफों से दिखाई नहीं देता। बहुत गर्मी देता है, शायद यह लिहाफ। तभी तो इससे छुटकारा पाते ही लोग खुद को आग के सामने खड़ा पाते हैं या फिर किसी हीटर के सामने। ठंड में गर्मी बटोरते ये लोग यह भूल जाते हैं कि ठंड में एक समाजवाद होता है। ठंड सभी को उतनी ही लगती है, लिहाफ ओढ़ लो, तो भी ठंड लगेगी, एक जीर्ण-शीर्ण कथरी को चार लोग मिलकर ओढ़ लें, तो भी ठंड उतनी ही पड़ेगी। ठंड का स्वभाव भी बड़ा जिद्दी है, इसे जितना दूर भगाओ, उतनी ही करीब आती है। यदि इसके सामने सीना तानकर खड़े हो जाएँ, तो यह कोसों दूर भाग जाएगी। पर ठंड का आना हमेशा से ही डरावना रहा है। इस बार भी ठंड आ ही गई,अब दाँत भी खूब किटकिटाने लगे हैं।
ठंड में एक बात और है कि ये ठंड भाईचारा बढ़ा देती है। दोनों भाई दिन में कितना भी झगड़ें, पर रात में दोनों को एक-दूसरे का साथ चाहिए। छोटा भाई तो जब तक बड़े भाई के गरम पेट पर हाथ नहीं रखता, उसे नींद नहीं आती। यही नहीं स्टेशन पर सब लोग बहुत ही करीब होकर सोते हैं। उनमें किसी प्रकार का भेदभाव उस वक्त दिखाई नहीं देता। यही वह मौसम होता है, जो लोगों की दरियादिली को भी बताता है। ठिठुरते मासूम को कोई इंसान अपने कंबल या फिर कोट, स्वेटर आदि ओढ़ाकर आगे बढ़ जाता है। लोग उसे देखते हैं, भीतर-ही-भीतर उसकी इस हरकत पर हँस भी देते हैं। लेकिन उसे तो आगे बढऩा होता है, वह आगे बढ़ जाता है। लोग उसका नाम जानना चाहते हैं, पर वह तो निकल जाता है।
यही वह मौसम होता है, जब खेतों में फसल अपने पूरे श्रृंगार के साथ किसान को लुभाती है। कुछ समय के लिए ही सही किसान सपने देख लेता है। 'पूस की रातÓ का हल्कू अनायास याद आ जाता है। किसानों की तपस्या का यही मौसम है। रात भर जागकर खेतों की रखवाली करना और जागी आँखों से ही सपने देखना। जिसमें बिटिया की शादी है, बच्चों की पढ़ाई है, पत्नी का इलाज है, सरकारी टैक्स है और है बीज-खाद। इसी क्रियात्मक रचना-संसार में किसान की सुबह का रुपहला सूरज ऊगता है और इंद्रधनुषी संध्या ढलती है। इसी अवधि में वह जीवन में आगे बढऩे की ऊर्जा प्राप्त करता है और अपनी जीवटता का परिचय देता है।
ये थी ठंड की बात। पर जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह है, हमारे भीतर की सिकुड़ती गर्मी, जो हमें यह अहसास ही नहीं कराना चाहती कि ठंड जानलेवा भी हो सकती है, इसे आपस में बाँट लें, तो शायद उन मासूमों की घिसटती $िजंदगी में कुछ पलों के लिए ही सही, गर्मी का अहसास होगा। ठंड बच्चों और बुजुर्गों को ज्यादा लगती है। क्या हम उन्हें अपने हिस्से की गर्मी नहीं दे सकते? जरूरी नहीं कि वह गर्म कपड़ों के रूप में हो। आशा और विश्वास के रूप में भी हो सकती है, यह गर्मी। हमारा प्यार भरा हाथ उन मासूमों के सर पर चला जाए, बस उनकी तो $िजंदगी ही सँवर गई। इसी तरह बुजुर्गों के पास जाकर केवल उनके दु:ख-दर्द ही सुन लें, उनसे प्यार से बातें ही कर लें, उनके लिए तो यही है, सिमटती जिंदगी का एक ठहरा हुआ सच... ।
डॉ महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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बुधवार, 30 दिसंबर 2009
भारतीय सिनेमा पहुँचा सात समुंदर पार
भारतीय सिनेमा ने वर्ष २००९ में पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परचम फहराते हुए अपनी सशक्त पहचान बनाई। इस साल संगीतकार ए, आर, रहमान संगीत की दुनिया में सैलाब बन कर आए और देखते ही देखते पूरी दुनिया पर छा गए। रहमान ने बाफ्टा, गोल्डन ग्लोब और आस्कर जीतकर इतिहास रच दिया। ऐसा करने वाले वह पहले भारतीय बने। रहमान की जय हो की धुन पर थिरकते फिलीपींस के कैदियों कावीडियो यू ट्यूब पर जबरदस्त हिट हुआ जबकि स्पेन के गायकों द्वारा गाया जय हो के वीडियो ने भी खूब हिट बटोरे। रहमान २००९ में हालीवुड में छाए रहे। २००९ में आठ आस्कर जीतने वाली फिल्म स्लमडाग मिलिकोयर ने मिस्टर इंडिया यानी अनिल कपूर को भी अंतरराष्ट्रीय मंच दिया। स्लमडाग के आने के बाद वे अमरीका के मशहूर टीवी शो २४ में काम कर रहे हैं। इसी फिल्म ने चंद और सितारों को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। स्लमडाग में लतिका के छोटे से किरदार के जरिए भारत की फ्रीडा ङ्क्षपटो अपनी पहली ही फिल्म में छा गई। २००९ की तमाम अवार्ड समारोहों में रेड कार्पेट पर उनका जलवा रहा, वे वुडी ऐलन जैसी हालीवुड के निर्देशकों के साथ काम कर रही हैं। उन्होंने भले ही एक भी पुरस्कार न जीता हो लेकिन सबसे खूबसूरत, सबसे सेक्सी, , ऐसी तमाम सूचियों में उनका नाम रहा, उनके और देव पटेल के फोटो हर टेबलाइड के कवर पेज पर रहे। दो नन्हें भारतीय सितारों को भी इस साल पूरी दुनिया ने सर आंखों पर बिठाया। स्लमडाग के बाल कलाकार अजहर और रुबिना, असल ङ्क्षजदगी में झुग्गियों में रहने वाले इन बच्चों का आस्कर तक का सफर किसी सुंदर सपने से कम नहीं था, आस्कर से लौटने के बाद दोनों का सामना एक फिर हकीकत से हुआ। इसी साल पेरिस के मशहूर सलों ड्यू सिनेमा फेस्टिवल में अमिताभ बच्चन की फिल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव भी आयोजित हुआ और उन्हें दुबई फिल्म फेस्टिवल में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। लता मंगेशकर को फ्रांस ने अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया। ङ्क्षहदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए साल २००९ एक ठीक ठाक साल ही कहा जाएगा। वर्ष २००९ ने ङ्क्षहदी सिनेमा को कुछ बिलकुल नए सांचे, नए प्रतिमान, नए रुप, नए कलेवर, नए कलेवर, नए तौर, नए मायने दिए। देव डी ने देवदास की छवि को नए आयाम दिए तो लव आज कल में लिव इन रिलेशनशिप से भी एक कदम की बात कही गई, कमीने की नायिका सेक्स संबंधों की पहल करने में नहीं हिचकती, संबंधों के इस नवाचार को दर्शकों ने पसंद भी खूब किया है, इस तरह २००९ में बालीवुड रुढिय़ों को तोड़ता नजर आया।
अक्षय कुमार, सुनील शुट्टी, अजय देवगन, संजय दत्त, जैसे एक्शन स्टार्स के कामेडी में हाथ आजमाने की वजह से एक्शन थ्रिलर फिल्में बनना कम हो गईं थीं लेकिन इस और देखे जरा, एक ८, १० तस्वीर, लक, ब्लू, न्यूयार्क, कुर्बान, वांटेड के जरिए बडे सितारे फिर से एक्शन की तरफ मुडे। मुन्ना भाई सीरीज से जो कामेडी का दौर शुरु हुआ वो २००९ में भी जारी इस साल भी सबसे ज्यादा फिल्में कामेडी की हो आई। राजकुमार हिरानी ने आमिर खान को लेकर थ्री इडियट्स साल के अंत में सिनेमा घरों में रिलीज की। साल की दस बड़ी फिल्मों में चार फिल्में कामेडी ही थीं। हालांकि स्तरीय कामेडी केा इस साल भी पूर्णत अभाव ही रहा। अजब प्रेम की गलब कहानी, इस साल कुछ अनोखे प्लोट्स वाली फिल्मूें भी आईं, प्रियंका चोपड़ा, ने व्हाट्स योर राशि में बारह भूमिकाएं निभा कर रिकोर्ड बनाया, तो साल के अंत में अमिताभ बच्चन पा में अभिषेक के १२ वर्षीय पुत्र बने, लव आजकल, अलादीन, देव डी, की कहानी भी हटकर थी लेकिन ये पसंद की गईं। इस साल भी बालिवुड ने कई विदेशी सिताओ को अपनी तरफ खीचा कमबख्त इश्क में सिल्वेस्टर स्टेलोन ब्लू में कैली मिनोग अलादीन में जैकलिन और देंसी रिचड्र्स जैसे सितारे बालिवुड में नजर आए आगे भी कई फिल्में ऐसे आ रही हैं जिनके जरिए बालीवुउ , हालीवुड का मिलन हो रहा है। तकनीक और लागत का विकास बालीवुड की फिल्में अब तकनीकी और लागत का विकास बालीवुड की फिलमें अब तकनीक रूप से ज्यादा समृद्ध होती जा रहीं ब्लू एकदम हालाीवुड की झलक देती है जबकि पा में अमिताभ का मेकप बेजोड़ हैं ज्यादातर फिल्में अब भारत के मेट्रो ही नहीं बल्कि विदेश में शूट होती हैं इस तरह इन फिल्मों से गांव तो बहुत पहले ही गायब हो गया था अब छोटे शहर भी गायब हो रहे हैं। इस साल की फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि ज्यादातरजो फिल्में सफल थीं उनमें संगीत एक पूरक तत्व की तरह तो था लेकिन उसकी प्रधानता उतनी नहीं थी जितनी बालीवुडकी फिल्मों में आमतौर पर होती है। इस मामले में लव आजकल ही एक मात्र ऐसी फिल्म कही जा सकती है जो सही मायनों में म्यूसिकल थीं।
ज्यादातर फिल्मों में गाने या तो जरूरत के वक्त थे या फिर उपस्थिति दर्शाने के लिए जबरदस्ती ठूंस दिए गए थे मतलब गीतों का वर्चस्व अब उतना नहीं रह गया। इस साल फिल्म जगत को वर्ष २००९ में कई विवादों से दो चार होना पड़ा। किसी फिल्म का शीर्षक बदलने को मजबूर होना पड़ा तो कहीं राजनीतिक बवाल के कारण फिल्म में किसी शब्द के इस्तेमाल पर माफी मांगनी पड़ी। सालभर में फिल्मों से जुडे कई किस्से सामने आए। लमडाग के नन्हे कलाकार भी खबरों एवं विवादों में रहे। खबर आई कि जहर और रबीनां की झुग्गियां तोड़ दी गई हैं क्योंकि वे अवैध हैं दावे और वादे हुए कि बच्चों को नया घर दिया जाएगा दोनों के लिए जय हो ट्रस्ट बनेगा। इन आरोपों से सनसनी मच गई कि रबीना के पिता ने पैसों के लिए उसे बेचने की कोशिश की। शाहरुख खान की बहुचर्चित फिल्म बिल्लू बारबर के नाम में बारबर शब्द को लेकर एक समुदाय विशेष ने कड़ी आपत्ति जताई जिसके चलते आखिरकार फिल्म के शीर्षक से बारबर शब्द हटा दिया गया। गुजरात के दंगों की विभीषिका बताने वाली फिल्म फिराकर गुजरात के मल्टीप्लेक्स मालिकों को रास नहीं आई। १९ मार्च को गुजरात के मल्टीप्लेक्स मालिकों ने नंदिता दास निर्देशित इस फिल्म का प्रदर्शन न, न करने का फैसला किया। मणिरत्नम की बहुचॢचत फिल्म रावण की शूङ्क्षटग के दौरान जून में महाराष्ट्र में वन विभाग के अधिकारियों ने वन संपदा को नुकसान पहुंचाने को लेकर इस फिल्म के निर्माण से जुडे १४ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया। मई में इस फिल्म की शूङ्क्षटग कुछ समय के लिए रोकी गई थी क्योंकि फिल्म के सेट पर एक हाथी भड़क गया था। दो अक्टूबर को रिलीज हुई करण जौहर की फिल्म वेक अप सिड महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के गुस्से का निशाना बनी। पहले ही दिन
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना समर्थकों ने करण जौहर की फिल्म वेक अप सिड में मुंबई के स्थान पर बंबई का प्रयोग करने पर आपत्ति जताते हुए फिल्म का प्रदर्शन रूकवा दिया।
मनसे कार्यकर्ताओं ने पुणे स्थित सिटीप्राइड मल्टीप्लेक्स में भी वेक अप सिड फिल्म का प्रदर्शन रुकवाया। मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा सिनेमा हाल मालिको से फिल्म के प्रदर्शन को रोक देने के लिए कहे जाने के बाद ३७ वर्षीय जौहर मध्य मुंबई स्थित ठाकरे से मुलाकात के लिए उनके निवास पर गए। बाद में जौहर ने कहा कि मुंबई की जगह बंबई का इस्तेमाल उनकी ओर से एक भूल थी। उन्होंने कहा कि आगे से वह बंबई की जगह मुंबई का इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने कहा कि वह किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते और फिल्म में वह इस आशय की सूचना देंगे। शिवसेना के कोप का निशाना कुर्बान भी बनी। इस फिल्म के पोस्टर में अभिनेत्री करीना कपूर की खुली पीठ दिखाई गई थी, जिसे लेकर शिवसैनिकों ने अश्लीलता का आरोप लगाया और खूब हंगामा किया। आखिरकार ये पोस्टर बदलने पड़े। नवंबर माह में संदिग्ध अमेरिकी आतंकवादी डेविड कोलमेन हेडली के साथ महेश भट्ट के बेटे राहुल का नाम जुडऩे के बाद महेश की फिल्म तुम मिले को विरोध का सामना करना पड़ा। गुजरात के राजकोट में राज्य के पूर्व गृहमंत्री गोधन झड़पिया की ओर से गठित एक पार्टी के कार्यकर्ता एक सिनेमाघर में घुस गए तुम मिले का प्रदर्शन बाक्स आफिस पर सामान्य नतीजे दिए।
प्रेम कुमार
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फिल्म संसार
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
मायानगरी के पहले सुपरस्टॉर
आज जन्म दिन है जिनका
हिंदी फिल्म जगत में अपने अभिनय से लोगों को दीवाना बनाने वाले अभिनेता तो कई हुए और दर्शकों ने उन्हें स्टार कलाकार माना पर सत्तर के दशक में राजेश खन्ना पहले ऐसे अभिनेता के तौर पर अवतरित हुए जिन्हें दर्शको ने 'सुपर स्टार .की उपाधि दी। पंजाब के अमृतसर में 29 दिसंबर 1942 को जन्में जतिन खन्ना उर्फ राजेश खन्ना का बचपन के दिनों से ही रूझान फिल्मों की और था और वह अभिनेता बनना चाहते थे हांलाकि उनके पिता इस बात के सख्त खिलाफ थे। राजेश खन्ना अपने करियर के शुरूआती दौर में रंगमंच से जुड़े और बाद में यूनाईटेड प्रोडयूसर ऐसोसियिशेन द्वारा आयोजित ऑल इंडिया टैलेंटं कान्टेस्ट में उन्होंने भाग लिया. जिसमें वह प्रथम चुने गए। राजेश खन्ना ने अपने सिने करियर की शुरूआत 1966 में चेतन आंनद की फिल्म .आखिरी खत 'से की लेकिन कमजोर पटकथा और निर्देशन के कारण यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से नकार दी गयी। वर्ष 1966 से 1969 तक राजेश खन्ना फिल्म इंडस्ट्री मे अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म 'आखिरी खत.के बाद उन्होंने राज ्बहारो के सपने, औरत, डोली जैसी कई फिल्मों मे अभिनय किया लेकिन अच्छे अभिनय के बावजूद भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफल नहीं हुयी। राजेश खन्ना के अभिनय का सितारा निर्माता.निर्देशक शक्ति सामंतकी क्लासिकल फिल्म .अराधना से चमका। बेहतरीन गीत.संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की .गोल्डन जुबली. कामयाबी ने न सिर्फ पार्श्वगायक किशोर कुमार को शोहरत की बुंलदियां पर पहुंचा दिया साथ ही राजेश खन्ना को भी .स्टार. के रूप में स्थापित कर दिया। आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। आर.डी.बर्मन के संगीत से सजी मेरे सपनो की रानी कब आएगी तू, रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना ्कोरा कागज था ये मन मेरा, गुन गुना रहे है भंवरे जैसे फिल्म के इन मधुर गीतों की तासीर आज भी बरकरार है।
फिल्म अराधना की सफलता के बाद अभिनेता राजेश खन्ना शक्ति सामंत के प्रिय अभिनेता बन गए। बाद में उन्होंने राजेश खन्ना को कई फिल्मों में काम करने का मौका दिया। इनमें कटी पतंग 1970, अमर प्रेम 1971, अनुराग 1972, अजनबी 1974, अनुरोध 1977 और आवाज 1984 जैसी कई सुपरहिट फिल्में शामिल है। फिल्म अराधना की सफलता के बाद राजेश खन्ना की छवि रोमांटिक हीरो के रूप में बन गयी। इस फिल्म के बाद निर्माता निर्देशकों ने अधिकतर फिल्मों में उनकी रूमानी छवि को भुनाया। निर्माताओं ने
उन्हें एक कहानी के नायक के तौर पर पेश किया. जो प्रेम प्रसंग पर आधारित फिल्में होती थी। इन फिल्मों में कटी पतंग, दो रास्ते, सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, अंदाज जैसी फिल्में शामिल है। सत्तर के दशक में राजेश खन्ना लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचे और उन्हें हिंदी फिल्म जगत के पहले सुपरस्टार होने का गौरव प्राप्त हुआ। यूं तो उनके अभिनय के कायल सभी थे लेकिन खासतौर पर टीनएज लड़कियों के बीच उनका क्रेज कुछ ज्यादा ही दिखाई दिया।
