सोमवार, 10 मार्च 2008

संबंध दरकने के दिन


डा. महेश परिमल
देश भर में पानी के लिए हाहाकार मचना शुरु हो गया है. सड़कों, गली-मोहल्लों में आए दिन होने वाले झगड़ों के पीछे कई बार इसकी वजह पानी ही होता है. पानी के लिए विवाद क्यों न हो? हमारी तमाम करतूतों से यही जीवन देने वाला पानी हमसे रुठकर सतह से 25 मीटर नीचे चला गया है. उसे ऊपर लाने के बजाए हम उसे वहीं जाकर पकड़ने में लगे हैं, पर वह अब और नीचे जाने की तैयारी में है.
जल ही जीवन है, जल ही जीवन देता है, पर यही आज जीवन लेने लगा है. पानी की कमी से लोगों की दिनचर्या ही बदल गई है. आज पानी की उपलब्धता के बाद दूसरे अन्य कार्य तय होते हैं. यदि पानी हमें उपलब्ध नहीं हुआ, तो मारा-मारी मच जाती है. लोग परस्पर आरोप और लांछन लगाने में पीछे नहीं रहतें. विरोध का यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है, यह कहाँ जा कर थमेगा, कोई नहीं कह सकता.
संबंध, वह भी अच्छे संबंध बहुत मुश्किल से बनते हैं. अच्छे संबंधों को लोग अपनी तरफ से निभाने की पूरी कोशिश करते हैं. अच्छे संबंध लोग बनाते ही इसलिए हैं कि जब हम मुसीबत में हों, परेशानी में हों, तब हमारे संबंधों की लाज रखने के लिए वे लोग आगे आएँ और हमें मुसीबत से बचाएँ या फिर इस मुसीबत में आप हमारे साथ रहें, पर आजकल ऐसा नहीं हो रहा है. इस संबंध पर भी पानी ने गाज गिरा दी है. इस पानी से होने वाला विवाद एक झटके में अच्छे संबंधों को अलग कर देता है. संबंधों की पुख्ता इमारत को गिरने में ंजरा भी देर नहीं लगती.
पानी हमें पहले सहज उपलCध था. इसीलिए हमने कभी सोचा ही नहीं कि भविष्य में इसकी कमी हमें परेशानी में डाल सकती है. उस समय हमने इसे बचाने की कोई तकनीक या कला नहीं सीखी. सच भी है, जो हमें सहज उपलब्ध है, उसकी कीमत का अंदाजा हमें नहीं होता. फिर हम यह सोच भी नहीं पाते कि भविष्य में हमें इसी सहज उपलब्ध वस्तु या द्रव्य की कमी का सामना करना पड़ेगा. पानी की बचत का गुर हम सीख न पाए और न ही इस पीढ़ी को सीखा पाए. अतएव अपव्यय के कारण इसकी कमी का दायरा बढ़ता गया.
किसी विचारक ने कहा है कि भविष्य में कभी विश्वयुध्द हुआ, तो उसकी एक वजह पानी हो सकती है. हम सोचते हैं कितना हास्यास्पद है उनका विचार. समूची पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग में पानी है, फिर भी हमें पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा. पहले पूरी पृथ्वी के 75 प्रतिशत भाग में पानी था, जो अब घटकर 70 प्रतिशत हो गया है. निकट भविष्य में यह और घटेगा, इस पर कोई दो मत नहीं है. पृथ्वी से पानी का अलग होना यही दर्शाता है कि हमने अपनी बसाहट को पानी से अधिक महत्वपूर्ण माना है. यही कारण है कि पानी हमारी पहुँच से लगातार दूर होता जा रहा है.


पानी को रोकने में मददगार पेड़ों की तरफ हमने ध्यान देना ही छोड़ दिया. बीस वर्ष पहले हम वन महोत्सव मनाते थे, पौधों का रोपण करते थे और उसकी रक्षा का संकल्प लेते थे. इसके अलावा जंगल जाकर ऑंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने की एक परंपरा थी. यह दोनों परम्पराएँ कब, कैसे खत्म हो गई, कोई नहीं बता सकता. परम्पराओं की असामयिक मौतें हमारे सामने हो रही हैं, पर हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं. हम लाचार हैं. पानी की बेरुखी ने हमारे अच्छे संबंधों को तोड़ कर रख दिया है. साथ ही हमारी संवेदनाओं पर भी आघात किया है. पानी के कारण होने वाली मौतों की सुर्खियाँ अब हमें आकृष्ट नहीं करती. हमारा पूरा प्रयास होता है कि कैसे भी हो, हमें अधिक से अधिक पानी मिलना चाहिए.
मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है. कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते. हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते. अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा. पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है. संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं. हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता. हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है. पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं.
सचमुच पानी की किल्लत ने हमें कहीं का नहीं रखा. वर्ष भर में संबंध अच्छे होते हैं, गर्मी के आते ही पड़ोसी से संबंध टूट जाते हैं. यह टूटा संबंध फिर नहीं जुड़ता, क्योंकि पानी के कारण हुए विवाद में हमने उन पर ऐसे-ऐसे बेबुनियाद लाँछन लगाए, जिस पर आज हमें शर्म आती है. हम पर भी कई ऐसे आरोप लगे कि हम आज तक छटपटा रहे हैं, मौका ढूँढ़ रहे हैं. अच्छा होगा कि हम पानी बचाना, पानी बाँधना सीख जाएँ. नहीं, तो पानी हमें भी अपने साथ रसातल में ले जाने में कतई संकोच नहीं करेगा.

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