शनिवार, 20 सितंबर 2008

आलोचना में असली चेहरा



डॉ. महेश परिमल
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता। वास्तव में आलोचना वह दर्पण है, जिसमें इंसान अपना असली चेहरा देखता है। जब एक व्यक्ति दूसरे से कहता है कि मैं उसकी रग-रग से वाकिफ हूँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह व्यक्ति उस तीसरे व्यक्ति के असली चेहरे से वाकिफ है। यह बात वह किसी अन्य से तो कह सकता है, किंतु संबंधित व्यक्ति को नहीं कह सकता, क्योंकि कोई भी अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता।
दूसरी ओर नेपोलियन का कहना था '' मैं सौ हितैषी अखबारों की अपेक्षा एक विरोधी अखबार से यादा डरता हूँ। '' इसका मतलब यही हुआ कि जो विरोधी होता है वह सच बोलता है। यह तो तय है कि आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ, जिसकी सारी बातें लोगों ने मानी। विरोध का सामना सबको करना पड़ता है। महात्मा गाँधी को ही लिया जाए, उनकी महानता से किसी को कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु उनके विचारों एवं स्वभाव का अक्षरश: पालन किया जाए, यह जरूरी नहीं।
जब हम किसी के विचार या स्वभाव को पूरी तरह से अंगीकार नहीं करते, तब हम यह अपेक्षा कैसे पाल लेते हैं कि लोग हमारे विचारों एवं स्वभाव का पालन करें। ऐसा संभव ही नहीं है। इस परिस्थिति में हमारे पास दूसरों के विचारों एवं स्वभाव को सहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं। यह सम्पूर्ण विश्व विचारों एवं स्वभावों के विराध का एक बाजार है। इसमें रहकर जो व्यक्ति दूसरे के विचारों एवं स्वभावों को जितना सहन कर लेता है, वह उतना ही महान एवं सुखी होता है।

यह विज्ञान का नियम है कि कोई भी दो वस्तु समान नहीं होती। इसीलिए हम अपने आसपास देखते हैं कि हर व्यक्ति के खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने, चलने-फिरने और काम धंधा करने के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। दूसरी ओर सोचने के ढंग में भी भिन्नता पाई जाती है। सोच की कोई सीमा नहीं होती। जुड़वा भाइयों का लालन-पालन एक होने के बाद भी उनके विचार अलग-अलग होते हैं। इसके अलावा मान्यताओं, धारणाओं एवं सिद्धांतो की भिन्नता का उदाहरण आज हर कदम पर मिल रहा है।
अब ऐसे मनुष्यों के बीच रहकर जो व्यक्ति दूसरों से समझौता नहीं कर सकता, वह व्यवहार में कैसे सफल हो सकता है। यह तय है कि जहाँ चार बर्तन होंगे, वहाँ आवाज तो होगी ही। उन्हें संभालकर रखना समझदार आदमी का काम है। दूसरे के स्वभाव एवं क्रियाओं को सहन किए बिना किसी का भी मन शांत नहीं हो सकता।
इस रास्ते पर चलते हुए बार-बार हमें एक चीज परेशान करती है, वह है अहंकार। जो व्यक्ति इस पर जितनी विजय प्राप्त करता है, वह उतना ही सहनशील होता है और सर्वजयी होता है। जो व्यक्ति हमारी रुचि का नहीं, वह हमारा शत्रु है, यह मानना हमारी ओछी मानसिकता को दर्शाता है। हम उसे अपना आईना समझें। ऐसे लोगों से हमें अपने आप में सुधार का मौका मिलेगा। हितैषी तो वही कहेंगे, जो हम चाहते हैं, पर विरोधी वही कहेगा जो सच है। सच के सहारे चलने वाला इंसान संतोषी होता है। झूठ का सहारा लेने वाला सदैव दु:ख पाता है। तो क्यों न सच को अपना साथी मानकर विरोधियों को अपना मित्र ही मानें।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. परिमल जी,
    आपके विचार सुलझे हुए और युक्तिसंगत हैं किन्तु "विरोधियों को अपना मित्र ही मानें। " का पालन करना बहुत ही कठिन है।

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