एक बार का वाकया है जब राजेश खन्ना बीमार पड़े तो दिल्ली के कॉलेज की कुछ लड़कियों ने उनके पोस्टर पर बर्फ की थैली रखकर उनकी सिकांइ शुरू कर दी ताकि उनका बुखार जल्द उतर जाए। इतना ही नहीं लड़कियां उनकी इस कदर दीवानी थी कि उन्हें अपने खून से प्रेम पत्र लिखा करती थी और उससे ही अपनी मांग भर लिया करती थी। सत्तर के दशक में राजेश खन्ना पर यह आरोप लगने लगे कि वह केवल रूमानी भूमिका ही निभा सकते है। राजेश खन्ना को इस छवि से बाहर निकालने में निर्माता -निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने मदद की और उन्हें लेकर 1972 में फिल्म 'बावर्ची ' जैसी हास्य से भरपूर फिल्म का निर्माण किया और सबको आश्चर्यचकित कर दिया। 1972 में ही प्रदशत फिल्म .आनंद .में राजेश खन्ना के अभिनय का नया रंग देखने को मिला। ऋषिकेश मुखर्जी निदेशत इस फिल्म में राजेश खन्ना बिल्कुल नए अंदाज में देखे गए। फिल्म में राजेश खन्ना ने एक ऐसे बीमार व्यक्ति का किरदार निभाया जो चंद दिनों में मरने वाला है लेकिन उसका मानना है जब तक जिंदा रहे जिंदादिल इंसान के तौर पर जिए। फिल्म के एक द्यश्य में राजेश खन्ना का बोला गया यह संवाद बाबूमोशाय 'हम सब रंगमंच की कठपुतलियां है जिसकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों से बंधी हुई है कौन कब किसकी डोर खिंच जाए ये कोई नही बता सकता 'उन दिनों सिने दर्शको के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था और आज भी सिने दर्शक उसे नहीं भूल पाए 1 969 से 1976 के बीच कामयाबी के सुनहरे दौर में राजेश खन्ना ने जिन फिल्मों में काम किया उनमें अधिकांश फिल्में हिट साबित हुयी लेकिन अमिताभ बच्चन के आगमन के बाद परदे पर रोमांस का जादू जगाने वाले इस अभिनेता से दर्शकों ने मुंह मोड़ लिया और उनकी फिल्में असफल होने लगी। अभिनय मे आयी एकरपता से बचने और स्वंय को चरित्र अभिनेता के रूप मे भी स्थापित करने के लिए और दर्शकों का प्यार फिर से पाने के लिए राजेश खन्ना ने अस्सी के दशक से खुद को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इसमें 1980मे प्रदशत फिल्म .रेडरोज. खास तौर पर उल्लेखनीय है। फिल्म में राजेश खन्ना ने नेगेटिव किरदार निभाकर दर्शकों को रोमांचित कर दिया। 1985 में प्रदशत फिल्म'अलग अलग .के जरिए राजेश खन्ना ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया और इस फिल्म में अभिनय भी किया लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म को टिकट खिड़की पर अपेक्षित सफलता नही मिली। फिल्म की असफलता से राजेश खन्ना को काफी आथक क्षति का सामना करना पड़ा और उन्होंने फिल्म निर्माण से तौबा कर ली।
राजेश खन्ना के सिने करियर में उनकी जोड़ी अभिनेत्री मुमताज के साथा काफी पसंद की गयी। उनकी जोड़ी सबसे पहले 1970 में प्रदशत फिल्म .दो रास्ते .में पसंद की गयी। बाद में राजेश खन्ना और मुमताज ने रोटी.सच्चा झूठा, दुश्मन, अपना देश, आप की कसम और प्रेम कहानी जैसी सुपरहिट फिल्म में भी एक साथ काम किया। मुमताज के अलावा राजेश खन्ना की जोड़ी अभिनेत्री शमला टैगोर के साथ भी पसंद की गयी। उनकी जोड़ी वाली सफल फिल्मों में अराधना, सफर, अमर प्रेम और दाग प्रमुख है। राजेश खन्ना को अपने सिने कैरियर में तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। राजेश खन्ना को 1970 में प्रदशत फिल्म 'सच्चा झूठा 'के लिए सबसे पहले सर्वश्रोष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद 1971 में प्रदशत फिल्म 'आनंद ' और 1973 में .आविष्कार ' के लिए भी उन्हे
सर्वश्रोष्ठ फिल्म अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा 1973 में प्रदशत फिल्म .अनुराग 'में उनके दमदार अभिनय को देखते हुए उन्हें फिल्म फेयर के विशेष पुरस्कार 1990 में राजेश खन्ना के करयिर के 25 वर्ष पूरा होने पर और 2005 में उन्हे लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। राजेश खन्ना ने कई फिल्मों में दोहरी भूमिका निभाकर दर्शकों का मनोरंजन किया है। 1967 में प्रदशत फिल्म'राज 'में सबसे पहले उन्होंने दोहरा चरित्र निभाया था जो उनके सिने करियर की पहली फिल्म भी थी। इसके बाद अराधना 1969 ्सच्चा झूठा 1970, हमशक्ल 1974 ्महाचोर 1976, महबूबा 1976, भोला भाला 1978, कुदरत 1981 ्धरम और कानून 1984 और हमदोनो 1985 में भी राजेश खन्ना ने दोहरी भूमिका निभाकर दर्शकों को रोमांचित कर दिया। फिल्मों में अनेक भूमिकाएं निभाने के बाद राजेश खन्ना समाज सेवा के लिए राजनीति में भी कूद गए। वह 1991 में कांग्रेस के टिकट पर न्यू दिल्ली की लोकसभा सीट से चुने गए। इस चुनाव में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेता और अपने समकालीन अभिनेता शत्रुघ्न सिनहा को हराया। 2000 के दशक में जनता की नब्ज को पहचानते हुए राजेश खन्ना ने छोटे पर्दे की ओर भी अपना रूख कर लिया और बी.4.यू और डी.डी मेट्रो के लिए .अपने पराए 'और जी.टीवी के लिए इत्तेफाक जैसे सीरियल मे भी अपने अभिनय का प्रदर्शन दिखाया। राजेश खन्ना अपने चार दशक लंबे सिने करियर में लगभग 125 फिल्मों में काम कर चुके है। उनकी कुछ अन्य उल्लेखनीय फिल्में है 'खामोशी, इत्तेफाक 1969 महबूब की मेंहदी, मर्यादा अंदाज 1971 ्नमकहराम 1973, अजनबी, रोटी 1974, महबूबा 1976, कुदरत, दर्द 1981, राजपूत, धर्मकांटा 1982, सौतन, अवतार. अगर तुम ना होते 1983, आखिर क्यों 1985, अमृत 1986, स्वर्ग 1990, खुदाई 1994, आ अब लौट चले 1999 आदि।
प्रेमकुमार
लेबल:
फिल्म संसार
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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सोमवार, 28 दिसंबर 2009
पुनर्जन्म को मिलने लगी वैज्ञानिक मान्यता
डॉ. महेश परिमल
इंट्रो:-लीजिए साहब, अब यह पता चल गया कि सेलिना जेटली पिछले जन्म में मर्द थी, उसने द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन सेना के साथ भाग लिया था और उसके पेट के बायीं तरफ गोलियाँ लगी थीं। आज भी उसके पेट के बार्यी तरफ कभी-कभी दर्द होता है। यह उसके पिछले जन्म का राज था, जो अब सबके सामने है।
आज देश ही नहीं, बल्कि विश्व के कई वैज्ञानिक बड़ी उलझन में हैं। वहीं बहुत सारी धार्मिक मान्यताओं में से एक मान्यता अब वैज्ञानिक आधार प्राप्त करने लगी है। ये धार्मिक मान्यता है, पुनर्जन्म की। टीवी पर प्रसारित 'राज पिछले जन्म काÓ दिनों-दिन लोकप्रिय हो रहा है। इससे लोग अपने पुनर्जन्म की घटनाओं को जानने की चाहत बढ़ गई है। वैज्ञानिक अब तो इसे पूरी तरह से नकार रहे थे, इसके लिए उनके पास तमाम दावे भी थे। पर अब वे नर्वस नजर आ रहे हैं, क्योंकि अपने ही पुराने आधारों के कारण वे पुनर्जन्म को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है, वही नई वैज्ञानिक शोधों को वे नकार नहीं पा रहे हैं, इसलिए वे इस पर कुछ बोलना भी नहीं चाहते। दूसरी ओर पुनर्जन्म की मान्यता को कई वैज्ञानिक अपना समर्थन दे रहे हैं। इससे उनकी उलझन और बढ़ गई है।
अमेरिका के वर्जीनिया यूनिवर्सिटी वैज्ञानिक इयान स्टिवंस ने पूरी दुनिया में पुनर्जन्म के २२५ मामलों का परीक्षण कर एक किताब लिखी, जिसका नाम है 'रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजीÓ। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि इस किताब को पढऩे के बाद अमेरिका के कई वैज्ञानिकों ने पुनर्जन्म को स्वीकारना शुरू कर दिया है। उनकी इस किताब को पढ़कर एक लेखिका एलिजाबेथ कुबलर-रोज ने लिखा है कि मुझे अपनी जिंंदगी की ढलान पर यह जानने को मिला कि प्रो. ईयान स्टिवंस ने पुनर्जन्म को एक हकीकत साबित कर दिया है। मुझे बहुत ही खुशी हो रही है कि दूसरे मिलिनियम के अंत में इस सत्य को आखिर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर दिया गया है।
पुनर्जन्म और पूर्वजन्म विषय पर अमेरिका में इयान स्टीवंस ने जिस तरह से शोध किया है, ठीक उसी प्रकार का शोध भारत में डॉ. सतवंत पसरिया ने भी किया है। बेंगलोर की 'नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसीजÓ में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत डॉ. सतवंत ने ईस्वी सन् १९७३ से लेकर अभी तक भारत में प्रकाश में आई पुनर्जन्म के करीब ५०० घटनाओं का संकलन किया है। इसे एक पुस्तक का आकार दिया गया है, जिसका नाम है 'क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशन: एम्पिरिकल स्टी ऑफ केसेज इन इंडियाÓ। उल्लेखनीय है कि बेंगलोर की ये महिला वैज्ञानिक ने अपने शोध के लिए अमेरिका की वर्जिनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रो. इयान स्टिवेंस के साथ ही काम किया है। इस किताब की प्रस्तावना भी प्रो. स्टिवेंस ने ही लिखी है। वे कहते हैं कि जो इस तरह के किस्सों को पहली बार पढ़ रहे होंगे, उनके लिए इसमें शामिल घटनाओं को सच मानने में बहुत मुश्किल होगी, इसके बाद भी पाठक यह विश्वास रखें कि इस पुस्तक में जो भी घटनाएँ शामिल की गई हैं, वे सभी काफी सावधानीपूर्वक और प्रामाणिकता के साथ लिखी गई हैं।
उत्तर भारत में यह मान्यता है कि जो बालक अपने पिछले जन्म का ज्ञान रखते हैं, उनकी मृत्यु छोटी उम्र में ही हो जाती है।
उत्तर भारत में यह मान्यता है कि जो बच्चे अपने पिछले जन्म के बारे में जानकारी रखते हैं, उनकी मृत्यु छोटी उम्र में ही हो जाती है। इसलिए जो बच्चे पुनर्जन्म की घटनाओं को याद रखते हैं, उनके लिए पालक उसकी इस स्मृति को भुलाने के लिए कई तरह के जतन करते हैं। कई बार तो उसे कुम्हार के चाक पर बैठाकर चाक को उल्टा घुमाया जाता है, ताकि उसकी स्मृति का लोप हो जाए। डॉ. सतवंत के अनुसार जिन बच्चों को अपना पूर्वजन्म याद रहता है, वे ३ से ८ वर्ष तक की उम्र के होते हैं। डॉ. सतवंत ने पहली बार १९७३ में वर्जिनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ऑफ साइकियाट्री इयान स्टिवंस के बारे में जाना, फिर उनके साथ काम किया। इस दौरान उसने जाना कि मानव विज्ञान में इंसान की कई गतिविधियाँ अभी तक समझ से बाहर हैं, ऐसे में पुनर्जन्म की थ्योरी से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इस आधार पर उन्होंने अपना शोध शुरू किया। शुरुआत में जब उनके सामने एक के बाए एक किस्से आने लगे, तो उन्हें इस पर विश्वास नहीं होता था। इतने में उनके सामने मथुरा जिले की मंजू शर्मा नाम की एक कन्या का मामला सामने आया। उसे अपने पूर्वजन्म की घटना याद की। इसका प्रमाण भी उनके सामने था, तब वे पुनर्जन्म पर विश्वास करने लगी।
बेंगलोर में डॉ. सतवंत के सहकर्मियों एवं उच्च अधिकारियों ने उनके इस शोध की उपेक्षा की। किंतु डॉ. सतवंत की तर्कबत्र कार्यपद्धति से प्रभावित होकर उनका साथ देना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद उन्हें भी डॉ. सतवंत की सच्चाई पर विश्वास होने लगा। डॉ. सतवंत कहती हैं कि पुनर्जन्म, इंद्रियातीत शक्तियों और मृत्यु जैसे अनुभवों पर विश्वास करें या न करें, अब इसका सवाल ही पैदा नहीं होता। विश्वभर में इस मामले पर वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं, इनका अस्तित्व अब वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो रहा है। कई बार तो ऐसे मामले सामान्य बुदधि से भी समझे जा सकते हैं। पर जहाँ सामान्य बुद्धि की सीमा समाप्त हो जाती है, तब पुनर्जन्म की बात को स्वीकारना पड़ता है।
अपने अनुभवों से गुजरते हुए डॉ. सतवंत कहती हैं कि कल्पना करो कि कोई बच्चा यदि पानी में जाने से डरता है, तो यह तय है कि पिछले जन्म में उसकी मौत पानी में डूबने से हुई होगी, या फिर उसकी मौत के पीछे पानी ही कोई कारण रहा होगा। कई बच्चों के शरीर पर जन्म से ही कई तरह के निशान होते हैं, इससे यह धारणा सत्य साबित होती है कि पिछले जन्म में उसे किसी तरह की चोट लगी होंगी। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि पूर्वजन्म को याद रखने वाले कम उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, पर नागपुर की उत्तरा का किस्सा कुछ और ही है। जब यह ३० वर्ष की थीं, तब वह कहने लगी कि वह बंगाल की शारदा है और चटोपाध्याय परिवार की सदस्य है। मराठीभाषी उत्तरा अब धाराप्रवाह रूप से बंगला बोलने लगी। यही नहीं १९ वीं सदी के रीति-रिवाजों पर बात करने लगी। पूर्वजन्म में ऐसा होता है कि मृत्यु के एक वर्ष बाद फिर से जन्म होता है। पर यहाँ तो बंगाल की शारदा की मृत्यु के ११० वर्ष बाद उसका पुनर्जन्म हो रहा है। इस मामले को विस्तार से डॉ. सतवंत ने अपनी किताब में बताया है।
मुंबई की एक महिला बासंती भायाणी अपने परिवार में हुई पुनर्जन्म की एक घटना ९ सितम्बर २००४ के एक गुजराती अखबार में प्रकाशित हुई है। इस घटना में जूनागढ़ की एक ब्राह्मण कन्या गीता का जन्म भावनगर के एक जैन परिवार में राजुल के रूप में हुआ। राजुल जब अपने पिछले जन्म को याद करने लगी, तो उसे जूनागढ़ ले जाया गया, यहाँ उसने अपना घर, स्वजन ही नहीं, बल्कि अपनी गुडिय़ा तक को पहचान लिया। जब राजुल की शादी हुई, तब उसके पूर्वजन्म के परिजनों ने उसे बहुत सारा दहेज भी दिया। आज राजुल अहमदाबाद में अपने छोटे से परिवार में रहती है।
एक समय ऐसा था जब अपने को तार्किक बताने वाले बुद्धिजीवी पुनर्जन्म की घटना को बकवास कहकर हँसी उड़ाते थे, पर अब समय बदल रहा है, अधिकांश तार्किक यह मानने लगे हैं कि जिस बुद्धि समझ नहीं सकती, वैसा ही इस दुनिया में कुछ हो रहा है। भारत के प्रखर बुद्धिवादी जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर का अनुभव कहता है कि उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद वह रोज उनके सपने में आकर उनसे बात करतीं थीं। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब 'डेथ ऑफ्टरÓ में भी किया है। इस किताब को कोणार्क पब्लिकेशंस ने प्रकाशित किया है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार पुनर्जन्म का संबंध टेलीपेथी या मानवशास्त्र से हो सकता है। विद्यार्थी टेस्ट बुक के रूप में 'इंट्रोडक्शन टु साइकोलॉजीÓ का अध्ययन करते हैं, उसके लेखक रिचर्ड अटिकिंसन कहते हैं- पेरासाइकोलॉजी विषय में जो शोध हो रहे हैं, इस बारे में हमें बहुत सी शंकाएँ हैं। पर हाल ही में टेलिपेथी के संबंध में जो शोध हुए हैं, वे हमें विवश करते हैं कि हम उसे स्वीकार लें। पुनर्जन्म और टेलिपेथी पर किताब लिखने वाले डॉ. डीन रेडिन एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं- इस प्रकार की घटनाओं के जितने सुबूत पेश किए गए हैं, उतने सुबूत यदि किसी अन्य विषय पर पेश किए होते, तो वैज्ञानिक कब का इसे स्वीकार चुके होते। यही विज्ञान और धर्म के बीच संघर्ष का जन्म होता है।
वैज्ञानिक आज तक पुनर्जन्म, आत्मा, स्वर्ग-नर्क आदि के अस्तित्व को नकारते रहे हैं, लेकिन हाल ही में जो शोध सामने आए हैं, उसे वे अस्वीकार नहीं कर सकते। यह एक सच्चाई है। अब एक प्रश्न यह सामने आता है कि इंसान की मौत के बाद वह कौन सी चीज है, जो दूसरे के शरीर में पिछले जन्म की यादों के साथ प्रवेश करती है। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए वैज्ञानिकों को भी देह से भिन्न ऐसे आत्मपदार्थ के अस्तित्व को स्वीकारना पड़ता है। अब यह शोध का विषय है कि इस आत्मा का गुण-धर्म क्या है?
