शनिवार, 31 अक्तूबर 2015
अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 4
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 3
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए नाम पढ्कर इनकी कविताओं का आनंद लीजिए -
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 2
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए आनंद लीजिए कविताओं का -
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं 1
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए नाम पढ्कर आनंद लीजिए कुछ प्रतिनिधि कविताओं का-
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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जानबूझकर हुआ गिरफ्तार
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015
रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी - काबुलीवाला
महान साहित्यकार रविन्द्रनाथ्ा टैगार की कहानी काबुलीवाला एक मर्मस्पर्शी कहानी है। परदेस में रहते हुए अपनों से दूर होना और खास करके अपनी प्यारी बिटिया से दूर होने का दुख इस कहानी में सजीव हो उठा है।
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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जयशंकर प्रसाद की कहानी - छोटा जादूगर
साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का नाम हिंदी साहित्य जगत में काफी जाना पहचाना है। उनकी रचित कहानी छाेटा जादूगर एक मार्मिक एवं भावपूर्ण कहानी है।
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015
नुक्कड नाटक ब्रेकिंग न्यूज
इस नाटक में दहेज प्रथा, बेटा बेटी में भेदभाव, भ्रष्टाचार, गिरते नैतिक मूल्य जैसी सामाजिक समस्याओं को उजागर किया गया है।
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नाटक
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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गीत मा बाप ने भूलशो नहीं
जीवन में कितनी भी सफलता मिल जाए, उन सफलताओं का महत्व तभी होता है, जब उनके साथ माता पिता की दुआएँ शामिल होती हैं। माता पिता की दुआएँ तभी शामिल होती हैं, जब हम जीवन के हर मोड पर उन्हें याद रखें और उनका दिल न दुखाऍं। कुछ इन्हीं भावों से भरा है ये गुजराती गीत मा बाप ने भूलशो नहीं...
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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नरोत्तमदास की कविता सुदामा चरित
कवि नरोत्तमदास ने सरल ब्रज भाषा में अपना काव्य लिखा है। सुदामा चरित, ध्रुव चरित और विचारमाला उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। उनमें से केवल सुदामा चरित ही उपलब्ध है। अन्य दो कृतियॉं उपलब्ध नहीं है। तो आनंद लेते हैं, सुदामा चरित काव्य रचना का...
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2015
गिरीश पंकज की कुछ गजलें
गिरीश पंकज मूल रूप से व्यंग्यकार हैं। इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। विदेशों में आयोजित कई हिंदी सम्मेलनों में इन्होंने शिरकत की है। अभी उनकी कृतियों पर पी-एच.डी. हो रही है।
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गजल,
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मन्नू भंडारी की कहानी अकेली
अकेली एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। कहानीकार ने कहानी के पात्र सोमा बुआ की मनोव्यथा का बडा मार्मिक चित्रण किया है।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद
कवि नागार्जुन की इस कविता में अकाल और उसके बाद की स्थिति का वर्णन किया गया है कि किस तरह अकाल का प्रभाव न केवल घर के लोगों पर पडता है, बल्कि छोटे छोटे जीवधारी भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते हैं।
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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अपना पासवर्ड डायरी में अवश्य लिखें
डॉ. महेश परिमल
आज का युग डीजिटल है। सब कुछ कंप्यूटर में कैद होने लगा है। कंप्यूटर का छोटा संस्करण मोबाइल के रूप में हमारी हथेली में है। मोबाइलधारकों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा होता जा रहा है। अब बैंकों के कई काम भी इसी मोबाइल के माध्यम से होने लगे हैं। इसमें नेट बैंकिंग प्रमुख है। इन सुविधाओं के साथ कुछ समस्याएं भी सामने आ रही हैं। कुछ दिन पहले मेरे एक साथी का अचानक ही हृदयाघात से देहांत हो गया। अब उसके परिवार वाले इस बात को लेकर चिंतित है कि उनके सारे पासवर्ड कहां से लाएँ। िमत्र अपना अधिकांश कार्य कंप्यूटर के माध्यम से करते थे। इसमें नेट बैंकिंग प्रमुख था। अब उनके न रहने पर पासवर्ड परिवार के किसी सदस्य को नहीं मालूम। अब परिजनों को यह पता नहीं चल पा रहा है कि टैक्स, प्रीमियम, लोन आदि की जानकारी किस तरह से प्राप्त की जाए? इसलिए अब यह कहा जा रहा है कि यदि आप नेट बैंकिंग का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो अपना पासवर्ड, वेबसाइट आदि की जानकारी एक डायरी में लिखकर रखें, ताकि उनके न रहने पर परिजनों को किसी तरह की परेशानी न हो।
आज के डीजिटल युग में एक नई समस्या उभरकर सामने आई है। इसमें इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोग शामिल है। सामान्य रूप से हम अपना पासवर्ड, यूजर्स नेम आदि गोपनीय रखते हैं। हमें शुरू से ही यही कहा गया है कि अपना पासवर्ड किसी को भी न बताया जाए। पत्नी को भी नहीं। यह गोपनीय है, इसकी गोपनीयता बनाए रखी जाए। ऐसी स्थिति में हमारा वह अपना अचानक ही हमारे बीच न रहे, तो फिर उनके बैंक एकाउंट से लेकर अन्य कई लेन-देन की जानकारी उनके साथ ही चली जाती है। ऐेसे में अब यह सलाह दी जाने लगी है कि अपना यूजर्स नेम,पासवर्ड आदि एक डायरी में अवश्य लिखकर रखेे। इसी तरह इंटरनेट पर भी किए जाने वाले कार्यों की जानकारी भी एक डायरी में लिखी होनी चाहिए। निजी बैंक तो अपने उपभोक्ता को हर महीने बैंक स्टेटमेंट भेजती हैं, पर सरकारी बैंकें ऐसा नहीं कर पाती। इसलिए परिवार वालों को यह पता ही नहीं होता कि घर के मुखिया का एकाउंट कहां-कहां है। उसमें कितनी राशि है। एकाउंट से किस तरह के बिलों का भुगतान हर महीने इंटरनेट बैंकिंग के तहत किया जाता है। हाल ही एक घटना हुई, जिसमें इंटरनेट पर पे-पाल में एक व्यक्ति ने खाता खुलवाया। उसमें विदेशी करेंसी ट्रांसफर हो सकती थी। पे-पाल में खाता खुलवाने वाला यदि चाहे, तो अपने अन्य किसी खाते में राशि ट्रांसफर कर सकता था। घर में किसी को इस संबंध में पता नहीं था। अचानक उस व्यक्ति की मौत हो गई। तब उसके परिजनों को बैंक से खाते का स्टेटमेंट मिला। पर पे-पाल से सभी अनजान थे। एक बार परिवार के एक सदस्य को बैंक स्टेटमेंट देखते हुए यह खयाल आया है कि पे-पाल से खाते में धनराशि जमा हुई है। पहले तो पे-पाल क्या है, यही पता नहीं था, जब पता चला कि पे-पाल से खाते में डॉलर जमा हुए हैं। तब पे-पाल के एकाउंट के संबंध में जांच हुई। पे-पाल पर 5-6 बार यूजर नेम और पासवर्ड के लिए प्रयास किया गया। इसे पे-पाल ने यही समझा कि कोई हेकर्स इस तरह का प्रयास कर रहा है। इससे एकाउंट अपने ही आप ब्लॉक हो गया। पे-पाल को ई मेल कर कई तरह की जानकारियां दी गई। पहले तो पे-पाल ने कोई जवाब नहीं दिया, पर जब इफर्मेशन टेक्नालॉजी एक्ट के माध्यम से नोटिस दिया गया और अपना ई मेल भेजा गया, तो पे-पाल से सहयोग करते हुए वन टाइम पासवर्ड भेजा, जिससे पता चला कि खाते में 1500 डॉलर हैं। अंतत: वह राशि अन्य खाते में ट्रांसफर कर दी गई।
यह दुर्भाग्य है कि कितने ही खाते न्यूनतम बेलेंस के साथ बरसों से बैंकों में पड़े रहते हैं। कितनी ही बैंकें हर 6 महीने में खातेदार को स्टेटमेंट भेजती हैं, पर सरकारी बैंकें ऐसा नहीं कर पाती। फलस्वरूप कई खातों में ब्याज की राशि जुड़ती चली जाती है और राशि दोगुनी भी हो जाती है। यही हाल आजकल पीएफ खाते का भी है। यदि आपने कहीं एक साल काम किया है, तो आपके खाते में कितनी राशि है, इसकी जानकारी पीएफ विभाग से नहीं मिलती। इस तरह से कई लोगों की राशि जमा होते हुए भी सही व्यक्ति को नहीं मिल पाती। इसलिए यह प्रावधान होना चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति की एक निश्चित राशि कहीं जमा हो रही है, तो उसे स्टेटमेंट भेजकर व्यक्ति को इसकी जानकारी देते रहना चाहिए।
