शनिवार, 29 मार्च 2008

भ्रम की दुनिया से बाहर आएँ


डा. महेश परिमल
आजकल परीक्षाओं का मौसम चल रहा है. बच्चों के तो परिणाम भी निकल आए हैं. कई बच्चे अगले शिक्षा सत्र की पढ़ाई में भी जुट गए होंगे. जिज्ञासावश किसी भी बच्चे से उसका रिजल्ट पूछ लीजिए. वह बताएगा कि वह तो क्लास में फर्स्ट या सेकेण्ड आया है. हर बच्चा अपनी इस उपलब्धि को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का आदी हो गया है. इसके लिए वह नहीं, बल्कि उनके पालक दोषी होते हैं. वे ही बच्चे को समझाईश देते हैं कि वह सच न बताए. जो वे कह रहे हैं, वही बताए. यहीं से शुरू होती है एक झूठ की दुनिया, फरेब की दुनिया या फिर भ्रम या मुगालते की दुनिया.
एक अंजीब दुनिया है भ्रम की. हर कोई इसमें रहना चाहता है. इससे निकलना याने एक ऐसी ंजिदगी को कुबूलना, जो उन्हें पसंद नहीं. वैसे कई लोग इस दुनिया में ताउम्र रह लेते हैं. उन्हें कोई ंफर्क नहीं पड़ता कि लोग उन्हें क्या समझेंगे? इसकी वजह यही है कि वे सच्चाई से दूर भागते हैं. सच की कल्पना उनके लिए किसी भयावह ंजिदगी जीने जैसी है. हमारे आसपास ऐसे कई लोग मिल जाएँगे, जिन्हें यदि एक बार भी सच का आईना दिखा दिया जाए, तो वे विचलित हो जाते हैं.
एक बार एक मित्र के यहाँ जाना हुआ. वहाँ उनके पड़ोसी का पुत्र आया हुआ था. जिज्ञासावश नाम पूछा, फिर उसकी परीक्षा के परिणाम ही पूछ लिया. तब उसने बताया कि वह क्लॉस में फर्स्ट आया है. संयोगवश वह बच्चा जिस स्कूल में पढ़ता था, उसी स्कूल के एक बच्चे से कुछ दिन बाद मुलाकात हुई, तब उसने बताया कि उनकी क्लॉस में फर्स्ट तो वह बालक नहीं आया है, जो मित्र के पड़ोस में रहता है. यह तो बाद में पता चला कि मित्र के पड़ोस में रहने वाला बच्चा क्लॉस में चौथा आया था, उसके पालक ने ही उस बच्चे से यह कह दिया था, कि कोई पूछे तो कह देना कि वह फर्स्ट आया है.
ऐसा अक्सर होता है. लोग मुगालते की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं, वे सोचते है कि हम बहुत ऊपर आ गए, पर यह वास्तविकता नहीं है. उस पालक ने अपने बच्चे को मुगालते की तीन सीढ़ियाँ चढ़ा दीं, पर वे यह भूल गए कि उन्होंने उस मासूम को एक ऐसी दुनिया दिखा दी, जो सच के धरातल पर नहीं, बल्कि उसे झूठ की लिजलिजी जमीन पर खड़ा कर दिया है. किसी भी परिचित को यदि आप बताएँ कि आप किस संस्था से जुड़े हैं, तब निश्चित ही वह अपरिचित व्यक्ति आपसे आपके बॉस का छोटा-सा नाम लेकर कहेगा-कभी वह मेरे साथ काम करता था. उसके आड़े वक्त पर मैंने उसकी काफी मदद की थी. यह तो तय है कि हम उसकी ये बात अपने बॉस से कह नहीं सकते. पर कभी चर्चा में यह बात सामने आ गई, तो बॉस इसे तुरंत नकार देंगे, इसके विपरीत यही कहेंगे कि उसकी कई बार उन्होंने मदद की थी.
वैसे भी भ्रम का मतलब मुगालता भी होता है. अपने को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कवि मानकर अपनी रचनाओं के नाम पर खण्डकाव्य सुनाने वाले कई लोग मिल जाएँगे. ऐसे लोग इसी दुनिया में रहें, तो ही बेहतर है, क्योंकि सच उनके लिए प्राणघातक है. वे इस सच को स्वीकार नहीं कर पाएँगे. ऐसों के लिए यही दुनिया ही ठीक है. ऐसा नहीं है कि वे इस सच से वाकिफ नहीं हैं. वे जानते सब-कुछ हैं, पर स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होते. ऐसे लोग केवल दया के पात्र हैं.