डॉ. महेश परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
एक पत्र सांताक्लॉस के नाम ...
डा. महेश परिमल
सांताक्लॉज केवल उपहार देने वाला एक देवदूत ही नही, बल्कि मासूमों को अपना प्यार लुटाने वाला एक ऐसा शख्स है, जिससे बच्चे कई अपेक्षाएँ पालते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे होते हैं, वे क्या समझें सांताक्लॉज के व्यक्तित्व को. वे तो उसे देवदूत मानते हैं और उनसे अपनी माँगें मनवाते हैं. सांताक्लाँज एक कल्पना है, इसकी जानकारी मासूमों को नहीं है. वे उसे एक सच्चाई मानते हैं. ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं से पीडि़त कोई मासूम सांताक्लॉज से अपने स्वर्गीय माता-पिता को ही माँग ले, तो उसकी माँग भला किस तरह से पूरी हो सकती है. कुछ इसी तरह की माँग एक मासूम ने सांताक्लॉज से की है, प्रस्तुत है उस मासूम का पत्र...
प्यारे सांता,
लोग तुम्हें उपहार बाँटने वाले एक देवदूत के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व के करोड़ों मासूमों को तुम्हारा इंतजार रहता है. कई मासूमों को तो तुम्हारा साल भर इंतजार रहता है. पहले मुझे तुम्हारा इंतजार नहीं रहता था, लेकिन इस बार मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ. मेरी विवशता कुछ दूसरी ही है. पहले मैं खास था, पर अब मैं आम हूँ. पहले मेरे पास सबकुछ था, पर आज मेरे पास मेरी ईमानदारी के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर स्वर्गीय माता-पिता से विरासत में मिली ये ईमानदारी मैं अधिक समय तक सँभालकर नहीं रख पाऊँगा. मेरी ये ईमानदारी अब मेरा साथ नहीं दे रही है. इस ईमानदारी ने मुझे कई रात भूखे सोने के लिए विवश कर दिया है. लगता है बहुत जल्द ही मैं इस ईमानदारी कोअलविदा कह दूँगा.
हर साल इस धरती पर क्रिसमस की रात तुम आते हो. सूनी आँखों में आशाओं के दीप जलाते हो, उदास चेहरे पर मुस्कान खिलाते हो. मासूमों के देवदूत बनकर उनके लिए अपना प्यार लुटाते हो. तुम्हारी झोली में ढेरों उपहार होते हैं, जो उन मासूमों के इंद्रधनुषी सपनों को एक आकार देते हैं. यही कारण है कि हर बच्चा क्रिसमस की रात तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है. इस इंतजार में पूरे साल भर के इंतजार का पल-पल का सफर होता है और विदा लेती बेला में फिर से एक लंबे इंतजार का अहसास होता है. इस अहसास के साथ जीते हुए करोड़ों मासूम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही राह तकते हैं.
आज उन करोड़ों में एक नाम मेरा भी शामिल हो गया है. कल तक नहीं था मुझे तुम्हारा इंतजार. क्योंकि कल तक मेरे लिए तुम एक कोरी कल्पना ही थे. उस समय मेरे पास वह सब कुछ था, जो एक बच्चा चाहता है. माता-पिता ही नहीं, बल्कि बहुत से दोस्त, बहुत सारे खिलौनों का भी संसार था मेरे आसपास. तुम्हें केवल दोस्तों के बीच समय गुजारने और अपनी बुद्धिमानी दिखाने के लिए ही जानबूझकर याद किया जाता था. किंतु आज? आज तुम मेरे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो. क्योंकि अब तुमसे मुझे कई अपेक्षाएँ हैं. मैं जानना चाहता हूँ कि तुम क्या-क्या दे सकते हो. अब मेरे पास केवल अच्छी यादों के सिवाय कुछ नहीं है. हाल ही में हमारे देश में प्राकृतिक आपदाओं का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें मेरा सब-कुछ लुट गया. एक तरफ सुनामी की लहरों में मेरी माँ खो गई, पिता ही मेरी माँ बनकर मुझे समझदार बनाने की कोशिश करते रहे. मैं समझदार हो भी जाता, यदिहाल ही में आई बाढ़ में मेरे पिता बह न गए होते. दैवीय आपदाएँ मेरे इस देश में आती ही रहती हैं, पर सच तो यह है कि इन आपदाओं से कई मासूम अपने ऊपर स्नेह की छाँव से वंचित हो जाते हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का भूकंप हो या फिर सुनामी. हर तरह की आपदा मेरे जेसे कई मासूमों को अनाथ कर जाती है. इन आपदाओं ने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया. मैं कहीं का नहीं रहा. पहले माँ मुझे पिता के हवाले कर ईश्वर के पास चली गई. मैं पिता की छाया में ही बढऩे लगा, पर दूसरे हादसे ने मुझसे मेरे पिता को ही छीन लिया, अब मैं क्या करुँ? आज मैं बेसहारा होकर यहाँ-वहाँ भटक रहा हूँ. कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तो कभी पानी पीकर अपनी भूख मिटाता हूँ. कभी किसी का कोई छोटा-मोटा काम करने से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो खुशी से झूम उठता हूँ. कभी किसी के सामने हाथ फैलाया नहीं, तो इसके लिए हिम्मत भी नहीं कर पाता हूँ. मैं जानता हूँ कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन यही करना होगा. कब तक याद रख पाऊँगा, ईमानदारी का पाठ? पेट की भूख सब भूला देती है. मुझ मासूम को भी एक दिन भिखारी बना ही देगी. लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहता. मैं तो पढऩा चाहता हूँ. खूब आगे बढऩा चाहता हूँ. अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता हूँ. लेकिन कैसे क रूँ? मेरा तो कोई वर्तमान ही नहीं, तो भविष्य क्या होगा? मेरी आँखों में तो अब आँसू भी नहीं, हाँ सूखे आँसुओं के बाद की कोरी जलन है, जो मुझे भीतर तक आहत कर देती है. मैं पल-पल टूट रहा हूँ और ऐसे में क्रिसमस के अवसर पर तुम एक विश्वास बन कर आए हो.
सुना है कि हर साल बड़े-बड़े शहरों में कई लोग सांता क्लास के वेश में मासूमों के बीच आते हैं और अपनी झोली में से अनेक उपहार निकाल कर उन्हें देते हैं. उनके होठों पर मुस्कान खिलाते हैं. अब तो विदेशों में कई ऐसे टे्रनिंग सेंटर भी खुल गए हैं, जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति सांता क्लॉस बनने की ट्रेनिंग लेते हैं, ताकि 24 दिसम्बर की रात वे प्यारे बच्चों के साथ एक यादगार क्षण बिता सकें. मुझे भी उस 24 दिसम्बर की रात का इंतजार है.
सुना है, तुम बच्चों को कई तरह के उपहार बाँटते हो, पर मुझे उपहार नहीं, खुशियाँ चाहिए. मुस्कान चाहिए. मेरे लिए उपहार मत लाना सांता क्लॉस, वह तो मुझे बहुत मिल जाएँगे. मुझे तो चाहिए मेरे माता-पिता, मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा परिवार. मुझे तो यहीं मिल जाएगी खुशियाँ. इन खुशियों मेें डूबकर ही मैं अपने उन सभी साथियों को याद कर लूँगा, जिनके दामन में खुशियाँ है ही नहीं. तुम्हें आना ही होगा सांता क्लॉस, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. अपनी झोली से मेरी झोली में थोड़ी सी खुशियाँ डालने तुम आओगे ना सांताक्लॉस?
तुम्हारे इंतजार में....
एक मासूम
डा. महेश परिमल
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बच्चों का कोना
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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गुरुवार, 24 दिसंबर 2009
जीसस के प्रवचनों में निहित अर्थों को समझें
क्रिसमस पर विशेषडॉ महेश परिमल
पुस्तकें भेंट करना एक अच्छी परंपरा है। इसमें यदि कोई धर्मिक पुस्तक मिल जाए, तो मन श्द्धा्से भर उठता है। एक इसाई मित्र ने मुझे पवित्र बाइबल भेंट की। नया नियम और पुराना नियम, ये दोनों ही इसके दो रूप हैं। पूरी बाइबल पढ़ी, फिर शुरू हुआ चिंतन। बार-बार एक ही जगह जाकर विचार की तरंगें अटक जाती, जीसस के ये वाक्य, जो बार-बार बाइबल में आए हैं, जिनके पास आँखें हों, वे मुझे देखें और जिनके पास कान हो, वे मुझे सुनें। इन्हीं वाक्यों ने विवश्ा कर दिया कुछ सोचने को। आँखें और कान तो हम सभी के पास हैं, उनका बार-बार यह दोहराना, क्या ऐसा नहीं लगता कि वे अंधे और बहरों के बीच बोल रहे थे ?
समझ की सोच ने यहीं से विचार यात्रा प्रारंभ की। नहीं, वे अंधे-बहरों के समूह में नहीं बोल रहे थे, पर उस समय अंधे और बहरों का समूह अधिक था, जिनकी आँखें थीं और कान भी थे। जीसस को देखना सचमुच मुश्किल है, ठीक उसी तरह, जैसे विशाल पेड़ के बीज को देखना। पेड़ तो हमें दिखाई देता है, पर बीजनहीं, जीसस का शरीर उस समय सभी को दिखाई देता था, लेकिन उनकी जो आत्मा थी, वह केवल उन्हीं को दिखाई देती थी, जो परमशांत, परमशून्य और परमध्यान में लीन होकर देखते थे। ये सभी जीसस की आत्मा से साक्षात्कार करते थे, इनके लिए जीसस के साक्षात रूप से कोई वास्ता न था, क्योंकि उन्हेंं जो दिखाई दे रहा था, वह था जीसस का तेजस रूप, उनका प्रज्ञा रूप, उनका ज्योतिर्मय अलौकिक रूप, इसीलिए जीसस पर दोहरे मत हैं। एक मत है अंधों का, जिन्होंने जीसस को सूली पर चढ़ाया, इन अंधों का मानना था कि यह तो साधारण मानव है और दावा करता है कि वहईश्वर का पुत्र है। वैसे इन अंधों का विचार गलत नहीं था, जो उन्हें दिखलाई पड़ रहा था, वहाँ तक उनकी बात बिल्कुल सही थी, उन्हें पता था कि यह तो बढ़ई जोसेफ का बेटा है, मरियम का बेटा है, यहईश्वरका पुत्र कैसे हो सकता है ? लेकिन जीसस जिसकी बात कर रहे थे, वहईश्वर कापुत्रही है। वह कोई जीसस में ही खत्म नहीं हो जाता है, आपके-हमारे भीतर जो आत्मा के रूप में है, वहईश्वर का पुत्र है। अतएव हम सभी जो निष्पाप आत्मा के स्वामी हैं,ईश्वर के पुत्र हैं।
जिन्होंने जीसस की आत्मा से साक्षात्कार किया, वे सभी अनपढ़ और गँवार लोग थे, उनकी आत्मा को पंडितों-ज्ञानियों ने नहीं देखा, देखने वाले थे, निम्न तबके के लोग, जैसे जुलाहे, मछुआरे, ग्रामीण किसान, भोलेभाले लोग। इनका वास्ता कभी शास्त्रों और शब्दों से नहीं पड़ा, इन्होंने जीसस पर विश्वास किया, इन्हें उनके आत्मिक रूप के दर्षन हुए, जो विद्वान थे, ज्ञानी थे, धर्म के ज्ञाता थे, शास्त्रों के पंडित थे, उन्हें जीसस एक साधारण इंसान लगे, क्योंकि उनकी बुद्धि में ज्ञान की कई परतें थीं, जिससे उनके देखने की क्षमता कम हो गई, इसलिए जीसस की आत्मा को वे लोग नहीं देख पाए।
ज्ञानी जो कुछ भी स्वीकार करता है, तर्क से स्वीकार करता है, अनपढ़ और गँवार अपने विष्वास के आधार पर स्वीकार करते हैं, जितना गहराविश्वास, उतनी गहरी आस्था। इसी गहरी आस्था में छिपाहै प्रेम, जो सभी जीवन मूल्यों से ऊपर है, यही हमारा मार्गदर्श है, हमारा साथी है। लेकिन आज हम भटक रहे हैं, क्योंकि हम ज्ञानी हैं, अनपढ़ गँवार होते, तो कोई न कोई राह मिल ही जाती। आज यदि हम थोडे़ समय के लिए भी अपने ज्ञानी मन को अपने से अलग रख दें, तो संभव है राह दिख जाए।
अब हम सब शुतुरमुर्ग हो गए हैं, विपदाओं से लड़ने के बजाए हम सब उसदिशा की ओर से आँखें ही बंद कर लेते हैं, शुतुरमुर्गग की तरह अपना सर रेत में गड़ा देते हैं, ताकि हम बाधाओं को न देख पाएँ। तुमने बाधाओं को नहीं देखा तो क्या हुआ, बाधाओं ने तो तुम्हें देख ही लिया ना ? वे तुम्हें नहीं छोड़ेंगी, तुम्हारे पलायनवाद को धिक्कारेंगी, संभव हुआ तो खत्म भी कर देंगी। जीसस के माध्यम से यही कहना है कि हमने खुद को नहीं समझा, न ही दूसरों को समझने कीकोशिश की। एक वायवीय संसार बना लिया अपने आसपास और जीने लगे कूप-मंडूक की तरह।
हर कोई कह रहा है मेरा धर्म महान् है, इससे बड़ा कोई धर्म नहीं। कैसे तय कर लिया आपने यह सब! क्या आपने दूसरे धर्मों के ग्रंथ पढ़े ? क्या उनके पंडितों से चर्चा की ? उत्तर नकारात्मक है, फिर यह मुगालता क्यों ? क्या अभी तक नहीं समझा आपने कि इंसानियत का धर्म सबसे ऊपर है ? इससे ऊपर कोई धर्म नहीं। पीड़ा से छटपटाते व्यक्ति के करीब बैठकर पूजा करना, प्रार्थना करना धर्म नहीं है। धर्म है उस व्यक्ति को पीड़ा से राहत दिलाना। इंसानियत का धर्म, मानवता का धर्म। संकट में पड़े किसी अपने को बिलखता छोड़कर कितनी भी धार्मिक यात्राएँ कर लें, हमें पुण्य नहीं मिलेगा। धर्म की आत्मा सेवा में छिपी है, निःस्वार्थ सेवा ही वह सीढ़ी है, जो हमें हमारे आराध्य तक पहुँचाती है।
आज जब पूरे विश्व में मानवता रो रही है, जीवन मूल्यों का लगातार पतन हो रहा है, ऐसे में लगता है कि क्या ईमानदारी से जीने वालों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं है। तब लगता है कि आज भी पूराविश्व ईमानदारो के कारण ही बचा हुआ है। तब हम क्यों छोड़ें अपनी ईमानदारी। ऐसे में यदि हम ईमानदारी से ही जीने का संकल्प ले लें, तो षायद पूरे विष्व का चेहरा बदलने में समय नहीं लगेगा। तो आओ संकल्प लें, अपने इंसानियत के धर्म को महान् बनाएँ। त्याग, निःस्वार्थ सेवा और सत्कर्मों से स्वयं को बेहतर और बेहतर बनाएँ, ईश्वर हमें आत्मसात् कर ही लेगा।
डॉ महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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बुधवार, 23 दिसंबर 2009
गीता किसी एक धर्म की जागीर नहीं
ख्यातिलब्ध जैन संत तरूण सागर का मानना है कि धर्म ग्रंथ गीता किसी एक धर्म की जागीर नहीं है और न ही उस परङ्क्षहदुओं का एकाधिकार है। श्री तरूण सागर ने कल यहां पत्रकारों से कहा कि गीता में कहीं भी ङ्क्षहदू का उल्लेख नहीं है। गीता पर सबका अधिकार है। उन्होने साम्प्रदायिक सौहार्द को जरूरी बताते हुए कहा कि ङ्क्षहदू मुसलमान देश की दो आंखें हैं। भारत में सांप्रदायिकता मुल्क के हिसाब से नहीं है। रमजान लिखते हैं तो राम से शुरुआत करते हैं दिवाली लिखते हैं अली से खत्म करते हैं।