डेटा जनरेटर:-अाजकल जब हर कोई डीजिटल के साथ-साथ चल रहा है, तो हम यह मानकर चलें कि हम भी डेटा जनरेटर के साथ-साथ डेटा ट्रांसमीटर्स भी हैं। सोशल नेटवर्किंग हो या फाइनेंशियल ट्रांजेक्शन हो या तीन-चार ई मेल एकाउंट हो, परंतु इस सब से जुड़े डेटा स्टोरेज को भी महत्व दिया जाए। जिनके डेटा स्टोरेज उड़ जाते हैं, उनके पास सर पकड़कर रोने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। गूगल-याहू जैसे ज्वाइंट सर्च इंजन डेटा स्टोरेज जैसी सुविधाएं देते हैं। अापके कंप्यूटर में भी यदि आवश्यकता से अधिक डेटा हों, तो आप उसे गूगल या याहू के डेटा स्टोरेज पर डाल सकते हैं। डेस्कटॉप की बिक्री घटी:- स्मार्ट फोन, टेबलेट और लेपटॉप की मांग बढ़ने से डेस्कटॉप काे अब कोई पूछने वाला नहीं रह गया है। पहले जो घर पर डेस्कटॉप पर काम करते थे, वे अब लेपटॉप का इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन्हें अपने काम से दिन भर घर से बाहर रहना हो, तो उनके लिए लेपटॉप से सुविधा रहती है। इसलिए लोग अब डेस्कटॉप का इस्तेमाल नहीं करते। इससे उसकी बिक्री प्रभावित होने लगी है। अब इसकी बिक्री में 10 प्रतिशत की कमी देखी गई है। एक साल पहले जो डेक्सटॉप का बाजार 25,117 करोड़ रुपप का था, वह घटकर 21,058 करोड़ रुपए हो गया है। डेक्सटॉप की बिक्री घटने से इसका असर स्मार्टफोन पर पड़ा है। स्मार्ट फोन की बिक्री 33 प्रतिशत बढ़ी है। टेबलेट की बिक्री भी 4 प्रतिशत बढ़ी है इंटरनेट की सुविधा ने पूरे देश को एक हथेली में बंद कर दिया है। स्मार्टफोन के कारण अब लाेग ई कामर्स, ऑनलाइन ट्रांजेक्शन, ऑनलाइन शेयरबाजार ट्रेडिंग आदि आसानी से कर रहे हैं। अब फोर जी ने इस सुविधा को और भी आसान कर दिया है। इसका इस्तेमाल करने वाले भी निश्चित रूप से बढ़ेंगे। तब यह होगा कि लोग डाउनलोडिंग की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी।
डॉ. महेश परिमल
आज का युग डीजिटल है। सब कुछ कंप्यूटर में कैद होने लगा है। कंप्यूटर का छोटा संस्करण मोबाइल के रूप में हमारी हथेली में है। मोबाइलधारकों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा होता जा रहा है। अब बैंकों के कई काम भी इसी मोबाइल के माध्यम से होने लगे हैं। इसमें नेट बैंकिंग प्रमुख है। इन सुविधाओं के साथ कुछ समस्याएं भी सामने आ रही हैं। कुछ दिन पहले मेरे एक साथी का अचानक ही हृदयाघात से देहांत हो गया। अब उसके परिवार वाले इस बात को लेकर चिंतित है कि उनके सारे पासवर्ड कहां से लाएँ। िमत्र अपना अधिकांश कार्य कंप्यूटर के माध्यम से करते थे। इसमें नेट बैंकिंग प्रमुख था। अब उनके न रहने पर पासवर्ड परिवार के किसी सदस्य को नहीं मालूम। अब परिजनों को यह पता नहीं चल पा रहा है कि टैक्स, प्रीमियम, लोन आदि की जानकारी किस तरह से प्राप्त की जाए? इसलिए अब यह कहा जा रहा है कि यदि आप नेट बैंकिंग का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो अपना पासवर्ड, वेबसाइट आदि की जानकारी एक डायरी में लिखकर रखें, ताकि उनके न रहने पर परिजनों को किसी तरह की परेशानी न हो।
आज के डीजिटल युग में एक नई समस्या उभरकर सामने आई है। इसमें इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोग शामिल है। सामान्य रूप से हम अपना पासवर्ड, यूजर्स नेम आदि गोपनीय रखते हैं। हमें शुरू से ही यही कहा गया है कि अपना पासवर्ड किसी को भी न बताया जाए। पत्नी को भी नहीं। यह गोपनीय है, इसकी गोपनीयता बनाए रखी जाए। ऐसी स्थिति में हमारा वह अपना अचानक ही हमारे बीच न रहे, तो फिर उनके बैंक एकाउंट से लेकर अन्य कई लेन-देन की जानकारी उनके साथ ही चली जाती है। ऐेसे में अब यह सलाह दी जाने लगी है कि अपना यूजर्स नेम,पासवर्ड आदि एक डायरी में अवश्य लिखकर रखेे। इसी तरह इंटरनेट पर भी किए जाने वाले कार्यों की जानकारी भी एक डायरी में लिखी होनी चाहिए। निजी बैंक तो अपने उपभोक्ता को हर महीने बैंक स्टेटमेंट भेजती हैं, पर सरकारी बैंकें ऐसा नहीं कर पाती। इसलिए परिवार वालों को यह पता ही नहीं होता कि घर के मुखिया का एकाउंट कहां-कहां है। उसमें कितनी राशि है। एकाउंट से किस तरह के बिलों का भुगतान हर महीने इंटरनेट बैंकिंग के तहत किया जाता है। हाल ही एक घटना हुई, जिसमें इंटरनेट पर पे-पाल में एक व्यक्ति ने खाता खुलवाया। उसमें विदेशी करेंसी ट्रांसफर हो सकती थी। पे-पाल में खाता खुलवाने वाला यदि चाहे, तो अपने अन्य किसी खाते में राशि ट्रांसफर कर सकता था। घर में किसी को इस संबंध में पता नहीं था। अचानक उस व्यक्ति की मौत हो गई। तब उसके परिजनों को बैंक से खाते का स्टेटमेंट मिला। पर पे-पाल से सभी अनजान थे। एक बार परिवार के एक सदस्य को बैंक स्टेटमेंट देखते हुए यह खयाल आया है कि पे-पाल से खाते में धनराशि जमा हुई है। पहले तो पे-पाल क्या है, यही पता नहीं था, जब पता चला कि पे-पाल से खाते में डॉलर जमा हुए हैं। तब पे-पाल के एकाउंट के संबंध में जांच हुई। पे-पाल पर 5-6 बार यूजर नेम और पासवर्ड के लिए प्रयास किया गया। इसे पे-पाल ने यही समझा कि कोई हेकर्स इस तरह का प्रयास कर रहा है। इससे एकाउंट अपने ही आप ब्लॉक हो गया। पे-पाल को ई मेल कर कई तरह की जानकारियां दी गई। पहले तो पे-पाल ने कोई जवाब नहीं दिया, पर जब इफर्मेशन टेक्नालॉजी एक्ट के माध्यम से नोटिस दिया गया और अपना ई मेल भेजा गया, तो पे-पाल से सहयोग करते हुए वन टाइम पासवर्ड भेजा, जिससे पता चला कि खाते में 1500 डॉलर हैं। अंतत: वह राशि अन्य खाते में ट्रांसफर कर दी गई।
यह दुर्भाग्य है कि कितने ही खाते न्यूनतम बेलेंस के साथ बरसों से बैंकों में पड़े रहते हैं। कितनी ही बैंकें हर 6 महीने में खातेदार को स्टेटमेंट भेजती हैं, पर सरकारी बैंकें ऐसा नहीं कर पाती। फलस्वरूप कई खातों में ब्याज की राशि जुड़ती चली जाती है और राशि दोगुनी भी हो जाती है। यही हाल आजकल पीएफ खाते का भी है। यदि आपने कहीं एक साल काम किया है, तो आपके खाते में कितनी राशि है, इसकी जानकारी पीएफ विभाग से नहीं मिलती। इस तरह से कई लोगों की राशि जमा होते हुए भी सही व्यक्ति को नहीं मिल पाती। इसलिए यह प्रावधान होना चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति की एक निश्चित राशि कहीं जमा हो रही है, तो उसे स्टेटमेंट भेजकर व्यक्ति को इसकी जानकारी देते रहना चाहिए।
डेटा जनरेटर:-अाजकल जब हर कोई डीजिटल के साथ-साथ चल रहा है, तो हम यह मानकर चलें कि हम भी डेटा जनरेटर के साथ-साथ डेटा ट्रांसमीटर्स भी हैं। सोशल नेटवर्किंग हो या फाइनेंशियल ट्रांजेक्शन हो या तीन-चार ई मेल एकाउंट हो, परंतु इस सब से जुड़े डेटा स्टोरेज को भी महत्व दिया जाए। जिनके डेटा स्टोरेज उड़ जाते हैं, उनके पास सर पकड़कर रोने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। गूगल-याहू जैसे ज्वाइंट सर्च इंजन डेटा स्टोरेज जैसी सुविधाएं देते हैं। अापके कंप्यूटर में भी यदि आवश्यकता से अधिक डेटा हों, तो आप उसे गूगल या याहू के डेटा स्टोरेज पर डाल सकते हैं। डेस्कटॉप की बिक्री घटी:- स्मार्ट फोन, टेबलेट और लेपटॉप की मांग बढ़ने से डेस्कटॉप काे अब कोई पूछने वाला नहीं रह गया है। पहले जो घर पर डेस्कटॉप पर काम करते थे, वे अब लेपटॉप का इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन्हें अपने काम से दिन भर घर से बाहर रहना हो, तो उनके लिए लेपटॉप से सुविधा रहती है। इसलिए लोग अब डेस्कटॉप का इस्तेमाल नहीं करते। इससे उसकी बिक्री प्रभावित होने लगी है। अब इसकी बिक्री में 10 प्रतिशत की कमी देखी गई है। एक साल पहले जो डेक्सटॉप का बाजार 25,117 करोड़ रुपप का था, वह घटकर 21,058 करोड़ रुपए हो गया है। डेक्सटॉप की बिक्री घटने से इसका असर स्मार्टफोन पर पड़ा है। स्मार्ट फोन की बिक्री 33 प्रतिशत बढ़ी है। टेबलेट की बिक्री भी 4 प्रतिशत बढ़ी है इंटरनेट की सुविधा ने पूरे देश को एक हथेली में बंद कर दिया है। स्मार्टफोन के कारण अब लाेग ई कामर्स, ऑनलाइन ट्रांजेक्शन, ऑनलाइन शेयरबाजार ट्रेडिंग आदि आसानी से कर रहे हैं। अब फोर जी ने इस सुविधा को और भी आसान कर दिया है। इसका इस्तेमाल करने वाले भी निश्चित रूप से बढ़ेंगे। तब यह होगा कि लोग डाउनलोडिंग की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी।
डॉ. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015
कविता बाबुल की गलियॉं
इस कविता में बचपन की यादें समाई हुई हैं। हम कितने भी बडे हो जाएँ, माता पिता एवं अपनों के साथ्ा गुजारे बचपन के दिन कभी नहीं भूल सकते। ये दिन हमारे एकांत का खालीपन भरते हैं। इन्हीं यादों को कविता में उतारा गया है।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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कहानी उपहार
