












कुछ सोचा आपने, नहीं सोचा,तो हो जाए, एक लम्बा कश जिंदगी का .........
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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parimalmahesh@gmail.com
दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था, वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे। इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैरजिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 वर्ष की अवधि में करीब तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में पर्यावरण के लिए घातक कही जाने वाली गैसों के उत्सर्जन में 1994 की तुलना में 2007 तक आए परिवर्तन का आंकलन है। हालांकि ये रफ्तार अमेरिका और चीन के मुकाबले काफी कम है। अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है। पर फिर भी तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी को कहीं न कहीं रणनीति पर पुनर्विचार के संकेत के रूप में देखा ही जाना चाहिए। ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है। ये गैसंे खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा लगातार फैल रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है। इस कवच के कमजोर पड़ने का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना। मौजूदा वक्त में ही हम काफी हद तक उस स्थिति को महसूस कर रहे हैं। इस साल गर्मी ने अप्रैल-मई में ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। अब जरा सोचिए कि अगर तापमान बढ़ने की रफ्तार कुछ यही रही तो आने वाले कुछ सालों में क्या दिन में घर से बाहर निकलना मुमकिन हो पाएगा। हो सकता है कि दिन में लगने वाले बाजार रात में लगे, लोग रात को शॉपिंग पर जाएं, दफ्तरों में काम रात में हो। यानी दिन रात बन जाए और रात दिन। ये बातें अभी सुनने में जरूर अजीब लग रही होंगी, लेकिन जितनी तेजी से मौसम में परिवर्तन हो रहा है, उसमे कुछ भी मुमकिन है। इसलिए विश्व के हर मुल्क को अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करने जैसे कदम उठाने होंगे। छोटे-छोटे प्रयासों से ही बड़ी-बड़ी योजनाओं को मूर्तरूप दिया जा सकता है। अगर अब भी हम विकसित और विकासशील के झगड़े में उलझकर एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहेंगे तो हमारा आने वाला कल निश्चित ही अंधकार मे होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने का सबसे कारगर तरीका यही हो सकता है कि प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम किया जाए, और उसके लिए यातायात के परंपरागत साधनों को अपनाने में शर्म हरगिज महसूस नहीं होनी चाहिए। फिलीपिंस की राजधानी मनीला ने इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, जिसपर विचार किया जा सकता है। मनीला प्रशासन ने बैटरी चलित बसों को पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के काम में लगाया है और इसमें यात्रा बिल्कुल मुफ्त रखी गई है। ऐसा निजी वाहनों के प्रयोग में कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। सारा खर्चा प्रशासन खुद वहन कर रहा है। इस योजना के शुरू होने के बाद से काफी तादाद में लोगों ने दफ्तर आदि जाने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग बंद कर दिया है। जरा अंदाजा लगाइए कि प्रतिदिन यदि 100 वाहन भी सड़क पर नहीं दौड़े तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचा होगा। भारत में तांगे-रिक्शे के रूप में अच्छे-खासे विकल्प मौजूद हैं मगर स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार दोनों ही आधुनिकता का चोला ओढ़ने पर आमादा हैं। यूएन की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ समय पूर्व ये खुलासा किया गया था कि आने वाले 20 से 30 साल में भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में शुमार होगा। यहां, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसारएशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉमिर्ंग से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। ऐसे ही सांइस पत्रिका की प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और ज्यादा गिरावट आएगी। इस लिहाज से देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के खतरे को भारत सरकार जितना कम आंकती आई है, हालात उससे ज्यादा खराब होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकार जितनी ढुलमुल है उतनी ही सुस्त यहां की जनता भी है। अगर सरकार की तरफ से कोई पहल की भी जाती है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग उसका खुलेदिल से स्वागत करेंगे। अर्थ ऑवर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। देश की आबादी का एक बड़ा तबका इसे महज चोचलेबाजी करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है, जबकि ग्लोबल वॉमिर्ंग के खतरों से वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए पर्यावरण मंत्रालय को अब अपनी आराम तलबी की आदत से बाहर निकालकर कुछ कदम उठाने चाहिए, उसे महज अर्थ ऑवर जैसी अपील करने के बजाए दिशा निर्देश तय करने होंगे जिसका पालन करने के लिए हर कोई बाध्य हो। कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जैसे ताजमहल आदि के आस-पास एक निर्धारित परिधि में वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध है, केवल बैटरी चलित वाहन ही वहां जा सकते हैं। इस व्यवस्था का शुरूआत में जमकर विरोध हुआ लेकिन आज सब इसके आदि हो चुके हैं। इसी तरह वो प्रमुख शहर जो प्रदूषण फैलाने में सबसे आगे हैं, के कुछ इलाके चिन्हित करके वहां ऐसी व्यवस्था लागू करने पर विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। सड़कों पर जितने ज्यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही अल्हादित करने वाली होंगी। अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है। कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे।