उन्होने कहा कि सत्ता और भ्रष्टाचार का करीबी रिश्ता है। सत्ता और राजनीति को काजल की कोठरी करार देते हुए उन्होंने कहा कि इस पर अगर कोई घुसे और बेदाग निकल जाए यह संभव नहीं है लेकिन जो बेदाग निकलते हैं उन्हें प्रणाम करना चाहिए। उन्होने कहा कि राजनीति में जो ईमानदार लोग भी हैं उसमें साहस नहीं है ईमानदारी के साथ, साथ साहसी भी होना जरूरी है। बुराइयों के खिलाफ लडऩे का साहस होना चाहिए। उन्होंने जीवन जीने के दो तरीके बताते हुए कहा कि पहला जो चल रहा है उसके साथ चलना। दूसरा जो हो रहा है उसके विपरीत चलना। प्रवाह के विरोध के लिए ऊर्जा चाहिए। गंगोत्री से गंगासागर की यात्रा मुर्दा भी कर लेता है लेकिन गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा करने के लिए साहस चाहिए। प्रवाह के विरुद्ध बहने के लिए साहस जरूरी है। सामाजिक वैश्विक समस्याओं से निपटने के लिए साहस चाहिए। जैन सन्त ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि आज देश में गाय धर्मनीति और राजनीति के बीच पिस रही है। जब तक इन्हें इन बंधनों से मुक्त नहीं करेंगे गौरक्षा असंभव है। गौरक्षा को धर्मनीति और राजनीति से निकालकर अर्थनीति से जोडऩा होगा तभी गौरक्षा आंदोलन सफल होगा। उन्होने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में कहा कि जैन धर्म के सिद्धांत दुनिया को सुधारने के लिए उपयोगी है अच्छे हैं लेकिन उसकी मार्केङ्क्षटग नहीं हो पा रही है इसलिए पिछड़ रहा है। धर्म और राजनीति के संबंध में उन्होंने कहा कि धर्म गुरु है और राजनीति शिष्य। राजनीति अगर गुरु के समक्ष आती है तो यह समस्या खड़ी हो जाती है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के संबंध में पूछे गए सवाल पर संतश्री ने कहा कि वहां हजारो लाखों लोगों की आस्था टिकी हुई है इसलिए कानून के दायरे में रहकर मंदिर का निर्माण का काम होना चाहिए। धर्म को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि धर्म परिवर्तन का नाम है। यह बेचने, खरीदने की चीज नहीं है। धर्म जीने की चीज है प्रदर्शन का नहीं।
अपेक्षा से उत्पन्न होता है दु:ख
व्यक्ति की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह जब किसी के लिए कोई कार्य या भलाई करता है तो उससे अपेक्षा करने लगता है कि बदले में वह भी उसके लिए कुछ करे और जब उसकी यह अपेक्षा पूरी नहीं होती है तो वह दुखी होने लगता है। किसी ने अपने पुत्र के लिए अपना जीवन दाव पर लगा दिया लेकिन बुढ़ापे में वह उसकी लाठी नहीं बना। पत्नी के लिए सुख-सुविधा के तमाम साधन जुटाए, लेकिन उसने साथ नहीं दिया। मित्रों के लिए बहुत कुछ किया लेकिन जब जरूरत पड़ी तो सबने दगा दे दिया। इस तरह की तमाम बातें व्यक्ति के साथ होती रहती हैं और वह दूसरे लोगों और नाते.रिश्तेदारों से अपनी अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर दुखी होता रहता है लेकिन वह पंचतंत्र की कहानियों. पौराणिक ग्रंथों और कहावतों के रूप में पूर्वजों की ज्ञान की थाती का अवलोकन करे तो उसे जीवन का मर्म समझाने और दिशा देने वाले ऐसे बहुत से अमूल्य नीति वचन और सूत्रवाक्य मिल सकते हैं जिनसे उसका मार्गदर्शन हो सकता है। एक कहावत है ' नेकी कर दरिया में डाल ।Ó यानी भलाई करो और इस बात की बिल्कुल अपेक्षा मत करो कि सामने वाला उसके बदले में तुम्हें भी कुछ देगा। इस बात को जिस भी व्यक्ति ने अपने जीवन में उतार लिया. तय मानिए कि वह संसार का सबसे सुखी व्यक्ति है। हालांकि यह आसान नहीं है कि किसी की मदद करो. सेवा करो और वह दगा दे जाए तो भी उसे विराट् मन से क्षमा कर दो लेकिन यह लाख टके की बात है कि मदद करने के बाद उसे भूलने की आदत जितनी विकसित होती जाएगी. मनुष्य उतना ही सुखी रहेगा। कल्पना कीजिए कि यदि अनन्य रामभक्त हनुमान को यह शिकायत हो जाती कि उन्होंने भगवान् राम के लिए कितना कुछ किया लेकिन उन्हें क्या मिला । पर हनुमान किसी भी तरह की अपेक्षा से रहित होकर बस अपना कर्तव्य करते रहे और प्रभुभक्ति में लीन रहे। व्यक्ति को कोशिश करनी चाहिए कि पुष्प की तरह सुगंध बांटना ही उसका धर्म बने और इसके बदले उसके मन में कोई अपेक्षा नहीं हो। इस जगत में यदि आपने'नेकी कर दरिया में डाल' का सही मर्म समझ लिया तो संसाररूपी भवसागर को पार करने में बहुत आसानी होगी।
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
विदाई की बेला में महाराजा!
डॉ. महेश परिमल
बात सन् १९७८ की है, जब एयर इंडिया के बोर्ड से जे.आर.डी. टाटा को बाहर कर दिया गया था। उस समय उनकी आत्मा बहुत रोई थी। एयर इंडिया को उच्च स्थान दिलाने के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है। एक समय एयर इंडिया का नाम पूरे विश्व में सम्मानपूर्वक लिया जाता था। आज उसकी प्रतिष्ठा लगातार रसातल में जा रही है। दिनों-दिन उसकी आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है। आज यह देखकर जेआरडी की आत्मा को और भी अधिक दु:ख हो रहा होगा। उनके हाथों से पल्लवित और पुष्पित होती विशालकाय इमारत अब ढहने वाली है। काश इसका नाम ऊँचा उठाए रखने की ईमानदाराना कोशिशें होतीं।
१९४८ में जब जेआरडी ने एयर इंडिया इंटरनेशनल की शुरुआत की, तब उनका यह सपना था कि एयर इंडिया को एक श्रेष्ठ विमान कंपनी का दर्जा मिले। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कई प्रयास भी किए। उनके ही प्रयासों ने एयर इंडिया ने समय की पाबंदी का अपनी पहचान बनाई। एक समय ऐसा भी था, जब एयर इंडिया के विमानों से लोग अपनी घड़ी मिलाते थे, उसकी विश्वसनीय पर किसी को भी आपत्ति न थी। पर अब उसी एयर इंडिया का सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है। इन दिनों वह भयंकर आर्थिक परेशानियों से गुजर रहा है। इस वर्ष उसे ५५०० करोड़ का घाटा हुआ, पिछले वर्ष उसे ७२०० करोड़ का घाटा हुआ था। अपना बाजार मूल्यों बढ़ाने के लिए वह भरसक प्रयास कर रहा है, पर उसमें उसे सफलता नहीं मिल रही है। अक्टूबर में उसका बाजार हिस्सा १८.६ प्रतिशत था। सितम्बर में उसका बाजार हिस्सा १७.५ प्रतिशत और अगस्त में १६.६ प्रतिशत था। इतना ही नहीं, एयर इंडिया के संचालकों ने मार्च २०१० में और ५ हजार करोड़ का घाटा होने की आशंका जता चुके हैं। इसी कारण कंपनी के कर्मचारियों को किसी भी प्रकार की आर्थिक लाभ नहीं दिया जा रहा है।
एयर इंडिया की आर्थिक स्थिति दिनों-दिन बिगड़ती जा रही है। यही नहीं एयर इंडिया के विमान सेवा की स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। ४ सितम्बर को एयर इंडिया की ८२९, बोइंग ७४७-४०० के इंजन में आग लग गई थी। यह आग तब लगी, जब विमान उड़ान के लिए तैयार था। तब उसके पंख में आग की लपटें देखीं गईं। जब एक यात्री का ध्यान उस ओर गया, तब उसने केबिन क्रू को इसकी जानकारी दी। इससे पायलट ने तत्काल एयर ट्राफिक कंट्रोलर को सूचना दी। इससे अग्निशमन का एक दल तुरंत वहाँ पहुँचा और आग पर काबू पाया। इस दौरान सभी यात्रियों एवं केबीन क्रू को इमरजेंसी एक्जिट विंडो से बाहर निकाला गया। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल रहा है। पहला तो यही कि आग क्यों लगी? आखिर क्यों दार्यी तरफ, जहाँ एक इंजन में आग लगी थी, तो एक्जिट विंडो का उपयोग क्यों किया गया? क्रू की तरफ बायीं ओर की एक्जिट विंडो को क्यों नहीं खोला गया?
यदि इस विमान ने उड़ान भर ली होती, तो क्या होता? आप कहेंगे कि विमान टुकड़े-टुकड़े हो जाता और उसके परखच्चे उड़ जाते। वास्तविकता यह है कि यदि यह आग विमान के उड़ान भरने के बाद लगी होती, तो उस आग पर नियंत्रण पाया जा सकता था। विमान जब उड़ता रहता है और उसमें आग लग जाती है, तो इमरजेंसी ड्रील चालू हो जाता है। इससे प्रभावित इंजन धीमा हो जाता है, उसे ईंधन मिलना बंद हो जाता है। इससे आग थोड़ी ही देर में अपने आप बुझ जाती है। आज तक ऐसी एक भी घटना नहीं हुई, जिसमें उड़ते विमान में आग लगी हो और इमरजेंसी ड्रील ने न बुझाई हो। सभी विमानों में आग बुझाने के संसाधन होते हैं, लेकिन इस मामले में रहस्य अभी तक नहीं खुल पाया है। एक जनवरी २००९ को मदीना से कुआलालम्पूर जाने वाले ४४२ सऊदी अरब के एयरलाइंस बोइंग ७४७-१६८ बी के उड़ान भरने के तुरंत बाद चार नम्बर के इंजन में आग लग गई। विमान के क्रू ने आग पर काबू पाने की कोशिश की थी। विमान मदीना लौट आया। विमान के सभी यात्रियों को पूरी सतर्कता से बाहर निकाल लिया गया। २७ जुलाई २००९ को एयर फ्रांस की एयर बस ३४०-३०० ने बोस्टन के हवाई अड्डे से उड़ान भरने के बाद उसके चार नंबर इंजन में आग लग गई। पायलट से सूझबूझ के साथ आग बुझाई और २५ मिनट के बाद ही विमान फिर से बोस्टन एयरपोर्ट पर था। इस तरह से विमान के इंजन में आग लगने की कई घटनाएँ हो चुकी हैं। फिर भी आग पर काबू पाया गया है और विमान को सुरक्षित एयरपोर्ट तक लाया गया है। प्रशिक्षण प्राप्त क्रू के सदस्य इस प्रकार के हालात पर काबू पाने के लिए पूरी तरह से सक्षम हैं। दूसरी ओर हवा में उड़ते विमान में यदि आग लग जाए, तो आग बुझाने के लिए किसी चमत्कार की राह देखने की आवश्यकता नहीं है।
हाल ही में एयर इंडिया के ८२९ विमान में लगी आग के कारणों का खुलासा किया गया, इसके तथ्य गले नहीं उतरते। कंपनी के प्रवक्ता ने यह दावा किया है कि मात्र ३० सेकेंड में विमान को खाली करने में सफलता मिल गई। इस दौरान सभी यात्रियों और क्रू के सदस्यों को सुरक्षित बाहर निकालने के बाद दायीं तरफ का दरवाजा खोल दिया गया था। एमआईएएल के प्रवक्ता ने कहा कि विमान में कोई है, तो नहीं, इसकी जाँच के लिए अग्निशमन का एक कर्मचारी विमान के अंदर गया था। उसी ने हवा के आने-जाने बायीं तरफ का दरवाजा खोल दिया था। यह बात इसलिए गले नहीं उतरती कि मौसम विभाग का कहना है कि जब यह घटना घटी, तब ३१० डिग्री से ५ नॉट की तेजी से हवा चल रही थी और बारिश भी हो रही थी। यदि दायीं ओर का दरवाजा खोला गया, तो धुआँ या आग की ज्वाला केबिन में प्रवेश कर जाती। पर यात्रियों के अनुसार केबिन में आग या धुएं की गंध नहीं थी। इससे स्पष्ट होता है कि एयर इंडिया विमान की खामियों को छिपाने की कोशिश कर रहा है।
पिछले २ वर्षों में एयर इंडिया की इस तरह के अनेक दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं। इन सभी की जाँच चल रही है। हम सभी जानते हैं कि ये जाँच प्रक्रिया कभी पूरी होने वाली नहीं है। इन्हीं कारणों से जेआरडी टाटा की विमान कंपनी आज रसातल में जा रही है। ७ दिसम्बर २००७ को एयर इंडिया का विमान एआई ७१६ दुबई से मुंबई आने के लिए रवाना हुआ, पर हवा में एक घंटे तक उड़ान भरने के बाद वह वापस दुबई आ गया। जानना चाहेंगे क्यों? एक यात्री का सामान विमान में नहीं चढ़ पाया था, इसलिए। सोचो यह कितनी बड़ी भूल है? सुरक्षा की दृष्टि से यह कितनी बड़ी लापरवाही कहा जाएगा इसे? २६ फरवरी २००८ के एयर इंडिया की दिल्ली से श्रीनगर जा रहे एयर बस ३२१ का इंजन टेक ऑफ के बाद ही बंद हा गया। विमान को फिर से लौटना पड़ा। आश्चर्य की बात यह है कि अभी ६ महीने पहले ही उस विमान को खरीदा गया था। १६ मई २००८ को एयर इंडिया का एकदम नया विमान २२७ खड़ा था। इंजीनियर विभाग के कर्मचारी विमान के उड़ान भरने के पूर्व की जाँच कर रहे थे। विमान उडऩे के दो घंटे पहले ही उसका अगला चक्का निकल गया। जो इंजीनियर विमान के अगले भाग में काम कर रहा था, वह बड़ी मुश्किल से बच पाया। ४ जून २००८ को तो हद ही हो गई। एआई ६१२ विमान रात को दुबई-दिल्ली-जयपुर-मुंबई के रुट पर था। उस समय कुछ मिनटों के लिए विमान के दोनों पायलट सो गए थे। पर कंपनी इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं है। भारतीय समयानुसार रात के ८.०९ थी ८.५६ तक यह विमान एयर ट्राफिक के कंट्रोल रुम के साथ संपर्क में नहीं था। यही नहीं उसके आसपास मंडराने वाले विमान द्वारा भेजे गए संदशों का भी इस विमान से कोई जवाब नहीं आया। यह विमान मुंबई से ४३ नॉटिकल मील (८० मील) आगे निकल गया था। यह तो अच्छा हुआ कि कोई दुर्घटना नहीं हुई, यह होती, तो एक भी यात्री नहीं बचता। ७ नवम्बर २००९ को जेद्दाह से कोजीकोड की एयर बस ए-३१० जब तेज गति से नीचे उतर रहा था, तब उसका पंख रनवे से टकरा गया और उसमें आग लग गई थी। यात्रियों के हलक सूख गए थे। एयर लाइंस ने इस घटना को सामान्य दुर्घटना बताया। इसी तरह की दुर्घटना ९ मार्च २००९ को नारीता विमानतल में भी हुई थी। इसमें दो पायलट और एक यात्री की मौत भी हुई थी।
इस तरह से आए दिनों यह सुनने में आता ही रहता है कि एयर इंडिया की अमुक फ्लाइट में यह लापरवाही पाई गई। अपनी इस छवि को सुधारने के लिए एयर इंडिया ने सरकार से २० हजार करोड़ रुपए की माँग की। इसे देखते हुए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में एक बैठक की गई थी, जिसमें दो महीनों के अंदर एयर इंडिया को ८०० करोड़ रुपए देने का प्रावधान रखा गया था। पर क्या केवल धन से एयर इंडिया की छवि सुधर जाएगी? एयर इंडिया को सबसे पहले अपने कर्मचारियों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए। यदि उनके चेहरे हल्की से मुस्कराहट ही ला दे, तो यही बहुत है। मुरझाए चेहरों से कभी अच्छे कार्यों की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। स्मितयुक्त चेहरे ही सफलता की पहली सीढ़ी होते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
हिमालय रहेगा तो जीवन रहेगा: बहुगुणा
हिमालय की रक्षा के लिए लोगों को आगे आना चाहिए क्योंकि हिमालय रहेगा तो जीवन रहेगा। यह कहना है हिमालय बचाओ अभियान में जुटे सुप्रसिध्द पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का। उनका मानना है कि ग्लोबल वामग के दुष्प्रभाव से हिमालय ही बचा सकता है। ग्लोबल वामग से जलवायु परिवर्तन का खतरा पैदा हो गया है। पृथ्वी का तापमान लगातार तेजी से बढ़ रहा है जिससे हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं जिससे जन-जीवन के लिए भी खतरा बढ़ता ही जा रहा है। हिमालय क्षेत्र में बड़ी बांध परियोजनाएं बनाने के बजाए प्राकृतिक बांध बनाए जाने की आवश्यकता है और साथ ही हिमालयी क्षेत्रों में विकास की नीतियां ऐसी होनी चाहिए जिससे वहां पलायन रूके और पारिस्थितिकी तंत्र बचा रह सके। बेतरतीब विकास योजनाओं ने वहां पर जल, जंगलजमीन एवं जीवन के लिए संकट खड़ा कर दिया है।