लेखिका आरती रॉय की ये कहानी नारी विवशता को उजागर करती है। हमारा समाज आज विकास के पथ पर कितना भी आगे बढ जाए लेकिन पुरुष की नजरों में कहीं न कहीं वह केवल भोग्या की वस्तु ही है। इस विवशता को कहानी में उजागर करने का प्रयास किया गया है।
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कहानी,
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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015
कविता युग जननी भारत माता
इस कविता में भारत माता देश के नौनिहालों से पुकार कर रही है और उन्हें देश के महापुरुषों जैसा बनने के लिए प्रेरित कर रही हैं।
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कविता,
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कविता लिखो नहीं इतिहास बनो तुम
श्रीकृष्ण सरलजी की ओजपूर्ण कविता लिखो नहीं इतिहास बनो तुम वास्तव में देश के नौजवानों के लिए एक आह़वान है कि वे देश्ा और समाज के प्रति अपना कर्तव्य समझें और उन्हें पूरा करने के लिए दृढप्रतिज्ञ बनें।
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कविता धरती को श्रृंगार दो
क्रांतिकारी कवि श्रीकृष्ण सरल जी की कविता धरती को श्रृंगार दो को यहॉं प्रस्तुत किया गया है। यह कविता उनके काव्यप्रेम के साथ साथ देशप्रेम को भी उजागर करती है।
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गीत आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले
फिल्म चोरी चारी में अभिनेता राजकपूर एवं अभिनेत्री नरगिस पर फिल्माए गए गीत आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले का संस्कृत अनुवाद आपका मन मोह लेगा। इसी विश्वास के साथ इसे यहाँ सहेजा गया है।
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फिल्मी गीत
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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015
कविता मैं अमर शहीदों का चारण
क्रांतिकारी कवि श्री कृष्ण सरल जी की यह देशप्रेम से भरी एक ओजपूर्ण कविता है। मैं अमर शहीदों का चारण कविता के माध्यम से वे देश के नौनिहालों में देशप्रेम जगाने का प्रयत्न करते हैं। देश के प्रति हमारे कर्तव्य की याद दिलाते हैं।
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दिव्य दृष्टि
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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बाल कहानी तलवार और गीत
बच्चों की मासूमियत में वो सच्चाई और भोलापन होता है कि उसके सामने एक कठोर दिल भी पिघल जाता हैा जब सिकंदर दूसरे नगर में आक्रमण करने आता है, तो वहाँ के भोलेभाले बच्चों की मधुर मुस्कान और मासूमियत भरी बातें सुनकर उसका मन बदल जाता है और वह लडाई का इरादा त्याग देता है।
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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दाल बनी वीआईपी, सरकार निष्क्रिय
डाॅ. महेश परिमल
डिजिटल इंडिया का नारा लगाने वाली सरकार के सामने देखते ही देखते दाल आम आदमी की पहंुच से दूर हो गई। सरकार की निष्क्रियता सामने आ गई। अच्छे दिन की कल्पना करने वाले अब बुरे दिन भी देखने लगे। महंगी दाल ने दीवाली का उत्साह की खतम कर दिया है। लोगों को दिखाए जाने वाले सारे सपने दिवास्वप्न हो गए। सरकार न तो जमाखोरों पर अंकुश रख पाई और न ही मुनाफाखोरों पर किसी प्रकार की सख्ती दिखा पाई। प्रधानमंत्री का नारा ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ यहां आकर सच साबित हो रहा है। सचमुच दाल को भोजन की थाली से गायब पाकर अब यह सोचना जायज हो जाता है कि भोजन की थाली से अब क्या-क्या चीजें गायब होने वाली हैं। यह सच है कि सरकार भ्रष्ट नहीं है, पर भ्रष्टों का संरक्षण देना भी एक अपराध ही है, इस अपराध से मोदी सरकार खुद को अलग नहीं कर सकती। नेताओं को विवादास्पद बयान देने से ही फुरसत नहीं है। दाल के भाव को अंकुश में रखने के सारे सरकारी प्रयास विफल साबित हुए। अपने आप को साहसी सरकार कहने वाली यह सरकार दाल के बढ़ते दामों पर कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस के जमाने में दाल ने कीमतों के इतने ऊंचे ग्राफ नहीं छुए थे। इस सरकार ने हद ही कर दी।
जिन हिंदू संगठनों के बूते पर यह सरकार बनी है, अब वे ही सरकार का विरोध करने लगे हैं। यह भी तय है कि एक दिन यही समर्थक संगठन सरकार को मुसीबत में भी डाल सकते हैं। यह सब होगा, नेताओं के बेतुके बयानों से। क्योंकि इतनी सख्ती के बाद भी प्रधानमंत्री की सलाह को न कोई मान रहा है, न ही उसे गंभीरता से ले रहा है। एक तरफ स्वयं प्रधानमंत्री के बयान संयत होते हैं, वही दूसनेताओं के बयान आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। कभी आरएसएस के प्रमुख मोदी की विचारधारा के विरुद्ध बोलते हैं, तो कभी विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर बनाने के लिए विवादित बयान देती है। गौमांस के मामले पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस चक्कर में सरकार यह भूल गई कि महंगाई दबे पांव बढ़ गई है, उस पर लगाम कसनी है। इस दौरान जमाखोरों की तो बन आई। पूरे डेढ़ वर्ष के मोदी शासन में किसी जमाखोर या मुनाफाखोर पर सख्त कार्रवाई हुई, ऐसा न तो सुना गया और न ही पढ़ा गया। अनजाने में वह इन समाजविरोधी तबकों को संरक्षण ही दे रही है। ऐसे में भाजपा पर विश्वास कर वोट देने वाला मतदाता ठगा सा रह जाता है।
आज की महंगाई पर यदि किसी की जवाबदारी बनती है, तो वह है मोदी सरकार। यूपीए सरकार के तमाम सलाहकारों को बेदर्दी से हटा दिया गया। मंत्रियों के कार्यालयों में काम करने वाले कांग्रेस समर्थक सभी लोगों को हटा दिया गया। योजना आयोग पर ताला लगा दिया। यह सब काम इसलिए किया गया कि मोदी सरकार स्वतंत्र होकर काम कर सके। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार महंगाई तो कम नहीं कर पाई, उल्टे महंगाई दोगुनी हो गई। जब प्रधानमंत्री स्वयं यह कहते हैं कि वे गरीबी में पले-बढ़े हैं, तो फिर उन्हें महंगाई क्या होती है, यह अच्छी तरह से पता होना चाहिए। जो गरीबी में पले-बढ़े होते हैं, वे ही जानते हैं कि महंगाई बढ़ने से इस परिवार पर क्या बीतती है? अपने नारों में प्रधानमंत्री निवेश, विदेशी निवेश, डिजिटल इंडिया, साइन इंडिया आदि शब्दों का उच्चारण करते हैं, तो लगता है कि यह तो आम आदमी की आवाज कतई नहीं है। विदेशी यदि भारत में निवेश करें, तो इससे आम आदमी को क्या? वह तो यही चाहता है कि किसी भी तरह से महंगाई कम हो। जीने लायक कमा सकें और आवश्यक वस्तुओं को खरीद सकें। विदेशों से अच्छे संबंध एक चुनौती है, पर उससे बड़ी चुनौती यह है कि देश में क्या चल रहा है, उसे भी जानना। आज हर तरफ महंगाई की ही चर्चा है, पर उसे कम करने के लिए किसी के पास कोई उपाय नहीं है। आज सरकार का संबंध आम आदमी से टूट गया है, जो आघातजनक है। सरकार की नजर डॉलर के भाव, सोनेे-चांदी के भाव, क्रूड के भाव आदि से हटती नहीं है। जीडीपी और मैनुफैक्चरिंग इंडेक्स की बातें करती थकती नहीं, परंतु अरहर की दाल के बढ़ते दाम जैसे सुलगते मुद्दे पर कोई कुछ करने को तैयार ही नहीं है। सरकार बातें बहुत कर रही है, पर अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहती। एनडीए सरकार बनी, तब से सभी अच्छे दिनों की राह देख रहे हैं। पर अच्छे दिन एक सपना बनकर रह गया है। अब कमरतोड़ महंगाई सबका स्वागत करने लगी है। अाश्चर्य इस बात का है कि पहले पेट्रोल की कीमतों के साथ्ज्ञ महंगाई बढ़ती थी, अब तो पेट्रोल के दाम कम हो रहे हैं, अब जाकर स्थिर भी हो गए हैं, उसके बाद भी महंगाई लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? सरकार को अपनी नाकामयाबी की शायद जानकारी नहीं है। अपनी छबि को उज्जवल करने के लिए प्रधानमंत्री विदेशों के दौरे कर रहे हैं। शायद उन्हें भी नहीं मालूम कि देश में क्या हो रहा है। अरहर दाल ने अन्य सभी दालों के दाम बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कई लोग यह तर्क दे रहे हैं कि महंगाई बढ़ने के साथ-साथ लोगों के वेतन में भी वृद्धि हुई है। पर वेतन में वृद्धि केवल सरकारी कर्मचारियों की हुई है। निजी कंपनियों के कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि एक विकसित देश में बढ़ती महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। पर जब क्रूड आयल के दामों में कमी आती है, तो उसका लाभ देश को जो मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। भाव कम होने का असर सुदूर गांव के एक ग्रामीण पर भी होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। यह सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार को यह देखना चाहिए कि जब वह दाम कम करती है, तो वास्तव में दाम कम हो रहे हैं या नहीं। अमेरिका जैसे देशों में दूध, अंडे और ब्रेड की कीमतों मे पिछले 40 बरसों में मात्र कुछ सेंट की ही बढ़ोत्तरी हुई है। यदि हमारे देश में भी यह संभव होता है, तो यह सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सरकार के पास अभी भी समय है, वह जमाखोरों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। जिससे उन्हें लगे कि दालों का संग्रह कर उन्होंने गलती की है, तो इसी गलती का अहसास उन्हें सरकार उन पर सख्ती लगाकर कराए, तो दाल के दाम अंकुश में लाने में देर नहीं होगी। इसके पहले भी देश को प्याज ने काफी रुलाया है। कांग्रेस की सरकार केवल प्याज के कारण ही चली भी गई। प्रधानमंत्री की बड़ी-बड़ी बातें अब लोगों को लुभा नहीं पा रही हैं। आम आदमी चाहता है कि वह अपने बच्चों की परवरिश सही तरीके से कर सके। इसीलिए उसने भाजपा को अपना कीमती वोट दिया था। अब यदि यह सरकार भी आम आदमी की न होकर व्यापारियों, मुनाफाखोरों और जमाखोरों की हो जाए, तो यह भारतीय जनता के लिए बहुत बड़ा धोखा है। सरकार इस दिशा में जितने भी सख्त कदम उठाए, उसका असर दीवाली तक तो नहीं पड़ेगा, यह तय है। इसका मतलब यही हुआ कि इस बार की दीवाली महंगाई के नाम रही।
डाॅ. महेश परिमल
जिन हिंदू संगठनों के बूते पर यह सरकार बनी है, अब वे ही सरकार का विरोध करने लगे हैं। यह भी तय है कि एक दिन यही समर्थक संगठन सरकार को मुसीबत में भी डाल सकते हैं। यह सब होगा, नेताओं के बेतुके बयानों से। क्योंकि इतनी सख्ती के बाद भी प्रधानमंत्री की सलाह को न कोई मान रहा है, न ही उसे गंभीरता से ले रहा है। एक तरफ स्वयं प्रधानमंत्री के बयान संयत होते हैं, वही दूसनेताओं के बयान आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। कभी आरएसएस के प्रमुख मोदी की विचारधारा के विरुद्ध बोलते हैं, तो कभी विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर बनाने के लिए विवादित बयान देती है। गौमांस के मामले पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस चक्कर में सरकार यह भूल गई कि महंगाई दबे पांव बढ़ गई है, उस पर लगाम कसनी है। इस दौरान जमाखोरों की तो बन आई। पूरे डेढ़ वर्ष के मोदी शासन में किसी जमाखोर या मुनाफाखोर पर सख्त कार्रवाई हुई, ऐसा न तो सुना गया और न ही पढ़ा गया। अनजाने में वह इन समाजविरोधी तबकों को संरक्षण ही दे रही है। ऐसे में भाजपा पर विश्वास कर वोट देने वाला मतदाता ठगा सा रह जाता है।
आज की महंगाई पर यदि किसी की जवाबदारी बनती है, तो वह है मोदी सरकार। यूपीए सरकार के तमाम सलाहकारों को बेदर्दी से हटा दिया गया। मंत्रियों के कार्यालयों में काम करने वाले कांग्रेस समर्थक सभी लोगों को हटा दिया गया। योजना आयोग पर ताला लगा दिया। यह सब काम इसलिए किया गया कि मोदी सरकार स्वतंत्र होकर काम कर सके। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार महंगाई तो कम नहीं कर पाई, उल्टे महंगाई दोगुनी हो गई। जब प्रधानमंत्री स्वयं यह कहते हैं कि वे गरीबी में पले-बढ़े हैं, तो फिर उन्हें महंगाई क्या होती है, यह अच्छी तरह से पता होना चाहिए। जो गरीबी में पले-बढ़े होते हैं, वे ही जानते हैं कि महंगाई बढ़ने से इस परिवार पर क्या बीतती है? अपने नारों में प्रधानमंत्री निवेश, विदेशी निवेश, डिजिटल इंडिया, साइन इंडिया आदि शब्दों का उच्चारण करते हैं, तो लगता है कि यह तो आम आदमी की आवाज कतई नहीं है। विदेशी यदि भारत में निवेश करें, तो इससे आम आदमी को क्या? वह तो यही चाहता है कि किसी भी तरह से महंगाई कम हो। जीने लायक कमा सकें और आवश्यक वस्तुओं को खरीद सकें। विदेशों से अच्छे संबंध एक चुनौती है, पर उससे बड़ी चुनौती यह है कि देश में क्या चल रहा है, उसे भी जानना। आज हर तरफ महंगाई की ही चर्चा है, पर उसे कम करने के लिए किसी के पास कोई उपाय नहीं है। आज सरकार का संबंध आम आदमी से टूट गया है, जो आघातजनक है। सरकार की नजर डॉलर के भाव, सोनेे-चांदी के भाव, क्रूड के भाव आदि से हटती नहीं है। जीडीपी और मैनुफैक्चरिंग इंडेक्स की बातें करती थकती नहीं, परंतु अरहर की दाल के बढ़ते दाम जैसे सुलगते मुद्दे पर कोई कुछ करने को तैयार ही नहीं है। सरकार बातें बहुत कर रही है, पर अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहती। एनडीए सरकार बनी, तब से सभी अच्छे दिनों की राह देख रहे हैं। पर अच्छे दिन एक सपना बनकर रह गया है। अब कमरतोड़ महंगाई सबका स्वागत करने लगी है। अाश्चर्य इस बात का है कि पहले पेट्रोल की कीमतों के साथ्ज्ञ महंगाई बढ़ती थी, अब तो पेट्रोल के दाम कम हो रहे हैं, अब जाकर स्थिर भी हो गए हैं, उसके बाद भी महंगाई लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? सरकार को अपनी नाकामयाबी की शायद जानकारी नहीं है। अपनी छबि को उज्जवल करने के लिए प्रधानमंत्री विदेशों के दौरे कर रहे हैं। शायद उन्हें भी नहीं मालूम कि देश में क्या हो रहा है। अरहर दाल ने अन्य सभी दालों के दाम बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कई लोग यह तर्क दे रहे हैं कि महंगाई बढ़ने के साथ-साथ लोगों के वेतन में भी वृद्धि हुई है। पर वेतन में वृद्धि केवल सरकारी कर्मचारियों की हुई है। निजी कंपनियों के कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि एक विकसित देश में बढ़ती महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। पर जब क्रूड आयल के दामों में कमी आती है, तो उसका लाभ देश को जो मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। भाव कम होने का असर सुदूर गांव के एक ग्रामीण पर भी होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। यह सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार को यह देखना चाहिए कि जब वह दाम कम करती है, तो वास्तव में दाम कम हो रहे हैं या नहीं। अमेरिका जैसे देशों में दूध, अंडे और ब्रेड की कीमतों मे पिछले 40 बरसों में मात्र कुछ सेंट की ही बढ़ोत्तरी हुई है। यदि हमारे देश में भी यह संभव होता है, तो यह सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सरकार के पास अभी भी समय है, वह जमाखोरों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। जिससे उन्हें लगे कि दालों का संग्रह कर उन्होंने गलती की है, तो इसी गलती का अहसास उन्हें सरकार उन पर सख्ती लगाकर कराए, तो दाल के दाम अंकुश में लाने में देर नहीं होगी। इसके पहले भी देश को प्याज ने काफी रुलाया है। कांग्रेस की सरकार केवल प्याज के कारण ही चली भी गई। प्रधानमंत्री की बड़ी-बड़ी बातें अब लोगों को लुभा नहीं पा रही हैं। आम आदमी चाहता है कि वह अपने बच्चों की परवरिश सही तरीके से कर सके। इसीलिए उसने भाजपा को अपना कीमती वोट दिया था। अब यदि यह सरकार भी आम आदमी की न होकर व्यापारियों, मुनाफाखोरों और जमाखोरों की हो जाए, तो यह भारतीय जनता के लिए बहुत बड़ा धोखा है। सरकार इस दिशा में जितने भी सख्त कदम उठाए, उसका असर दीवाली तक तो नहीं पड़ेगा, यह तय है। इसका मतलब यही हुआ कि इस बार की दीवाली महंगाई के नाम रही।
डाॅ. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015
तिन तिनक तुन तानी वाद्य यंत्रों की कहानी
इस लेख में संगीत से जुडे विविध वाद्य यंत्रों के बारे में जानकारी दी गई हैं। जो कि आप सभी के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी।
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लेख
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बाल कहानी पिंजरा खोलो
इस कहानी में तोते की उदारता का वर्णन किया गया है। पक्षी उन्मुक्त गगन में उडना चाहते हैं। वे मनुष्यों के बीच रहते अवश्य हैं लेकिन उनका असली ठिकाना गगन की ऊँचाई है। इसे छूकर ही वे खुश रह सकते हैंं। मानवीय मूल्यों से जुडी ये बाल कहानी मानवता का संदेश देती है।
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बाल कहानी
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गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015
बाल कविता हरीश परमार 1
छत्तीसगढ में हरीश परमार का नाम बाल साहित्यकार के रूप में जाना पहचाना है। उनकी कई कविताऍं क्षेत्रिय समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रही हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताऍं -
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बाल कविता
