भारत के मशहूर फ़िल्मकार और अभिनेता गुरूदत्त की मौत के 45 साल बाद उनके वतन से हज़ारों मील दूर न्यूयॉर्क में उनको उनकी फ़िल्मों के सहारे याद किया जा रहा है.वर्ष 1964 में 10 अक्तूबर के दिन 39 साल की उम्र में ही गुरूदत्त ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था.इस सप्ताह उनकी याद को ताज़ा करने और उन्हे श्रद्धांजलि देने के मकसद से न्यूयॉर्क के मशहूर लिंकन सेंटर में उनकी फ़िल्मों को दिखाया जा रहा है.यह पहला मौक़ा है कि जब अमरीका में गुरूदत्त की फ़िल्मों का उत्सव हो रहा है.मैनहैटन के प्रतिष्ठित लिंकन सेंटर में 'अ हार्ट ऐज़ बिग ऐज़ द वर्ल्ड' नामक इस फ़िल्मोत्सव में गुरूदत्त की आठ फ़िल्मों का प्रदर्शन किया जा रहा है.आइए कुछ और जाने गुरुदत्त् के बारे में
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
प्यासा. कागज के फूल. चौदहवीं का चांद. साहिब बीबी और गुलामÓकुछ फिल्में हैं. जिनका नाम लेते ही एक ऐसे संजीदा फिल्मकार की याद ताजा हो जाती है. जिसे विषय और भावों के प्रस्तुतीकरण. गीतों के फिल्मांकन. ²श्यों में प्रकाश और छाया के अद्भुत संयोजन तथा कैमरे के इस्तेमाल की विशिष्ट शैली के लिए हमेशा सराहा जाता रहा है ।फिल्म निर्माण की हर विधा में माहिर गुरुदत्त को फिल्में बनाने का जुनून इस कदर था कि पर्याप्त समय नहीं देने के कारण उनका पारिवारिक जीवन बिखर गया । इस गम को उन्होंने शराब के प्याले में डुबोने की कोशिश की और जब उन्होंने मौत को गले लगाया तो वह बिल्कुल तन्हा थे ।
कम उम्र में ही सब कुछ हासिल कर लेने और पारिवारिक जीवन की असफलता के कारण गुरुदत्त .जीवन की निस्सारता. के गहन अहसास से भरे रहा करते थे। यह बात प्यासा. कागज के फूल और साहिब बीबी और गुलाम जैसी उनकी फिल्मों में देखी जा सकती है। गुरुदत्त की फिल्मों के कैमरामैन वी के मूॢत ने ताया था किÓचौदहवीं का चांदÓ फिल्म के लिए बडौदा में लोकेशन की तलाश करते समय उन्होंने Óप्यासाÓ के एक गीत की पंक्ति Óये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है. उन्हें सुनाई । जब मूॢत ने पूछा कि उन्होंने
अचानक यह क्यों कहा तो गुरुदत्त ने कहाÓ मुझे वैसे ही लग रहा है। देखो नÓ मुझे डायरेक्टर बनना था. डायरेक्टर बन गया. एक्टर बनना था. एक्टर बन गया. पिक्चर अच्छी बनानी थी. अच्छी बनाई। पैसा है. सब
कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा।
जीवन की निस्सारता का भाव उनमें इतना प्रबल था कि उन्होंने तीन बार आत्महत्या का प्रयास किया। दो मौकों पर तो वह बच गए लेकिन तीसरी बार मौत ने उनका हाथ पकड ही लिया। काले रंग को बेहद पसंद करने के पीछे भी शायद जीवन को निस्सार समझने की उनका गहन भाव ही था। उनकी फिल्मों में भी किरदारों की भावाभिव्यक्ति के लिए अंधेरे का खूबसूरत इस्तेमाल किया गया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने निराशावादी फिल्में ही बनायीं.जैसा उनके परम मित्र देवानन्द कहते हैं। उन्होंने बाजी. जाल. आर पार. मिस्टर ऐंड मिसेज ५५. सी.आई.डी. और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्मों का निर्माण और निर्देशन भी किया . जिसमें रहस्य. रोमांच. हास्य.आदि तत्व थे। प्यासा. साहिब बीबी गुलाम और कागज के फूल जैसी जिन फिल्मों के लिए उन पर निराशावादी होने का आक्षेप लगाया जाता है. उनमें वास्तव में जर्जर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश से उत्पन्न निराशा का स्वर देखने को मिलता है। प्यासा में उन्होंने दिखाया कि समाज रचनाकार का जीते जी सम्मान तो नहीं करता लेकिन मरने पर उसकी मूॢतयां बनवाता है और उसे सम्मानित करने का आडम्बर करता है। यह भी कि सुंदर वों में मुखौटों के पीछे कितनी विद्रूपताएं छिपी हैं जबकि जिन्हें हम पतित मानते हैं. उनमें भी ऐसे लोग मिलते हैं. जिनकी निष्कपटता. सरलता और सज्जनता की बराबरी तथाकथित सफेदपोश नहीं कर सकते। इसी तरह साहिब बीबी और गुलाम में जर्जर सामंती व्यवस्था . नारी के समर्पण की पराकाष्ठा और अनादि समय में मनुष्य की नश्वरता का माॢमक फिल्मांकन किया गया था। भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म Óकागज के फूलÓ सफलता और लोकप्रियता तथा उससे मिले एकाकीपन को खूबसूरती से चित्रित करती है। यह फिल्म दिखाती है