चिपको आन्दोलन तथा कई अन्य आन्दोलन से जुड़े श्री बहुगुणा हिमालय बचाओ यात्रा के माध्यम से लोगों को जागरूक कर रहे हैं कि वे हिमालय की रक्षा के लिए कदम आगे बढ़ाए क्योंकि हिमालय रहेगा तभी जीवन भी रहेगा। पर्यावरण को लेकर हिमालयवासी सदैव जागरूक रहे हैं और सदियों से जल ् जंगल एवं जमीन की रक्षा करना उनकी परंपरा रही है। पहाड़ के लोग अव्यवहारिक विकास योजनाओं का हमेशा विरोध करते रहे हैं लेकिन उनके विरोध को अनसुना ही किया जाता रहा है। इसके बावजूद हिमालय की रक्षा के लिए वहां के लोगों विशेषकर महिलाओं ने बखूबी मेहनत की है। चिपको आन्दोलन में महिलाओं ने अहम भूमिका निभायी। ै क्या है जंगल के उपकार : मिट्टी, पानी और बयार ै। का नारा देकर लोग हमेशा वनों की रक्षा के लिए आगे आए लेकिन पहले ब्रिटिश हुक्मरानों तथा आजादी के बाद देशी नुमाइंदों ने जनभावनाओं को दरकिनार कर ैे दिया है। जंगल के उपकार .लीसा, लकड़ी और व्यापार ै को तवाो देकर ऐसी नीतियां अपनायी जिससे वनों की भयंकर तबाही हुई। अंग्रेजों ने प्राकृतिक वनों को नेस्तनाबूद करके चीड़ जैसे शंकुल वन पैदा कर दिए। चीड़ जमीन का पानी और उसके पोषक तत्वों को सोख लेता है जिससे दूसरे तरह के पौधों को पनपने का मौका ही नहीं मिलता है। जिसका नतीजा यह है कि आज हिमालय रेगिस्तान में तब्दील होता जा रहा है। आजादी के बाद देश के नेताओं और नीति..नियंताओं ने भी इस समस्या का निराकरण की बजाय तबाही ही जारी रखना उचित समझा। पद्मविभूषण सम्मान से सम्मानित सुह्नरसिध्द पर्यावरणविद् अपनी हिमालय बचाओ यात्रा के दौरान विभिन्न राज्यों के विधायकों, सांसदों , राज्यपालों एवं मुख्यमंत्रियों से मिलकर गुहार लगा रहे हैं कि ग्लोबल वामग से हिमालय ही बचा सकता है। हिमालय की रक्षा के लिए वहां की आबादी का टिके रहना भी जरूरी है। बड़ी बांध रियोजनाओं ने विकास का विनाशकारी मॉडल स्थापित कर विस्थापन की त्रासदी को पैदा किया है तथा जल, जमीन एवं जंगल नष्ट होने से खेती और पशुपालन काफी कठिन होता गया है।
आज हालात् यह है कि परंपरागत अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गयी है तथा लोग जीविका की तलाश में पलायन करने को विवश हो गए हैं। पलायन का यह सिलसिला लगातार जारी है। जनप्रतिनिधियों को इन सारी समस्याओं की जानकारी देकर बताया जा रहा है कि हिमालयी क्षेत्र के विकास की ऐसी ठोस नीति बनायी जाय जिससे सीमाओं के प्रहरी वहीं रूक सकें और देश को वहां से पानी मिलता रहे। पहाड़ी क्षेत्रों की परंपरागत अर्थव्यवस्था को जीवित रखकर वहां रोजगार के ऐसा साधन विकसित हो जिससे लोगों को जीविका के लिए पलायन न करना पड़े। खेती के पारंपरिक स्वरूप तथा पशुपालन को बढ़ावा मिलना चाहिए। हिमालय में विशाल बांध परियोजनाओं के स्थान पर पूरे हिमालय को ही प्राकृतिक बांध बनाया जाय तथा पूरे हिलकैचमेंट को पेड़ो से भर दिया जाए ताकि वहां जल ठहर सके। इसके अलावा पहाड़ी ढाल पूरी तरह वनस्पति से ढके होने चाहिए तथा जल संचयन के लिए नीचे बहते पानी को लिफ्ट कर चोटी पर पहुंचाना होगा क्योंकि हरियाली तथा खुशहाली के ऐसा किया जाना जरूरी है। पहाड़ों में एकल प्रजाति के शंकुल वनों की जगह चौड़ी पत्तीवाले फलदार एवं रेशेदार पेड़ लगाए जाने चाहिए ताकि इससे जल संरक्षण होने के साथ ही लोगों को फायदा भी अधिक मिले ग्लोबल वामग से ग्लेशियरों पर और अधिक खतरा मंडरा रहा है और बड़े ..बांधों ने नदियों को मृत बना दिया है अविरल तथा टेढ़ी..मेढ़ी(सर्पाकार) बहने वाली नदियों का पानी शुध्द होता है। आज पहाड़ों में बांध बन जाने से मैदानी भाग के लोगों को शुध्द पानी नहीं नसीब हो रहा है अतएव हिमालय को बचाने के लिए देश के हर नागरिक को फिक्रमंद होना चाहिए। हिमालयी नीति बनने में हिमालय बसाने का विचार भी शामिल है। हिमालय में प्राकृतिक बांध बने तथा जल की समस्या जो कि स्थायी है उसका हल भी स्थायी रूप से होना चाहिए। पर्वतराज हिमालय को बचाना और बसना सामाजिक तथा सुरक्षा के द्यष्टिकोण भी काफी महत्वपूर्ण है। हिमालय वासियों के वहां बने रहने के लिए उनकी जरूरतों के अनुरूप ही नीतियां बननी चाहिए। हिमालय बचाओं मुहिम के पहले चरण में श्री बहुगुणा के साथ उत्तराखंड के विधायक किशोर उपाध्याय ् विमला बहुगुणा एवं राजीव नयन बहुगुणा सहित कई हस्तियां शामिल रहीं और उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, असम, सिक्किम ् नगालैंड, मेघालय, मणिपुर, हिमाचल एवं अरूणाचल प्रदेश का दौरा किया।दूसरे चरण में पर्यावरणविद् उन क्षेत्रों अथवा राज्यों में जाएंगे जहां से हिमालयी नदियां गुजरती हैं इनमें उत्तर प्रदेश तथा बिहार एवं बंगाल शामिल हैं और अंतिम चरण में हिमालयी सीमा से जुड़े देशों नेपाल, भूटान तथा चीन और अफगानिस्तान में जाकर हिमालय और पर्यावरण की रक्षा के लिए लोगों को जागरूक करेंगे।
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009
भारतीय फिल्मों में पिता पुत्र की जोड़ी
पिता-पुत्र की सुपरहिट जोड़ियों से गुलजार रहा है बॉलीवुड हिंदी फिल्म जगत में निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों को सफल बनाने के लिए पिता -पुत्र की जोड़ी का फार्मूला भी आजमाते रहे हैं और इसमें उन्हें प्राय:सफलता मिली है। पिता -पुत्र की जोड़ी वाली फिल्मों की नवीनतम कड़ी में अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन की प्रदशत फिल्म पा का नाम भी जुड़ गया है। दिलचस्प बात है कि इस फिल्म में अभिषेक बच्चन अपने रियल लाइफ पिता अमिताभ बच्चन के पिता की भूमिका निभा रहे हैं। अमिताभ बच्चन की कंपनी एबी कार्पोरेशन के बैनर तले बनी इस फिल्म में अमिताभ बच्चन प्रोजेरिया नामक बीमारी से ग्रस्त 13 वर्ष की उम्र के एक ऐसे बच्चो का किरदार निभा रहे हैं, जो बचपन में ही बूढ़ा दिखाई देने लगता है।
फिल्म इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि पिता-पुत्र के रूप में नायकों की जोड़ियों को परदे पर उतारने की शुरुआत महान कलाकार पृथ्वीराज कपूर और उनके पुत्र राजकपूर से शुरू हुई। पिता-पुत्र के आपसी द्वंद्व को दिखाती आवारा 1951 फिल्म में इन दोनों दिग्गज कलाकारों ने अपने अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। दिलचस्प बात है कि इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर के सबसे छोटे पुत्र शशि कपूर ने भी बतौर बाल कलाकार अभिनय किया था। यही नहीं, इस फिल्म में अदालत के एक दृश्य में जज की भूमिका पृथ्वीराजकपूर के पिता ने निभाई थी। राजकपूर के निर्देशन में बनी इस फिल्म के सुपरहिट गीत आवारा हूं या गदश में हूं आसमान का तारा हूं को देश ही नही विदेशों में भी उल्लेखनीय लोकप्रियता हासिल हुई। हांलाकि आवारा से पहले राजकपूर ने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ फिल्म इंकलाब में भी अभिनय किया था। दिलचस्प बात है कि इसी फिल्म से राजकपूर ने बतौर बाल कलाकार अपने सिने कैरियर की शुरूआत की थी। आवारा की कामयाबी के बाद राजकपूर -पृथ्वीराज कपूर की जोड़ी वाली फिल्म कल आज और कल 1971 में प्रदशत हुई। तीन पीढ़ियों के आपसी रिश्ते को दर्शाती इस फिल्म में एक ओर पृथ्वीराज कपूर ने अपने पुत्र राजकपूर के साथ अभिनय किया वही राजकपूर के पुत्र रणधीर कपूर ने अहम किरदार निभाया था। बॉलीवुड के हीमैन कहे जाने वाले धर्मेन्द्र की जोड़ी उनके पुत्र सनी देवोल के साथ भी पसंद की जाती है। यह जोड़ी सबसे पहले 1983 में प्रदशत फिल्म सन्नी में एक साथ दिखाई दी। इसके बाद सल्तनत और क्षत्रिय जैसी फिल्मों में इस जोड़ी ने दर्शकों का मनोरंजन किया हांलोकि कमजोर पटकथा और निर्देशन के कारण फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई।
वर्ष 2007 में प्रदशत फिल्म अपने धर्मेन्द्र और सन्नी देओल की जोड़ी की सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने न सिर्फ अपने बडे पुत्र सन्नी देओल के साथ बल्कि छोटे पुत्र बॉबी देओल के साथ भी अभिनय किया हालांकि फिल्म अपने के पहले बॉबी देओल ने फिल्म धरमवीर में भी बतौर बाल कलाकार अपने पिता धर्मेन्द्र के साथ काम किया था। फिल्म इंड़स्ट्री के जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेन्द्र कुमार और उनके पुत्र कुमार गौरव की जोड़ी ने भी सिने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। अपने पुत्र को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए राजेन्द्र कुमार ने फिल्म वर्ष 1980 में लव स्टोरी का निर्माण किया। बेहतरीन गीत -संगीत के कारण कुमार गौरव रातो रात जवां दिलो की धड़कन बन गए। इसके बाद उनकी जोड़ी फिल्म फूल में एक साथ नजर आई लेकिन कमजोर पटकथा और निर्देशन के कारण फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार दी गई। फिल्म इंडस्ट्री में सुनील दत्त ने जब भी अपने पुत्र संजय दत्त के साथ अभिनय किया तब फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। सुनील दत्त और संजय दत्त की सुपरहिट जोड़ी सबसे पहले फिल्म राकी में एक साथ नजर आई थी। इसके बाद मुन्ना भाई एम बी बी एस में भी दोनो की जोड़ी ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। खास तौर पर फिल्म का वह द्यश्य जिसमे संजय दत्त अपने पिता सुनील दत्त के गले लगते है दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। परदे पर बेहतरीन कैमिस्ट्री के नजरिए से देखा जाए तो पिता-पुत्र की जोड़ियों में अमिताभ और अभिषेक बच्चन की जोड़ी निववाद रूप से सर्वश्रोष्ठ कही जा सकती हैं। बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन और उनके पुत्र अभिषेक बच्चन जब कभी रूपहले पर्दे पर जोड़ी बनाकर एक साथ नजर आए तो उन्हें दर्शकों की जबरदस्त सराहना मिली है।
प्रसिध्द निर्माता-निर्देशक राम गोपाल वर्मा इस जोड़ी को सबसे पहले फिल्म सरकार में एक साथ लेकर आए। पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने फिल्म भी में पिता और पुत्र की ही भूमिका निभाई और दर्शकों की कसौटी पर खरा उतरकर फिल्म को सुपरहिट बना दिया। इस फिल्म की सफलता के बाद निर्माता यश चोपड़ाअमिताभ और अभिषेक की जोड़ी को फिल्म बंटी और बबली में एक साथ लेकर आए। फिल्म की कहानी एक चोर और एक पुलिस ऑफिसर के इर्द गिर्द घूंमती थी। फिल्म में दोनो के दिलचस्प किरदारों ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन कर फिल्म को सुपरहिट बना दिया। अमिताभ-अभिषेक की जोड़ी करण जौहर की फिल्म कभी अलविदा ना कहना में भी एक साथ नजर आई। इसके साथ ही फिल्म सरकार के सीक्वेल सरकार राज में भी अमिताभ और अभिषेक की जोड़ी को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। शीघ्र प्रदशत होने वाली फिल्म पा में एक बार फिर से सिने दर्शक इस जोड़ी को देख सकेंगे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के महान शो मैन राजकपूर ने बतौर निर्माता अपने अभिनेता पुत्र ऋषि कपूर के साथ जोड़ी बनाकर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। रिषि कपूर को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए राजकपूर ने फिल्म बॉबी का निर्माण किया। युवा प्रेम कथा पर आधारित ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया की जोड़ी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। राजकपूर ने अपने बडे पुत्र रणधीर कपूर को भी फिल्म इंडस्ट्री मं स्थापित करने के लिए फिल्म कल आज और कल और धरम -करम जैसी फिल्मों का निर्माण किया और उनके साथ अभिनय भी किया। इसके अलावा उन्होंने अपने तीसरे पुत्र राजीव कपूर को लेकर फिल्म राम तेरी गंगा मैली जैसी सुपरहिट फिल्म का निर्माण करके दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। फिल्म निर्माता राकेश रोशन और उनके अभिनेता पुत्र रितीक रोशन की जोड़ी वाली फिल्मों ने भी सिने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है। वर्ष 2000 में अपने पुत्र रितीक रोशन को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए राकेश रोशन ने फिल्म कहो ना प्यार है का निर्माण किया। फिल्म में अपने दमदार अभिनय से रितीक रोशन ने फिल्म को सुपरहिट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दर्शकों का अपार प्रेम हासिल किया। फिल्म कहो ना प्यार है की सफलता के बाद राकेश रोशन ने अपने पुत्र को लेकर कोई मिल गया और क्रिश जैसी सुपरहिट फिल्मों का निर्माण किया। इन दिनों राकेश रोशन अपने पुत्र को लेकर फिल्म काईटस के निर्माण में व्यस्त है।
प्रेम कुमार
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फिल्म संसार
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
कस्बाई कवि सम्मेलन वाया फ्लैशबैक
अनुज खरे
पहले क्या कवि होते थे, क्या कविताएं होती थीं, क्या कवि सम्मेलन होते थे, कसम से। वाह...!, वाह...! ,
तय करना मुश्किल होता था कि ऐसा सुनाने वालों के पहले दांत तोड़ें कि ऐसा नामुराद लिखने वालों के हाथ कि आयोजकों को ही लंगड़ा बना दें। हालांकि तीनों में से यादा जालिम सजा के बारे में सोचने के दौरान कविता पूरी हो जाती थी। बदला लेने का इरादा अगले कवि सम्मेलन के लिए टाल देना पड़ता था।
हमें हमारे कस्बे के कवि सम्मेलनों की याद है। मंच तक क्या खूब बनाए जाते थे। चार तखत जोड़ दिए, आगे पीछे छोटे-बड़े तखत, उन पर फर्स्ट क्लास और बॉलकनी में कुछ कवि। पांच गद्दे डाल दिए, सुविधा के हिसाब से जरूरत पड़ने पर चाहे बाल नोचो या गद्दे की रुई। कहीं से जोड़जाड़ के सात-आठ कविवर पकड लिए, बस कवि सम्मेलन रेडी टू स्टार्ट।
जनता में ऐसे कवि सम्मेलन काफी पॉपुलर थे। सालभर की मार-पिटाई, गाली-गलौज का कोटा एक बार में ही पूरा कर लिया जाता था। बाजूवाले से बहस, पीछेवाले से लड़ाई, दोनों ही मौके नहीं मिले तो आयोजकों को ही लपका दिया, इन सारे अवसरों के हाथ नहीं आने की स्थिति में कवि तो हैं ही, वे कहां बच पाएंगे।
