गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017
कुछ कविताएँ - अर्चना सिंह 'जया'
कविता का अंश...
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे...
मेघ देख शोर मचाते बच्चे,
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
छप-छप पानी में कूद लगाते
कीचड़ में खुद को डुबोते
रिम-झिम बारिश की बॅूंदों में
झूम-झूम कर हॅंसते गाते।
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
मोर पंख से रंग बिरंगे
सपने इनके बाहर निकलते
कपड़ों की न चिंता करते
दौड़ भाग कर धूम मचाते।
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
पापा-मम्मी की एक न सुनते
हरदम अपने दिल की करते
तन मन अपना खुशियों से भरते।
पाठशाला से जब घर जाते बच्चे।
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कुछ कविताएँ – जयकृष्ण राय तुषार
कविता का अंश…
फिर मौसम बाँहों में भरना….
आएँगे, फिर अच्छे दिन आएँगे। हम खेतों में धान रोपकर गाएँगे। कुछ दिन और प्रतीक्षा करना, फिर मौसम बाँहों में भरना, सुख के दिन राहों में फूल सजाएँगे। प्रकृति होंठ पर दही लगा आचमन करेगी, कहीं अजंता, कहीं एलोरा माँग भरेंगी, पीले बाँसों में करील अंखुआएँगे। हारिल तोते टहनी-टहनी डोलेंगे, हम भी उनकी ही भाषा में बोलेंगे, पपीहे पंचम दा के सुर में गाएँगे। आसमान के बादल होंगे झीलों में, स्वप्न हमारे होंगे कोसों मीलों में, हम हाथों में कोई हाथ दबाएँगे। आएँगे, फिर अच्छे मौसम आएँगे। ऐसी ही अन्य भावपूर्ण कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017
बाल कविता – सूरज क्या सिखलाता है
कविता का अंश…
माँ, यह मुझे बता दो, सूरज नित्य कहाँ जाता है?
क्यों होते ही प्रात: पुन: नभ पथ पर आ जाता है?
बेटा, दिन भर चलते-चलते जब दिनकर थक जाता है,
करता तब विश्राम, सवेरे आता वह सिखलाता –
करो शक्ति भर काम कि जब तक, मैं नभ में चलता हूँ।
सो जाओ चुपचाप रात में जैसा मैं करता हूँ,
किन्तु प्रात: होते ही जग जाओ, मत देर लगाओ।
नित्य क्रिया से निपट काम में अपने तुम लग जाओ।
माँ, दिनकर-सा ही जब डटकर मैं भी काम करूँगा,
क्या वैसा ही ऊपर उठकर मैं भी चमक सकूँगा?
बेटा, जब तुम काम करोगे, तन-मन, हृदय लगाकर,
अपने में विश्वास जमाकर,
भय, आलस्य भगाकर,
यश पाओगे, सुख पाओगे,
विजयी कहलाओगे।
चमक उठोगे तब तो तुम भी
निश्चय दिनकर-सा ही,
तुम्हें देखकर राह पाएँगे, भ
भूले-भटके राही।
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बाल कविता

बाल कविता – सच्चा मित्र
कविता का अंश…
करो मित्र की मदद हमेशा, तन-मन, धन से खुश होकर,
उसको जो भी काम पड़े तो करो उसे पूरा हँसकर।
खाना हो जब पास तुम्हारे, उसे खिलाकर तुम खाओ,
फल मेवा हो या कि मिठाई, आपस में मिलकर खाओ।
बोझ उठाता हो जब साथी, तुम भी उसकी मदद करो,
पड़ जाए बीमार अगर वह, सेवा उसकी सदा करो।
साथी भी हर एक काम में, हँसकर हाथ बँटाएगा,
काम पड़ेगा कभी तुम्हें तो पूरा कर दिखलाएगा।
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बाल कविता

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017
बाल कविता – चूहे की दिल्ली यात्रा- रामधारी सिंह ‘दिनकर’
कविता का अंश…
चूहे ने यह कहा कि चुहिया छाता और छड़ी दो,
लाया था जो बड़े सेठ के घर से वह पगड़ी दो।
मटर-मूँग जो कुछ घर में है वही सभी मिल खाना,
खबरदार तुम लोग कभी बिल के बाहर मत आ जाना।
बिल्ली एक बड़ी पाजी है रहती घात लगाए,
न जाने कब किसे दबोचे किसको चट कर जाए।
सो जाओ सब लोग लगाकर दरवाजे पर किल्ली,
आजादी का जश्न देखने मैं जा रहा हूँ दिल्ली।
दिल्ली में देखूँगा आजादी का नया जमाना,
लाल किले पर खूब तिरंगे झंडे का लहराना।
अब न रहे अँग्रेज़ देश पर काबू है अब अपना,
पहले जहाँ लाट साहब थे, राष्ट्रपित है अपना।
घूमूँगा दिन रात करूँगा बातें नहीं किसी से,
हाँ फुरसत जो मिली, मिलूँगा मैं प्रधानमंत्री से।
गांधी युग में कौन उड़ाए चूहों की अब खिल्ली,
आजादी का जश्न देखने मैं जा रहा हूँ दिल्ली।
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बाल कहानी – सच्चा हीरा
कहानी का अंश…
सूर्य अस्त होने को था। पक्षी चहचहाते हुए अपने घोंसलों की ओर लौट रहे थे। गाँव की चार स्त्रियाँ एक कुएँ पर पानी भरने आई। अपने- अपने घड़ों में पानी भरकर वे इधर-उधर की बातें करने लगी। एक स्त्री बोली – भगवान सबको मेरे जैसा बेटा दे। वह लाखों में एक है। उसका कंठ बहुत सुरीला है। लोग उसके गीतों को सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। सच कहूँ तो मेरा बेटा तो हीरा है। उसकी बात सुनकर दूसरी स्त्री से रहा नहीं गया। वह भी अपने बेटे की प्रशंसा करने लगी और बोली – बहन, मेरा बेटा बहुत शक्तिशाली और साहसी है। वह तो आज के युग का भीम है। दोनों स्त्रियों की बातें सुनकर तीसरी भला चुप कैसे रहती? वह भी बोल पड़ी – बहन, मेरा बेटा तो इतना बुद्धिमान है कि वह जो कुछ पढ़ता है, उसे एकदम कंठस्थ हो जाता है। उसके कंठ में तो माता सरस्वती का वास है। तीनों स्त्रियों की बातें सुनकर भी चौथी स्त्री चुपचाप बैठी रही। उसका भी एक बेटा था। पर उसने उसकी प्रशंसा में कुछ भी नहीं कहा। पहली स्त्री ने उसे टोकते हुए कहा – तुमने अपने बेटे के विषय में कुछ नहीं बताया। चौथी स्त्री बोली – मैं अपने बेटे की क्या प्रशंसा करूँ? न तो वह अच्छा गायक है और न ही भीम जैसा पहलवान। जब वे अपने –अपने घड़े सिर पर रखकर लौटने लगी, तभी उन्हें एक मधुर गीत सुनाई दिया। उसे सुनते ही पहली स्त्री बोल उठी – मेरा हीरा आ रहा है। तुमने सुना? उसका कंठ कितना मधुर है? वह लड़का गीत गाता हुआ, उसी रास्ते निकल गया। उसने अपनी माँ की ओर ध्यान तक नहीं दिया। थोड़ी देर बाद ही दूसरी स्त्री का बेटा भी उधर से आता दिखाई दिया। उसे देखकर दूसरी स्त्री बोली – देखो, वह मेरा लाडला बेटा आ रहा है। उसका बलिष्ठ शरीर तो देखो। वह बेटा भी माँ की ओर देखे बिना निकल गया। थोड़ी ही देर में तीसरी स्त्री का बेटा भी संस्कृत के श्लोक बोलता हुआ वहाँ से गुजरा। वह भी माँ की ओर देखे बिना ही चला गया। चारों स्त्रियाँ अभी थोड़ा ही आगे बढ़ी होगी कि चौथी स्त्री का बेटा भी उधर से आ निकला। आगे क्या हुआ? उस बेटे के मन में अपनी माँ के प्रति कैसे भाव थे? क्या वह भी अन्य बेटे के समान ही था? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए इस अधूरी कहानी का पूरा आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए….
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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017
कहानी - दुष्यन्त पुत्र - राजा भरत
दुष्यन्त पुत्र भरत की ऐतिहासिक कहानी... कहानी का अंश...
हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए है. इन महापुरुषों ने अपने बचपन में ही ऐसे कार्य किये जिन्हें देखकर उनके महान बनने का आभास होने लगा था. ऐसे ही एक वीर, प्रतापी व साहसी बालक भरत थे.
भरत हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त के पुत्र थे. राजा दुष्यन्त एक बार शिकार खेलते हुए कण्व ऋषि के आश्रम पहुंचे, वहां शकुन्तला को देखकर वह उस पर मोहित हो गये और शकुन्तला से आश्रम में ही गंधर्व विवाह कर लिया. आश्रम में ऋषि कण्व के न होने के कारण राजा दुष्यन्त शकुन्तला को अपने साथ नहीं ले जा सके. उन्होंने शकुन्तला को एक अँगूठी दे दी जो उनके विवाह की निशानी थी.