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बाल कहानी तेनालीराम ऊनी कम्बल
तेनालीराम के किस्से काफी मशहूर हैं। वे हमेशा अपनी चतुराई से साजिशों का पर्दाफाश कर देते हैंं। इस कहानी में उनकी इसी चतुराई को बताया गया है।
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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015
बाल कहानी बिजली
बच्चों का अपना एक अनोखा संसार होता है। वे इस संसार में कुदरती नजारों को जब अपने जैसा ही देखते हैं तो खुश हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही इस कहानी में है। ये कहानी बच्चो को चांद तारों की अनोखी दुनिया में ले जाती है।
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बाल कहानी रेगिस्तान की खुशी
बाल कहानी रेगिस्तान की खुशी इस कहानी में यह बताया गया है कि त्याग में ही खुशी है। अपने लिए तो सभी जीते हैं, लेकिन हमें दूसरों के लिए जीवन जीकर उसे सार्थकता प्रदान करनी चाहिए।
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बाल कहानी
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शाम ए गम की कसम तलत महमूद
शाम ए गम की कसम तलत महमूद को याद करते हुए लिखा गया एक जानकारीप्रद लेख है। जिसमें उनके संघर्ष के दिनों की कुछ झलकियाँ दिखाई देती हैं। इस लेख को आवाज देते हुए आप तक पहुँचाने की एक कोशिश हमने की है।
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फिल्म संसार
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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015
सिबाका गीतमाला की कहानी अमीन सयानी की जुबानी
इस ऑडियो में अमीन सयानी ने सिबाका गीतमाला की शुरूआत की कहानी बताते हुए 1955 के आसपास के हिट गीतों की जानकारी दी है और वे गीत सुनाए भी हैं। आप भी इन गीतों का मजा लीजिए।
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फिल्मी गीत
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राम अधीर जी के काव्य गीत
राम अधीर जी साहित्यजगत में एक जाना पहचाना नाम है। उनकी कुछ कविताओं को यहॉं आवाज दी गई है। उन्होंने अपने काव्य गीतों में सरस, सरल और सहज शब्दों का प्रयोग किया है। जो मन को छू लेते हैं।
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कविता,
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कहानी खेत में मणि
बाल कहानी खेत में मणि के माध्यम से यह बताया गया है कि मेहनत और ईमानदारी का फल हमेशा अच्छा होता है। जीवन में सच्चाई का साथ निभानेवाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता।
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बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015
कहानी दुख का अधिकार
हिंदी कहानी दुख का अधिकार
लेखक यशपाल की इस कहानी में जीवन की सच्चाई को बडे सहज एवं सरल तरीके से व्यक्त किया गया है। अमीर और गरीब के बीच केवल धन दौलत की दीवार नहीं होती दकियानूसी विचारों की दीवार भी होती है ।
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निराधार हुआ आधार
डॉ. महेश परिमल
सबसे पहले जब उद्योगपति नंदन नीलकेणी ने पिछली सरकार के सामने एक भारतीय की अपनी पहचान के लिए एक प्रस्ताव रखा कि हम भारतीयों के नाम में समानता हो सकती है, पर यदि अपनी पहचान कायम करने के लिए यदि सभी के अलग-अलग नम्बर हों, जिसके आधार पर उसकी पहचान स्थापित हो सके। तो सरकार ने इसे गंभीरता से लेते हुए सभी के लिए आधार कार्ड अनिवार्य कर दिया। धीरे-धीरे यह हर भारतीय की पहचान बनने लगा। इससे आगे बढ़ते हुए भाजपा सरकार ने इसे उपभोक्ता के बैंक खाते से जोड़ने के लिए कदम उठाया। इससे समूचे देश में एक क्रांति ही आ गई। हर तरफ आधार कार्ड की ही चर्चा होने लगी। साथ-साथ इसमें की गई गलतियों एवं लापरवाहियों के किस्से भी आम हो गए। लेकिन एक बात यह ठीक रही कि इससे उपभोक्ता के खाते में सबसिडी की राशि सीधे जमा होने लगी। पर तभी सुप्रीमकोर्ट ने यह आदेश दिया कि आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। इससे लोगों में एक तरह की बेचैनी देखी गई। काफी जद्दोजहद से बना था आधार कार्ड, लेकिन उसकी उपयोगिता को अनदेखा कर दिया गया। अब अाधार कार्ड की हालत यह है कि यह अपनी पहचान बनाते-बनाते स्वयं ही निराधार हो गया। एक तरफ डिजिटल इंडिया के लिए सरकार हाय-तौबा मचा रही है, तो दूसरी तरफ डायरेक्ट केश ट्रांसफर के साथ जुड़ी आधार कार्ड योजना के संबंध में लापरवाह हो गई है। सरकार की सबसिडी की राशि सीधे उपभोक्ता के खाते में चली जाए, इसके लिए आधार कार्ड को सीधे बैंक खाते से जोड़ दिया गया। आधार कार्ड पाकर लोग स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। लोग इसे हाईप्रोफाइल मानने लगे। लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने अपने निर्णय में यह कहा कि प्रजा का यह बायोमेट्रिक डाटा सुरक्षित नहीं है। इस जानकारी को गोपनीय भी नहीं रखा जा सकता। सुप्रीमकोर्ट ने सबसिडी जमा करने के लिए आधार कार्ड को उपयोगी माना। परंतु इसके अन्य क्षेत्रों में उपयोग के लिए अनुपयोगी माना। इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है कि इसे अन्य क्षेत्रों में भी उपयोग में लाया जाए या नहीं। आधार कार्ड की योजना सभी क्षेत्रों में जारी रखी जाए या नहीं, इस आशय का सुझाव सेबी, आरबीआई, एलआईसी, ट्राई एवं आयकर आदि ने दिए हैं। इस तरह से देखते ही देखते आधार कार्ड जीवन का ही आधार बन गया। लोग इसके लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में खड़े रहकर, परेशान होकर अपना कार्ड बनवाने लगे। सब कुछ अच्छे से चल रहा था कि अचानक ही एक जनहित याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने यह फैसला दिया कि आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है। इस फैसले से लोगों की आशाओं पर मानों तुषारापात हो गया। आधार कार्ड को कांग्रेस अपना गेम चेंजर समझती थी, परंतु लोकसभा चुनाव में वह इसे पूरी तरह से भुना नहीं पाई। कांग्रेस के इस कार्य को भाजपा सरकार ने भुनाने का प्रयास किया, इसमें काफी हद से कामयाब भी रही।
सरकार डायरेक्ट बेनीफीट ट्रांसफर स्कीम को आधार कार्ड के साथ जोड़ना चाहती थी, परंतु इसके लिए कोई योजना तैयार नहीं कर पाई। एक योजना के अंतर्गत यह प्लान था कि सरकार की तरफ से मिलने वाले लाभ को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में डाल दिया जाए। यूपीए सरकार इस योजना में विफल साबित हुई। सभी यही सोच रहे थे कि एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नाकामयाब योजना को ताक पर रख देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आधार कार्ड का आइडिया देने वाले नंदन नीलकेणी मोदी को इसकी उपयोगिता को समझाने में सफल रहे। उन्होंने बताया कि आधार कार्ड से अभी भले नहीं, पर भविष्य में इसके चमकात्कारिक परिणाम सामने आ सकते हैं। इसके बाद इस आधार कार्ड को जोरदार सफलता मिलने लगी। एलपीजी सबसिडी आदि की राशि सीधे ग्राहक के खाते में जमा होने लगी। जन धन योजना के अंतर्गत 28 अगस्त तक 17.74 करोड़ बचत खाता बैंकों में खुले थे। इसमें से 22 हजार करोड़ की राशि जमा भी हो गई। ये सभी खाते आधार कार्ड के साथ जोड़ दिए गए थे। 3 लाख 515 हजार 634 परमानेंट एकाउंट नम्बर (पेनकार्ड) आधार कार्ड के साथ जुड़ गए। आधार कार्ड का दूसरा लाभ यह हुआ कि बैंक एकाउंट ख्ुलवाना, पासपोर्ट बनवाना आदि अन्य सरकारी कामों में भी इसका उपयोग होने लगा था। सरकार को आधार कार्ड के उपयोग को एक सीमा में रखने के बजाए राज्यों में कितने बोगस राशन कार्ड हैं, इसकी जांच कर उसे रद्द करने का काम करना चाहिए।
आधार का आधार पहले तो स्पष्ट था, इसके कारण कई बोगस उपभोक्ताओं की पहचान हो गई। भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया। इससे प्रजा का धन योग्य हाथों में जाना शुरू हो गया। आधार कार्ड के कारण यह स्पष्ट हुआ कि 2011 में आंध्र प्रदेश में जब जनसंख्या की गणना हुई, तो पता चला कि जितने राशन कार्ड हैं, उससे अधिक उस राज्य की आबादी है। यानी की आबादी से कई गुना राशन कार्ड थे। इससे बिचौलियों का आधार खत्म हो गया। इन्हीं के कारण सरकार द्वारा दिया जाने वाला लाभ सही हाथों तक नहीं पहुंच पाता था। इससे कई फायदे हुए। लेकिन जो पहले सरकारी सहायता को लोगों तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे, वही लोग इससे घबराने लगे। वही लोग जनहित याचिका लगाकर उसे एक बेकार योजना बनाने में लगे हुए हैं। आधार कार्ड जैसी योजना बार-बार देखने को नहीं मिलती। जब तक लार्जर बैंक कोई निर्णय न ले, तब तक आधार कार्ड केवल एलपीजी, केरोसीन और अनाज की सबसिडी में काम में लाई जा सकती है। इससे भले ही सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गई है। लेकिन इसके लाभ को देखते हुए इसे जारी रखना चाहिए। ताकि सरकारी लाभ का फायदा सीधे हितग्राहियों को ही मिले।