लोगों का अपना सिटिंग अरेंजमेंट भी अद्भुत था। घर से बोरी लाए, बिछा ली। साइड में 500 ग्राम मूंगफली रख लीं। खाते गए, कवियों को दाद देते गए। यादा जोश आने पर सीटी मार दी। बीच-बीच में मूंगफली के छिलके बाजूवाले की बोरी के नीचे खिसकाते गए। लघुशंका को गए बाजूवाले ने अपने छिलकों सहित उनका कंसाइनमेंट वापस ट्रांसफर कर दिया। वापस आने पर गर्भवती महिला जैसा बोरी का पेट देखने पर बांछें खिल जाती थीं कि सालभर से जिस मुकाम का इंतजार था, वो आ गया है। बाजूवाले से इतने सात्विक तरीके से रिश्तेदारियां जोड़ी जाने लगती थीं कि वो भी बदले में और यादा निकटम रिश्तेदारियों पर बल देना शुरू करता था। आसपास के लोग भी इन नवीन रिश्तेदारी गठबंधन समारोह के भव्य अवसर पर आशीर्वाद देने प्रस्तुत हो जाते थे। बाद में स्वयंसेवकनुमा कुछ चीजों की मदद से दोनों रिश्तेदारों के आयोजन स्थल से नजदीक ले जाकर एकांत वार्तालाप करने के लिए छोड़ दिया जाता था। जिस पर वे थोड़ी देर में फिर 'हमारी बोरी वापस लौटाओ' की गुहार लगाते वापस आकर जम जाते थे। इन रूटीन क्रियाकलापों के बीच कवि सम्मेलन निर्बाध गति से चलता रहता था।
वीररस का कलूटा कवि और शृंगाररस की सुंदर कवयित्री सबसे यादा दाद पाते थे। हर बरस आने वाली ऐसी ही एक कवयित्री से जनता दर्जनों बार सुनाई जा चुकी कविता सुनाने की फरमाइश करती थी, जिसे वे नजाकत से स्वीकार करती थीं। हालांकि वो बात अलग है कि अगर फरमाइश नहीं भी की जाती तो भी वे वही कविता सुनातीं, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में एक ही बेहतर कविता लिखी थी। कवि सम्मेलन में तो उनकी गाड़ी उनके रूप-रंग की वजह से खिंच रही थी। आयोजकों से लेकर भीड़ तक सभी को ये रहस्य मालूम था। बस उन्हें ही लगता था कि जनता उनके पिया-जीया, बदरा-गगरा, रैना-नैना जैसी कालजयी शब्दों की तुकबंदी पर बिछी-बिछी जा रही है। लोग हर लाइन से पहले आगे के शब्द दोहराते थे। इतनी चिल्लपों मचती थी कि ऐसा लगता था कि वे मंच पर बोलने और गाने के बीच की कोई हरकत कर रही हैं। पांच-सात मिनट के बाद जब वे चुप हो जाती थी तो कविता पढी हुई मान ली जाती थी। मूलत: वे थीं तो मास्टरनी लेकिन उन्हें उनकी इस इकलौती कविता ने क्षेत्र में भारी प्रसिध्दी दिलवाई थी। शहर से गांव के स्कूल में पढ़ाने आते समय वे हर दिन, हर एक को इतनी बार ये कविता सुना चुकी थीं अब तो गांव आते समय बस में उन्हें आराम से सीट मिल जाती थी, क्योंकि उन्हें देखकर हर कोई आपनी सीट ऑफर करता था, ताकी सीट भले ही चली जाए, उनकी कविता सुनने से जो आत्महत्या करने की स्थिति बन सकती थी, उससे तो बचा जा सके। तो इस समीकरण के तहत हर कोई उन्हे अपनी सीट देने का तत्पर रहता था। अपनी इतनी प्रलयंकारी कविता से प्राप्त ख्याति के बाद वे 'बदरा-गगरा मैडम' ही कहलाने लगीं थीं। बच्चों तक को ये कविता इतनी शिद्दत से याद हो गई थी कि उनके कई पुरुष प्रशंसकों का मानना था कि इस कविता को स्कूल की प्रार्थना बना देना चाहिए। कुछ ने तो इसके लिए आंदोलन चलाने तक की तैयारी कर ली थी, चंदा तक जोड़ लिया गया था। बाद में आंदोलन तो नहीं चल पाया, तो इसी चंदे से एक कवि सम्मेलन का आयोजन करवाया गया। जिसका नाम ही 'बदरा-गगरा पावस कवि सम्मेलन' रखकर उनकी कालजयी रचना को इतिहास में मील के पत्थर के रूप में कहीं गढ़वाया गया था। तो इस तरह से वे हर कवि सम्मेलन की जान थीं, आयोजकों के लिए भीड़ खींचने का सामान थीं।
उन्हीं की तरह वीररस के कवि धरतीमल 'धमक' काफी प्रसिध्द थे। धरती को हिला देने वाली काया पर तरबूजे की तरह सिर भी रखते थे। उनके सर और घड़ का जिक्र आया है, तो मुंह का उल्लेख भी आवश्यक है। तो वे मुंह भी रखते थे। इसी मुंह में वे जीभ भी रखते थे, जो दांतों के पीछे रहती थी। दांतों और इस तंतु की सहायता से वे पान भी खाते थे। दांत नकली थे। कई ढीले दांतों को वे सुपारी मानकर खा चुके थे। जिस पर उन्होंने पान वाले बताया भी था कि यार, आजकल छालिया पत्थर की तरह आने लगी है, जिसे खाना उन जैसे पत्थर के दांतों वाले के ही बूते की बात है। तो जिस चीज से उनके पान खाने का जिक्र चल रहा है, उसकी सहायता से वे वीररस की कविताएं रौद्र रूप में सुनाते थे, जिसे कई जलनखोर वीभत्स रस की कहते थे।
वे कविता सुनाने से पहले हर बार बताते थे कि इतनी खतरनाक कविता को वे अपनी जान जोखिम में डालकर सुना रहे हैं। जिसके देश के खिलाफ यह कविता है, उसके जासूस उन्हें खत्म भी कर सकते हैं। 20-22 सालों से लोग उन्हें लगातार यह कहते सुन रहे थे। हालांकि ऐसा कहने का असर यह होता था कि लोग बड़े ही गंभीर अंदाज में उनकी यह कविता सुनाते थे, कि आखिर कौन सा देश है। पूरी सुनने के बाद भी उनकी कविता में ना तो किसी देश का ािक्र मिलता था ना ही किसी आदमी का। कई सीनियर किस्म के लोगों ने उनसे जानने की कोशिश भी की थी कि वे किस देश का ािक्र कर रहे हैं, जिससे उन्हों खतरा है, तो बस वे मुस्कुरा के रह जाते थे। इस मुस्कान का मतलब यह लगाया जाता था कि वे अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि पाक या चीन दुनिया के नक्शे में जहां है क्या वास्तव में वहीं है। तो जब तक वे इन देशों की भौगोलिक स्थिति के बारे में निश्चिंत नहीं हो जाते, वे किसी भी देश का नाम तथ्यात्मकता के मद्देनजर नहीं लेना चाह रहे हैं। जबकि कुछ का तो मानना था कि पड़ोसी देश का नाम लेते समय अपने निजी पड़ोसी के घर की बात करते हैं, जिसका उनसे इसी कविता के रियाज के चलते पुश्तैनी झगड़ा बद चुका है। उन्हें देखकर ही वो कुल्हाड़ी उठाने लगता है। दोनों ही बातों के बीच रहस्य हर बार रहस्य ही रह जाता था क्योंकि ना तो वे बता पाने में सफल हो पाते थे, ना ही लोग जान पाने में।
वे कविता सुनाते समय इतने हाथ-पांव फटकारते थे कि मजबूत से मजबूत तखत भी धराशायी हो जाता था। जिस पर लोगों ने उनका नाम ही 'धमक' रख दिया था। उनके कविता सुनाते समय आगे की लाइन में बैठने में लोग डरते थे कि पता नहीं किस जोशीली तरन्नुम में वे सामनेवालों पर कूद पड़ें। कई बार तो जोश में माइक को स्टैंड सहित ही तलवार की भांति भांजने लगते थे। उनकी यह आदत तभी छूट पाई, जब एक-दो बार टैंटवाले ने माइक खराब करने पर आयोजकों की तरफ से मिली पूरी राशि छीन ली थी या माइक में करंट आने के चलते झटका खाकर आयोजकों पर ही लोट गए थे।
उनकी अलावा हास्यरस के एक कवि बसंतीलाल 'पिनपिने' भी हर बरस कवि सम्मेलन में उपस्थित होते थे। अपनी पिनपिनाती आवाज में हास्यरस की कविताएं सुनाते थे, जिस पर लोगों को केवल साउंड क्वालिटी के आधार पर ही दाद देने का कार्य संपन्न करना होता था। कविता सुनाकर वे खुद ही इतना जोर से हंसते थे कि लोगों को स्वाहा कब कहना है, की जानकारी मिल जाती थी। लोगों को तो केवल उनकी कविता का शीर्षक ही सुनाई देता था, वो भी इसलिए कि आयोजकोें की तरह से मंच की अध्यक्षता कर रहे कवि महोदय यह शीर्षक बोलकर ही उन्हें मंच पर कविता सुनाने की दावत देते थे। पहले वे मूलत: शृंगाररस के कवि थे। और गांव के पनघट पर काफी जाते थे, जिसका उद्देश्य उनकी नजर में नायिका के नख-शिख के वर्णन के लिए कच्ची सामग्री की आपूर्ति था। दूसरों की नजर में इसका मतलब दूसरा था, जिसे यहां लिखा नहीं जा सकता है। इसी आने-जाने के क्रम में वे किसी नायिका के नख-शिख में इतने डूब गए थे कि वे ही बाद में उनके जीवन में बहार बनकर छा गई थीं। पनघट से पानी भरने का काम बाद में पिनपिने जी के जिम्मे आ गया था। वहीं से सिर पर घड़े लादते और महिलाओें से गप्पें लगाते-लगाते उनके स्वरतंत्र में महिलाओं जैसी नजाकत आ गई थी। महिलाओें जैसी गोपनीय बातों को जब वे पुरुष वर्जन में बोलते थे, जो सामग्री बाहर आती थी वो पिनपिनी किस्म की होती थी। सो वे पिनपिने कहलाने लगे थे। शृंगार से हास्य में शिफ्ट होने पीछे मामला कुछ यूं था कि उनकी शृंगाररस की कविताएं जब लोगों की समझ में आती थीं, तो वे उस पर इतना जोर-जोर से हंसते थे कि कई हास्य रस के कवि तक भयरस की शरण में जाने को मजबूर हो जाते थे। इस पर हास्यरस के विरोधी एक कवि ने उन्हें अपनी क्षमताएं पहचानने की सलाह देकर नैसर्गिक लेखन की तरफ मोड़ा था। जिसके चलते उन्होंने अपनी प्रतिभा पहचानी थी। आज भी लिखते शृंगाररस की कविताएं ही थे जिन्हें सम्मेलनों में हास्य की कहकर पढ़वाया जाता था। केवल आवाज के दम पर ही कोई कवि कितना पॉपुलर हो सकता है, पिनपिने जी इसका जीवंत उदाहरण थे। उनकी आवाज ही उनकी कविता की सारी खामियां ढक लेती थी जनता उनकी आवाज और कविता सुनाने की शैली पर हंसते-हंसते लोटपोट हो जाती थी। उनकी आवाज कितनी अद्भुत थी, इसका पता मंच पर बैठे लोगों को भी जभी चलता था जब वे एकाएक कविता पूरी कर तखत पर बैठ जाते थे। सबसे यादा दाद उन्हें महिला श्रोताओें की ओर से मिलती थी, जो पनघट वाली शैली को मंच पर प्रतिष्ठित करवाने के युगांतरकारी काम को लेकर उनकी जबर्दस्त प्रशंसक थीं और पनघट से ही पुरानी जान-पहचान के कारण कवि सम्मेलन में भी चली आती थीं।
इनके बीच समुद्र से लहरों की तरह मदहोश नामक एक कवि प्रकट होकर कविताएं सुनाते थे। उनके बारे में उनके सहित बाकी लोग तय नहीं कर पाए थे कि उन्हें रस के आधार किस श्रेणी में वर्गीकृत किया जाए। श्रेणी के निर्धारण के काम जनता पर ही छोड़ दिया जाता था। हालांकि वो बात अलग है कि उन्हें किसी भी श्रेणी में रखा जाता, वे इतने प्रतिभाशाली पाए जाते थे कि हर रस की विशेषताएं रखते थे। जो विशेषताएं रचना में नहीं आ पाती थीं, वे उनमें निजी तौर पर थीं यानी वीररस की। लड़ने के प्रति वे इतनी अदम्य इच्छा रखते थे कि हर बरस आयोजकों से लड़े बिना वे कविताएं पढा ही नहीं करते थे। अपने पारिश्रमिक का मामला निपट जाने के बाद वे दूसरे कवियों की तरफ से प्रस्तुत हो जाते थे। उनका भी मामला निपट जाए तो टैंटवालों के लिए उनके दिल में दया उमड़ आती थी। आयोजन में हर बरस उनकी शिरकत के पीछे उनके इसी गुण का हाथ बताया जाता था। इतने क्रियाकलापों के बाद वे बेचारी जनता के लिए व्यवस्था को ललकारते थे। यह काम वे इतना इमोशनल होकर करते थे कि दूसरी लाइन के बाद आगे की पंक्तियां भूल जाते थे। जिस पर वे तत्काल याद आई अपनी ही किसी कविता की लाइनें जोड़कर सुना देते थे। कई बार अपनी कविता की लाइनें याद ना आने पर दूसरे कवि की कविता से यह सामग्री उधार लेने में संकोच नहीं करते थे। कई बार तो वे इसी कवि सम्मेलन के किसी पूर्ववर्ती कवि की लाइनें भी रिपीट करने लगते थे, यहां तक की आगे की लाइनें भी उसी से पूछ लेते थे। अपनी समाजवादी और सर्वहारावादी प्रवृति के चलते मानते थे कि इन्टालेक्चुअल प्रॉपर्टी पर सबका बराबरी का अधिकार है। साहित्य में तो आजकल ऐसी उधारी जबर्दस्त ढंग से चल रही है। बल्कि उनके तो विचार थे कि ऐसे लेन-देन को चोरी जैसे नाम से असाहित्यकार लोग ही पुकारते हैं। उनकी ऐसी बहुरंगी कविताएं खूब लोकप्रिय थीं। उनकी एक मिक्स कविता को प्रचंड तौर पर ख्याति प्राप्त थी। जिसकी लाइनें थीं।
'भींच लो मुट्ठियां, सिर उठाओ
भींच लो मुट्ठियां, सिर उठाओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ
विरहा की बेला है,नैनाभर लाओ
परदेस हैं बालम, सखी नैनाभर लाओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ
जालिम वक्त है, झुलसती तमन्ना
कोई तो उम्मीद का गुलशन खिलाओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ
पंछियों का कलरव,चहकता पनघट
खुशियों की गागर,सपनों का जल
विवाह की तिथि, कोई तो नजदीक लाओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ'
इसी कविता को सुनाने के दौरान एक बार तो उन्होंने मंच पर बैठे स्थानीय शायर बदरूद्दीन 'फुरकत' से उनका कागज ही छीन लिया था। यहां से आगे कि लाइनें वहीं से थीं।
'कोई मंजर सता रहा है उसे
'फुरकत' कोई अजनबी बुला रहा है उसे
आते-जाते,आते-जाते
जाते-जाते, आते-आते'
(बीच में दर्शकों में से आवाज भी आई कि कोई उधारी वसूलने वाला है, जो वो बुलाए चला जा रहा है, ये जाने का नाम नहीं ले रहा है। हालांकि उन्होंने इसका बुरा ना मानते हुए दाद की तरह स्वीकार किया।)
इतने में भीड़ चिल्लाने लगी कि इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ, कहीं से कुछ भी उठाओ लेकिन साहब हमारे लिए इंकलाब लाओ। इस बात पर वे फिर यू टर्न मारकर मूल कविता पर लौट आए।
'भींच लो मुट्ठियां, सिर उठाओ
भींच लो मुट्ठियां, सिर उठाओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ'
पांचैक मिनट तक इंकलाब लाने के बाद उन्हें इसके आगे कि लाइनें याद हो आईं। जो आपकी नजर हैं।
'सड़कों पर निकलो,तख्तियां उठाओ
रैली बनाओ,सितमगरों को माटी मिलाओ
पत्थर मारो, झंडे लहराओ
इंकलाब लाओ, इंकलाब लाओ'
जब वे पर्याप्त मात्रा में इंकलाब ला चुके, तो आगे कि दर्शक दीर्घा में बैठे कई सान दूसरे दिन ऑफिस में रूटीन कार्यों के माध्यम से जनता को इंकलाब दिलवाने के महान उद्देश्य के तहत घरों की ओर निकलने लगे। तभी आयोजकों ने उनकी क्रांति को विराम दिलवाया। बड़ी मुश्किल से कुछ वरिष्ठ या बलिष्ठ कवियों की मदद से उन्हें घसीटकर बैठाया गया था।