एक दिन शकुन्तला अपनी सहेलियों के साथ बैठी दुष्यन्त के बारे में सोच रही थी. उसी समय दुर्वासा ऋषि आश्रम में आये. शकुन्तला दुष्यन्त की याद में इतना अधिक खोई हुई थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के आने का पता ही नहीं चला. शकुन्तला ने उनका आदर – सत्कार नहीं किया. जिससे क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि ने शकुन्तला को शाप दिया कि ‘ जिसकी याद में खोये रहने के कारण तूने मेरा सम्मान नहीं किया, वह तुझको भूल जायेगा’.
ऋषि दुर्वासा शंकर के अंश से उत्पन्न अनुसूया और अत्रि के पुत्र थे. ये अत्यंत क्रोधी थे.
शकुन्तला की सखियों ने क्रोधित ऋषि से अनजाने में उससे हुए अपराध को क्षमा करने के लिए निवेदन किया. ऋषि ने कहा- ‘मेरा शाप का प्रभाव समाप्त तो नहीं हो सकता किन्तु दुष्यन्त द्वारा पहनाई गयी अँगूठी को दिखाने से उन्हें विवाह का स्मरण हो जायेगा’.
कण्व ऋषि जब आश्रम वापस आये तो उन्हें शकुन्तला के गंधर्व विवाह का समाचार मिला. उन्होंने एक गृहस्थ की भांति अपनी पुत्री को पति के पास जाने के लिए विदा किया. शकुन्तला के पास राजा द्वारा दी गयी अँगूठी नहीं थी. शाप के प्रभाव से दुष्यन्त अपने विवाह की घटना भूल चुके थे. वे शकुन्तला को पहचान नहीं सके. निराश शकुन्तला को उसकी माँ मेनका अप्सरा ने कश्यप ऋषि के आश्रम में रखा. उस समय वह गर्भवती थी. इसी आश्रम में दुष्यन्त के पुत्र भारत का जन्म हुआ.
भरत बचपन से ही वीर और साहसी था. वह वन के हिंसक पशुओ के साथ खेलता और सिंह के बच्चो को पकड़ कर उनके दांत गिनता था. उसके इन निर्भीक कार्यो से आश्रमवासी उसे सर्वदमन कह कर पुकारते थे.
समय का चक्र ऐसा चला कि राजा को वह अँगूठी मिल गयी जो उन्होंने शकुन्तला को विवाह के प्रतीक के रूप में दी थी. अँगूठी देखते ही उनको विवाह की याद ताजा हो गयी. शकुन्तला की खोज में भटकते हुए एक दिन वह कश्यप ऋषि के आश्रम में पहुंच गये जहाँ शकुन्तला रहती थी. उन्होंने बालक भरत को शेर के बच्चो के साथ खेलते देखा.
राजा दुष्यन्त ने ऐसे ही साहसी बालक को पहले कभी नहीं देखा था. बालक के चेहरे पर अद्भुत तेज था. दुष्यन्त ने बालक भरत से उसका परिचय पूछा. भरत ने अपना और अपनी माँ का नाम बता दिया. दुष्यन्त और भरत की बातचीत हो रही थी, उसी समय आकाशवाणी हुई की ‘ दुष्यन्त यह तुम्हारा ही पुत्र है’ इसका भरण पोषण करो’ क्योंकि आकाशवाणी ने भरण की बात कही थी इसलिए दुष्यन्त ने अपने पुत्र का नाम भरत रखा.
दुष्यन्त ने भरत का परिचय जानकर उसे गले से लगा लिया और शकुन्तला के पास गये. अपने पुत्र व पत्नी को लेकर वह हस्तिनापुर वापस लौट आये. हस्तिनापुर में भरत की शिक्षा – दीक्षा हुई. दुष्यन्त के बाद भरत राजा बने. उन्होंने अपने राज्य की सीमा का विस्तार सम्पूर्ण आर्यावर्त (उत्तरी, मध्य भारत ) में कर लिया. अश्वमेघ यज्ञ कर उन्होंने चक्रवती सम्राट की उपाधि प्राप्त की.
चक्रवती सम्राट भरत ने राज्य में सुदृढ़ न्याय व्यवस्था और सामाजिक एकता (सदभावना) स्थापित की. उन्होंने सुविधा के लिए अपने शासन को विभिन्न विभागों में बाँट कर प्रशासन में नियन्त्रण स्थापित किया. भरत की शासन प्रणाली से उनकी कीर्ति सारे संसार में फ़ैल गयी.
शेरो के साथ खेलने वाले इस ‘भरत’ के नाम पर ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा.
(पौराणिक ग्रंथ से साभार)
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कहानी - आज्ञाकारी बालक नचिकेता
कहानी का अंश...
नचिकेता की कहानी
बहुत पुरानी बात है जब हमारे यहाँ वेदों का पठन – पाठन होता था. ऋषि आश्रमों में रहकर शिष्यों को वेदों का ज्ञान देते थे. उन दिनों एक महर्षि थे वाजश्रवा. वे महान विद्वान और चरित्रवान थे. नचिकेता उनके पुत्र थे. एक बार महर्षि वाजश्रवा ने ‘विश्वजीत’ यज्ञ किया और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि इस यज्ञ में मैं अपनी सारी संपत्ति दान कर दूंगा.
कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा. यज्ञ की समाप्ति पर महर्षि ने अपनी सारी गायों को यज्ञ करने वालो को दक्षिणा में दे दिया. दान देकर महर्षि बहुत संतुष्ट हुए.
बालक नचिकेता के मन में गायों को दान में देना अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे गायें बूढी और दुर्बल थी. ऐसी गायों को दान में देने से कोई लाभ नहीं होगा. उसने सोचा पिताजी जरुर भूल कर रहे है. पुत्र होने के नाते मुझे इस भूल के बारे में बताना चाहिए.
नचिकेता पिता के पास गया और बोला, पिताजी आपने जीन वृद्ध और दुर्बल गायों को दान में दिया है उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी कि ये दूसरे को दी जाएँ.
महर्षि बोले, मैंने प्रतिज्ञा की थी कि, मैं अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दूँगा, गायें भी तो मेरी सम्पत्ति थी. अगर मैं दान न करता तो मेरा यज्ञ अधूरा रह जाता.
नचिकेता ने कहा, ” मेरे विचार से दान में वही वास्तु देनी चाहिए जो उपयोगी हो तथा दूसरो के काम आ सके फिर मैं तो आपका पुत्र हूँ बताइए आप मुझे किसे देंगे ?
महर्षि ने नचिकेता की बात का कोई उत्तर नहीं दिया परन्तु नचिकेता ने बार – बार वही प्रश्न दोहराया. महर्षि को क्रोध आ गया. वे झल्लाकर बोले, ” जा, मैं तुझे यमराज को देता हूँ.
नचिकेता आज्ञाकारी बालक था. उसने निश्चय किया कि मुझे यमराज के पास जाकर अपने पिता के वचन को सत्य करना है. अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा तो भविष्य में मेरे पिता जी का सम्मान नहीं होगा.
नचिकेता ने अपने पिता से कहा, ” मैं यमराज के पास जा रहा हूँ. अनुमति दीजिये. महर्षि असमंजस में पड़ गये. काफी सोच – विचार के बाद उन्होंने ह्रदय को कठोर करके उसे यमराज के पास जाने की अनुमति दी.
नचिकेता यमलोक पहुँच गया परन्तु यमराज वहां नहीं थे. यमराज के दूतों ने देखा कि नचिकेता का जीवनकाल अभी पूरा नहीं हुआ है. इसलिए उसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन नचिकेता तीनो दिन तक यमलोक के द्वार पर बैठा रहा.
चौथे दिन जब यमराज ने बालक नचिकेता को देखा तो उन्होंने उसका परिचय पूछा. नचिकेता ने निर्भीक होकर विनम्रता से अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि वह अपने पिताजी की आज्ञा से वहां आया है |
यमराज ने सोचा कि यह पितृ भक्त बालक मेरे यहाँ अतिथि है. मैंने और मेरे दूतों ने घर आये हुए इस अतिथि का सत्कार नहीं किया. उन्होंने नचिकेता से कहा, ” हे ऋषिकुमार, तुम मेरे द्वार पर तीन दिनों तक भूखे – प्यासे पड़े रहे, मुझसे तीन वर मांग लो
नचिकेता ने यमराज को प्रणाम करके कहा, ” अगर आप मुझे वरदान देना चाहते है तो पहला वरदान दीजिये कि मेरे वापस जाने पर मेरे पिता मुझे पहचान ले और उनका क्रोध शांत हो जाए.
यमराज ने कहा- तथास्तु, अब दूसरा वर माँगो.
नचिकेता ने सोचा पृथ्वी पर बहुत से दुःख है, दुःख दूर करने का उपाय क्या हो सकता है ? इसलिए नचिकेता ने यमराज से दूसरा वरदान माँगा-
स्वर्ग मिले किस रीति से, मुझको दो यह ज्ञान |
मानव के सुख के लिए, माँगू यह वरदान ||
यमराज ने बड़े परिश्रम से वह विद्या नचिकेता को सिखाई. पृथ्वी पर दुःख दूर करने के लिए विस्तार में नचिकेता ने ज्ञान प्राप्त किया. बुद्धिमान बालक नचिकेता ने थोड़े ही समय में सब बातें सीख ली. नचिकेता की एकाग्रता और सिद्धि देखकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने नचिकेता से तीसरा वरदान माँगने को कहा |
नचिकेता ने कहा, ” मृत्यु क्यों होती है ? मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है ? वह कहाँ जाता है ?
