गुरुवार, 28 मई 2009
साबुन ने तय किया 110 साल का सफर
भारत में साबुन और डिटर्जेंट ने लंबा सफर तय किया है। ब्रिटिश शासन के दौरान लीवर ब्रदर्स इंग्लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन पेश करने
का जोखिम उठाया। कंपनी ने साबुन आयात किए और यहां उनकी मार्केटिंग की। हालांकि नॉर्थ वेस्ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी जिसने 1897 में यहां कारखाना लगाया।
उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पहला साबुन कारखाना खड़ा हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान साबुन उद्योग बुरे दौर से गुजर रहा था लेकिन इसके बाद देश भर में उद्योग खूब फला-फूला। साबुन की कामयाबी की एक अहम कड़ी में जमशेदजी टाटा ने 1918 में केरल के कोच्चि में ओके कोकोनट ऑयल मिल्स खरीदी और देश की पहली स्वदेशी साबुन निर्माण इकाई स्थापित की। इसका नाम बदलकर टाटा ऑयल मिल्स कंपनी कर दिया गया और उसके पहले ब्रांडेड साबुन बाजार में 1930 की शुरुआत में दिखने लगे।
1937 के करीब साबुन धनी वर्ग की जरूरत बन गया। साबुन को लेकर ग्राहकों की पसंद अलग-अलग रही है। इसे हम क्षेत्रवार वर्गीकरण के तहत समझ सकते हैं। उत्तर भारत में उपभोक्ता गुलाबी रंग के साबुन को तरजीह देते हैं जिसका प्रोफाइल फूल आधारित होता है। यहां साबुन की खुशबू को लेकर ज्यादा आधुनिक प्रोफाइल चुने जाते हैं जो उनकी जीवनशैली का अक्स दिखाएं। नींबू की महक के साथ आने वाले साबुन भी खासी लोकप्रियता रखते हैं क्योंकि उत्तर भारत में मौसम बेहद गर्म रहता है और नींबू के खुशबू रखने वाले साबुन को तरो-ताजा होने के लिए अहम माना जाता है। साबुन को लेकर पूर्वी भारत ज्यादा बड़ा बाजार नहीं है और यहां साबुन तथा डिटर्जेंट की खुशबू को लेकर ज्यादा संजीदगी नहीं दिखाई जाती। पश्चिमी भारत में गुलाब की महक रखने वाले साबुन पसंद किए जाते हैं।
देश के दक्षिणी हिस्से में हर्बल-आयुर्वेदिक और चंदन आधारित साबुन की मांग ज्यादा है। यहां का ग्राहक किसी ब्रांड विशेष को लेकर ज्यादा लॉयल नहीं होता और दूसरी कंपनी का साबुन इस्तेमाल करने को लेकर खुला रुख रखता है। साबुन की मार्केटिंग करते वक्त महिलाओं को खास तवज्जो दी जाती है, क्योंकि कौन सा साबुन खरीदना है, यह फैसला परिवार में काफी हद तक उन पर निर्भर करता है। इसके अलावा परिवारों को प्रभावित करने के लिए कीटाणु मारने वाले एंटी-बैक्टीरियल और शरीर की दुर्गंध दूर करने वाले साबुन पेश किए जाते हैं।
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बेहद सक्षिप्त सी परन्तु अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारी.. आभार..
जवाब देंहटाएंसाबुन की कहानी, आपकी जुबानी। बहुत बहुत मेहरबानी।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
rhiman paani rakhiye bin paani sab soon
जवाब देंहटाएंaur
nindak nyre rakhiye
bin paani sabun bina nirmal krt subhay
dono mein paani aur sabun ka jikr hai
sabun ki khani likhi hai aapne umda hai. sabun bechne mat lg jana ek to gandgi itni mach gai hai ki koi bhi sabun asrdar nhi rha.doosre hum tmhe btor ptrkar khona nhi chahte doctor. vaise akhwar ko product mamne walon se khoge to unke liye jaisa sabun vaisa akhwar.hmare liye to akhwar hwa paani jaise jroori hai jairamji ki
इस संक्षिप्त जानकारी के लिए आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी और उपयोगी जानकारी।
जवाब देंहटाएं