मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008
अपेक्षाओं का बोझ
डॉ. महेश परिमल
मेरा बच्चा अखबार ध्यान से पढ़ता है। कभी-कभी किसी खबर को लेकर बहस भी करता है। दिमागी कैनवास अभी बड़ा नहीं है, फिर भी कल्पना की ऊँची उड़ान उड़ लेता है। एक दिन उसने अखबार में 'चित्र देखो, कहानी लिखो' कॉलम पढ़ लिया। चित्र देख उसे एक कहानी सूझी। उसने कहानी लिखकर मुझे बताई। कहानी अच्छी थी। उसके शैक्षणिक स्तर के बराबर। पाँचवी कक्षा का छात्र उससे आगे कुछ सोच भी नहीं सकता था। कहानी रफ कॉपी में लिखी थी। मैंने उसे एक अच्छे पृष्ठ पर साफ-सुथरे ढंग से लिखने को कहा। उसने हाँ कह दिया।
आपको शायद विश्वास नहीं होगा, कहानी लिखकर भेजने की अंतिम तिथि निकल गई, लेकिन बच्चा अपनी कहानी साफ-सुथरे ढंग से अच्छे कागज पर नहीं लिख पाया। आप कारण जानना चाहेंगे ना, तो कारण भी सुन लीजिए, बच्चे के पास समय नहीं था।
जरा अपने बच्चों की दिनचर्या पर ध्यान दें। सुबह उठना, तैयार होना, छह घंटे बाद स्कूल से लौटना, भोजन, होमवर्क, थोड़ा आराम, टी.वी. पर कार्टून, नाश्ता-दूध, खेल, टयूशन के बाद रात का भोजन, मनपसंद धारावाहिक, देर रात सोना इसी में ही समाप्त हो गई दिनचर्या। अब आप बता सकेंगे किस समय पर कटौती करेंगे आप?
अब अपने अतीत की तरफ ध्यान दें। तब तो हमें केवल तीन काम आते थे- खेलना, खेलना और केवल खेलना। इस बीच थोड़ी पढ़ाई कर ली जाती थी। तब तो हमारे पास धींगा-मस्ती के लिए पर्याप्त समय था। पर आज के बच्चों के पास समय की कमी है। वह भी अच्छे कार्यों के लिए। इस पर कभी ध्यान दिया आपने?
लोग कहते हैं, आज के बच्चों पर किताबों का बोझ है। बस्ते का बोझ है जो उन्हें कुली बना रहा है, पर इसका दूसरा पहलू यह है कि बस्ते का बोझ तो बच्चा उठा ही रहा है, हमने उस पर अपेक्षाओं का जो बोझ लादा है ना, उसे वह सहन नहीं कर पा रहा है। फलस्वरूप आज के बच्चों ने तनाव का पाठ बचपन में ही पढ लिया है। अब वे भी तनाव में ही पलते-बढ़ते हैं। हमने कभी उनके तनाव का कारण जानने की कोशिश नहीं की। हमने तो उनकी स्कूल डायरी में शिक्षक के निर्देश भी नहीं पढ़े। हाँ, कुछ छोटी-मोटी परीक्षाओं में नंबर कम आने पर डाँट जरूर लगाई है। यहां आकर हमारी डयूटी खत्म। फिर हम भी व्यस्त हो गए, जीवन की भागम-भाग में।
हम पिता बन गए, पालक बन गए। बच्चे की उपलब्धि की शान बघारते रहे, पर अच्छे पिता या अच्छे पालक न बन कर जिम्मेदारियों से भागते रहे। बच्चे पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ लादा, पर उससे कभी यह न पूछा कि वह क्या चाहता है? उसे हमसे क्या शिकायत है?
- क्या बच्चे पर अपेक्षाओं का बोझ लादना ठीक है?
- क्या हम बच्चे का बचपन छिनने का गुनाह नहीं कर रहे?
- क्या हमने कभी बच्चे से उसकी पीड़ा जानने की कोशिश की?
- बच्चे के लिए शिक्षा आवश्यक है या संस्कार?
- क्या बच्चे को हमने बच्चा बनकर जाना है?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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