यह प्रश्न सुनते ही यमराज चौंक पड़े. उन्होंने कहा, ” संसार की जो चाहो वस्तु माँग लो परन्तु यह प्रश्न मत पूछो किन्तु नचिकेता ने कहा, ” आपने वरदान देने के लिए कहा, अतः आप मुझे इस रहस्य को अवश्य बतायें |
नचिकेता की दृढ़ता और लगन को देखकर यमराज को झुकना पड़ा.
उन्होंने नचिकेता को बताया की मृत्यु क्या है ? उसका असली रूप क्या है ? यह विषय कठिन है इसलिए यहाँ पर समझाया नहीं जा सकता है किन्तु कहा जा सकता है कि जिसने पाप नहीं किया, दूसरो को पीड़ा नहीं पहुँचाई, जो सच्चाई के राह पर चला उसे मृत्यु की पीड़ा नही होती. कोई कष्ट नहीं होता है.
इस प्रकार नचिकेता ने छोटी उम्र में ही अपनी पितृभक्ति, दृढ़ता और सच्चाई के बल पर ऐसे ज्ञान को प्राप्त कर लिया जो आज तक बड़े – बड़े पंडित, ज्ञानी और विद्वान् भी न जान सके | (पौराणिक ग्रंथों से साभार)
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बुधवार, 15 फ़रवरी 2017
कुछ ग़ज़लें - 2 - विनोद कुमार दवे
ग़ज़ल का अंश....
तुम्हें न भूल पाते है
हम खामोश है मगर तुम्हें भूल न पाते हैं
दिल से सदा देकर तुम्हीं को तो बुलाते हैं।
और तो क्या करें दुनिया के रिवाजों का,
आओ मेरे यार इनकी होली जलाते है।
इन दीवारों को कभी तो गिरना है ही,
हम दोनों मिलकर ये दूरी मिटाते है।
नफ़रत के आगोश में जी लिए जिन्हें जीना था,
हम तो खुशबु-ए- इश्क़ की हवा चलाते है।
मत रहो उदास इन हसीन लम्हों के दरमियान
थोड़ा तुम मुस्करा दो थोड़ा हम मुस्कराते है।
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ई-मेल - davevinod14@gmail.com
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ग़ज़ल,
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कुछ ग़ज़लें -1 - विनोद कुमार दवे
परिचय -
साहित्य जगत में नव प्रवेश। पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में रचनाएं प्रकाशित।
अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत।
ग़ज़ल का अंश...
• दिल में अश्कों का दरिया है....
इतनी कोशिशों के बाद भी तुम्हें कहाँ भूल पाते हैं,
दीवारों से बचते हैं तो दरवाजे टकराते हैं।
कौन रुलाए कौन हँसाए मुझको इस तन्हाई में,
ख़ुद के आंसू हाथों में ले ख़ुद को रोज हंसाते है।
जाने क्या लिख डाला है हाथों की तहरीरों में
अपनी किस्मत की रेखाएं उलझाते है, सुलझाते है।
तुझको किन ख़्वाबों में खोजूँ जागी-जागी रातों में
ख़ुद से इतनी दूरी है कि ख़ुद को ढूंढ़ न पाते है।
तेरी यादें दिल में इस हद तक गहरी बैठ गई है
तेरी यादों के दलदल में ख़ुद को भूल जाते है।
तुमने सोचा होगा बिन तेरे हम खुश कैसे है
दिल में अश्कों का दरिया है, बाहर हम मुस्काते है।
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कहानी – इश्क के रंग हजार – रीता गुप्ता
कहानी का अंश… कितने सालों से अकेलेपन का दंश झेलती सौम्या के जीवन में एक ठहराव आ चुका था। अपनी नौकरी और जिंदगी को एकरसता से जीते-जीते वह मशीन बन चुकी थी। जीवन के सब रंग उसके लिए एक हो गए थे। फिर इधर कुछ दिनों से वह गौर करने लगी कि सामने के फ्ले ट में रहनेवाला एक व्यक्ति उसे बहुत ध्यान से देखने लगा है। पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया, पर हर दिन सौम्या जब चाय और पेपर लेकर बालकनी में आती, तो देखती वह उसे ही ताक रहा है। फिर एक दिन उसने सिर हिलाते हुए मुस्करा दिया। सौम्या ने दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे की बालकनी की तरफ झाँका, कहीं कोई भी नहीं था। चार लेन पर बालकनी में खड़ा वह अनाम व्यक्ति उसे ही देखकर मुस्कराया था। यह सोचकर एक झुरझुरी-सी दौड़ गई सौम्या की नसों में। हाय! कोई तो है, जो उसकी सुबह को अपनी मुस्कराहटों से खुशनुमा बना रहा है। अब उसने सुबह उठ पहले चेहरा साफ कर, सही कपड़े पहन, चाय पीने का सिलसिला शुरू किया। बीच-बीच में दरवाजे की ओट से झाँक लेती कि कहीं वह अंदर तो नहीं चला गया। हल्की मुस्कराहटों का आदान-प्रदान उसका दिन खुशनुमा बनाने लगा। उस दिन चाय पर देखा-देखी नहीं हो पाई थी। दफतर जाते वक्त बालकनी में झाँका तो वह मिल गया। सौम्या को संकोच हुआ कि वह कैसी फीके रंग की साड़ी पहने हुए है। उतनी दूर से उसने भाँप तो नहीं लिया कि वह एक बेतरतीब और नीरस महिला है। इसी ऊहापोह में दिन गुजरा, रात को चेहरे की मालिश की और कोई घरेलू फेस पैक लगाया। दूसरे दिन से सौम्या सुबह की चाय हो या दफ्तर जाना हो, अच्छी तरह से तैयार होकर ही बालकनी में आती। वह भी शौकीन मिजाज निकला। बड़े-बड़े काले गॉगल्स लगाता, कानों में हेडफोन लगा जब वह सौम्या को देख सिर हिलाता, तो वर्षों से बंजर पड़े मन पर मानों हल्की रस फुहार हो जाती। सौम्या का मन होता कभी वह दूरबीन लगाकर देखे कि वह गाहे-बगाहे झुककर क्या करता है। उसने मन ही मन अनुमान लगा लिया कि वह शायद कोई लेखक है। आगे क्या हुआ? क्या सौम्या और वह अजनबी एक-दूसरे से मिल पाए? क्या सौम्या उसे अपने मन की बात कह पाईँ? यदि कहा भी तो अजनबी ने उसे क्या जवाब दिया? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए इस अधूरी कहानी का पूरा आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए….
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कविता – मेरी कोई जायदाद नहीं – अमरनाथ
कविता का अंश…
तन्हा बैठा था एक दिन मैं अपने मकान में,
चिडिया बना रही थी घोंसला रोशनदान में।
पल भर में आती पल भर में जाती थी वो,
छोटे-छोटे तिनके चोंच में भर लाती थी वो।
बना रही थी वो अपना एक घर न्यारा,
कोई तिनका था ईंट उसकी, कोई गारा।
कड़ी मेहनत से घर जब उसका बन गया,
आए खुशी के आँसू और सीना तन गया।
कुछ दिन बाद मौसम बदला और हवा के झौंके आए,
नन्हे से प्यारे-प्यारे दो बच्चे घोंसले में चहचहाने लगे।
पाल-पोसकर कर रही थी चिडिया बड़ा उन्हें,
पंख निकल रहे थे दोनों के, पैरों पर करती थी खड़ा उन्हें।
इच्छुक है हर इंसान कोई जमीन कोई आसमान के लिए,
कोशिश थी जारी उन दोनों की एक उँची उड़ान के लिए।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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शनिवार, 11 फ़रवरी 2017
कहानी - बेबस लाठी - अर्चना सिंह 'जया'
बेबस लाठी... कहानी का अंश...
समाज एक व्यक्ति से नहीं बनता बल्कि परिवार, दोस्त व समुदाय से मिलते हुए समाज का निर्माण होता है। समाज में रिश्तों का रुप भी बदलता रहता है। आज के परिवेश में रिश्तों के बीच साॅंसें घुॅंटती नजर आ रही हैं। हमारे ताऊ जी जो कभी बोकारो के स्टेट बैंक में हुआ करते थे, उन्हीं के मित्र मिश्रा जी थे। दोनों में धनिष्ठ मित्रता थी, एक ही शहर ,मुहल्ले में रहा करते थे। किसी समय दोनों ही सरकारी नौकरी में कार्यरत थे, मिश्रा जी सरकारी स्कूल में थे इस कारण कभी कभार उनका तबादला भी हुआ करता था। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए,उन्होंने परिवार एक जगह रखने का निर्णय लिया। इस तरह बच्चों की पढ़ाई में कोई रुकावट नहीें आई।
ताऊ जी ने जिस सोसाइटी में थोड़े सस्ते में घर लिया था उसी में मिश्रा जी ने भी लेने के विषय में सोचा, ताकि दोनों मित्र एक साथ बुढ़ापे की जिंदगी साथ में बिता सके। उन दिनों घर की कीमत एक दो लाख की थी किंतु अभी उन पर कई जिम्मेदारियों का दायित्व था। मिश्रा जी तीन भाई थे, माता-पिता इलाहाबाद के एक गाॅंव में रहते थे। माता जी का स्वर्गवास हुए आठ साल हो रहे थे, पिता जी अब मिश्रा जी के साथ ही रहते थे। मिश्रा जी के दो भाई गाॅव पर ही रहकर खेतीबाड़ी संभाला करते थे। सबसे बड़े भाई जरा अस्वस्थ रहते थे, उन्होंने शादी नहीं की थी। मिश्रा जी के बडे़ भाई समय-असमय अनाज व सरसों तेल उन्हें भेजवा दिया करते थे । इस तरह मिश्रा जी को मदद मिल जाया करती थी। यहाॅं संस्कार का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता था, भाइयों का आपसी तालमेल सही था। आज की पीढ़ी मदद करने से पूर्व सोचती है कि मैं ही क्यूॅं ?