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मसलन वीजा संबंधी नियमों को कड़ा बनाने के सरकार के फैसले पर सवाल खड़े करना। इस संबंध में उन्होंने ट्विीट किया, क्या इससे सचमुच सुरक्षा बढ़ेगी? क्या आतंकवादी इसमें सफल होंगे कि भारत यहां आने वाले के प्रति बेरूखी दिखाए? याद रहे कि 26/11 के हमलावरों के पास कोई वीजा नहीं था। क्या यह सब हेडली जैसे किसी के लिए भारत में आना और घूमना वाकई मुश्किल बना पाएगा? इससे तो ज्यादातर हमारे पड़ोसी नागरिकों या मासूम लोगों की ही तकलीफें बढ़ेंगी और हमें लाखों डॉलर्स का नुकसान होगा, सो अलग। गौर से सोचा जाए तो थरूर के इस बयान में बवाल मचाने लायक कुछ भी नहीं है। उन्होंने बिल्कुल सही नब्ज पकड़ी, भारत में सख्त कानूनों की कोई कमी नहीं है, पर क्या उनका कड़ाई से पालन हो पाता है। जरूरी नहीं है कि नई व्यवस्थाएं स्थापित की जाएं, पुरानी व्यवस्थाओं को दुरुस्त करके भी हालात सुधारे जा सकते हैं। ऐसे ही राजनेताओं और नौकरशाहों के एक सम्मेलन में थरूर ने कहा था कि गांधी और नेहरू ने दुनिया के मंच पर जिस तरह से भारतीय सभ्यता और संस्कृति की छवि पेश की, वह दुनिया के देशों को उपदेश लगा। और इसके चलते कहीं न कहीं भारतीय विदेश नीति को लेकर दूसरे देशों में भारत की नकारात्मक छवि बनी। ये बात गांधी-नेहरू समर्थकों को चुभना लाजमी है, और चूंकि कांग्रेस खुद इस खानदान से है इसलिए शशि थरूर साहब को उसके तीखे तेवर झेलने पड़े। मगर भारतीय विदेश नीति में जवाहर लाल नेहरू के योगदान और उनकी गलतियों का आकलन करने वाले शायद ही थरूर के खिलाफ नहीं जाते। चीन के साथ युद्ध के जिस दंश को भारत आज भी महसूस करता रहता है, वो नेहरूजी की गलतियों का ही नतीजा था। थरूर महज गली-मोहल्ले की राजनीति से उठकर विदेश मंत्रालय तक नहीं पहुंचे थे, उनकी शैक्षणिक योग्यता इतनी है कि वो सही या गलत में अंतर कर सकें। खैर आईपीएल में बैकडोर से एंट्री मारने का प्रयास करना शायद उनकी सबसे बड़ी गलती थी और इसका पता अब तक उन्हें चल गया होगा। जहां तक जयराम रमेश की बात है तो उनके भी कुछ बयानों की गंभीरता को समझना जरूरी है। चीन में वो जो कुछ भी बोले उसे कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता। खासकर चीन के मुद्दे पर तो किसी भारतीय मंत्री का इस तरह का रवैया ना तो विपक्षी दलों को समझ में आएगा और न ही जनता को। रमेश ने बीजिंग पत्रकारों से बातचीत में कहा कि भारत का गृहमंत्रालय चीनी कंपनियों के प्रति जरूर से ज्यादा ही सुरक्षात्मक रवैया और सावधानी बरत रहा है। उन्होंने ये भी कहा था कि गृहमंत्रालय को अपना नजरीया बदलना चाहिए। चीन को लेकर भारत सरकार पहले से ही आवश्यकता से अधिक उदारवादी नीति अपनाती आई है, ये उदारवादी नीति का ही हिस्सा है कि हम सीमा विवाद जैसे मुद्दे को छूना भी नहीं चाहते। चीनी सैनिकों की घुसपैठ को कोरी अफवाह करार दे देते हैं। इससे ज्यादा अगर भारत उदारवादी हुआ तो चीन की राजधानी बीजिंग नहीं दिल्ली होगी। लेकिन रमेश ने पॉलीथिन बैग्स, गंदगी का नोबल और दीक्षांत समारोह के पारंपरिक परिधान को लेकर जो बयान दिए उन्हें पूरी तरह से गलत करार नहीं दिया जा सकता। सबसे पहले पॉलीथिन बैग्स पर प्रतिबंध की मुखालफत करके जयराम रमेश सुर्खियों में आए। उनका कहना था कि प्रतिबंध किसी समस्या का हल नहीं हो सकता, बात सही भी तो है। पॉलीथिन पर बैन लगता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को ही उठाना पड़ेगा। पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है। ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगा तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा। वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं। वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं। पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है। अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है। साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा। इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग, रमेश ने रीसाइकिलिंग पर ही जोर दिया था। कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने भी अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके। वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है। इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है। उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है। प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी। इसलिए जयराम रमेश का तर्क विरोध का कारण नहीं बल्कि विचार की वजह बनना चाहिए था। इसी तरह गंदगी को लेकर उनका ये कहना कि अगर गंदगी का नोबल दिया जाता भारत उसका प्रबल दावेदार होता, बिल्कुल सही है। हम इस बयान के लिए रमेश को बुरा-भला जरूर ही कह सकते हैं, पर क्या हकीकत हम खुद नहीं जानते। देश में ऐसा कौन सा शहर है जिसे पूर्णता साफ-सुथरा कहा जा सके। दिल्ली से लेकर मुंबई तक हर जगह गंदगी ही गदंगी है, तो फिर रमेश गलत कैसे हो सकते हैं। कुछ इसी तरह उन्होंने दीक्षांत समारोह की पारंपरिक वेशभूषा को बर्बर औपनिवेशवाद बताया, क्या ये सही नहीं है। क्या ये जरूरी है कि हम राजा-महाराजाओं की माफिक पोशाक पहनकर ही डिग्री हासिल करें। जयराम रमेश और शशि थरूर कहीं न कहीं गलत हो सकते हैं लेकिन उनके हर बयान को एक ही नजरीए से देखना कहीं से भी तर्क संगत नहीं। अगर दोनों कुछ अच्छा कहते हैं तो उसे सहज मन से स्वीकार करना ही चाहिए।
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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parimalmahesh@gmail.com

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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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