डॉ. महेश परिमल
सबसे पहले जब उद्योगपति नंदन नीलकेणी ने पिछली सरकार के सामने एक भारतीय की अपनी पहचान के लिए एक प्रस्ताव रखा कि हम भारतीयों के नाम में समानता हो सकती है, पर यदि अपनी पहचान कायम करने के लिए यदि सभी के अलग-अलग नम्बर हों, जिसके आधार पर उसकी पहचान स्थापित हो सके। तो सरकार ने इसे गंभीरता से लेते हुए सभी के लिए आधार कार्ड अनिवार्य कर दिया। धीरे-धीरे यह हर भारतीय की पहचान बनने लगा। इससे आगे बढ़ते हुए भाजपा सरकार ने इसे उपभोक्ता के बैंक खाते से जोड़ने के लिए कदम उठाया। इससे समूचे देश में एक क्रांति ही आ गई। हर तरफ आधार कार्ड की ही चर्चा होने लगी। साथ-साथ इसमें की गई गलतियों एवं लापरवाहियों के किस्से भी आम हो गए। लेकिन एक बात यह ठीक रही कि इससे उपभोक्ता के खाते में सबसिडी की राशि सीधे जमा होने लगी। पर तभी सुप्रीमकोर्ट ने यह आदेश दिया कि आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। इससे लोगों में एक तरह की बेचैनी देखी गई। काफी जद्दोजहद से बना था आधार कार्ड, लेकिन उसकी उपयोगिता को अनदेखा कर दिया गया। अब अाधार कार्ड की हालत यह है कि यह अपनी पहचान बनाते-बनाते स्वयं ही निराधार हो गया। एक तरफ डिजिटल इंडिया के लिए सरकार हाय-तौबा मचा रही है, तो दूसरी तरफ डायरेक्ट केश ट्रांसफर के साथ जुड़ी आधार कार्ड योजना के संबंध में लापरवाह हो गई है। सरकार की सबसिडी की राशि सीधे उपभोक्ता के खाते में चली जाए, इसके लिए आधार कार्ड को सीधे बैंक खाते से जोड़ दिया गया। आधार कार्ड पाकर लोग स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। लोग इसे हाईप्रोफाइल मानने लगे। लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने अपने निर्णय में यह कहा कि प्रजा का यह बायोमेट्रिक डाटा सुरक्षित नहीं है। इस जानकारी को गोपनीय भी नहीं रखा जा सकता। सुप्रीमकोर्ट ने सबसिडी जमा करने के लिए आधार कार्ड को उपयोगी माना। परंतु इसके अन्य क्षेत्रों में उपयोग के लिए अनुपयोगी माना। इस पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है कि इसे अन्य क्षेत्रों में भी उपयोग में लाया जाए या नहीं। आधार कार्ड की योजना सभी क्षेत्रों में जारी रखी जाए या नहीं, इस आशय का सुझाव सेबी, आरबीआई, एलआईसी, ट्राई एवं आयकर आदि ने दिए हैं। इस तरह से देखते ही देखते आधार कार्ड जीवन का ही आधार बन गया। लोग इसके लिए लम्बी-लम्बी लाइनों में खड़े रहकर, परेशान होकर अपना कार्ड बनवाने लगे। सब कुछ अच्छे से चल रहा था कि अचानक ही एक जनहित याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने यह फैसला दिया कि आधार कार्ड अनिवार्य नहीं है। इस फैसले से लोगों की आशाओं पर मानों तुषारापात हो गया। आधार कार्ड को कांग्रेस अपना गेम चेंजर समझती थी, परंतु लोकसभा चुनाव में वह इसे पूरी तरह से भुना नहीं पाई। कांग्रेस के इस कार्य को भाजपा सरकार ने भुनाने का प्रयास किया, इसमें काफी हद से कामयाब भी रही।
सरकार डायरेक्ट बेनीफीट ट्रांसफर स्कीम को आधार कार्ड के साथ जोड़ना चाहती थी, परंतु इसके लिए कोई योजना तैयार नहीं कर पाई। एक योजना के अंतर्गत यह प्लान था कि सरकार की तरफ से मिलने वाले लाभ को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में डाल दिया जाए। यूपीए सरकार इस योजना में विफल साबित हुई। सभी यही सोच रहे थे कि एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नाकामयाब योजना को ताक पर रख देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। आधार कार्ड का आइडिया देने वाले नंदन नीलकेणी मोदी को इसकी उपयोगिता को समझाने में सफल रहे। उन्होंने बताया कि आधार कार्ड से अभी भले नहीं, पर भविष्य में इसके चमकात्कारिक परिणाम सामने आ सकते हैं। इसके बाद इस आधार कार्ड को जोरदार सफलता मिलने लगी। एलपीजी सबसिडी आदि की राशि सीधे ग्राहक के खाते में जमा होने लगी। जन धन योजना के अंतर्गत 28 अगस्त तक 17.74 करोड़ बचत खाता बैंकों में खुले थे। इसमें से 22 हजार करोड़ की राशि जमा भी हो गई। ये सभी खाते आधार कार्ड के साथ जोड़ दिए गए थे। 3 लाख 515 हजार 634 परमानेंट एकाउंट नम्बर (पेनकार्ड) आधार कार्ड के साथ जुड़ गए। आधार कार्ड का दूसरा लाभ यह हुआ कि बैंक एकाउंट ख्ुलवाना, पासपोर्ट बनवाना आदि अन्य सरकारी कामों में भी इसका उपयोग होने लगा था। सरकार को आधार कार्ड के उपयोग को एक सीमा में रखने के बजाए राज्यों में कितने बोगस राशन कार्ड हैं, इसकी जांच कर उसे रद्द करने का काम करना चाहिए।
आधार का आधार पहले तो स्पष्ट था, इसके कारण कई बोगस उपभोक्ताओं की पहचान हो गई। भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया। इससे प्रजा का धन योग्य हाथों में जाना शुरू हो गया। आधार कार्ड के कारण यह स्पष्ट हुआ कि 2011 में आंध्र प्रदेश में जब जनसंख्या की गणना हुई, तो पता चला कि जितने राशन कार्ड हैं, उससे अधिक उस राज्य की आबादी है। यानी की आबादी से कई गुना राशन कार्ड थे। इससे बिचौलियों का आधार खत्म हो गया। इन्हीं के कारण सरकार द्वारा दिया जाने वाला लाभ सही हाथों तक नहीं पहुंच पाता था। इससे कई फायदे हुए। लेकिन जो पहले सरकारी सहायता को लोगों तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे, वही लोग इससे घबराने लगे। वही लोग जनहित याचिका लगाकर उसे एक बेकार योजना बनाने में लगे हुए हैं। आधार कार्ड जैसी योजना बार-बार देखने को नहीं मिलती। जब तक लार्जर बैंक कोई निर्णय न ले, तब तक आधार कार्ड केवल एलपीजी, केरोसीन और अनाज की सबसिडी में काम में लाई जा सकती है। इससे भले ही सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गई है। लेकिन इसके लाभ को देखते हुए इसे जारी रखना चाहिए। ताकि सरकारी लाभ का फायदा सीधे हितग्राहियों को ही मिले।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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हरीश परमार की कविताऍं
छत्तीसगढ के साहित्यकारों में हरीश परमार एक जाना पहचाना नाम है। उनकी कविताएँ विशेष रूप से बाल कविताऍं काफी सराहनीय हैं। यहॉं पर उनकी कुछ जीवन की सच्चाई से जुडी कविताएँ आप सुन सकते हैं।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
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बाल कविता मेरा घर
बाल कविता मेरा घर
एक मासूम चिडिया का संसार कितना छोटा होता है और धीरे धीरे बढता जाता है। इसी बात को इस कविता में बताया है एक मासूम आवाज ने।
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बाल कविता
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रविवार, 18 अक्तूबर 2015
खुशबू का रंग
कहानी खुशबू का रंग
38 साल पहले सारिका में प्रकाशित नासिरा शर्मा की यह कहानी जेहन में चल रही थ्ाी। जिसे आज आवाज देते हुए रोमांचित हूँ।
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दुष्यंत कुमार की गजलें
हिंदी गजलों में दुष्यंत कुमार का नाम सर्वोपरि है। उनकी गजलें आज भी प्रासंगिक हैंं।
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गजल,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015
एक था चूजा
एक था चूजा - यह कहानी, कविता की तर्ज पर तुकबंदी के साथ लिखी गई है। जिसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से माँ की बात न मानने पर बच्चों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जब उन्हें अपनी गलती पता चलती है, तब तक देर हो चुकी होती है।
भारती परिमल
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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स्कूल का अंतिम दिन
आज के बच्चे स्कूल जाकर वहाँ इतने रम जाते हैं कि वे स्कूल छोड़ना ही नहीं चाहते। 12 पास करने के बाद भी वे अपनी स्कूल की यादें दिल से नहीं भुला पाते हैं। एेसी ही एक 12 वीं पास युवती की जुबानी सुनें कि वह क्यों स्कूल छोड़ना नहीं चाहती। यह कविता है भारती परिमल की और उसे पढ़ा है उनकी बेटी अन्यूता परिमल ने
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कविता,
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सुलगते सवालों के मुहाने पर हम!