मिश्रा जी की दो बेटियाॅं और एक बेटा था, तीनों की पढ़ाई, बाबू जी की दवादारु व पत्नी की जरुरतों का ध्यान रखते हुए जीवकोपार्जन हो रहा था। तनख्वाह ठीक-ठीक थी किन्तु मिश्रा जी बेटियों की शिक्षा में किसी भी प्रकार से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में बेटियों को शिक्षित करना यानि एक अच्छे परिवार व स्वस्थ समाज का निर्माण करना था, वहीं उनकी स्वयं की पत्नी आठवीं पढ़ी हुई थी । मिश्रा जी जिस जमाने के थे उस जमाने में बेटा पिता की बातों को नकार नहीं सकता था, विवाह की इच्छा उसकी है या नहीें, उसकी सोच क्या है? ये सारी बातें कोई मायने नहीं रखती थीं। इस प्रकार मिश्रा जी की शादी ,बस हो गई।
मुझे बुजुर्गों को आदर देने का ये तरीका आज तक समझ नहीं आया। क्यों हम अपने ही माता-पिता से मन की बात नहीं कर सकते, उनसे नहीं कहेंगे तो क्या पड़ोसी से दिल की बात करेंगे ? विवाह जैसे बंधन के लिए बच्चों से राय लेना व उनकी सहमति होनी जरुरी क्यों नहीं समझते थे ? मिश्रा जी पूरी जिंदगी आर्थिक जोड़ तोड़ में ही लगे रहे। पिताजी बीमार चल रहे थे, अचानक ही वे बहुत बीमार हो गए। लीवर कार्य करना बंद कर दिया और ब्लड प्रेशर अत्यधिक कम हो गया। अस्पताल में आई सी यू में भर्ती भी हुए किन्तु वे अगली सुबह भी नहीं देख पाए।
बाबू जी के देहांत के पश्चात् वे स्वयं को कमजोर महसूस करने लगे। कई कार्यों में उनसे सलाह भी लिया करते थे। बड़ी बिटिया की शादी की बात जो चल रही थी । एक वर्ष के पश्चात् बड़ी बेटी की शादी कर दी। दामाद कलकत्ता में ही, बैंक में कार्य करता था और परिवार भी शिक्षित व छोटा था। एक बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी, बस बुजुर्ग माता पिता ही थे जो साथ में रहते थे। मिश्रा जी को अच्छी शादी मिल गई थी। उनकी छोटी बेटी भी शादी योग्य हो ही रही थी किंतु बच्चों की पढ़ाई व घर खर्च चलाना एक चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी थी।
मिश्रा जी का बेटा, सिर्फ बेटा न कहो, लाडला बेटा तो ज्यादा सही होगा। दो बेटियों के बाद का जो था। बहनों ने भी सिर चढ़ा रखा था। माॅं भी बेटा बेटा करते नहीें थकती थी। समाज में बेटे को बुढ़ापे की लाठी जो माना जाता है। मिश्रा जी तो अपने माता-पिता के लिए अंधे की लाठी साबित हुए, इसी के लिए हम रिश्तों के पौधें को सींचते रहते हैं ताकि एक दिन फल रुपी सुख व छाॅंव रुपी सहारा प्राप्त हो। बेटा अखिलेश अभी पढ़ ही रहा था पर उसकी रुचि पढ़ने में नहीं थी। मिश्रा जी सोचा करते थे कि अगर बेटे का ग्रेजुएट हो जाए तो सिफारिश करके किसी भी तरह नौकरी लगवा देंगे। अंततः बेटे ने ग्रेजुएशन कर ही लिया और नौकरी भी आरंभ कर दी। मिश्रा जी कुछ प्रसन्न रहने लगे कि बेटे ने भी कमाना आरंभ कर ही दियां। इसी बीच छोटी बिटिया की शादी की भी बात की शुरुआत हो गई। तीन महीने के बाद का दिन निर्धारित हुआ। छोटी बिटिया की शादी के दौरान बेटे अखिलेश की शादी की भी बातचीत का सिलसिला आरंभ हो गया किंतु मिश्रा जी ने एक-डेढ़ साल का समय मांगा और इस तरह उन्हें भी साॅंस लेने की फुर्सत मिली। इसी के साथ बेटे को डिस्टेंट लर्निंग के कोर्स में दाखिला करवा दिया।
अब घर कुछ खाली-खाली सा लगने लगा था। पत्नी की भी तबीयत कुछ गड़बड़ रहने लगी थी। एक माॅं से बेटियों का खालीपन सहा नहीं जा रहा था, जैसे घर की रौनक ही चली गई थी। सूनापन काटने को आ रहा था। मिश्रा जी के रीटायरमेंट का समय नजदीक आता जा रहा था तभी उन्होंने घर खरीदने का निर्णय ले ही डाला। ताऊ जी से कह कर तीन कमरे का मकान ले लिया। ताऊ जी के एक मित्र का मकान था उसे पैसे की जरुरत आ पड़ी तो उसने चालू भाव में ही मिश्रा जी को घर बेच डाला। अब वो पल आ ही गया जब मिश्रा जी को अपनी नौकरी को हमेशा के लिए बाय कहना था। समय जरा दुःखद था पर ये तो सभी के जीवन में आता है। इज्जत के साथ अपने कार्य से मुक्त हुए ये तो गर्व की बात है-ऐसा कह पत्नी ने हौसला बढ़ाया, साथ ही अब मुझे ज्यादा समय भी दे पायेंगे। इस प्रकार मिश्रा जी अपनी पत्नी व बेटे के साथ अपने मकान में रहने लगे। कुछ ही सालों के पश्चात् बेटे ने अपनी नौकरी भी बदल ली और वह राँची चला गया। ताऊ जी और मिश्रा जी एक साथ समय व्यतीत करने लगे। इसके आगे की कहानी जानिए, ऑडियो की मदद से...
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बुधवार, 8 फ़रवरी 2017
रामभक्त शबरी की कथा...
कथा का अंश...
शबरी का उल्लेख रामायण में भगवान श्री राम के वन-गमन के समय मिलता है। शबरी को श्री राम के प्रमुख भक्तों में गिना जाता है। अपनी वृद्धावस्था में शबरी हमेशा श्री राम के आने की प्रतीक्षा करती रहती थी। राम उसकी कुटिया में आयेंगे, इसी बात को ध्यान में रखते हुए वह अपनी कुटिया को सदैव साफ-सुथरा रखा करती थी। 'प्रभु आयेंगे', ये वाणी सदा ही उसके कानों में गूँजा करती थी। सीता की खोज करते हुए जब राम और लक्ष्मण शबरी की कुटिया में आये, तब शबरी ने बेर खिलाकर उनका आदर-सत्कार किया। यह सोचकर कि बेर खट्टे और कड़वे तो नहीं हैं, इसीलिए पहले वह स्वयं बेर चखकर देखती और फिर राम और लक्ष्मण को खाने को देती। शबरी की इस सच्ची भक्ती, निष्टा और सह्रदयता से राम ने उसे स्वर्ग प्राप्ति का वरदान दिया। स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके शबरी सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गयी।
शबरी का वास्तविक नाम 'श्रमणा' था और वह भील समुदाय की 'शबरी' जाति से संबंध रखती थी। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाह के योग्य हुई तो उसके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से उसका विवाह पक्का किया। विवाह के दिन निकट आये। सैकडों बकरे-भैंसे बलिदान के लिये इकट्ठे किये गये। इस पर शबरी ने अपने पिता से पूछा- 'ये सब जानवर क्यों इकट्ठे किये गये हैं?' पिता ने कहा- 'तुम्हारे विवाह के उपलक्ष में इन सब की बलि दी जायेगी।' यह सुनकर बालिका शबरी का सिर चकराने लगा कि यह किस प्रकार का विवाह है, जिसमें इतने प्राणियों का वध होगा। इससे तो विवाह न करना ही अच्छा है। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में भाग गई। दंडकारण्य में हज़ारों ऋषि-मुनि तपस्या किया करते थे। शबरी हीन जाति की और अशिक्षित बालिका थी। उसमें संसार की दृष्टि में भजन करने योग्य कोई गुण नहीं था, किन्तु उसके हृदय में प्रभु के लिये सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं। वह रात्रि में जल्दी उठकर, जिधर से ऋषि निकलते, उस रास्ते को नदी तक साफ़ करती। कँकरीली ज़मीन में बालू बिछा आती। जंगल में जाकर लकड़ी काटकर डाल आती। इन सब कामों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न ले। यह कार्य वह कई वर्षों तक करती रही। अन्त में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की। महर्षि मतंग ने सामाजिक बहिष्कार स्वीकार किया, किन्तु शरणागता शबरी का त्याग नहीं किया। महर्षि का अन्त निकट था। उनके वियोग की कल्पना मात्र से ही शबरी व्याकुल हो गयी। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया- 'बेटी! धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहनां। प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं।' शबरी का मन अप्रत्याशित आनन्द से भर गया और महर्षि की जीवन-लीला समाप्त हो गयी। इसके आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से...