अब की बार जो कवि किस्म के सान खड़े हुए वे चट्टान सिंह 'नाजुक' थे। शरीर से चट्टान, दिल से नाजुक थे। नाजुक इसलिए कि दिल की दो बायपास सर्जरी करवा चुके थे। इसलिए उन्हें कवि सम्मेलनों में तभी खड़ा किया जाता था जब स्थिति नियंत्रण में होती थी। अन्यथा तो वे स्वयं कविताओं को सदन पटल पर रखकर इतिश्री मान लेते थे। वे नजाकत से इतनी मरी-मरी आवाज में कविताएं सुनाते थे कि जनता तक उसे ढोकर ले जाने का काम मंचस्थ कवियों को ही करना पड़ता था, साथ में वाह!, वाह! की ताल अलग मिलाना पड़ती थी। कविता सुनाते समय वे लगाातार एक हाथ दिल पर रखे रहते थे। उनका मानना था कि वे ऐसा दिल को संभाले रखने के लिए करते हैं। भाईलोगों का मानना था कि वे ऐसा बटुए को संभाले रखने के लिए करते हैं। आयोजकों और मंचस्थ कवियों पर उन्हें जरा भी भरोसा नहीं है। कविता सुनाते समय वे कई प्रकार की और भारी मात्रा में बीमारों वाली कराहने की आवाजें निकालते रहते थे। जो उनके हिसाब से उनकी स्टाइल थी, जनता के लिए मनोरंजन का साधन थी, डॉक्टरों के लिए उनकी तीसरी बायपास की तैयारी थी। किस लाइन के बाद वे आह, ऊह, आउच निकालेंगे इस पर श्रोताओं में 100-200 ग्राम मूंगफलियों की शर्त बद जाया करती थी। संपन्न किस्म के श्रोता 5-10 रुपए तक की ठान लेते थे। जीतने वाला एक-दो रुपए उनकी मेहनत पर उन्हें भी नजर करता था। कविता से यादा कमाई इस गतिविधि पर हो जाया करती थी। इस राज का पता चलने पर उन्होंने फिक्सिंग पर भी हाथ आजमाया था। अपनी वाली पार्टी के इशारे पर हाथ उठाकर आह, ऊह की आवाज निकालते थे। बाद में तो उन्होंने जितनी मेहनत कविता से स्थान पर कराहने में यादा दर्द घोलने में की थी, उतनी मेहनत हिन्दी कविता के इतिहास कोई दूसरा कवि कभी कर ही नहीं पाया, तो इस दिशा में उनका योगदान अतुलनीय था। बाद की तो उनकी कविताएं आह, ऊह, आउच, दिल के तार पर, तन की तान सरीखी हो गईं थीं। जिसमें वे एंजियोग्राफी और बायपास जैसे नवीन प्रयोगवादी शब्दों का मिश्रण भी करते रहते थे। उनका तो यहां तक मानना था कि इसी कविता से प्रभावित होकर ही आयोडेस्क वालों ने अपना विज्ञापन आह, ऊह, आउच आयोडेस्क मलिए, काम पर चलिए बनाया होगा। हालांकि इस तथ्य की कभी पुष्टि नहीं हुई और उन्होंने भी जनता की भलाई की दृष्टि से कभी आयोडेस्क वालों से इसकी रॉयल्टी नहीं मांगी। अपनी इसी कविता की बदौलत वे रात के तरन्नुम में रूमानियता घोलते थे। सोने-सोने की दशा में पहुंच चुके श्रोताओं को चैतन्य कर देते थे कि एक रोगी जाग रहा है, कराह रहा है, तुम आजकल के घरवालों जैसा, कैसे सो सकते हो। बाद में वे एक फिल्म में भी दिखे। जो स्वास्थ्य मंत्रालय ने लोगों को जागरूक करने के लिए बनवाई थी। उसमें इन्होंने खांसने वाले बुजुर्ग की भूमिका इतनी शिद्दत से निभाई थी कि फिल्म के बाद तीन महीने तक सिर्फ खांसते रहे थे। पूरे आंचल में कोई भी कवि कभी उनकी आह, ऊह, आउच और ठाऊं...,ठाऊं...ठुल्ल...,ठुल्ल...रोगियों को समर्पित कविता और खांसी को समर्पित भूमिका की नकल नहीं कर पाया था। बाद में जब वे स्मृति शेष हुए तो उनकी समाधि के पास से गुजरते समय कई लोगों को ठाऊं..., ठाऊं..., ठुल्ल...,ठुल्ल...की आवाजें आने का भ्रम होता रहा। जिस पर गांववालों ने इसे उनकी अंतिम इच्छा मानते हुए, उनकी समाधि पर स्थायी तौर पर उकेरवा दिया था।
कवि सम्मेलन के अंत में आयोजकोें में से मस्तान भाई भी कविता पढ़ते थे। अन्यथा तो उनकी डयूटी बाहर से आने वाले कवियोें को स्टेशन से लाने, खाने-पिलाने की व्यवस्था देखने, रात को सही सलामत कवि सम्मेलन तक पहुंचाने की होती थी। वे ही कवियों को होटल पहुंचाकर सम्मेलन से पहले की पूरी 'तैयारी' करवाते थे। जब सारे कवि तैयारियां करके 'टुन्न' हो जाते थे तो जनता को उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता था। कई कवियों की तैयारियों का 'लेबल' इतना उच्चस्तरीय था कि कस्बे में पाया ही नहीं जाता था। जिस पर ऐसे कवियों को अपने स्तर में जिलास्तर की मिलावट करनी पड़ती थी। जिसका असर दूसरे दिन दोपहर तक बना रहता था। जिस पर ऐसे कवि अपने आसपड़ोस से रात को उन्होंने कौन सी कविता सुनाई, के विषय में पूछताछ करते पाए जाते थे। तो जब वे अपनी मर्सियानुमा कविता पढ़ते थे, तो स्टेज पर बैठे कवियों की उसे सुनने की मजबूरी इसलिए होती थी कि क्योंकि वे ही कवियों को स्टेशन या बस स्टैंड छोड़ते समय फुल एंड फाइनल पेमेंट करते थे। सिवाइयों के पैकेट देते थे। चाय पिलाते थे। कविगण उनके इस परिश्रम के सम्मान करके उन्हें लगातार दाद देते थे, जिस पर वे गाड़ी को घुमा-घुमाकर लाइनें रिपीट करते थे। कई बार तो इतने इमोशनल हो जाते थे कि खुद रोने लगते थे। कवियों के दहशत में आंसू निकलते थे। जनता खून के आंसू रोती थी। बाकी आयोजक अपने आंसुओं को खुशी वाला बताते थे। हालांकि जनता की मजबूरी कुछ यूं थी कि लोगों के बीच उनके कुटीर उद्योग कारखाने के बुजुर्ग-जवान-महिलाएं-बच्चे बैठे रहते थे, जो लगातार लोगों की घेराबंदी किए रहते थे। ऐसे कर्मठ कर्मचारियों के लिए दो-दो बीड़ी के बंडल, 500-500 ग्राम मूंगफली का कोटा फिक्स था। चाय की तो वे मंच से लेकर अपने कर्मचारियों तक कोई कमी नहीं आने देते थे। घर की सारी भैंसों का दूध उस दिन इसी दिशा में मोड़ दिया जाता था। आवभगत की मात्रा की तुलना में हर बरस मर्सिया में लाइनें बढ़ा दी जाती थीं। कई बार उनकी कविता किस्म की इसी चीज को सुन-सुनकर लोग बेहोश तक हो जाया करते थे जिस पर उनके कर्मचारी ऐसे कमजोर दिलवालों को घटनास्थल से दूर ले जाकर ऐसे आयोजन से पर्याप्त 'डिस्टेंट मेंटेन' करने की सलाह देते थे, जबकि मस्तान भाई को उनकी कविता की मार्मिकता और मारकता के संबंध में जोशो-खरोश से बताया जाता था। अपने इन कर्मचारियों के समर्पण की एवज में वे दूसरे दिन कारखाने की छुट्टी रखा करते थे। उनके इतने व्यक्तिगत प्रयासों का नतीजा था कि कवि सम्मेलन उनके कस्बे के सालाना कलेंडर का स्थायी भाव था।
इसी कवि सम्मेलन का ही प्रताप था कि उस पूरी रात कस्बेवाले परिवार की तरह साथ बैठते थे। रिश्ते ताजा करते रहते थे। रातभर लड़ते रहते थे। एक-दूसरे की इतनी छककर बुराइयां कर लेते थे कि मन के मैल धुल जाते थे। दिल की कालिख बह निकलती थी। दुश्मन भी सगा सा दिखने लगता था। उसकी हंसी भी निश्छल लगने लगती थी। कई बार ऐसी ही किसी रात में लड़ाई-झगड़ा करवाने वाले 'आत्मीयजनों' की पहचान हो जाती थी। आज भी हमारे उस कस्बे में जो थोड़ा-बहुत भाईचारा है, उसके पीछे इन्हीं कवि सम्मेलनों का बड़ा हाथ है। हालांकि मस्तान भाई इसके पीछे अपना हाथ-पांव और हिसाब का रजिस्टर बताते थे, प्रूफ के तौर पर चाय, मूंगफली, दूध की मात्रा तक की जानकारी देने लगते थे। कोई अगर उनकी बात से सहमत नहीं होता था, तो वे जिन भैंसों के दूध से चाय बनी है, उन तक से गवाही दिलाने को तैयार हो जाते थे। खैर, आजकल तो यदा-कदा होने वाले कवि सम्मेलनों में बुजुर्ग कवियों का जिक्र तक नहीं किया जाता। हां, पुराने लोग जरूर अपनी अतीत को याद करने की विवशता के चलते वर्तमान कवियों की क्षमता से पुराने कवियों की तुलना करते हैं। आंसू पोछते हैं कि कैसे उन महान आत्माओं ने पूरे एक दौर में इलाके को अपनी जिंदादिली से रोशन रखा।
अनुज खरे
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व्यंग्य
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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सोमवार, 14 दिसंबर 2009
सजनवा बैरी हो गइल हमार
हिंदी फिल्म जगत में गीतकार शैलेन्द्र की जोड़ी मशहूर संगीतकार शंकर जयकिशन के साथ काफी हिट रही लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब शंकर जयकिशन शैलेन्द्र के साथ किए गए वादे को भूल गए जिससे शैलेन्द्र के दिल पर गहरी चोट पहुंची।
संगीतकार शंकर,जयकिशन ने शैलेंद्र से वायदा किया था कि जब कभी फिल्म में संगीत देने का मौका मिलेगा वह फिल्मकारों के समक्ष गीतकार शैलेन्द्र के नाम का प्रस्ताव रखेगे लेकिन जब कई फिल्मों में शंकर जयकिशन ने अपना यह वादा नही निभाया तो शैलेन्द्र के दिल पर गहरी चोट पहुंची। उन्होंने एक पर्ची पर पंक्तियां लिखकर भेजीं' छोटी सी ए दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे फिर पूछेंगे हाल। शैलेन्द्र के रचित इस गीत की पंक्तियों को पढकर शंकर,जयकिशन को अपनी भूल का अहसास हो गया और न सिर्फ उन्होंने इस गीत को संगीतबध्द किया बल्कि कई फिल्मों में शैलेन्द्र को काम करने का अवसर भी दिया। पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर मे 30 अगस्त 1923 को जन्मे शंकर दास केसरीलाल उर्फ शैलेन्द्र अपने भाइयों मे सबसे बडे थे। शैलेन्द्र के बचपन के दिनो मे ही कुछ अच्छा करने की चाह लिए उनका परिवार रावलपिंडी छोड़कर मथुरा चला आया। जहां उनकी माता पार्वती देवी की मौत से उन्हें गहरा सदमा पहुंचा और उनका ईश्वर पर से विश्वास उठ गया। अपने परिवार की परंपरा को निभाते हुए शैलेन्द्र ने वर्ष 1947 में अपने कैरियर की शुरुआत मुंबई में रेलवे की नौकरी से की। उनका मानना था कि सरकारी नौकरी करने से उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा। इस समय भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। रेलवे की नौकरी उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी। आफिस मे अपने काम के समय भी वह अपना ज्यादातर समय कविता लिखने मे हीं बिताया करते थे,जिसके कारण अधिकारी उनसे नाराज रहते थे।
इस बीच शैलेन्द्र देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए और अपने कविता के जरिए वह लोगों मे जागृति पैदा करने लगे। उन दिनों शैलेन्द्र की कविता 'जलता है पंजाब 'काफी सुखयों मे आ गई थी। शैलेन्द्र कई समारोहों में यह कविता सुनाया करते थे। एक कवि सम्मेलन के दौरान हिन्दी सिनेमा के शो मैन कहे जाने वाले राजकपूर को शैलेन्द्र के गाने का अंदाज बहुत भाया और उन्हें उसमें भारतीय सिनेमा का एक उभरता हुआ सितारा दजर आया। राजक पूर ने शैलेन्द्र से अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने की इच्छा जाहिर की किंतु शैलेन्द्र को यह बात रास नही आई और उन्होंने उनकी पेशकश ठुकरा दी। लेकिन बाद मे घर की कुछ जिम्मेदारियों के कारण उन्होंने राजकपूर से दोबारा संपर्क किया और अपनी शर्तो पर हीं राजकपूर के साथ काम करना स्वीकार किया। गीतकार के रुप में उन्होंने अपना पहला गीत वर्ष 1949 में प्रदशत राजकपूर की फिल्म बरसात के लिए 'बरसात में तुमसे मिले हम सजन 'लिखा था। इसे संयोग हीं कहा जाए कि फिल्म बरसात से हीं बतौर संगीतकार शंकर जयकिशन ने अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
फिल्म बरसात की कामयबी के बाद गीतकार के रूप मे शैलेन्द्र और संगीतकार के रूप मे शंकर जयकिशन अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। शैलेन्द्र और संगीतकार शंकर जयकिशन की सुपरहिट गीत में कुछ
है'बरसात मे हम से मिले तुम सजन,बरसात 1949, आवारा हॅू या गदश मे हॅू आसमान का तारा हूॅ, दम भर जो उधर मुंह फेरे आवारा 1951, ऐ मेरे दिल कहीं और चल, गम की दुनिया से दिल भर गया, दाग 1952 प्यार हुआ इकरार हुआ है, मेरा जूता है जापानी,रमैया वस्ता वइया, श्री 420 1955,ये मेरा दीवानापन है, यहूदी 1958, सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी,किसी की मुस्कुराहटो पर हो निसा, अनाड़ी 1959,चाहे कोई मुझे जंगली कहे, जंगली 1961, बोल राधा बोल संगम होगा कि नही, संगम 1964,दीवाना मुझको लोग कहें, दीवाना 1967, मै गाऊ तुम सो जाओ,ब्रह्मचारी 1968 और जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां मेरा नाम जोकर 1970 आदि शैलेन्द्र अपने कैरियर के दौरान प्रोग्रेसिव रायटर्स एशोसिएशन के सक्रिय सदस्य के रूप मे जुडे रहे साथ हीं वह इंडियन पीपुल्स थिएटर 'इप्टा' के भी संस्थापक सदस्यों में से एक थे। शैलेन्द्र को उनके रचित गीतों के लिए तीन बार फिल्म फे यर अवार्ड से सम्मानित किया गया। उन्हें पहला फिल्म फेयर अवार्ड वर्ष 1958 में प्रदशत'यहूदी ' फिल्म के 'ए मेरा दीवानापन है'गाने के लिए दिया गया था। इसके बाद वर्ष 1959 में प्रदशत फिल्म अनाड़ी के गीत 'सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी ' और वर्ष 1968 में प्रदशत फिल्म बह्चारी के गीत 'मै गाऊ तुम सो जाओ' के लिए भी वह सर्वश्रोष्ठ गीतकार के रूप मे फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजे गए। ाजकपूर के अलावा शैलेन्द्र की जोड़ी निर्माता'निर्देशक विमल राय के साथ भी खूब जमी। विमलराय की कई फिल्मों में सदाबहार गीत लिखकर शैलेन्द्र ने उनकी फिल्मों को सफल बनाया है। इन फिल्मों में दो बीघा जमीन 1953, नौकरी 1955, परिवार 1956, मधुमति, यहूदी 1958, परख, उसने कहा था 1960, और बंदिनी 1963 प्रमुख है। अपने गीतो की रचना की प्रेरणा उन्हें मुंबई के जुहू बीच पर सुबह की सैर के दौरान मिलती थी। चाहे जीवन की कोई साधारण सी बात क्यों न हो वह अपने गीतों के जरिए जीवन की सभी पहलुओं को उजागर करते थे।
शैलेन्द्र ने संगीतकार सलिल चौधरी के साथ भी खूब काम किया। शैलेन्द्र'सलिल की जोड़ी वाली फिल्मो के गीतों में 'अजब तेरी दुनिया हो मोरे रामा, दो बीघा जमीन 1953, जागो मोहन प्यारे, जागते रहो 1956 आजा रे मै तो कब से खड़ी उस पार, टूटे हुए ख्वाबों ने, मधुमति 1958 अहा रिमझिम के प्यारे प्यारे गीत लिए आई रात सुहानी, उसने कहा था 1960, गोरी बाबुल का घर है अब बिदेशवा,चार दीवारी 1961,चांद रात तुम हो साथ, हॉफ टिकट 1962, ऐ मतवाले दिल जरा झूम ले, पिंजरे के पंछी 1966 जैसी कई सुपरहिट फिल्मों के गीत शामिल है। गीतकार के अलावा शैलेन्द्र ने नया घर 1953, बूट पालिश 1954,श्री 420 1955, और तीसरी कसम 1966 में अभिनय किया था। इसके अलावे उन्होनें फिल्म परख 1960 के डॉयलाग भी लिखे थे। बतौर निर्माता उन्होंने वर्ष 1966 में फिल्म तीसरी कसम का निर्माण किया लेकिन बॉक्स आफिस पर इसकी 'असफलता के बाद उन्हे गहरा सदमा पहुंचा जिसके बाद उनके मित्रों ने उन्हें किसी प्रकार का सहयोग करने से इंकार कर दिया। अपने मित्रों की बेरूखी और फिल्म तीसरी कसम की असफलता के बाद उन्हें कई बार दिल का दौरा पड़ा।
13 दिसंबर 1966 को अस्पताल जाने के क्रम में उन्होंने राजकपूर को आर के काटेज मे मिलने के लिए बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत 'जीना यहां मरना यहां 'क ो पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। इसे महज एक संयोग हीं कहा जाएगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था।
प्रेम कुमार
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फिल्म संसार
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शनिवार, 12 दिसंबर 2009
सितारों के बॉडी पार्ट की कीमत क्या?