डॉ. महेश परिमल
इस समय देश का माहौल कुछ बदला-बदला-सा लग रहा है। नेताओं की जुबानें बंद होने का नाम नहीं ले रहीं हैं। जुबानी-जंग तेज से तेजतर होती जा रही हैं। लोग स्वयं को असुरक्षित समझने लगे हैं। कोई मकान बदल रहा है, तो कोई शहर। कोई अपने घर में राशन भर रहा है, तो कोई बच्चों को विदेश भेज रहा है। ये सारे ताम-झाम केवल स्वयं और परिवार की सुरक्षा को लेकर हो रहा है। हिंदू-मुस्लिम के नाम पर दोनों को अलग करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है। ऐसा लगता है कि भीतर ही भीतर कुछ पक रहा है। कुछ ऐसी तैयािरयां हो रही हैं, जो इसके पहले कभी नहीं हुई। लोग परस्पर संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। कोई कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। सब अपने में ही मस्त हैं। टीवी पर चीखते लोग ऐसे लगते हैं, मानों पूरे देश में आग लगा देंगे। अखबार भी कम नहीं हैं। एक छोटी-सी खबर को भी बहुत बड़ा स्थान देकर उसे तूल दिया जा रहा है। कोई किसी का सरमायादार नहीं बनना चाहता। विश्वास नाम की चीज तो रह ही नहीं गई है। ऐसा माहौल पहले कभी देखने को नहीं मिला।
अभी कुछ ही दिन पहले एक मित्र ने अपने प्रावीडेंस फंड से कुछ राशि निकाली। उस राशि से उसने घर में दो महीने का राशन भर लिया। मुझे आश्चर्य हुआ। इसका कारण जानना चाहा, तो उसने साफ-साफ कहा-इस देश में अब कभी-भी कुछ भी हो सकता है। हो सकता है, लंबा कर्फ्यू ही लग जाए। इसलिए बच्चों के लिए कुछ तो रखना ही होगा। मुझे समझ में नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है। इस देश को काफी लंबे समय बाद बहुमत वाली सरकार मिली है। सरकार का वादा है कि वह जाति,धर्म आदि से उठकर काम करेगी। सबका विकास करेगी। ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है, तो फिर अराजकता का माहौल क्यों दिखाई दे रहा है? कहीं तो ऐसा कुछ है, जो बाहर से दिखाई नहीं दे रहा है, पर भीतर ही भीतर सुलग रहा है। इस बीच नेताओं के बयान पर कोई अंकुश नहीं है। वे कुछ भी बोल रहे हैं, तो मीडिया को मसाला मिल रहा है। कहीं किसी के मुंह से कुछ गलत निकला कि वह मुद्दा बन जाता है। कहने वाला तो एक ही बार कहता है, फिर मीडिया उसे दिन में करीब 100 बार कहलवा देता है। इससे माहौल बिगड़ते देर नहीं लगती। देखा जाए, तो संयम तो कहीं किसी में दिखाई नहीं दे रहा है। अंकुश के अभाव में लोग एक-दूसरे को भड़काने में ही लगे हैं। सोशल मीडिया तो इस दिशा में एक कदम आगे जाकर काम करने लगा है। अफवाहें फैलाने में इससे बड़ा कोई माध्यम ही नहीं है। यूं तो सोशल मीडिया ज्ञान का खजाना है, पर इस खजाने का दुरुपयाेग ही अधिक हो रहा है।
आपसी सद्भाव अब दुर्लभ हो गया है। इक्का-दुक्का कुछ खबरें आ जरूर रही हैं, पर वह समुद्र में एक बूंद की तरह है। बच्चों में प्रतिस्पर्धा के नाम पर कुछ ऐसे संस्कार डाल दिए गए हैं कि दूसरे नम्बर पर आने पर वह यही कहता पाया जाता है कि टीचर नेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे पक्षपात किया। काेई भी किसी के निर्णय से संतुष्ट ही नहीं है। हर कोई अपना मुकाम खुद ही बनाना चाहता है। बच्चों में यह सब कुछ आ रहा है, बड़ों के माध्यम से। बच्चे जो देख-सुन रहे हैं, उसे ही अपने जीवन में उतार रहे हैं। संस्कार के साधन अब माता-पिता ही नहीं, बल्कि मोबाइल-टीवी हो गए हैं। आकाशीय मार्ग से मिलने वाले इस ज्ञान से बच्चे कुछ अलग ही तरह का प्रदर्शन कर रहे हैं। स्कूलों में हर बच्चा आक्रामक ही दिखाई दे रहा है। सभी की नसें तनी हुई होती हैं। इसकी वजह होम वर्क तो कतई नहीं है। पर वे भी स्वयं पर काबू नहीं रख पा रहे हैं। घर में कोई भी इलेक्ट्राॅनिक चीज बच्चों की सहमति के बिना आ ही नहीं सकती। बच्चे बड़ों के काम में दखल देने लगे हैं, पर उन्हें अपने काम में बड़ों का दखल कतई मंजूर नहीं। हर कोई अपने ही आस्मां में कैद रहकर अपना रास्ता खोज रहा है। न तो उसे अपनी मंजिल का पता है और न ही उसे यह पता है कि उसे जाना कहां है? यदि जाना है, तो उसके पास जो संसाधन है, उससे वह अपनी मंजिल तक पहंुच सकता है?
रही बात गांव, मोहल्ले, शहरों की, तो सभी जगह राजनीति ने ऐसी पैठ जमा ली है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। एक-दूसरे को नीचा दिखाना मानो राष्ट्रधर्म बन गया है। अपने को कोई कम आंकना ही नहीं चाहता। किसी भी किसी अपराध में पकड़ लिया जाए, तो उसकी पहंुच इतनी दूर तक होती है कि वह पुलिस हिरासत में पहुंचने के पहले ही रिहा हो जाता है। मामला थाने तक भी नहीं पहुंच पाता। ऐसा तो गांव, मोहल्ले में हो रहा है। पर जो राजधानी स्तर पर हो रहा है, उसकी तस्वीर बहुत ही भयानक है। छोटी से छोटी संस्थाओं के तार राजनेताओं से जुड़े हुए हैं। इन नेताओं के तेवर इतने अधिक सख्त हैं कि अपनी जीत के लिए वे कुछ भी कर सकने के लिए दल-बल के साथ तैयार हैं। हर नेता की अपनी तैयारी है। उनके अपने कार्यकर्ता हैं, जो एक आवाज पर लड़ने-मरने को उतारू हैं। मानों यह संकल्प ही ले लिया है कि अब की बार तो कोई बच ही नहीं पाएगा। बिहार चुनाव को लेकर इस समय काफी गर्मा-गर्मी भी दिखाई दे रही है। अभद्र भाषा का चलन ऐसा बढ़ गया है कि कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करना चाहता। माहौल ऐसा बन गया है कि दुश्मन को जीवित देखना भी पसंद नहीं है। दुश्मन का जिंदा रहना उनकी कायरता है। अपनी इस कायरता को कम करने के लिए वे कुछ ऐसा करने के लिए तैयार हैं, जिससे दुश्मन नेस्तनाबूत हो जाएं।
देश की स्थायी सरकार में ही कुछ लोग ऐसे हैं, जो किसी का कहना नहीं मान रहे हैं। आपत्तिजनक बयानों के बाढ़ आ गई है। मुद्दा कोई भी हो, उसका तुरंत राजनीतिकरण हो जाता है। उसके बाद बयान दर बयान का सिलसिला चल निकलता है। उनके बयान इतने अधिक आक्रामक होते हैं कि लोग अपने वश में नहीं रह पाते। कुछ कर गुजरने की छटपटाहट बढ़ जाती है। अब साधू-संत भी इसमें पीछे नहीं रहे। उनके अंधभक्त भी इतने अधिक हिंसावादी हैं कि वे और कोई दूसरी भाषा न तो समझते हैं और न ही उन्हें शांति की भाषा आती है। हर दल का अपना एक अलग ही आक्रामक शाखा है, जो बस आदेश की प्रतीक्षा में है। उलझन भरे इस माहौल में आम आदमी का सांस लेना मुश्किल हो गया है। बदलते माहौल को लेकर हर कोई अपने तईं तैयारी कर ही रहा है। पर यह तय है कि कुछ हुआ, तो सबसे अधिक प्रभावित आम आदमी ही होगा। वही मारा जाएगा, उसके बच्चे मारे जाएंगे, उसका परिवार तबाह हो जाएगा। उच्च और मध्यम वर्ग तो अपनी तैयारी कर चुका है, अब निम्न वर्ग क्या करे? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। सुलगते सवालों के मुहानों पर बैठा आज इंसान यह तय नहीं कर पा रहा है कि क्या किया जाए? संकीर्ण मानसिकता, ओछी राजनीति, तीखी हवाओं के बीच आम आदमी अपने वजूद को तलाश रहा है। इससे बचने की कोई राह दूर-दूर नहीं दिखाई नहीं दे रही है। क्या होगा इस देश का, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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रविवार, 11 अक्तूबर 2015
बावरे मुहावरे
मुहावरों में वह शक्ति होती है, जो कई बार बहुत ही मारक होती है। कई बार ये लोगों को हँसा भी देते हैं। कई बार सौ बातों की अपेक्षा एक ही मुहावरा काफी होता है, अपने प्रतिद्वंद्वी पर हावी होने के लिए। कई मुहावरे तो आपस में विरोधाभासी भी होते हैं। ये हमारे जीेवन में हमेशा काम आते हैं। आओ, मुहावरों की इस दुनिया में थोड़ी देर के लिए, सच में बहुत मजा आएगा....
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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hindi poem international womensday
नारी जीवन से जुड़ी सच्चाई को दर्शाती एक कविता
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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दिव्य दृष्टि - एक परिचय और एक नई शुरूआत
आज से नियमित तौर पर सुनें हिंदी पॉडकास्ट - हर विषय और हर रंग में.