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कविता - मुठ्ठी भर मिट्टी - हंसराज सिंह वर्मा 'कल्पहंस'
मुठ्ठी भर मिट्टी... कविता का अंश...
मुठ्ठी भर मिट्टी स्वदेश की,
संग मैं अपने ले जाऊँगा।
उस अंजाने पराए देश में,
कुछ अपना, कुछ पहचाना ले जाऊँगा।
उस दूर देश में मां की गोद न सही,
उसके आंचल का चीर तो होगा।
मल लूंगा माथे पर आएगी जब यादे–वतन,
तन उद्विग्न, चित्त अशांत अधीर होगा।
अपने मकान के कोने में उसे सजाऊँगा,
निहारूंगा नित्य तब सुकून कितना मैं पाऊँगा।
सौंधी–सौधी सुगंध से महकेगा आंगन सारा,
बरसेगी असीम शांति, मिलेगा अक्षुण्ण सहारा।
पर मैं वह मिट्टी लूं कहाँ से?
रचा-बसा जिसमें मेरा भारत हो।
कण–कण में हो विविधता,
छलक–छलक उठे सौंदर्य,
रोम–रोम से झरती चाहत हो।
चलूं उठा लूं एक मुठ्ठी संसद के गलियारों से,
सुना संसद लघु भारत है।
बनता भारत उसके विचारों से,
मूढ़! कौन तुझे वहाँ जाने देगा?
मुठ्ठी भर मिट्टी तो दूर,
रत्ती भर हवा न लाने देगा।
ऐसा जकड़ा–जकड़ा मेरा भारत नहीं हो सकता।
हवा भी जहाँ पहरे में हो,
वहाँ प्रेम–बंधुत्व नहीं रह सकता।
क्यों न भर लूं एक मुठ्ठी, मंदिर के प्रांगण से!
नित्य पावन यह होती भागवत कथा के वाचन से।
शीतलता यह बहुत क्षीणकाय, पलती बडे़ नाज़ों से।
दहक उठती गिरजे की घंटी या अजान की आवाज़ों से।
इतना एकरंगी संवेदनाहीन,
मेरा भरत–पुरुष नहीं हो सकता।
लाख झंझावातों के भंवर में,
उसका इंद्रधनुष नहीं खो सकता।
बहुत सुहासित कण–कण शोभित, राजघाट की यह फुलवारी
भर लूं अंजुली क्या यहाँ से, सोया जहाँ प्रेम–पुजारी।
बापू नहीं, यहाँ हमने उनके सपनों को दफ़नाया है।
राख छुपाकर संगमरमर में आदर्शो का बाजार लगाया है।
विस्तृत फलक को संकुचित कर, देखा तनिक उजियारे में
वांछित मिट्टी को पाया मंैने, अपनी मैया के चौबारे में।
यह चूल्हा, जिसमें उनका सर्वस्व समाया,
झोंका अपना वजूद दीवारों को घर बनाया।
ममत्व का गूंथा आटा, अंकुर को वृक्ष बनाया।
त्याग की डाली खाद, फल को स्वादिष्ट बनाया।
यह चूल्हा जिसकी मिट्टी लाईं थीं वे उन खलिहानों से,
जिन्हें उर्वरा है बनाया, पुरखों ने अपने बलिदानों से।
खुरचन तनिक–सी इस चूल्हे की संग मैं अपने ले जाऊँगा,
अपने आराध्य को हो समर्पित स्वयं न्यौछावर मैं हो जाऊँगा।
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कुछ कविताएँ - विनोद दवे
कविता का अंश...टेसू...
टेसू
पलाश के पुष्प ने,
अपने रंग से,
विपिन के ओर छोर पर,
आग लिख दी है।
फाग जब गाये जाएँगे,
होली के उत्तेजक गीतों में,
सुमन ये टेसू के,
अपना मादक रंग घोल देंगे।
भाँग पीये भंगेड़ी सा,
ये मौसम,
कहीं इन दहकते पुष्पों में,
गंध न घोल दे!
इसी चिंता में वृक्ष ने,
अपनी भुजाएँ फैला दी हैं।
इस रंग पंचमी को,
प्रिया के होंठों से सुर्ख इस सुमन को,
ढ़लते हुए सूरज की लाली सा,
कोई नाम तो दे दो।
टेसू तो विचित्र सा प्रतीत होता है
है न!
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मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017
कुछ कविताएँ - योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
कविता का अंश....
नन्ही चिड़िया सोच रही है,
कैसे भरूँ उड़ान्?
आसमान में झुण्ड लगा है,
गिद्धों, बाज़ों का।
वहशीपन क़ायम है घर के ही
दरवाज़ों का।
ऐसे में कैसे मुमकिन है,
अपनों की पहचान?
क़दम-क़दम पर अनहोनी के
अपने ख़तरे हैं।
किया भरोसा जिस पर, उसने ही
पर कतरे हैं।
हर दिन, हर पल की दहशत अब
छीन रही मुस्कान।
ऊँचाई छूने की मन में हौंस
मचलती है।
किन्तु सियासत रोज़ सुनहरे
स्वप्न कुचलती है।
दीवारों पर लिखा हुआ है-
'मेरा देश महान'
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सम्पर्क - ई-मेल- vyom70@yahoo.in
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कविता - बाबू जी - राज सक्सेना
बाबू जी... कविता का अंश...
घर के बाहर ओसारे पर, अटके रहते बाबू जी
सूनी आँखों रस्ता सबका, तकते रहते बाबू जी
पाला जिनको खून पिलाकर, उन्हें छोड़कर जीते हैं,
यही सोचकर मन ही मन में, कुढ़ते रहते बाबू जी
कोई आकर बात करे कुछ उनसे इस चौबारे में,
पोता-पोती की कुछ बातें, रटते रहते बाबू जी
रानी जैसा रखा जिसे वह रहती अविचल सेवा में,
देख-देखकर यह सब मन में,घुटते रहते बाबू जी
रोज शाम को छ्तपर चढ़कर शून्य बनाती नजरों से,
अस्ताञ्चल को जाता सूरज, तकते रहते बाबू जी
बात बिगड़ जाये यदि कोई, नहीं सँवरती कभी-कभी,
अपनी हिकमत से हल सबकुछ्,करते रहते बाबू जी
खाँसी का दौरा पड़ता है कभी रात को जोरों से,
डाल रजाई मुख पर अन्दर, घुटते रहते बाबू जी
खानदान में 'राज' किसी की, उठती चादर थोड़ी सी,
इज्जत न मैली हो जाए, ढकते रहते बाबू जी।
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सम्पर्क- raajsaksena@gmail.com
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बाल कविता - कछुआ और खरगोश - अर्चना सिंह ”जया”
कविता का अंश...
चपल खरगोश वन में दौड़ता भागता,
कछुए को रह-रह छेड़ा करता।
दोनों खेल खेला करते ,
कभी उत्तर तो कभी दक्षिण भागते।
एक दिन होड़ लग गई दोनों में,
दौड़ प्रतियोगिता ठन गई पल में।
मीलों दूर पीपल को माना गंतव्य,
सूर्य उदय से हुआ खेल प्रारंभ।
कछुआ धीमी गति से बढ़ता,
खरगोश उछल-उछल कर चलता।
खरहे की उत्सुकता उसे तीव्र बनाती,
कछुआ बेचारा धैर्य न खोता।
मंद गति से आगे ही बढ़ता,
पलभर भी विश्राम न करता।
खरहे को सूझी होशियारी,
सोचा विश्राम जरा कर लूॅं भाई।
अभी तो मंजिल दूर कहीं है,
कछुआ की गति अति धीमी है।
वृक्ष तले विश्राम मैं कर लूॅं,
पलभर में ही गंतव्य को पा लॅूं।
अति विश्वास होती नहीं अच्छी,
खरगोश की मति हुई कुछ कच्ची।
कछुआ को तनिक आराम न भाया,
धीमी गति से ही मंजिल को पाया।
खरगोश को ठंडी छाॅंव था भाया,
‘आराम हराम होता है’ काक ने समझाया।
स्वर काक के सुनकर जागा,
सरपट वो मंजिल को भागा।
देख कछुए को हुआ अचंभित,
गंतव्य पर पहुॅंचा, बिना विलंब के।
खरगोश का घमंड था टूटा,
कछुए ने घैर्य से रेस था जीता।
अधीर न होना तुम पलभर में,
धैर्य को रखना सदा जीवन में।
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बाल कविता

बाल कविता - चतुर वानर - अर्चना सिंह ‘जया’
कविता का अंश... चतुर वानर
चतुर वानर की सुनो कहानी,
वन में मित्रों संग,
करता था मनमानी।
बंदरिया संग घूमा करता,
कच्चे-पक्के फल खाता था।
पेड़-पेड़ पर धूम मचाता,
प्यास लगती तो नदी तक जाता।
पानी में अपना मुख देख वो,
गर्व से खुश हो गुलट्टिया खाता।
तभी मगरमच्छ आया निकट,
देख उसे घबड़ाया वानर।
मगर ने कहा,‘‘न डरो तुम मुझसे
आओ तुमको सैर कराऊॅं,
इस तट से उस तट ले जाऊॅं।
कोई मोल न लूॅंगा तुमसे,
तुम तो हो प्रिय मेरे साॅंचे।’’
वानर को यह कुछ-कुछ मन भाया,
पर बंदरिया ने भर मन समझाया।
सैर करने का मन बनाकर,
झट जा बैठा, मगर के पीठ पर
लगा घूमने सरिता के मध्य पर।
तभी मगर मंद-मंद मुसकाया,
कलेजे को खाने की इच्छा जताया,
‘कल से वो भूखी है भाई
जिससे मैंने ब्याह रचायी
उसकी इच्छा करनी है पूरी
तुम्हारा कलेजा लेना है जरुरी।’
सुन वानर को आया चक्कर,
घनचक्कर से कैसे निकले बचकर ?
