बुधवार, 13 मई 2009
अपने होने का असर दिखाता पानी
डा. महेश परिमल
पानी ने अपने होने का असर दिखाना शुरू कर दिया है। अखबारों की सुर्खियाँ बता रही हैं कि पानी के लिए हाहाकार मचना शुरू हो गया है। अभी तो यह शुरुआत है, गली-मोहल्लों से केवल झगड़े के अब बंद हो गए हैंैं। अब तो सिर-फुटौव्वल की नौबत आ गई है। बहुत ही जल्द इसका विकराल रूप हमारे सामने होगा। पानी अभी भी हमारे लिए राशन जितना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है, लेकिन जब यही पानी पेट्रोल से भी महँगा मिलेगा, तब शायद हमें समझ में आएगा कि सचमुच यह पानी को हमारे चेहरे का पानी उतारने वाला सिद्ध हुआ।
हमारे देखते-देखते ही पानी निजी हाथों में पहुँचने लगा। पानी का निजीकरण पहले यह बात हम सपने में भी नहीं सोच पाते थे, लेकिन आज जब सड़कों के किनारे पानी की खाली बोतलें, पॉलीथीन आदि देखते हैं, तब समझ में आता है कि यह पानी तो सचमुच कितना महँगा हो रहा है। लोग तो अब यह भी कहने से नहीं चूकरहे हैं कि निश्चित ही अगला विश्वयुद्ध पानी के कारण लड़ा जाएगा। विश्व युद्ध की बात छोड़ भी दें, तो यह कहा ही जा सकता है कि पाकिस्तान से यदि युद्ध हुआ तो उसका एक प्रमुख कारण यह पानी ही होगा।
हमारे मध्यप्रदेश में पानी की कमी लगातार महसूस की जा रही है। धरती की छाती में अनेक छेद ऐसे हो गए हैं, जहाँ से पानी खींचखींचकर हमने उसे पूरी तरह से सुखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। अभी भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। यह हालत यदि आँकड़ों से देखा जाए, तो स्थिति और भी भयावह होगी। आबादी के बढ़ते दबाव के साथ-साथ भू-गर्भ जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है।
बात शुरू करते हैं ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हेडपम्पों से। मध्यप्रदेश में स्थापित तीन लाख 36 हजार 999 हेंडपम्पों में से 33 हजार 600 हेडपम्प खराब हैं। ये घोषित आँकड़ें हैं, पर अघोषित आँकड़ों के अनुसार तो सिंचाई और पेयजल के लिए जगह-जगह धरती की छाती पर छेद किए जा रहे हैं। गर्मी में तो यह सिलसिला और भी तेज हो जाता है। यही हाल देश के हर प्रदेश का है। लोग धरती से पानी निकाल तो रहे हैं, पर उसे रिचार्ज करने का कोई उपाय नहीं करना चाहते। हम कितने नाकारा हो गए हैं। धरती माता ने अपना कर्तव्य पूरा किया, पर हम अपना कर्तव्य भूल गए। लानत है हम पर, जो धरती माता के बेटे होने का दंभ भरते हैं। निश्चित रूप से धरती माँ हमें कभी माफ नहीं करेगी। हमने उसके प्यार के साथ छलावा किया है। उसका दोहन तो खूब किया, पर उसे फिर से सँवारने का काम नहीं कर पाए। आज धरती प्यासी है, वह हमें प्यासा बना रही है, पर हम अभी तक उसके संदेश को नहीं समझ पाए हैं। धरती माँ ने हम पर अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया और हमने उसे हरियाली तक नहीं दी।
हमने आज नहीं यह नहीं सोचा कि केवल बिजली के लिए हमने एक भरा-पूरा शहर हरसूद खो दिया। यानी पानी के भंडारण के लिए एक शहर दे दिया। फिर भी हमारी भूख कम नहीं हुई है, यह लगातार बढ़ रही है। आज शहरों में रोज ही धरती की छाती पर कई छेद हो रहे हैं, हमारी सरकार अब तक खामोश है। पानी उलीचने का काम हमारे प्रदेश में बखूबी होता है, लेकिन इस धरती के भीतर पानी डालने के काम में पूरा प्रदेश सुस्त है। पेड़ लगातार कट रहे हैं, ऐसे में पानी कैसे जमा हो पाएगा, यह हमने नहीं सोचा। प्रदेश में हजारों आरा मशीनें हैं, जो लगातार काम कर रहीं हैं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पेड़ों की कटाई कितनी तेजी से हो रही है? वर्षा का पानी रोकना ही एकमात्र उपाय है, जिससे भू-गर्भ जल स्तर में बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन वर्षाजल रोकने के लिए अभी तक ऐसा कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुख, जिसे उपलव्धि कहा जाए।
आज कोई भी पानी की गंभीरता को नहीं समझ पा रहा है। गलती इनकी नहीं, बल्कि उन लोगों की है, जिन्होंने उन्हें बताया ही नहीं कि पानी मूल्यवान है। जिन स्थानों में पानी नहीं मिलता या फिर पानी का संकट है, उनसे पूछो कि क्या होता है जल संकट? आज चाहे महानगर हो या फिर कस्बा, पानी की बरबादी हर ओर देखी जा रही है। ऐश्वर्यशाली लोग तो पानी का अपव्यय ऐसे करते हैं, मानो ये पानी उन्हें मुत में मिल रहा हो।
यह सच है कि पानी का उत्पादन कतई संभव नहीं है। कोई भी उत्पादन कार्य बिना पानी के संभव नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की आवश्यकता बनी रहती है। पानी को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्षा जल को रोकना। इसे रोकने के लिए पेड़ों का होना अतिआवश्यक है। जब पेड़ ही नहीं होंगे, तब पानी जमीन पर ठहर ही नहीं पाएगा। अधिक से अधिक पेड़ों का होना याने पानी को रोककर रखना है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों ने जो विरासत के रूप में हमें नदी, नाले, तालाब और कुएँ दिए हैं, उन्हीं का रखरखाब यदि थोड़ी समझदारी के साथ हो, तो कोई कारण नहीं है कि पानी न ठहर पाए। पानी हमसे रुठ गया है। अभी तो यह धरती के 25 मीटर नीचे चला गया है, हमारी करतूतें जारी रहीं, तो यह और भी दूर चला जाएगा, इतनी दूर कि हम कितना भी चाहें, वह हमारे करीब नहीं आएगा।
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा। मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पडने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चैराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।
डा. महेश परिमल
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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