बुधवार, 19 अगस्त 2009

बुंदेली यातना गीत- मार्मिक गीत


दोस्तो,
हम सभी जानते हैं कि देश की गुलामी के दौरान अँगरेजों ने हमें किस तरह से प्रताडि़त किया। ये अत्याचारी आज भी हमारे आसपास ही हैं। पर उन्हें पहचानने के लिए हमारी दृष्टि ही खो गई है। मुझे इतिहास का वह मार्मिक पन्ना मिला, जिसमें बुंदेली के एक लोक कवि खान फकीरे ने किसी छद्म नाम से अँगरेजों के अत्याचार को लिपिबद्ध किया है। पढ़कर सचमुच रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस अत्याचार से पीडि़त इंसान जब रोते थे, तब अँगरेजों के बच्चे हँसते थे। अत्याचार को कवि ने किस तरह से शब्दबद्ध किया है, यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंंकि उस समय स्थिति यह थी कि यदि अँगरेजों को इसका पता चल गया, तो वह उसे अपने तरीके से प्रताडि़त कर मरवा डालते थे। आप शब्दों की बानगी देखें:-
1. चूना मूडऩ पे बुझवा दये.....
हाथ पाँव में कीला ठोके
पाछे से संघवा दये।
तेरा दिना चार मइना लौ,
गौरन खून बहा दये।
जार दओ है विला बिलखुरा
लूटों जन भगवा दये।
अंग्रेजन खाँ बुला इनन ने,
बंटाधार करा दये।
खान फकीरे कां लौ कइये
ऐसे हाल करा दये


इसकी पहली पंक्ति को विस्तार से जानने का प्रयास करें। सर पर कपड़ा लपेट दिया जाता था, उसके भीतर चूना डाल दिया जाता था। फिर चूने पर पानी डाला जाता था। इससे इंसान के पहले तो बाल जल जाते थे, फिर चमड़ी, उसके बाद सर का मांस और फिर हड्डी। सोचो, कितना हृदय विदारक दृश्य होता होगा। इंसान तिल-तिलकर मरता होगा। कितनी पीड़ा होती होगी उसे?
2. डारे टुडिऩ बीच गुबरैला....
कठवा में संदवा के बादो, पेट बीच में पैला
चिचियाबो सुन हँसत रये अंगे्रजन के छैला,
फारो पेट घुसत गओ, भतर भरे रकत के घैला
ऐसे जुलम ढाये गोरन ने सुनत होये मन मैला
रामाधान जान सें जा ीाये, गोरन खां भओ खेला।।

गुबरैले कीड़े के माध्यम से किस तरह से इंसान को प्रताडि़त किया
जाता था। पहले आदमी की नाभी पर गोबर रखा जाता था, उस पर गुबरैला कीड़ा डाला जाता। इसके बाद उस पर गर्म पानी से भरा लोटा रखा जाता जाता। सभी जानते हैं कि गुबरैले कीड़े को ठंडी जगह पसंद है। इसलिए वह लोटे के गर्म पानी से दूर भागता है। उसे जगह नहीं मिलती, तो वह इंसान की नाभी को छेद कर पेट के अंदर चला जाता है। सोचो कितनी पीड़ा होती होगी?

देसी रियासतों में आम नागरिकों की छोटी-छोटी गलतियों पर जूतों से सरे आम पिटाई करवाई जाती थी। जूतोंं के नाम थे दिल बिगार और मनप्यारी। तत्कालीन छतरपुर रियासत से गीत प्राप्त हुआ, श्री अवधेश नारायण तिवारी के प्रयत्नों सेङङङङङ
1. चटके दिल बिगार, मनप्यारी
भौतऊ हैं हत्यारी
कर उघरारी पीछें इकझर
घल रई नौन बघारीं
ऐसों परे चटाकौ उनकी
सनुवै दुनिया सारी
खाल उधर कें रकत चुचाबै
सुद-बुद सबई बिसारी
चेत सीग इन पना, पनइयन
सें हारी संसारी

डॉ महेश परिमल

यह जानकारी मुझे आकाशवाणी भोपाल में कार्यरत सुरेंद्र तिवारी जी से प्राप्त हुई। अधिक जानकारी के लिए आप उनसे इन नम्बर पर बात कर सकते हैं ९४२५१३५९३५

2 टिप्‍पणियां:

  1. हम भी सिहर उठे....यकीन नहीं होता इंसान इंसान को जानवर जैसे कैसे समझ लेता है... ऐसा कल भी होता था...आज भी होता है लेकिन बदले हुए रूप में....!

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  2. ये सब पढ़कर जहाँ भीतर तक मन सिहर जाता है वहीं ये सोच कर भी पीड़ा होती है कि आज़ादी को हमने कितना सस्ता समझ लिया है ... ना अपने देश से और ना ही समाज से हम कोई जुड़ाव रखना चाहते हैं। केवल अपने तक सीमित है हमारी सोच की दिशायें

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