अचंभित होकर वो लगा बोलने,
ओह! प्रिय मित्र पहले कहते भाई।
मैं तो कलेजा रख आया वट पर,
चलो वापस फिर उस तट पर।
मैं तुम्हें कलेजा भेंट करुॅंगा,
न कुछ सोचा, न कुछ विचारा
मगर ने झट दिशा ही बदला।
ले आया वानर को तट पर,
और कहा,‘ मित्र करना जरा झटपट।’
वानर को सूझी चतुराई,
झट जा बैठा वट के ऊपर।
दाॅंत दिखाकर मगर को रिझाया,
और कहा,‘अब जाओ भाई
तुम मेरे होते कौन हो ?
तेरा-मेरा क्या रिश्ता भाई ?
वानर ने अपनी जान बचाई,
मगर की न चली कोई चतुराई।
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बाल कविता

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017
कहानी - महर्षि दधीचि
कहानी का अंश...
दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। एक बार देवराज इन्द्र के मन में अभिमान पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप उसने देवगुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया। उसके आचरण से क्षुब्ध होकर देवगुरु इन्द्रपुरी छोड़कर अपने आश्रम में चले गए। बाद में जब इन्द्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो वह बहुत पछताया, क्योंकि अकेले देवगुरु बृहस्पति ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनके कारण देवता दैत्यों के कोप से बचे रहते थे। पश्चाताप करता इन्द्र देवगुरु को मानने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा। उसने हाथ जोड़कर देवगुरु को प्रणाम किया और कहा,'आचार्य। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था। उस समय क्रोध में भरकर मैंने आपके लिए जो अनुचित शब्द कह दिए थे, मै उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हुं। आप देवों के कल्याण के लिए पुनः इन्द्रपुरी लौट चलिए। हम सारे देव मिलकर आपकी भली-भांति सेवा…।' इन्द्र का शेष वाक्य अधूरा ही रह गया क्योंकि देवगुरु अपने तपोबल से अदृश्य हो चुके थे। इन्द्र ने उनकी बहुत खोज की किंतु जब देवगुरु का कुछ पता न चला तो वह थक-हार कर इन्द्रपुरी लौट गया।
दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने दैत्यों से कहा- 'दैत्यों! यही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य बृहस्पति के चले जाने के बाद देवों की शक्ति आधी रह गई है। तुम लोग चाहो तो अब आसानी से देवलोक पर अधिकार कर सकते हो।' उचित अवसर देखकर दैत्यों ने अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और चारों ओर मार-काट मचा दी। इन्द्र किसी तरह जान बचाकर वहां से भाग निकला और पितामह ब्रह्मा की शरण में पहुंच गया। वह करबध्य होकर ब्रह्मा जी से बोला,'पितामह, देवों की रक्षा कीजिए। दैत्यों ने अचानक हमला करके अमरावती में मार-काट मचा दी है। वे चुन-चुनकर देव योद्धाओं का वध कर रहे हैं। मैं किसी तरह जान बचाकर यहाँ तक पहुंचा हुँ।'
पितामह ब्रह्मा आचार्य बृहस्पति के देवलोक छोड़ जाने की बात सुन चुके थे। बोले, 'यह सब तुम्हारे अहंकार के कारण हुआ है, देवराज। अब भी यदि तुम आचार्य बृहस्पति को मना सको और उन्हें देवलोक में ले आओ तो वे दैत्यो पर विजय प्राप्त करने का कोई उपाय तुम्हें बता देंगे।' 'मै अपनी भूल पर बहुत पश्चाताप करता उन्हें खोजने के लिए गया था, पितामह। किंतु मेरे देखते ही अपने तपोबल से अदृश्य हो गए। इन्द्र ने कहा।
आचार्य तुमसे कुपित हैं, इन्द्र। ब्रह्मा जी ने कहा, 'अब जब तक तुम उनकी आराधना करके उन्हें स्वयं सम्मानपूर्वक देवलोक नहीं ले जाओगे, वे अमरावती नहीं आएंगे।'
'फिर क्या किया जाए, पितामह? आचार्य का कुछ पता-ठिकाना भी तो हमारे पास नहीं है। उन्हें खोजने में समय लगेगा। तब तक तो दैत्य संपूर्ण अमरावती को जलाकर राख कर देंगे।' इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी में अपने नेत्र बंद कर लिए। वे चिंतन में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले और इन्द्र से कहा। 'इन्द्र! इस समय भूंमडल में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति है जो तुम्हें इस आपदा से मक्ति दिला सकता है और वह है महर्षि त्वष्टा का महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप। अगर तुम उसे अपना पुरोहित नियुक्त कर लो तो वह तुम्हें इस संकट से मुक्त करा देगा।' ब्रह्माजी ने उपाय बताया।
पितामह का परामर्श मानकर देवराज इन्द्र महर्षि विश्वरूप के पास पहुंचे। विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वे सोमवल्ली लता का रस निकालकर यज्ञ करते समय पीते थे। दूसरे मुख से मदिरा पान करते तथा तीसरे मुख से अन्न आदि भोजन का आहार करते थे। इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया तो महर्षि ने पूछा, 'आज यहाँ कैसे आगमन हुआ, देवराज? आप किसी विपत्ति में तो नहीं फंस गए?'
'आपने ठीक अनुमान लगाया है मुनिश्रेष्ठ।' इन्द्र ने कहा, 'देवों पर इस समय बहुत बड़ी विपत्ति आई हुई है, दैत्यों ने अमरावती को घेर रखा है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है।' विश्वरूप मुस्कराए। बोले, 'यह तो देवों और दैत्यों का पुराना झगड़ा है, देवराज। दोनों ही महर्षि कश्यप की संतानें हैं। इसलिए कोई एक-दूसरे से छोटा नहीं बनना चाहता। तुम्हारे इस झगड़े में मैं क्या कर सकता हूं?'
'देवों को इस समय आपकी सहायता की आवश्यकता है मुनिश्रेष्ठ। सिर्फ़ आप ही उनका भय दूर कर सकते हैं।'
इस प्रकार इन्द्र ने जब विश्वरूप की बहुत अनुनय-विनय की तो विश्वरूप पिघल गए। उन्होंने देवों के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। वे बोले, 'देवों की दुर्दशा देखकर ही मैंने आपके यज्ञ का होता बनना स्वीकार किया है, देवराज।' तत्पश्चात उन्होंने देवराज को नारायण कवच प्रदान करते हुए कहा, 'यह कवच ले जाओ देवराज। दैत्यों से युद्ध करते समय यह न सिर्फ़ तुम्हारी रक्षा करेगा बल्कि तुम्हें विजयश्री भी प्रदान करेगा।' विश्वरुप से नारायण कवच प्रदान करके देवराज पुनः अमरावती पहुचें। उनके वहां पहुंचने से देवों में नए उत्साह का संचरण हो गया और वे पूरी शक्ति के साथ दैत्यों पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस बार इन्द्र के पास नारायण कवच होने के कारण दैत्य मैदान में नहीं ठहर सके। वे पराजित होकर भग खड़े हुए। विजयश्री देवताओं के हाथ लगी। युद्ध समाप्त होने पर देवराज विश्वरूप का आभार व्यक्त करने के लिए उनके पास पहुंचे। बोले, 'आपके कृपा से हमने दैत्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, मुनिवर। अब हम एक ऐसा यज्ञ करना चाहते है जिसके फलस्वरूप देवलोक हमेशा के लिए दैत्यों के भय से मुक्त रह सके। और आप हमें वचन दे ही चुके है कि उस यज्ञ के होता आप होंगे, तो कृपा करके अब आप हमारे साथ चलिए।'
देवराज के अनुरोध पर विश्वरूप अमरावती पहुंचे। उन्होंने यज्ञ में आहुतियां डालनी आरंभ कर दीं। उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेश धारण कर महर्षि विश्वरूप के पास आ बैठा। उसने धीरे से महर्षि विश्वरूप से कहा, 'महर्षि! देवताओं का पक्ष लेकर आप जो यज्ञ दैत्यों के विनाश के लिए कर रहे, यह उचित नहीं हैं।'
'क्यों उचित नहीं है?' विश्वरूप ने पूछा।