कि व्यक्ति को लोकप्रियता की कितनी बडी कीमत चुकानी पडती है और आखिरी में उसके हिस्से तन्हाई ही आती है। Óदेखी जमाने की यारी. बिछडे सभी बारी. बारीÓ वक्त ने किया क्या हसीं सितम. हम रहे
न हम तुम रहे न तुमÓ आदि इस फिल्म के गीत जीवन की इसी सच्चाई को बयान करते हैं।
निर्माता.निर्देशक.नृत्य निर्देशक.कहानी लेखक और अभिनेता गुरुदत्त के नाम में Óदत्तÓ लगा होने के कारण अधिकतर लोग उन्हें बंगाली मानते थे जबकि उनका जन्म कर्नाटक के दक्षिण कनारा जिले के एक पनम्बूर में चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था और उनका वास्तविक नाम वसंत कुमार शिवशंकर राव पादुकोण था। उनके पिता पहले एक स्कूल में हेडमास्टर थे लेकिन बाद में वह एक बैंक में काम करने लगे थे जबकि उनकी मां वसंती प्रारंभ में गृहिणी थी लेकिन बाद में वह एक स्कूल में पढाने लगीं और घर में बच्चों को ट्यूशन दिया करती थीं। उन्होंने कई लघु कथाएं भी लिखीं और कन्नड भाषा में बंगला उपन्यासों का अनुवाद भी किया।
गुरुदत्त तीन भाइयों आत्माराम. देवीदास और विजय तथा एक बहन ललिता के बीच सबसे बडे थे। निर्देशिका कल्पना लाजमी उनकी भांजी हैं। उन्होंने अपना काफी समय रिश्ते के एक मामा बालकृष्ण बी
बेनेगल के साथ बिताया. जो सिनेमा के पोस्टर बनाया करते थे। फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल इन्हीं बालकृष्ण के छोटे भाई श्रीधर बी. बेनेगल के पुत्र हैं। गुरुदत्त के पिता जब बर्मा शेल कम्पनी में प्रशासनिक क्लर्क के रूप में काम करने के लिए कलकत्ता.अब कोलकाता. चले गए तो वह भी पिता के साथ वहां गए। वहां उन्होंने अपनी स्कूल की पढाई पूरी की। वहीं पर उन्होंने धाराप्रवाह बंगला भाषा बोलना सीखा। वहां की संस्कृति की छाप उनकी फिल्मों में दिखाई देती है। १९४० के दशक में गुरुदत्त जब बम्बई.अब मुम्बई. आए तो उन्होंने अपने नाम के पीछे से शिवशंकर पादुकोण हटा दिया। हालांकि गुरुदत्त पढाई में अच्छे थे
लेकिन घर में आॢथक समस्याओं के कारण वह कभी कालेज नहीं जा सके। इसके बजाय उन्होंने १९४। में सोलह साल की उम्र में प्रख्यात सितार वादक रविशंकर के बडे भाई उदय शंकर के अल्मोडा स्थित
इंडिया कल्चर सेंटर में दाखिला ले लिया और नृत्य. नाटक तथा संगीत की शिक्षा लेने लगे। उस दौरान उन्हें सालाना ७५ रपए की छात्रवृत्ति मिलती रही। १९४४ में द्वितीय विश्व युद्ध बढने पर सेंटर के बंद होने पर
वह कलकत्ता चले गए और वहां लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन आपरेटर की नौकरी करने लगे लेकिन जल्दी ही उन्होंने यह नौकरी छोड दी और १९४४ में अपने माता.पिता के पास बम्बई चले आए।
गुरुदत्त बम्बई में आने के बाद पुणे में प्रभात फिल्म कम्पनी के लिए तीन वर्ष के अनुबंध पर कोरियोग्राफर के रूप में काम करने लगे। इसी दौरान उनकी दोस्ती अभिनेता देवानन्द और रहमान से हुई। उन्होंने १९४४ मेंÓ चांदÓ फिल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका से अभिनय की शुरआत भी कर दी। १९४५ में उन्होंने लाखारानी में निर्देशक विश्राम बेडेकर के साथ निर्देशन का जिम्मा भी संभाला। इसके बाद १९४६ में गुरुदत्त ने पी एल संतोषी की फिल्मÓहम एक हैंÓके लिए सहायक निर्देशक के रूप में काम किया और नृत्य निर्देशन