शनिवार, 10 अक्तूबर 2009
डॉक्टरों को बीमार करने वाला आदेश
डॉ. महेश परिमल
एक चौंकाने वाली खबर, जिससे डॉक्टर बीमार पड़ सकते हैं। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि एसेी कौन-सी खबर होगी, जिससे डॉक्टर बीमार हो जाएँगे। खबर यह है कि दवा कंपनियों ने यह तय किया है कि वह अब डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दी जाने वाली रिश्वत नहीं देंगी। आपका सोचना सही है कि डॉक्टर तो भगवान का दूसरा रूप है, उस पर भला कैसा अविश्वास? पर आपको बता दूं कि डॉक्टरों को फ्रीज, टीवी, एसी या अन्य महंगे सामान के अलावा बेटी की शादी के रिसेप्शन पर होने वाले खर्च, पत्नी की विदेश यात्रा और शापिंग का खर्च, इस तरह के अनेेक खर्च अब तक दवा कंपनियाँ करती ेआईं हैं। अब इन दवा कंपनियों ने यह निर्णय लिया है कि अब उनके द्वारा डॉक्टरों को किसी भी तरह से उपकृत नहीं किया जाएगा।
अमेरिका की फाइजर कंपनी को प्रतिबंधित दवाओं को बेचने के लिए डॉक्टरों को विभिन्न तरह से उपकृत करने के खिलाफ 2.3 अरब डॉलर का जुर्माना किया है। अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जो दवाएँ हानिकारक घोषित की गई थीं, वे दवाएँ डॉक्टरों के माध्यम से बेच दी गईं। इसलिए कंपनी को उक्त जुर्माना किया गया है। हमारे देश में भी अनेक मल्टीनेशनल कंपनियाँ गलत आचरण करती हैं, पर उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं हो पाती। भारत मेें दवाओं का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने केंद्र सरकार को यह सूचना दी है कि अब वे भी डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दी जाने वाली रिश्वत पर प्रतिबंध लगाने जा रहे हैं।
भारत में कार्यरत मल्टीनेशनल ड्रग्स कंपनियाँ डॉक्टरों को उपकृत करने के लिए जिस तरह से धन खर्च करती हैं, उसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। ग्लेक्सो स्मिथक्लिन नाम की विदेशी कंपनी ने मार्केटिंग के लिए सन 2001 में पूरे 20 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें से 90 प्रतिशत धन डॉक्टरों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिए गए हैं। फार्मा कंपनियों द्वारा मेडिकल रिपे्रजेंटेटिव की जो फौज तैयार की जाती है, उसका मुख्य काम डॉक्टरों को लुभाना ही है, डॉक्टर इनके प्रलोभन में आकर ऐसी-ऐसी दवाएँ लेने का आग्रह करते हैं, जिससे मरीज को कोई फायदा नहीं पहुँचता, फायदा केवल डॉक्टरों को ही होता है। आखिर दवा कंपनियाँ भी व्यापार करने बैठी हैं, कोई मुफ्त का माल भला क्यों देगा? डॉक्टरों को दी जाने वाली इतनी सुविधाओं के एवज में आखिर उसे भी तो कुछ चाहिए ही, इसलिए दवा कंपनियाँ डॉक्टरों पर ऐसे ही अपना धन नहीं लुटाती। वह तो अपनी दवाओं को बेचने के लिए उनका इस्तेमाल करती है।
समझ में नहीं आता कि मरीज जिसे भगवान मानकर अपनी पीड़ाएँ बताता है, ताकि वह स्वस्थ हो सके, लेकिन डॉक्टर अपना उद्देश्य भूलकर उसे ऐसी दवाएँ क्यों देता है, जिससे मरीज ठीक ही नहीं हो पाता। आखिर अपने व्यवसाय से इतना बड़ा धोखा कैसे कर लेते हैं ये डॉक्टर! दवा कंपनियों से गिफ्ट लेने के बाद वह दवा आखिर अपने प्रिस्किप्शन पर कैसे लिख देते हें ये डॉक्टर?