'इसलिए उचित नहीं कि देव और दैत्य एक ही पिता की संताने हैं। आप भूल रहे है कि स्वंय आपकी माता जी एक दैत्य परिवार से हैं। क्या आप चाहेंगे कि आपका मातृकुल हमेशा के लिए नष्ट हो जाए?' बात विश्वरूप की समझ में आ गई। उन्होंने आहुतियां देते समय देवों के साथ-साथ दैत्यों का नाम भी लेना आरंभ कर दिया। यज्ञ समाप्त हुआ, लेकिन उसका कोई लाभ देवों को न मिला। इस पर देवराज इन्द्र ने विश्वरूप से कहा, 'मुनिवर! इतने बड़े यज्ञ का कोई अच्छा सुफल नहीं मिला। देवताओं की शक्ति में तो किंचित भी बदलाव नहीं आया। वे तो जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हैं।' तभी इन्द्र का एक गुप्तचर उनके पास पहुंचा उसने इन्द्र को बताया, 'यज्ञ का सुफल कैसे मिलता देवराज। मुनिवर देवों के साथ-साथ दैत्यों को भी तो आहुतियां देते रहे हैं। इस यज्ञ का जितना लाभ देवों को मिला है उतना ही दैत्यों को भी मिला हैं।' गुप्तचर के मुख से यह समाचार सुनकर इन्द्र गुस्से से भर उठे। उन्होंने तलवार निकाल ली और ॠषि विश्वरूप पर झपटे, 'ढोंगी ॠषि। तूने देवों के साथ विश्वासघात किया है। यज्ञ देवों ने कराया और तू आहुतियां अपने मातृकुल के लोगों को देता रहा। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा।' कहते हुए उसने तलवार के एक ही वार से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इन्द्र द्वारा एक ब्राह्माण की यज्ञस्थल पर ही हत्या किए जाने की सर्वज्ञ निंदा होने लगी। देवों के साथ-साथ ॠषि-मुनि और उसे धिक्कारने लगे, 'इन्द्र तू हत्यारा है।–तूने ब्रह्महत्या की है, तेरे जैसे व्यक्ति को इन्द्र पद पर बने रहने का कोई अधिकार हक़ नहीं। तेरे लिए यही उचित है कि किसी कुएं या बावली में कूदकर अपने प्राणों का विसर्जन कर डाल।' आदि-आदि। नित्य प्रति की धिक्कार और प्रताड़ना सुनकर इन्द्र दुखी रहने लगा। उधर, जब यह समाचार महर्षि त्वष्टा तक पहुंचा तो वे बेहद क्रोधित हुए। गुस्से से दहाड़ते हुए बोले, 'इन्द्र की ऐसी हिम्मत कैसे हुए कि वह मेरे पुत्र का वध करके इन्द्रासन पर बैठा रहे। मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा। मेरे पुत्र की हत्या करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा।'
त्वष्टा उसी दिन यज्ञ करने के लिए बैठ गए। यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ वेदी से एक पर्वत के समान आकार वाला दैत्य प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और दूसरे में शंख था। उसने झुककर ॠषि कोप प्रणाम किया। ॠषि ने उसको नाम दिया—वृतासुर।
'आज्ञा दीजिए ॠषिवर?' वृतासुर ने सिर झुकाकर कहा।
'वृतासुर। तुम तत्काल अमरावती जाओ और कपटी इन्द्र के साथ-साथ समस्त देवताओं का विनाश कर दो।' महर्षि त्वष्टा ने क्रोध से कांपते हुए आदेश दिया। त्वष्टा का आदेश पाते ही वृतासुर वायु वेग से देवलोक की ओर उड़ चला।
वृतासुर ने अमरावती में पहुंचकर देवों का विध्वंस करना शुरू कर दिया। जो भी सामने आता, वह निःसंकोच होकर उसका वध कर डालता। उसने अमरावती में ऐसा कोहराम मचाया के देवता त्राहि-त्राहि कर उठे। इन्द्र अपने ऐरावत पर चढ़कर उसके सामने पहुंचा और उस पर व्रज प्रहार किया, किंतु वृतासुर ने एक ही झटके में उसके हाथ से व्रज छीनकर दूर फेंक दिया। इस पर इन्द्र ने उस पर आग्नेय अस्त्रों से आक्रमण किया, किंतु उनका किंचित भी असर वृतासुर पर न हुआ। किसी खिलौने की तरह उसने इन्द्र के हाथ से उसका धनुष छीन लिया और उसे तोड़कर एक ओर फेंक दिया। फिर वह अपना भयंकर मुख खोलकर इन्द्र को खाने के लिए उसकी ओर झपटा। यह देखकर इन्द्र भयभीत हो गया और ऐरावत से कूदकर अपनी जान बचाने के लिए भाग निकला। पीछे वृतासुर अपने भयंकर अट्टहासों से अमरावती को गुंजाता रहा। देवराज भागकर सीधे पहुंचे विष्णुलोक में भगवान विष्णु के पास।
'रक्षा कीजिए देव। देवताओं को बचाइए।' उसने आर्त्त स्वर में भगवान से विनती की, 'देवों को वृतासुर के कोप से बचाइए अन्यथा वह समस्त देवजाति का विनाश कर डालेगा।' यह सुनकर भगवान विष्णु ने भी उसे धिक्कारा। कहा, 'इन्द्र। एक ब्राह्मण, और वह भी ऐसा जो तुम्हारे यज्ञ का संचालन कर रहा हो, उसका यज्ञस्थल पर ही वध करके तुमने समस्त देवजाति को कलंकित कर दिया। तुमने अक्षम्य अपराध किया है। महर्षि त्वष्टा में तुम्हारे लिए उचित ही दंड का निर्णय किया है।'
'मुझे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हो रहा है, प्रभु। मैं उस समय क्रोध में अंधा हो रहा था, इसलिए ब्रह्महत्या जैसा पाप कर बैठा। मुझे क्षमा कर दीजिए और मुझे उस महाभयंकर दैत्य से मुक्ति दिलाइए।' इन्द्र ने शर्मिंदगी भरे स्वर में कहा।
'देवेंद्र्।' श्रीहरि बोले, 'इस समय मैं तो क्या स्वंय भगवान शिव अथवा ब्रह्मा जी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा तो पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति कर सकता है।'
'वह कौन है, देव?'
'महर्षि दधीचि।' विष्णु बोले, 'सिर्फ़ वे ही तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं। तुम महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ और उन्हें प्रसन्न करके किसी तरह उनके शरीर की हड्डियां प्राप्त कर लो। फिर उन हड्डियों से व्रज बनाकर यदि तुम वृतासुर से युद्ध करोगे तो विजयश्री तुम्हें ही मिलेगी।'
भगवान विष्णु का परामर्श मानकर इन्द्र दधीचि के आश्रम में पहुंचा। महर्षि दधीचि उस समय समाधि लगाए बैठे थे। उनकी कामधेनु उनके निकट खड़ी थी। इन्द्र महर्षि की समाधि भंग होने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर जब महर्षि ने अपनी समाधि भंग की तो उनकी दृष्टि करबद्ध खड़े इन्द्र पर पड़ी। महर्षि ने हंसते हुए पूछा, 'देवेंद्र! आज इस मृत्युलोक में तुम्हारा आगमन क्यों कर हुआ? देवलोक में सब कुशल से तो हैं?'
'कुशलता कैसी महर्षि।' इन्द्र ने शर्मसार होते हुए कहा, 'देवों के दुर्दिन आ गए हैं। वृतासुर के भय से देव अमरावती छोड़कर जंगलों और गिरि कंदराओं में छिपते फिर रहे हैं।'
फिर महर्षि के पूछने पर इन्द्र ने सारी बातें उन्हें बता दीं। सुनकर दधीचि बोले, 'यह तो बड़ी अशुभ बातें बताईं तुमने, देवेंद्र। अब इनका निराकरण कैसे हो?'
'महर्षि! मैं भगवान विष्णु के पास गया था।' इन्द्र बोला, 'उन्होंने परामर्श दिया है कि यदि आप प्रसन्न होकर मुझे अपनी हड्डियों का दाम दे दें और उनसे व्रज बनाकर यदि वृतासुर से युद्ध किया जाए तो वह दैत्य उस व्रज के प्रहार से मर सकता है। हे ॠषिश्रेष्ठ। देवों पर कृपा करके मुझे अपनी अस्थियों का दान दे दीजिए।'
'देवेंद्र!' महर्षि दधीचि बोले, 'यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति का कुछ हित होता है मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार हूं।'
तत्पश्चात अपने शरीर पर मिष्ठान का लेपन करके महर्षि समाधिस्थ होकर गए। कामधेनु ने उनके शरीर को चाटना आरंभ कर दिया। कुछ देर में महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से विलग हो गए। मानव देह के स्थान पर सिर्फ़ उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं। इन्द्र ने उन अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर उन हड्डियों से ‘तेजवान’ नामक व्रज बनाया। तत्पश्चात उस व्रज के बल पर उसने वृतासुर को ललकारा। दोनों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन वृतासुर ‘तेजवान’ व्रज के आगे देर तक टिका न रह सका। इन्द्र ने व्रज प्रहार करके उसका वध कर डाला। उसके भय से मुक्त हो गए। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कुछ कविताएँ - अनुराग तिवारी
कविता का अंश...
सूरज खेले
आँखमिचौनी...
छिपे कभी बादल के पीछे,
अगले ही पल सम्मुख आये।
कभी कभी ये ओढ़ रजाई,
कुहरे की दिन भर सो जाये।
जाड़े में है मरहम लगती,
धूप गुनगुनी।
भोर समय नदिया की धारा,
में लगता है लाल कमल-सा।
लहरों के झूले में झूले,
ऊपर नीचे, कुछ डूबा-सा।
गर्मी में क्यों क्रोधित हो,
बरसाए अग्नि।
रात्रि, दिवस, ऋतुएँ हैं तुमसे,
तुमसे ही है यह जीवन।
अपनी किरणों से कर दो तुम,
आलोकित सबका तन-मन।
नित्य भोर से शाम ढले तक,
वही कहानी।
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कविता - बचपन के दिन - रेखा राजवंशी
बचपन के दिन... कविता का अंश...