आजकल लोग भ्रम की इस दुनिया में अधिक ही जीने लगे हैं. आजकल कोई भी मिलेगा, तो यही कहेगा कि उनके बच्चे कंप्यूटर साइंस का कोर्स करके किसी दूसरी जगह पर एम.बी. या अन्य कोई नए-नए विषय पर डिप्लोमा कोर्स कर रहा है. हो सकता है, यह बात सही हो, पर क्या सभी के बच्चे ऐसा ही कर रहे हैं? ंजरा नौकरीपेशा बच्चे के पालक से कभी उसके वेतन के बारे में पूछो भला. एक तो बताएँगे नहीें, यदि बता भी दिया तो इतना अधिक बताएँगे कि जिसे स्वीकार करना मुश्किल होगा. इनका सच तब सामने आता है, जब उनके सामने कोई भारी मुसीबत आती है. तब वे अपनों से उधार माँगते दिखाई देते हैं.
तो यह है भ्रम की एक वायवीय दुनिया. जहाँ दुनिया भर के ऐश के सारे सामान हैं, पर सपनों में. यथार्थ की दुनिया में ये सब बेबस हैं. ये समाज में प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं, पर इन्हें यह सब नहीं मिलता, तो ये सब झूुठ का सहारा लेते हैं, ताकि इसी बहाने लोग उनकी इज्ज़त करें. इनके पास बातचीत का भी कोई विषय नहीं होता. अपने अच्छे दिनों की याद वे सदा तांजा रखते हैं. कभी उन्होंने कोई बड़ा काम किया था या किसी बड़े नेता या अधिकारी के साथ कुछ पल बिताए होंगे, वही उनके लिए एक उपलब्धि होती है. ंगलती से उनकी किसी ने प्रशंसा कर दी हो, ऐसे लोगों के लिए वही रामबाण होता है. जिससे वे हर मंर्ज का इलाज ढूँढ़ते हैं. इनकी पूरी दुनिया इन्हीं कुछ शब्दों और घटनाओं पर टिकी होती है.
आजकल कोई सच की दुनिया में जीना ही नहीं चाहता. किसी के सपने छोटे नहीं हैं. सभी के पास बड़े-बड़े सपने हैं, पर उसे पूरा करने का माद्दा नहीं है. सपने देखना बड़ी बात है, इसे अवश्य देखना चाहिए, पर इसे पूरा करने का संकल्प भी तो होना चाहिए. संकल्प का वह जुनून लोगों में दिखाई नहीं देता. इसलिए आज समाज में 'फेंकने वालों' की संख्या लगातार बढ़ रही है. आज हम भी उसी का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं. न चाहकर भी हमें भी इसी झूठ का सहारा लेना पड़ता है. क्योंकि सच बोलेंगे, तो हँसी का पात्र बनेंगे या फिर समाज में उपेक्षित रह जाएँगे.
यह एक विकट समस्या है. इससे बचा भी नहीं जा सकता. न तो हम हँसी के पात्र बनना चाहते हैं और न ही समाज में उपेक्षित होना चाहते हैं. घर के मुख्य दरवाजे पर एक कीमती परदा लगा दिया है, ताकि भीतर की असलियत लोगों से दूर रहे. पर उस दिन क्या होगा, जब यह महँगा परदा भी जवाब दे जाएगा? इसे जानने की कोशिश की है कभी किसी ने?
डा. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. डा. महेश परिमल,आप का आज लेख एक जलता हुया सच हे,हम मे से बहुत से लोग इसी झुठी जिन्दगी के पात्र हे, ऎसे लोगो की एक पहचान भी हे,यह लोग झुठ बोल कर, उधार से, किसी ना किसी तरह से अपने सपने सच मे दिखाना चाहते हे, ओर इन के बच्चे भी वेसे ही बन जाते हे, लेकिन जब यह किसी दुसरे को जो इन जितना झुठा नही होता, सुखी देखते हे हंसते बोलते देखते हे तो चिढ जाते हे, उस सच वाले से जलते हे, किसी ना किसी प्रकार उसे नीचा दिखाने की कोशिश कतरे हे.
    बहुत बहुत धन्यवाद आईना दिखाने का, ताकि हम भट्क ना जाये

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