सरकार को हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती है कि दवाओं की कीमतों को कम कैसे किया जाए? जब सरकार ने इस बात की ओर ध्यान दिया, तो पता चला कि दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को जिस तरह से महँगे-महँगे उपहार देती हैं, आखिर उसे मरीजों की जेब से ही तो निकाला जा रहा है। कंपनी इस खर्च को निकालने के लिए दवाओं के दाम बढ़ा देती है और मध्यम वर्ग केवल हाय करके रह जाता है। दवा कंपनी को अचानक बह्म ज्ञान मिला कि यदि डॉक्टरों को उपहार आदि न दिए जाएँ, तो दवाओं की कीमत बढ़ाने की आवश्यकता ही क्यों होगी? अतएव इन कंपनियों ने तय किया कि अब डॉक्टरों की अनधिकृत सेवाएँ बंद। दूसरी एक और बात यह है कि जब डॉक्टरों को उपहारों की लत लग गई, तो ये लालची डॉक्टर दवा कंपनियों से नित नई माँग करने लगे। संभवत: इन्हीं माँगों से तंग आकर दवा कंपनियों ने यह निर्णय लिया है। इस दिशा में अब लोग भी जागरूक होने लगे हैं, वे भी दवा कंपनियों से माँग करने लगे हैं कि डॉक्टरों को गलत तरीके से दिए जाने वाले उपहार नहीं दिए जाने चाहिए। इससे मरीजों को ही नुकसान होता है।
अमेरिका की दवा बनाने वाली कंपनियों का वार्षिक मार्केटिंग बज 21 अरब डॉलर का है। इसमें से 90 प्रतिशत राशि तो केवल डॉक्टरों को लुभाने में ही खर्च होती है। ये कंपनियाँ भी दूर की सोचती हैं। डाक्टरी पढऩे वाले विद्यार्थी जब कॉलेज में होते हैं, तभी से ये कंपनियाँ उन्हें लुभाने में लग जाती हैं। जो विद्यार्थी तीसरे वर्ष में होते हैं, उनके लिए ये दवा कंपनियाँ हर सप्ताह एक कांफ्रेंस आयोजित करती हैं, इसमें उन्हें आमंत्रित करती हैं, उन्हें बेशकीमती उपहार देती हैं, तथा विभिन्न तरीके से खुश करने की कोशिश करती हैं। इस तरह से वे अपने भविष्य का एजेंट तैयार करती हैं।
अमेरिका के डॉक्टरों का एक समूह ने इस दिशा में लगातार दो वर्ष तक अध्ययन किया। इसके बाद वे एक निष्कर्ष पर पहुँचे। अपने निष्कर्षों पर उन्होंने एक पुस्तिका तैयार की। अब ये पुस्तिका अमेरिका के तमाम राज्यों तक पहुँचा दी गई है। इसमें यह सुझाव दिया गया है कि दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों को विभिन्न रूपों में दिए गए उपहारों और स्कॉलरशिप के बाद दवा के सेंपल न दे। इसके अलावा जो दवा कंपनियाँ डॉक्टरों के साथ आर्थिक संबंध रखते हैं, उन्हें किसी भी तरह का ऐसा अधिकार न दिया जाए, जिससे वे दवाओं की खरीदी कर सकें। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया सरकार ने ऐसी आचारसंहिता तैयार की है, जिसमें दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को अपना एजेंट बनाने के लिए जिस तरह से सेमिनार आयोजित करती हैं, उसकी जानकारी सभी नागरिकों को दी जाने चाहिए। इस निर्णय का सबसे अधिक विरोध दवा कंपनियों ने तो नहीं, पर डॉक्टरों की तरफ से हुआ। डॉक्टरों को इस बात का डर लगा कि दवा कंपनियाँ उन्हें जिस तरह से शाही सुविधाएँ दती हैं, इसकी जानकारी यदि नागरिकों को हो जाएगी, तो वे डॉक्टरों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगी।
आज के अधिकांश डॉक्टर अपने व्यवसाय में ही इतने अधिक व्यस्त होते हैं कि नई शोधों के बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं होता। यही नहीं, यदि कोई नई दवा बाजार में आई है, तो उसके गुण-दोष के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए मेडिकल जर्नल से कुछ जानकारी प्राप्त करने का भी समय नहीं होता। दवा कंपनियाँ ऐसे ही डॉक्टरों को अपना निशाना बनाती हैं। उसके एजेंट डॉक्टरों को नई दवाओं एवं इस क्षेत्र में हुए नए शोधों के बारे मेें जानकारी देते हैं। उसके बाद अपनी दवा को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए प्रिस्क्रिप्शन पर लिखने का आग्रह करते हैं। इस बीच यदि कोई सस्ती दवा बाजार में आई हो, तो डॉक्टरों को इसका पता ही नहीं चलता। न चाहते हुए भी मरीजों को महँगी दवएँा खरीदने के लिए विवश होना पड़ता है।
