बुधवार, 14 अक्तूबर 2009
आखिर कब रुकेगी महंगाई
सरकार ने शिक्षा एवं चिकित्सा दोनों महंगी कर रखी हैं। मकान किराया कई गुना बढ़ गया है। आवासीय समस्या से चिंतित लोगों को सरकार ने आवासीय योजनाओं के तहत झुनझुना पकड़ाया। ढंग का मकान बना पाना एक बहुत ही मुश्किल काम हो गया। पति-पत्नी दोनों कमाऊ हैं तो जुगाड़ जम भी सकता है अन्यथा समस्या विकट होती जा रही है। निजी क्षेत्रों में रोजगार जरूर हैं किंतु सुरक्षा की कहीं कोई गारंटी नहीं।महंगाई की मार ने देशवासियों की दीवाली फीकी कर दी। मंदी की मार से शायद दीपावली के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था उबर जाए। बारिश ने किसानों की चिंताएं कुछ हद तक जरूर कम कर दी। चिंता सिर्फ महंगाई को लेकर बढ़ रही है क्योंकि महंगाई सुरसा के मुंह की तरह ही बढ़ती जा रही है।आम इंसान अपनी ढीली पड़ती जेब से तंगहाल है। कृषि मंत्री शरद पवार और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अलग डरा रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। सवाल यह उठता है कि महंगाई के अनुपात में आम इंसान की आय क्यों नहीं बढ़ पा रही हैं। छठे वेतन आयोग से लाभान्वित सरकारी नौकरशाह जरूर खुश हैं। बोनस से वंचित गैर-सरकारी क्षेत्रों में सेवारत नागरिकों की नींद हराम हो चुकी है।सरकार ने शिक्षा एवं चिकित्सा दोनों महंगी कर रखी हैं। मकान किराया कई गुना बढ़ गया है। आवासीय समस्या से चिंतित लोगों को सरकार ने आवासीय योजनाओं के तहत झुनझुना पकड़वाया। ढंग का मकान बना पाना एक बहुत ही मुश्किल काम हो गया। पति-पत्नी दोनों कमाऊ हैं तो जुगाड़ जम भी सकता है अन्यथा समस्या विकट होती जा रही है।निजी क्षेत्रों में रोजगार जरूर हैं किंतु सुरक्षा की कहीं कोई गारंटी नहीं। शासकीय नौकरी पाना स्वयं में किसी बहुत बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। नौकरी मिल नहीं रही और जिन्हें किस्मत से मिल गई है, उनके दिमाग सातवें आसमान पर हैं। विगत दो माह से हर तरफ हड़ताल ही हड़ताल तो जारी है। सभी को चाहिए कि अधिक से अधिक वेतन और अधिक से अधिक भौतिक सुख-साधन। चीनी, अनाज, दलहन और तिलहन के बढ़ते हुए दामों ने आम इंसान के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। खाने की थाली दिन-प्रतिदिन छोटी होती जा रही है और दाम बढ़ते जा रहे हैं। पांच रुपये में तो ठीक से चाय भी नहीं मिल पा रही है। अन्य वस्तुओं की तो बात ही अलग है। लोगों ने कम चीनी वाली बगैर दूध की चाय पीनी शुरू कर दी है। आखिर क्यों नहीं रूक पा रही है महंगाई। सरकार निगेटिव महंगाई के आंकड़े दिखा दिखा कर सामान्य वर्ग की हताशा बढ़ा रही है। इस महंगाई में यदि कोई खुश है तो वह सिर्फ खुदरा व्यापारी, जमाखोर, मिलावटखोर और पुलिस तंत्र। दु:खी है तो सिर्फ गरीब किसान और पढ़ा-लिखा वह वर्ग जो रोजगार से वंचित है या फिर गैर-सरकारी संस्थानों में सेवारत वह वर्ग जो विगत अनेक वर्षो से सम्मानजनक वेतन से वंचित है। शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधक अपनी तो तिजोरियां भर रहे हैं किंतु शिक्षक और विद्यार्थी वर्ग त्रस्त हैं। पिछले पांच वर्षो में न्यूनतम समर्थन मूल्य और थोक मूल्यों में 30 से 35 प्रतिशत का अंतर है और थोक के मुकाबले खुदरा मूल्य में 60 से 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। किसानों से आठ से दस रुपये प्रति किलो खरीदी जाने वाली धान की कीमत उपभोक्ताओं तक पहुंचते पहुंचते 25 से 30 रुपये प्रति किलो हो जा रही है। 20 से 22 रुपये प्रति किलो खरीदी जाने वाली अरहर दाल उपभोक्ताओं ने संभवत: 80 से 110 रुपये प्रति किलो पहली बार खरीदी। शुद्ध फली तेल 110 रुपये प्रति किलो तक उपभोक्ताओं ने खरीदा। चीनी के 40 रुपये प्रति किलो तक जाने के प्रबल आसार हैं। 500 के नोट की हालत 50 रुपये जैसी हो गई है। ऐसी विकट स्थिति में भी 500 से 1000 रुपये मासिक आमदनी वाले लोग गृहस्थी चला रहे हैं। किसानों को बाजार का फायदा यदि मिल पाता तो निश्चित रूप से प्रति-व्यक्ति आय में जबरदस्त इजाफा हो चुका होता। गौरतलब है कि भारत में मानसून की अनियमितता और सूखा कोई नयी बात नहीं किंतु महंगाई का जो तांडव देशवासियों ने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के राज में देखा, पहले कभी नहीं देखा।महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए सरकार गेहूं और चावल के निर्यात को नियंत्रित कर चुकी है, कर रहित चीनी को मंजूरी दे चुकी है लेकिन महंगाई है कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही है। सच तो यह है कि महंगाई के मूल कारण जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकने की सरकार ने कोई खास आवश्यकता महसूस नहीं की। विपक्ष ने भी महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की जरूरत महसूस नहीं की। यदि ईमानदारी से जमाखोरी और मुनाफाखोरी के खिलाफ मजबूत नीतियां बनायी गई होती तो महंगाई पर अंकुश जरूर लग गया होता।कम उत्पादन को महंगाई का कारण बताकर कृषिमंत्री एवं पी.एम सरकार का बचाव करने में जरूर सफल हो गए। मानसून की अनियमितता की बात चावल के कम उत्पादन तक तो उचित लगती है, दलहन और तिलहन के लिए नहीं।विगत वर्ष जब महंगाई बढ़ी तो सरकार ने मूल्य वृद्धि का कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के बढ़ते हुए दाम बताए थे लेकिन तेल की कीमत घटने के बाद भी महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही है। दुरूस्त आर्थिक नीतियों की आवश्यकता को सरकार अनदेखी कर रही है। सरकारी नीति और निवेश में कृषि की अपेक्षा, किसानों को दी जाने वाली सुविधाओं में कमी, लागत खर्च में वृद्धि, अनाज की जमाखोरी जारी है। सरकार कर क्या रही है, समझ में नहीं आ रहा है। खाद्य पदार्थो के उचित वितरण की सुव्यवस्था जरूरी है। काले धन की आजादी और वायदा बाजार को छूट देने की नीति की समीक्षा जरूरी है।
राजेन्द्र मिश्र ‘राज’
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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