भी किया। १९४७ में प्रभात फिल्म कम्पनी का अनुबंध समाप्त होने के बाद वह प्रभात फिल्म कम्पनी और स्टूडियो के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बाबूराव पै के साथ बतौर स्वतंत्र सहायक निर्देशक का काम करने लगे लेकिन उसके बाद उन्हें लगभग दस महीने तक बिना काम के रहना पडा। उसी दौरान उन्होंने स्थानीय पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया के लिए अंग्रेजी में लघु कथाएं लिखनी शुर कर दीं। समझा जाता है कि उसी दौर में उन्होंने कशमकश नाम से कहानी लिखी. जिस पर उन्होंने बाद मेंÓप्यासाÓनाम से फिल्म बनाई।
जीवन के इसी दौर में उनकी दो बार शादी होते. होते रह गई। पहले वह पुणे से विजया नाम की लडकी के साथ लापता हो गए थे और दूसरी बार उनके माता. पिता ने हैदराबाद में उनकी सुवर्णा नाम की लडकी से शादी तय कर थी. जो उनकी भांजी थी। गुरुदत्त अपनी फिल्मों की क्वालिटी को लेकर किसी तरह का समझौता करना पसंद नहीं करते थे और पूर्णता में विश्वास रखते थे। इसकी एक मिसाल उनके कैमरामैन के वी मूॢत ने दी है। Óप्यासाÓ के एक सीन में गुरुदत्त को लंबा संवाद बोलना था. जिसे वह बार. बार भूल जा रहे थे लेकिन वह किसी भी तरह यह सीन पूरा करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने १०४ रीटेक दिए। मूॢत ने बताते थे Óहमने शाम पांच बजे उस सीन की शूङ्क्षटग शुरु की और रात साढे दस बजे तक भी शाट ओके नहीं हो पाया। तब मैंने उनसे कहा कि यह शाट अगले दिन लिया जा सकता है लेकिन वह अडे रहे। आखिरकार रात साढे ग्यारह बजे हमने पैक अप कर दिया और अगले दिन सुबह पहले ही टेक में शाट
ओके हो गया ।' गुरुदत्त प्रयोगधर्मी फिल्मकार थे। भारतीय फिल्म इतिहास में कई नये प्रयोगों का Ÿोय उन्हें जाता है। पहली सिनेमास्कोप फिल्मÓकागज के फूलÓ का निर्माण उन्होंने ही किया था। इसके अलावा उन्होंने चेहरे के सूक्ष्म भावों को स्पष्टता से प्रदॢशत करने के वास्ते क्लोज अप शाट के लिए ७५ एम एम के लेंस का इस्तेमाल किया। वह पहले डायरेक्टर थे. जिन्होंने अपनी फिल्मों के लिए क्लोज अप शाट
लिए।
गुरुदत्त अपने व्यावसायिक जीवन में जितने सफल रहे. पारिवारिक जीवन में वह उतने ही असफल साबित हुए। इसकी वजह से वह अपनी गायिका पत्नी गीता दत्त. मूल नाम गीता रायÓ और अपने परिवार से दूर होते चले गए। वहीदा रहमान के साथ उनके कथित प्रेम संबंध ने इन दूरियों को और बढा दिया। दोनों के बीच संदेह की दीवार खडी हो गई। हालांकि गुरुदत्त अपनी खोज वहीदा के साथ अपने रिश्ते को कला के उपासक का नाम देते रहे लेकिन गीता दत्त यह बात मानने के लिए तैयार नहीं थी। बताया जाता है कि
उन्होंने उनका पीछा करना शुर कर दिया। यह देखकर गुरुदत्त आहत हो गए और परिवार से अलग रहने लगे। अवसाद के इन क्षणों में वह जमकर शराब पीने लगे और अनिद्रा का शिकार होने पर नींद की गोलियां लेने लगे। बताया जाता है कि १० अक्टूबर १९६४ को उन्होंने शराब में नींद की कई गोलियां डालकर पी थी.जिससे उनकी मौत हो गयी। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने आत्महत्या की। सच्चाई चाहे कुछ भी हो लेकिन ३९ साल की उम्र ही गुरुदत्त सिनेमा को जो दे गए. अनेक वर्षों तक भी शायद ही कोई कर पाए।
शायर कैफी आजमी के शब्दों में उनके लिए यही कहा जा सकता हैÓ उड जा उड जा प्यासे भंवरे. रस न मिलेगा खारों में कागज के फूल जहां खिलते हैं. बैठ न उन गुलजारों में नादान तमन्ना रेती में उम्मीद की कश्ती खेती है इक हाथ से देती है दुनिया. सौ हाथों से ले लेती है।
प्रेम कुमार
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
न्यूयार्क में गुरुदत्त का स्मरण
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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