मुंबई की फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स नाम की एक संस्था ने कुछ समय पहले ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से भारत की दवा कंपनियों द्वारा अपनी दवाओं को बेचने के लिए किए जाने वाले तमाम प्रयासों पर गहरा अध्ययन किया। इस दौरान 6 महीनों में इस संस्था ने करीब 100 डॉक्टरों, केमिस्टों, मेडिकल रिप्रेजेंंटेटिव्ह और फार्मा कंपनी के संचालकों का साक्षात्कार लिया। इस अध्ययन में कई चौंकाने वाली जानकारी मिली। फार्मा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को महँगे उपहार दिए जाते हैं। यही नहीं उन्हें अपना नसिँग होम खोलने के लिए आर्थिक मदद भी दी जाती है। इन मुफ्तखोर डॉक्टरों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि वे फार्मा कंपनियों को धमकी भी देने लगे हैं कि यदि आप हमारी सहायता नहीं करेंगे, तो हम आपकी दवाओं का बहिष्कार शुरू कर देंगे। इसके अलावा कितने ही केमिस्टों ने कुछ दवा कंपनियों की दवा बेचने के लिए तगड़ी रिश्वत की माँग करने की जानकारी इस अध्ययन में दी गई है। कितने ही प्रख्यात डॉक्टरों की बेटी की शादी का रिसेप्शन खर्च भी ये दवा कंपनियाँ उठाती रहीं हैं। कुछ तो इससे आगे बढ़कर डॉक्टर की बेटी के दहेज का सामान भी व्यवस्था दवा कंपनियों ने की है। डॉक्टरों की मेडिकल कांफ्रेंस के नाम पर पत्नियों के साथ विदेश प्रवास और वहाँ की जाने वाली शापिंग का खर्च भी दवा कंपनियाँ उठाती रहीं हैं। मुंबई के एक डॉक्टर तो लेडिस बार में जाने के शौकीन थे। वे बियर बार मेें जाकर जो भी खर्च करते, वह खर्च दवा कंपनी उठाती। दव कंपनियाँ इस खर्च को मनोरंजन खर्च के रूप में चुकाती थी। इन सब खर्चों का मुआवजा आखिर गरीब जनता को ही देना पड़ता।
अमेरिका के एक राज्य द्वारा कानून का प्रावधान किया गया है कि यदि दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को किसी तरह से उपकृत करती हैं, तो इसकी जानकारी नागरिकों को दी जानी चाहिए। इसके पीछे यही उद्देश्य था कि दवा कंपनियों द्वारा डॉक्टरों की दी जाने वाली तमाम सुविधाओं की जानकारी आम नागरिकों को भी पता चला। यदि डॉक्टर अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं, तो उन्हें इस पर कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। अफसोस इस बात का है कि दवा कंपनियों और डॉक्टरों की साँठगाँठ के कारण यह कानून नहीं बन पाया।
हमारे देश में भी लोगों के पास सूचना का अधिकार है। यदि नागरिकों को यह पूछने का अधिकार मिल जाए कि आखिर डॉक्टरों का दवा कंपनियों से क्या संबंध हैं, दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को किस तरह से उपकृत करती हैं। डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच क्या कारक काम करते हैं। यदि कोई मरीज डॉक्टर से इस तरह के सवाल करता है, तो उसका सही जवाब मिलेगा, इसकी संभावना कहाँ तक है? क्या उपहार लेकर एक निश्चित दवा का प्रिस्क्रिप्शन लिखकर डॉक्टर अपने पेशे और मरीज के साथ न्याय कर रहा है? डॉक्टरों की दादागिरी को लेकर दवा कंपनियाँ अभी भले ही यह घोषणा कर रही हों कि वे डॉक्टरों को किसी भी तरह का उपहार नहीं देंगी। पर अपनी दवाओं के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें डॉक्टरों की आवश्यकता पड़ेगी ही, यह भी सच है। इसके लिए तो सरकार को ही आगे आकर इस दिशा में सख्त कानून बनाकर मरीजों को लाभ पहुँचाना चाहिए। पर सरकार की ढुलमुल नीति के आगे यह संभव हो पाएगा, इसमें शक है।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है . कुछ समय पहले इंग्लैंड की एक प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका में समाचार था कि ३०% की रिपोर्ट जो मेडिकल पत्रिकाओं में छपती हैं वो प्रायोजित हैं मेडिकल कंपनियों द्वारा ? यह बीमारी वैश्विक है . इसके बारे में सरकार को पता भी है . सरकार भी जिम्मेदार है दवाइयों की कीमत में बढोतरी के लिए . सबसे पहले MRP श्रेणी में लाकर खुली छूट दे दी इनको. जेनेरिक और पेटेंट दवा की कीमतों में जमीन आसमान का अंतर. दवा के अलावा अन्य सामानों में सैकडों प्रतिशत की मार्जिन (surgical गुड्स) . दवा असोसिएशन द्वारा हर नयी दवा के लिए मोटी रकम वसूलना . ये सारे कारण जिम्मेदार हैं स्वाश्थ्य सेवाओं में भ्रष्टाचार के . आज अस्पताल में भरती मरीज के खर्च का ४० से ५० प्रतिशत हिस्सा फार्मा कंपनी के पास जाता है .
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