मशहूर शख्सियतों द्वारा अपने बॉडी पार्ट का इंश्योरेंस करवाने का चलन तेज पकड़ता जा रहा है। हाल में मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने अपने पैर का भारी-भरकम इंश्योरेंस करवाया है।
चलिए हम आपको ऐसी शख्सियतों के बारे में बताते हैं, जिन्होंने अपने खास बॉडी पार्ट का भारी-भरकम इंश्योरेंस करवाया है।
क्रिस्टियानो रोनाल्डो
प्रोफेशन : फुटबॉलर, स्पैनिश क्लब रीयल मैड्रिड के लिए खेलते हैं
पांव : इंश्योरेंस की राशि 9 करोड़ पाउंड (तकरीबन 720 करोड़ रुपये)
डेविड बेकहम
प्रोफेशन : फुटबॉलर, लॉस एंजिलिस गैलैक्सी के लिए खेलते हैं।
पैर: इंश्योरेंस की राशि 7 करोड़ पाउंड (तकरीबन 560 करोड़ रुपये)
जेनिफेर लोपेज
प्रोफेशन: सिंगर और एक्ट्रेस
बट: इंश्योरेंस की राशि 2.70 करोड़ डॉलर ( तकरीबन 127.68 करोड़ रुपये)
जेमी ली कर्टिस
प्रोफेशन: एक्टर
पैर: इंश्योरेंस की राशि 20 लाख डॉलर (तकरीबन 9.40 करोड़ रुपये)
डॉली पार्टन
प्रोफेशन: सिंगर और एक्टर
छाती: इंश्योरेंस की राशि 6 लाख डॉलर (तकरीबन 2.83 करोड़ रुपये)
ब्रूस स्प्रिंगस्टीन
प्रोफेशन : सिंगर
आवाज: इंश्योरेंस की राशि 30 लाख डॉलर (14.18 करोड़ रुपये)
मर्व ह्यूज
प्रोफेशन: पूर्व ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर
मूंछ: इंश्योरेंस की राशि 3 लाख 17 हजार डॉलर (1.49 करोड़ रुपये)
तो, देखा आपने यानी सभी तरफ से सुख, खुशी और प्रशंसा। पर क्या ये सभी इतने खुश रह पाते हें। अच्छी नींद ले पाते हैं। क्या इनके पास अपनों के लिए समय है। फिर ये कैसे सुखी हो सकते हैं।
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009
भारत में कम होते भामाशाह
अमीर देश के गरीब लोगडॉ. महेश परिमल
उस दिन मेरी बिटिया निबंध पढ़ रही थी, जिस में लिखा था कि भारत एक अमीर देश है, जहाँ गरीब लोग रहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, भला ये क्या पढ़ रही है बिटिया? मैंने उसकी कॉपी ध्यान से देखी, लिखा तो सही था, क्लॉस में मैडम ने यही लिखवाया था। दिन भर यह वाक्य मेरे जेहन में घूमता रहा। यह सच है कि पहले भारत सोने की चिडिय़ा कहलाता था। इसके बाद गरीब देश हो गया, फिर बना विकासशील देश। लेकिन अब यह कैसे बन गया, अमीर देश, जहाँ गरीबों को प्रश्रय मिला है? ङ्क्षचतन प्रक्रिया से गुजरते हुए यह बात सामने आई कि सचमुच आज भारत तेजी से उद्योगपतियों का देश बन गया है, पर उससे भी दोगुनी तेजी से वह भामाशाहों से वंचित होने लगा है। इसी बीच एक खबर पढऩे को मिली कि एक कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर संजय सोमानी, जिसकी सालाना आय 63 लाख है, नई दिल्ली एयरपोर्ट पर 20 हजार का मोबाइल चोरी करते हुए पकड़ा गया। कैसी मानसिकता है, इंसान जितना अधिक अमीर होता है, उतना ही अधिक कंजूस होता जाता है। शायद यही स्थिति आज हमारे देश की है। पहले गरीब था, तो दानदाता अधिक थे, आज अमीर है, तो दानदाताओं का कहीं अता-पता नहीं।
कुछ वर्ष पहले जब बिल गेट्स भारत आए थे, तब उनके सम्मान में आयोजित समारोह में सोनिया गांधी ने कहा था कि भारत दानदाताओं का देश है। सोनिया जी ने यह बात भूतकाल के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर कही थी। आज यदि देश के दानदाताओं की ओर दृष्टि डालें, तो स्पष्ट होगा कि हमारे समाज में अब दानदाताओं की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। इसकी कुछ वजहें हैं। पहली तो यही कि आज हमारी कानूनी पेचीदगियाँ बढ़ गई हैं, यदि कहीं मोटी राशि दान में दी जाए, तो आयकर वाले पीछे पड़ जाते हैं। इस विभाग को समझाना बहुत ही कठिन है। व्यक्ति की जब आय होती है, तो यह विभाग उसके साथ-साथ होता है, पर जब वहीे व्यक्ति गरीब हो जाता है, तो यह विभाग उसकी ओर देखना भी ठीक नहीं समझता। इसके अलावा दूसरी मानसिकता यह भी है कि जब व्यक्ति दान देता है, तो वह चाहता है कि दान की राशि सही व्यक्ति तक पहुँचे। पर ऐसा हो नहीं पाता, दान की राशि संस्था के संचालकों का घर भर देती है, राशि सही लोगों तक नहीं पहुँच पाती। हाल ही में सलमान खान ने कैंसरग्रस्त एक बालिका के इलाज के लिए 5 लाख का चेक टाटा मेमोरियल हास्पीटल के नाम दिया। काफी समय गुजरने के बाद सलमान का पता चला कि उसके द्वारा दान में दी गई राशि उस बालिका तक नहीं पहुँच पाई। टाटा मेमोरियल जैसी संस्था और सलमान खान जैसे सेलिब्रिटी के साथ जब ऐसा हो सकता है, तो फिर साधारण लोगों द्वारा दी गई दान की राशि का क्या होता होगा? यही वजह है कि इंसान दान देने से कतराने लगा है।
अब भारत के अतीत की ओर झाँके। यही वह देश है, जहाँ कर्ण जैसे दानवीर पैदा हुए हैं। भामाशाह जैसे सेवक पैदा हुए हैं। यहीं पंडित मदन मोहन मालवीय और एनी बेसेंट ने मिलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर डाली। डेविड सासुन जैसे विदेशी व्यक्ति ने गेट वे ऑफ इंडिया के निर्माण में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1841 में लेडी अवाबाई जीजीभोये ने 1 लाख 57 हजार रुपए दान देकर साउथ मुंबई को माहिम से जोडऩे वाले कोज-वे का निर्माण करवाया। इसके निर्माण के पहले ही भारत सरकार के से यह समझौता कर लिया था कि इस रास्ते से गुजरने वाले राहगीर से टोल टैक्स नहीं लिया जाएगा। हाल ही में बांद्रा-वर्ली सी लिंक का उपयोग करने वालों से 50 रुपए टोल टैक्स के रूप में लिए जाते हैं। हमारे देश में आज भी कई मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारेे हैं, जहाँ लंगर का आयोजन होता है, यहाँ भोजन दान की राशि से बनता है। कई स्थानों के बारे में अभी तक यह पता नहीं चलता कि दान की राशि आती कहाँ से है? फिर भी धनपतियों में अब दान की इच्छा धीरे-धीरे समाप्त होने लगी है। दूसरी ओर विदेश से आने वाले बिल गेट्स, रिचर्ड गेरे, प्रिंस चाल्र्स धनपति अपने हितार्थ भारत में दान देते हैं, जिसे हम सहजता के साथ स्वीकार कर लेते हैं।
भारत में अंबानी, हिंदुजा, मित्तल और टाटा जैसे चार औद्योगिक समूह की संयुक्त संपत्ति की गिनती की जाए, तो वह करीब 60 मिलियन डॉलर होती है। इतनी राशि तो एक छोटे देश की पूरी सम्पत्ति होती है। इसके बाद भी इन लोगों द्वारा किए जा रहे दान से भारत की गरीबी को दूर करने में 'ऊँट के मुँह में जीराÓ साबित हो रही है। हाल ही में 'द ज्वाय ऑफ गिविंगÓ वीक का आयोजन किया गया। इसमें सचिन तेंदुलकर का चयन ब्रांड एम्बेसेडर के रूप में किया गया। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए एक बड़ी राशि दने वाली नंदिता दास ने कहा कि ऐसा नहीं है कि हमारे देश में दानदाताओं की संख्या कम हो रही है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो दान देकर भूल जाते हैं। उन्हें प्रचार पसंद नहीं है। इसलिए उनके दान की चर्चा नहीं होती। चर्चा केवल उन्हीं दान की होती है, जिसका प्रचार-प्रसार किया जाता है। इसलिए लोगों को लगता है कि देश में दानदाताओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। एक और वजह यह है कि दान देने वालों के पीछे आयकर विभाग पड़ जाता है। इसके अलावा लोगों में अब यह डर बैठ गया है कि दान की राशि सही हाथों तक नहीं पहुँचती। जो सलमान खान के साथ हुआ, वह सबके साथ हो सकता है। व्यवस्था से विश्वास उठने लगा है, लोगों का। यदि व्यवस्था सही हो जाए, इसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
दान के बारे में रतन टाटा कहते हैं कि पहले शैक्षणिक संस्था, अस्पताल बनाने के लिए दान दिया जाता था। पर अब दान का स्वरूप बदलने लगा है। अब दान, व्यक्ति के विकास और महिला भू्रण हत्या रोकने, जल बचाने एवं जनजागरण के लिए दिया जाने लगा है। अब उद्योगपति व्यक्तिगत दान देने के बजाए अपनी कंपनियों द्वारा स्थापित की गई कार्पोरेट फाउंडेशन को देने लगे हैं। दान पर ही उद्योगपति गोदरेज फाउंडेशन के चेयरपर्सन परमेश्वर गोदरेज कहते हैं कि समाज में परिवर्तन तभी आएगा, जब सक्षम व्यक्ति और संस्था सरकार के साथ संयुक्त रूप से प्रयास करने के लिए आगे आएँगे।
डॉ. महेश परिमल
उस दिन मेरी बिटिया निबंध पढ़ रही थी, जिस में लिखा था कि भारत एक अमीर देश है, जहाँ गरीब लोग रहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, भला ये क्या पढ़ रही है बिटिया? मैंने उसकी कॉपी ध्यान से देखी, लिखा तो सही था, क्लॉस में मैडम ने यही लिखवाया था। दिन भर यह वाक्य मेरे जेहन में घूमता रहा। यह सच है कि पहले भारत सोने की चिडिय़ा कहलाता था। इसके बाद गरीब देश हो गया, फिर बना विकासशील देश। लेकिन अब यह कैसे बन गया, अमीर देश, जहाँ गरीबों को प्रश्रय मिला है? ङ्क्षचतन प्रक्रिया से गुजरते हुए यह बात सामने आई कि सचमुच आज भारत तेजी से उद्योगपतियों का देश बन गया है, पर उससे भी दोगुनी तेजी से वह भामाशाहों से वंचित होने लगा है। इसी बीच एक खबर पढऩे को मिली कि एक कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर संजय सोमानी, जिसकी सालाना आय 63 लाख है, नई दिल्ली एयरपोर्ट पर 20 हजार का मोबाइल चोरी करते हुए पकड़ा गया। कैसी मानसिकता है, इंसान जितना अधिक अमीर होता है, उतना ही अधिक कंजूस होता जाता है। शायद यही स्थिति आज हमारे देश की है। पहले गरीब था, तो दानदाता अधिक थे, आज अमीर है, तो दानदाताओं का कहीं अता-पता नहीं।
कुछ वर्ष पहले जब बिल गेट्स भारत आए थे, तब उनके सम्मान में आयोजित समारोह में सोनिया गांधी ने कहा था कि भारत दानदाताओं का देश है। सोनिया जी ने यह बात भूतकाल के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर कही थी। आज यदि देश के दानदाताओं की ओर दृष्टि डालें, तो स्पष्ट होगा कि हमारे समाज में अब दानदाताओं की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। इसकी कुछ वजहें हैं। पहली तो यही कि आज हमारी कानूनी पेचीदगियाँ बढ़ गई हैं, यदि कहीं मोटी राशि दान में दी जाए, तो आयकर वाले पीछे पड़ जाते हैं। इस विभाग को समझाना बहुत ही कठिन है। व्यक्ति की जब आय होती है, तो यह विभाग उसके साथ-साथ होता है, पर जब वहीे व्यक्ति गरीब हो जाता है, तो यह विभाग उसकी ओर देखना भी ठीक नहीं समझता। इसके अलावा दूसरी मानसिकता यह भी है कि जब व्यक्ति दान देता है, तो वह चाहता है कि दान की राशि सही व्यक्ति तक पहुँचे। पर ऐसा हो नहीं पाता, दान की राशि संस्था के संचालकों का घर भर देती है, राशि सही लोगों तक नहीं पहुँच पाती। हाल ही में सलमान खान ने कैंसरग्रस्त एक बालिका के इलाज के लिए 5 लाख का चेक टाटा मेमोरियल हास्पीटल के नाम दिया। काफी समय गुजरने के बाद सलमान का पता चला कि उसके द्वारा दान में दी गई राशि उस बालिका तक नहीं पहुँच पाई। टाटा मेमोरियल जैसी संस्था और सलमान खान जैसे सेलिब्रिटी के साथ जब ऐसा हो सकता है, तो फिर साधारण लोगों द्वारा दी गई दान की राशि का क्या होता होगा? यही वजह है कि इंसान दान देने से कतराने लगा है।
अब भारत के अतीत की ओर झाँके। यही वह देश है, जहाँ कर्ण जैसे दानवीर पैदा हुए हैं। भामाशाह जैसे सेवक पैदा हुए हैं। यहीं पंडित मदन मोहन मालवीय और एनी बेसेंट ने मिलकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर डाली। डेविड सासुन जैसे विदेशी व्यक्ति ने गेट वे ऑफ इंडिया के निर्माण में आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1841 में लेडी अवाबाई जीजीभोये ने 1 लाख 57 हजार रुपए दान देकर साउथ मुंबई को माहिम से जोडऩे वाले कोज-वे का निर्माण करवाया। इसके निर्माण के पहले ही भारत सरकार के से यह समझौता कर लिया था कि इस रास्ते से गुजरने वाले राहगीर से टोल टैक्स नहीं लिया जाएगा। हाल ही में बांद्रा-वर्ली सी लिंक का उपयोग करने वालों से 50 रुपए टोल टैक्स के रूप में लिए जाते हैं। हमारे देश में आज भी कई मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारेे हैं, जहाँ लंगर का आयोजन होता है, यहाँ भोजन दान की राशि से बनता है। कई स्थानों के बारे में अभी तक यह पता नहीं चलता कि दान की राशि आती कहाँ से है? फिर भी धनपतियों में अब दान की इच्छा धीरे-धीरे समाप्त होने लगी है। दूसरी ओर विदेश से आने वाले बिल गेट्स, रिचर्ड गेरे, प्रिंस चाल्र्स धनपति अपने हितार्थ भारत में दान देते हैं, जिसे हम सहजता के साथ स्वीकार कर लेते हैं।
भारत में अंबानी, हिंदुजा, मित्तल और टाटा जैसे चार औद्योगिक समूह की संयुक्त संपत्ति की गिनती की जाए, तो वह करीब 60 मिलियन डॉलर होती है। इतनी राशि तो एक छोटे देश की पूरी सम्पत्ति होती है। इसके बाद भी इन लोगों द्वारा किए जा रहे दान से भारत की गरीबी को दूर करने में 'ऊँट के मुँह में जीराÓ साबित हो रही है। हाल ही में 'द ज्वाय ऑफ गिविंगÓ वीक का आयोजन किया गया। इसमें सचिन तेंदुलकर का चयन ब्रांड एम्बेसेडर के रूप में किया गया। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए एक बड़ी राशि दने वाली नंदिता दास ने कहा कि ऐसा नहीं है कि हमारे देश में दानदाताओं की संख्या कम हो रही है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो दान देकर भूल जाते हैं। उन्हें प्रचार पसंद नहीं है। इसलिए उनके दान की चर्चा नहीं होती। चर्चा केवल उन्हीं दान की होती है, जिसका प्रचार-प्रसार किया जाता है। इसलिए लोगों को लगता है कि देश में दानदाताओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। एक और वजह यह है कि दान देने वालों के पीछे आयकर विभाग पड़ जाता है। इसके अलावा लोगों में अब यह डर बैठ गया है कि दान की राशि सही हाथों तक नहीं पहुँचती। जो सलमान खान के साथ हुआ, वह सबके साथ हो सकता है। व्यवस्था से विश्वास उठने लगा है, लोगों का। यदि व्यवस्था सही हो जाए, इसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है।
दान के बारे में रतन टाटा कहते हैं कि पहले शैक्षणिक संस्था, अस्पताल बनाने के लिए दान दिया जाता था। पर अब दान का स्वरूप बदलने लगा है। अब दान, व्यक्ति के विकास और महिला भू्रण हत्या रोकने, जल बचाने एवं जनजागरण के लिए दिया जाने लगा है। अब उद्योगपति व्यक्तिगत दान देने के बजाए अपनी कंपनियों द्वारा स्थापित की गई कार्पोरेट फाउंडेशन को देने लगे हैं। दान पर ही उद्योगपति गोदरेज फाउंडेशन के चेयरपर्सन परमेश्वर गोदरेज कहते हैं कि समाज में परिवर्तन तभी आएगा, जब सक्षम व्यक्ति और संस्था सरकार के साथ संयुक्त रूप से प्रयास करने के लिए आगे आएँगे।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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