याद आते हैं बचपन के दिन,
तड़पाते हैं बचपन के दिन ।
वो दिन दादा के गाँव के,
वो दिन पीपल की छाँव के ,
शैतानी के साज़िश के दिन,
गर्मी के दिन बारिश के दिन।
परियों के भूतों के क़िस्से,
चोरी के आमों के हिस्से,
वो दिन नुक्कड़ के नाई के,
वो दिन कल्लू हलवाई के ।
याद आते हैं……
वो दिन चूरन के इमली के,
वो दिन फूलों के तितली के,
वो दिन सावन के झूलों के,
वो दिन अनजानी भूलों के ।
चंदा के दिन तारों के दिन,
खेलों के गुब्बारों के दिन ,
वो दिन अलमस्त नज़ारों के,
वो दिन तीजों त्यौहारों के।
याद आते हैं……
हैं याद दशहरे के मेले,
वो चाट पकौड़ी के ठेले,
वो रावण का पुतला जलना,
वो राम का सीता से मिलना ।
जगमग वो दिन दीवली के,
आतिशबाज़ी मतवाली के,
वो दिन जो खील बताशों के,
वो दिन जो खेल तमाशों के।
याद आते हैं……
वो दिन गुझिया के कॉंजी के,
वो दिन टेसू के झॉंझी के,
वो दिन कटटी के साझी के,
वो दिन ताशों की बाज़ी के ।
वो दिन होली के रंगों के,
वो आपस के हुड़दंगों के,
वो दिन मीठी ठंडाई के,
नमकीन के और मिठाई के।
याद आते हैं……
वो दिन अम्मा के खाने के,
बाबू के लाड़ लड़ाने के,
वो दिन गुडडे के गुड़िया के,
वो दिन सपनों की दुनिया के।
याद आते हैं...
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कविता - नदी पर 6 कविताएँ - डॉ. भावना
कविता का अंश...
१.
नदी जब उतरी थी,
कल-कल करती पहाड़ों से,
सुना था उसने,
कहीं है समंदर,
जहाँ पहुँचना/उससे मिलना,
उसमें समा जाना सार्थकता है उसकी,
नदी दिन-रात सपना देखा करती,
सपने में समंदर देखती,
जो अपनी विशाल भुजाएँ फैलाये,
आतुर है उसे समा लेने को।
नदी मन ही मन मुसकरा देती,
और उसकी शोखी,
क्ल-कल छल-छल ध्वनि में,
हो उठती थी परिवर्तित।
२
नदी अब खो गयी प्यार में,
उसे अपनी सुध-बुध न रही,
वह दौड़ती भागती ,
रास्ते की बाधाओं से बेखबर,
पहुँची समंदर के पास।
समंदर गौरवान्वित हुआ खुद पर,
उसने फिर फाँस लिया एक और नदी को,
अपने प्रेमपाश में।
उसने बढ़ा दी अपनी भुजाएँ,
और समा लिया उसे अपने भीतर।
नदी उसके भीतर समाहित,
हजारों नदियों सी एक नदी बन गयी,
उसका अस्तित्व समाप्त हो गया।
३
एक दिन नदी ने समंदर से पूछा,
प्रिये मैंने तुम्हारे लिए घर-बार छोड़ा,
सगे संबंधियों को छोड़े,
अपनी पहचान भी खो दी,
फिर भी तुम्हारी नजर में,
मेरी कोई अहमियत नहीं,
समंदर मुसकराया और धीरे से कहा,
प्रिये अहमियत तो दूसरों की होती है,
तुम तो हमारे भीतर हो,
हममें समाहित,
तो फिर अहमियत कैसी,
नदी खुद पर हँस पड़ी।
४
नदी समा गयी समंदर में,
खो दिया है अपना कुल/गोत्र/पहचान
भूल गयी है अपनी चाल,
क्ल-कल छल-छल की ध्वनि,
अपनी हँसी अपना एकांत,
नदी जो अब विलीन है समंदर में,
समंदर में दहाड़ती है हमेशा,
पर उसके अंदर का आक्रोश दब सा जाता है,
समंदर के शोर में।
वह भागना चाहती है अपने अस्तित्व की तलाश में,
लेकिन पत्थरों से टकरा कर लौट आती है,
फिर फिर वहीं,
नदी अब तड़पती है,
अपनी पहचान की खातिर,
उसके अनवरत आँसुओं ने,
कर दिया है पूरे समंदर को नमकीन
यह समंदर और कुछ नहीं,
नदी के आँसू हैं
और उसकी लहरें,
नदी के हृदय का शोर।
नदी जिसकी नियति तड़प है।
५
नदी जो तड़प रही है,
अपनी पहचान की खातिर।
तब सूरज नहीं देख पाया है,
उसकी तड़प उसकी बेचैनी।
उसने भर दी है अपने किरणों में,
थोड़ी और गरमी,
कर दिया है वाष्पीकृत उसके जल को,
वह जल संधनित हो,
मँडरा रहा बादल बन अंबर में।
फिर बूँदों की शक्ल में आ गया है धरती पर,
नदी खुश है अपने पुनर्जन्म से।
अभिभूत है सूरज के उपकार से।
जिसने उसे लौटा दिया है,
उसका वजूद, उसकी पहचान
नदी समंदर की विशालता को ठुकरा,
अपनी छोटी सी दुनिया में खुश है।
६
नदी को अब भी याद आती है समंदर की,
नदी अब भी तड़पती है समंदर के लिए,
लेकिन नदी अब समझदार हो गयी है,
वह नहीं मिटाना चाहती अपना वजूद,
वह जीना चाहती है,
अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ।
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कुछ कविताएँ - नीलम जैन
कविता का अंश...
माँ होना और माँ का होना
माँ होना और माँ का होना,
दोंनों पहलू देख रही हूँ।
नेह भरा संबध सलोना,
नयन बसाए देख रही हूँ।
बह जाती हूँ मैं नदिया सी,
जगत अंक में भर लेती हूँ।
राहें चाहे जंहा बना दूं,
दीवानापन देख रही हूँ।
बरबस लहरों का मिट जाना,
शांत समंदर देख रही हूँ।
माँ होना और माँ का होना,
दोंनों पहलू देख रही हूँ।
और कभी जब तड़पी हूँ मैं,
बादल के सीने से निकली।
बरसी मुक्त धरा के आँगन,
सिमटी आँचल देख रही हूँ।
माँ की धड़कन ताल-मेल का,
नृत्य सुहाना देख रही हूँ।
माँ होना और माँ का होना,
दोंनों पहलू देख रही हूँ।
अब जो र्दपण में झाकूँ मैं,
माँ का अक्स उभर आता है।
सात संमदर पार से देखो,
स्वर ममता का देख रही हूँ।
तेरी आँखें मेरी आँखे,
कितनी पास हैं देख रही हूँ।
माँ होना और माँ का होना,
दोंनों पहलू देख रही हूँ।
जब जब मैं लोरी गाती हूँ,
राग भी तेरे बोल भी तेरे ।
भाव-विभोर स्वयं सो जाना,
स्वप्निल जादू देख रही हूँ।
चाहूँ मैं चाहे न चाहूँ,
अखंड ज्वाल सी देख रही हूँ।
माँ होना और माँ का होना,
दोंनों पहलू देख रही हूँ । ऐसी ही अन्य भावपूर्ण कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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प्रेरक प्रसंग – स्वेद कणों का प्रभाव
प्रेरक प्रसंग का अंश...
भगवान राम जब शबरी से मिलने के लिए गए तो उन्होंने देखा कि वहाँ के सारे फूल खिले हुए हैं, कुम्हलाए नहीं हैं तथा प्रत्येक फूल से मधुर भीनी-भीनी सुगंध निकल रही है। उन्होंने जिज्ञासावश शबरी से इसका कारण पूछा। शबरी बोली – भगवन, इसके पीछे एक घटना है। यहाँ बहुत समय पूर्व ऋषि मातंग का आश्रम था। जहाँ बहुत से ऋषि-मुनि और विद्यार्थी रहा करते थे। एक बार चातुर्मास के समय आश्रम में ईंधन समाप्त प्राय था। वर्षा प्रारंभ होने के पूर्व ईंधन लाना जरूरी था। प्रमादवश विद्यार्थी लकड़ी लाने नहीं जा रहे थे। तब एक दिन स्वयं वृद्ध ऋषि मातंग अपने कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर लकड़ियाँ लाने चल दिए। गुरु को जाता देखकर विद्यार्थी भी उनके पीछे चले। सूखी-सूखी लकड़ियाँ काटी गईं तथा उन्हें बाँधकर वे लोग आश्रम की ओर लौटने लगे। हे राम, वृद्ध ऋषि के शरीर से श्रम बिंदु निकलने लगे। विद्यार्थी भी पसीने से तर-बतर हो गए। तब जहाँ-जहाँ श्रमबिंदु गिरे थे, वहाँ-वहाँ सुंदर फूल खिल उठे। जो बढ़ते-बढ़ते आज सारे वन में फैल गए हैं। यह उनका पुण्य प्रभाव ही है कि वे ज्यों के त्यों बने हुए हैं, कुम्हला नहीं रहे हैं। तात्पर्य यह है कि भली प्रकार से किए गए कार्य मधुर सुगंध देते हैं और मिट्टी पर ही खिलते हैँ। श्रम जीवी के शरीर से निकलनेवाला पसीना ही संसार का पोषण करता है और जीवन जीने की अनुकूल स्थिति पैदा करता है। इस प्रेरक प्रसंग का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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