शनिवार, 9 मई 2009

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार...


निदा फ़ाज़ली
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार...
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार

लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौल्वी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मेरे के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम

सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूका रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप

सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता वाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ग़्यान


माँ को समर्पित meri dusari कविता ...........................

माँ ममता का आँचल है
माँ आँखों का काजल है
माँ श्रद्धा की चुनर है
माँ ममता की मूरत है
माँ करुणा का सागर है
माँ गागर मे सागर है
माँ सुंदर सी मूरत है
माँ भोली सी सूरत है
माँ माथे की बिदियाँ है
माँ आँखों की निदियाँ है
माँ हाथो का कंगन है
माँ मस्तक का चंदन है
माँ भोर की रौशनी है
माँ रात की चांदनी है
माँ गंगा का पानी है
माँ पतित पावनी है
माँ संकट हरनी है
माँ करुणा की जननी है
माँ हर छन हर मन मे है
माँ धरती के कण - कण मे है

चक्रेश जैन
आगरा
9897596109





माँ…
निदा फ़ाज़ली

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ

बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ

चिड़ियों के चहकार में गुँजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा,माथा,
आँखें जाने कहाँ गई
फटे पूराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ
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कानों में गुनगुनातीं हैं वो माँ की लोरियाँ।
बचपन में ले के जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

लग जाये जो कभी किसी अनजान सी नज़र,
नजरें उतार जाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

भटकें जो राह हमारा कभी अपनों के साथ से,
आके हमें मिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

हो ग़मज़दा जो दिल कभी करता है याद जब,
हमको बड़ा हँसाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

अफ़्सुर्दगी कभी हो या तनहाई हो कभी,
अहसास कुछ दिलाती है वो माँ की लोरियाँ।

पलकों पे हाथ फ़ेरके ख़्वाबों में ले गइ,
मीठा-मधुर गाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

दुनिया के ग़म को पी के जो हम आज थक गये,
अमृत हमें पिलाती हैं वो माँ की लोरियाँ।

माँ ही हमारी राहगीर ज़िंदगी की है,
जीना वही सिखाती है वो माँ की लोरियाँ।

अय “राज़” माँ ही एक है दुनिया में ऐसा नाम,
धड़कन में जो समाती हैं वो माँ की लोरियाँ।
रज़िया “राज़”

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माँ


माँ होती है प्यारी
खुशियाँ देती सारी
लोरियाँ सुनाती है
गोद में सुलाती है
रूठो तो मनाती है
रोओ तो बहलाती है
माँ को नही सताएँगे
हम दूध-मलाई खाएँगे
माँ जो रूठी यह जग रूठा
माँ ही सच्ची सब जग झूठा

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माँ, मेरी माँ,

मेरी बिनपढी माँ,
तमाम विज्ञापनो
और नारीवादी नारों से दूर
सहज ही चूम लेती है
मेरे बच्चों का मुँह
हिलाती-दुलारती है
भावावेश में बार-बार
तान देती है, आँचल का बादल
सूरज देवता की नज़र न लगे
बच्चों के गालों पर काला टीका लगाती है
भोजपत्र और भालूदाँत वाली ताबीज़ बाँधकर
टोना टोटका से बचाती है
हजार यत्न करती है, बच्चों को हँसाने के लिए
थपकियों की जादू से, सुला देती है बच्चों को
अपनी गँवई बोली में / कुछ भी गुनगुनाकर
बच्चों के रूठने पर समझाती है -
" अन्न का अपमान नही करते बेटा,
नाराज़ होती है अन्नपूर्णा माई। ''
सौ-सौ बलाएँ लेती हैं, सिसक उठती है
मुझे और बच्चों को दूर होते देखकर
भभाकर रो देती है
माँ जो सदा माँ होती है।

डॉ. नंदन


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माँ मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ

कई बार मै सोचता हूँ
की मै तुमसे कहूं -
की माँ मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ
पर मै तुमसे कभी तो नही
कह पाता हूँ ।
और शब्दों से शायद
मै कह भी नही पाऊंगा ,
शब्दों में सामर्थ्य ही नही है
भावों को व्यक्त कर पाने की ।
पर मै जब भी अकेला
भावों में डूबा
तेरे आशीष , ममता
और स्नेह की गर्माहट
को महसूस करता हूँ ,
तब न जाने कब
दो बूँद मोटी
पलकों से टपक जाते है
और वो ही कर पाते है
मेरे भावों को व्यक्त ,
और वो कहते है -
की "माँ " , मै तुमसे बहुत प्यार करता हूँ ।
देवेश
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माँ के चेहरे पर

दु;खों के जंगल रहते हैं

फिर भी उसके आँचल में

सुख की

घनी छाया
किलकती है।
माँ की पथरायी आँखों में अब
न सागर लहराते हैं न सपने ।
सभ्यता की धूसरित दीवार से टँगी
वह एक जीवित तस्वीर है केवल
जहाँ तुम्हारे शब्दों से अलग
इतिहास के पन्ने फड़फडा़ते हैं
तुम्हें आगाह करते कि
माँ पृथ्वी है घूमती हुई
अँधेरे को उजास में बदलती हुई
जिसकी गुफ़ाओं में एक सूर्य उदीयमान है
रोम-रोम में जीवन की जोत जगाता हुआ,
तुम्हारे शब्दों और भाषाओं की गहरी
काली रात हरता हुआ ।
सुशील कुमार

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