हम शुरुआत कर रहे हैं अपना परिचय और अपने काम के बारे में आपको बता कर :
हम शुरुआत कर रहे हैं अपना परिचय और अपने काम के बारे में आपको बता कर :
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दिव्य दृष्टि
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शनिवार, 10 अक्तूबर 2015
विरोध नहीं, उसकी जड़ की पड़ताल हो
डॉ. महेश परिमल
चिड़िया जैसी कद का एक खूबसूरत स्पेनिश पक्षी होता है, जिसका नाम है केनेरी। 300 वर्ष पहले जब कोयले की खानों में काम करने वाले खनिक मजदूर अपने काम के लिए जाते थे, तब अपने साथ इस केनेरी पक्षी को भी ले जाते थे। इस पक्षी की यह विशेषता हाेती है कि खदानों से निकलने वाली मिथेन जैसी जहरीली गैस को सबसे पहले यही पक्षी महसूस करता है, थोड़ी-सी गंध से ही इस पक्षी का दम घुटने लग जाता है। कुछ देर बाद इसकी मौत हो जाती थी। इससे मजदूर समझ जाते थे कि कहां पर मिथेन गैस की बहुतायत है। एक पक्षी की अकाल मृत्यु से कई मजदूरों की जान बच जाती थी। समाज में रहने वाले सर्जक, लेखक, कलाकार या फिर कवि ये सभी अपने आसपास के समाज के केनेरी पक्षी की तरह होते हैं। अपने समय या देशकाल के आंतरिक सत्य को ये सबसे पहले महसूस करते हैं। उसके बाद अपने विचार समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। आम जनता अपने आसपास फैली जहरीली हवाओं को पहचान नहीं पाती, इसलिए ये समाज के संवेदनशील लोग केनेरी पक्षी की भूमिका अदा करते हैँ। अपने जान जोखिम में डालकर ये लोगों को सचेत करते हैं कि आने वाला समय काफी संवेदनशील है, जो खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए सचेत हो जाएं। लोगों को सचेत करने वाले यही सर्जक, कवि, कलाकार, लेखक अपनी इसी ख्ूबी के कारण समाज के पहरुए का काम करते हैं। इसलिए इनका स्थान विशिष्ट होता है। इस समय ये काम नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने किया है। स्वयं को मिले सम्मान सरकार को लौटाते हुए इन्होंने अपनी तरफ से विरोध का स्वर मुखर किया है। इस स्वर में वह पीड़ा प्रस्फुटित होती है, जो उनकी पहचान है।
इस समय देश में जो कुछ भी हो रहा है, वह एक संवेदनशील समाज के लिए घातक है। इससे बौद्धिक वर्ग कुछ अनमना-सा महसूस कर रहा है। विख्यात साहित्यकार नयनतारा सहगल ने कितनी ही समस्याओं को लेकर देश के प्रधानमंत्री और अन्य प्रबुद्ध वर्ग के मौन को लेकर अपना विरोध व्यक्त किया है। इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने की घोषणा भी कर दी है। उनका अनुसरण करते हुए अशोक वाजपेयी ने भी स्वयं को मिले पुरस्कार लौटा दिए हैं। स्वाभाविक है, कुछ लोग इसे भाजपाई खेमे के विरोध के रूप में देख रहे हों और इसे राग कांग्रेसी’ बता रहे हों। पर क्या यह पूरा सच है? नयनतारा सहगल को कांग्रेसी कहकर उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। भले ही वे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी हों, पर केवल इसी कारण से उन्हें हाशिए पर नहीं डाला जा सकता। उनकी पहचान एक साहित्यकार के रूप में भी है। पहली बार उन्होंने लोगों का ध्यान अपने उपन्यास ‘टाइम टू बी हेपी’ से खींचा। इसके बाद तो ‘स्टार्म इन चंडीगढ़’ ‘मिस्टेकन आईडेंटटिटी’ और ‘रिच लाइफ अस’ जैसे उपन्यासों के माध्यम ने साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। यही नहीं समय-समय पर उन्होंने सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ अपने आसपास के राजनीतिक, सामाजिक अौर वैश्विक परिवेश पर भी अपने विचार व्यक्त करती रहीं हैं। नयनतारा जवाहर लाल नेहरू की भांजी है, इस आवरण से तो वे तभी मुक्त हो गई थीं, जब उन्होंने इंदिरा गांधी के शासन में उनका विरोध किया था। अपनी किताब इंदिरा गांधी इमर्जेंसी एंड स्टाइल में उन्होंने व्यक्तिपूजा, एकाधिकार के कारण लोकतंत्र की छटपटाहट को व्यक्त किया था। उस समय उनका यह रूप भाजपा को बहुत भला लगा था। स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने नयनतारा को एक ‘जाग्रत सर्जक’ ही एक जाग्रह प्रहरी हो सकता है, कहकर उनकी प्रशंसा की थी। वही नयनतारा अब भाजपा शासन की बुराई कर रहीं हैं, तो इसे कांग्रेसी राग कहा जा रहा है। किस तरह की दोहरी मानसिकता है लाेगों की? दूसरी ओर अशोक वाजपेयी को हिंदी के ख्यातनाम कवि के रूप मे पहचाना जाता है। सरकार के कई महत्वपूर्ण पदों को संभाला है उन्होंने। गैर सरकारी साहित्यिक संस्थाओं के लिए उन्होंने काफी काम किया है। उनका कार्यकाल कांग्रेस शासन में अधिक रहा, इसलिए लोग उन्हें ‘कांग्रेस कवि’ कहते हैं। परंतु जिनकी कविता के प्रशंसक अटल बिहारी वाजपेयी हों और उन्होंने ही अशोक जी को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया हो, तो फिर वे किस तरह से कांग्रेसी कवि हो गए? इसका जवाब किसी भाजपाई के पास नहीं है।
इन दोनों बुद्धिजीवियों ने वर्तमान राजनीतिक वातावरण में बढ़ रही धर्मांधता, मानवीय मूल्यों के हनन और स्वेच्छाचारी विचारधारा के अतिक्रमण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है। यह एक चुनौतीभरा काम है। नयनतारा ने साहित्य अकादमी द्वारा मिले सम्मान को वापस करते हुए यह मुद्दा उठाया हे कि देश में स्थापित हितों के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों की हत्या हो रही है,तब साहित्य अकादमी खामोश क्यों बैठी है? दादरी हत्या के मामले में प्रधानमंत्री अब तक मौन क्यों हैं? इस पर भी उन्होंने अपना विरोध मुखर किया है। नयनतारा ने इसके पहले कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या, वामपंथी विचार गोविंद पानसरे की हत्या और सुधारवादी नेता नरेंद्र दाभोलकर की हत्या का उल्लेख किया है। ये तीनोें बुद्धिजीवी अपने-अपने क्षेत्र में अपनी तरह का योगदान देते रहे हैं। तीनों की हत्या में समानता है। तीनों ही मामले में धर्मांध लोगों को इनकी सक्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही थी। ये उनके लिए आंख की किरकिरी बन गए थे। एम.एम. कलबुर्गी भी साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे। अपने लेखन में उन्होंने समय-समय पर धार्मिक रूढ़ियों, उन्माद, क्रियाकांडों की निरर्थकता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर तीखा प्रहार भी किया था। मूर्ति में क्या कोई शक्ति है, इसकी जांच के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उस पर विहिप और बजरंग दल वाले भड़क उठे, उनकी काफी आलोचना हुई। अंतत: 30 अगस्त को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। गोविंद पानसरे महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत के साम्यवादी विचारक थे। राजनीतिक विचारधारा वामपंथी होने के कारण वे समाज की रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाते रहते। शिवाजी पर केंद्रित उनकी किताब काफी विवादास्पद हुई थी। शिवाजी पर उनके दृष्टिकोण से शिवसेना एवं अन्य धार्मिक कट्टरवादी संस्थाएं उनके विरोध में आ खड़ी हुई थीं। उन पर तीन बार प्राणघातक हमला हुआ। ऐसे ही एक हमले में गत फरवरी में वे अपनी जान गवां बैठे। इसी तरह नरेंद्र दाभोलकर भी समाज में फैली कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधश्रद्धा, क्रियाकांडों, धार्मिक पाखंडों आदि पर जमकर प्रहार करते। अपनी इसी प्रहारक क्षमता के कारण वे धर्म के नाम पर ढोंग करने वाले कथित बाबाओं के लिए परेशानी का कारण बन गए थे। कितनी बार उन्हें जान से मारने की धमकी मिली। उन पर हमले भी हुए। अंधश्रद्धा निर्मूलन संबंधी विधेयक लाने के लिए वे पूरे महाराष्ट्र में अभियान चला रहे थे। इसके कारण कितने ही सांप्रदायिक संगठनों के निशाने पर आ गए थे। अंतत: उन्हें भी अपनी जान खोनी पड़ी।
उपरोक्त तीनों मामलों से एक बात यही निकलकर आती है कि क्या गोविंद पानसरे ने शिवाजी के प्रति अपने विचार रखने का अधिकार नहीं है। क्या वे अपनी नई नजर, नए तर्क से अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकते? मूर्ति में बसने वाले ईश्वर वास्तव में हमारे भीतर बसते हैं, ऐसा कहने वाले कलबुर्गी अपने ही बचपन में की गई नादानी का किस्सा बताते हैं, तो कुछ लोगों के सर पर आसमान क्यों टूट पड़ता है? यह ईश्वरीय तत्व का अपमान है या सत्य की तरफ ले जाने वाला एक नूतन अभिगम है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हम सभी को प्राप्त है। यह लोकतंत्र का प्राण है। इसके अलावा यह हिंदू धर्म का मर्म भी है। प्राचीन वेदग्रंथों में भी ब्रह्म को व्याख्यायित करने के लिए मंथन करने वाले शिष्यों को गुरु सतत ‘नेति...नेति’ कहकर सत्य की तरफ ले जाते रहे हैं। क्या उस समय उनके शिष्यों ने अपने गुरु पर हमला किया था। ब्रह्म यह नहीं है, ऐसा लगातार कहने वाले गुरु को हम नास्तिक कहने में जरा भी संकोच नहीं करते। विचारों की ताजगी को खुले रूप में स्वीकारना ही हिंदू धर्म का लचीलापन है। इसी लचीलेपन के कारण ही हिंदू धर्म हजारों साल के बाद भी पूरी शिद्दत के साथ अडिग है। इतने सारे आक्रमणों के बाद भी उसमें जरा भी विचलन नहीं आया है। उसकी अविचलता ही उसकी पहचान है। तो क्या आज यदि कुछ लोग ज्वलंत मामलों में अपना नया विचार रखते हैं, तो सचमुच हिंदू धर्म खतरे में पड़ जाएगा? यदि वास्तव में ऐसा होता, तो यह धर्म कब का नेस्तनाबूत हो चुका होता। नयनतारा सहगल हो या अशोक वाजपेयी, यदि वे अपना विरोध दर्ज करते हैं, तो उन्हें गंभीरता से सुनना ही होगा। आखिर उन्हें एेसा कहने और करने की नौबत क्यों आई, इस पर गहराई से विचार आवश्यक है। न कि उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर किसी तरह की टिप्पणी की जाए। समाज में यदि विरोध नहीं होगा, तो नए विचार कैसे आएंगे। विरोध तो सामाजिक विकास का अभिन्न अंग है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। यदि हमने विरोध को नहीं स्वीकारा, तो मंजीरों के शोर में हम भी क्रमश: तालिबानी मानसिकता के प्रभाव में आ जाएंगे। इसका हमें आभास भी नहीं होगा। विरोध को कुचलना समाधान नहीं है, बल्कि विरोधियों का हौसला बुलंद करना है।
डॉ. महेश परिमल
चिड़िया जैसी कद का एक खूबसूरत स्पेनिश पक्षी होता है, जिसका नाम है केनेरी। 300 वर्ष पहले जब कोयले की खानों में काम करने वाले खनिक मजदूर अपने काम के लिए जाते थे, तब अपने साथ इस केनेरी पक्षी को भी ले जाते थे। इस पक्षी की यह विशेषता हाेती है कि खदानों से निकलने वाली मिथेन जैसी जहरीली गैस को सबसे पहले यही पक्षी महसूस करता है, थोड़ी-सी गंध से ही इस पक्षी का दम घुटने लग जाता है। कुछ देर बाद इसकी मौत हो जाती थी। इससे मजदूर समझ जाते थे कि कहां पर मिथेन गैस की बहुतायत है। एक पक्षी की अकाल मृत्यु से कई मजदूरों की जान बच जाती थी। समाज में रहने वाले सर्जक, लेखक, कलाकार या फिर कवि ये सभी अपने आसपास के समाज के केनेरी पक्षी की तरह होते हैं। अपने समय या देशकाल के आंतरिक सत्य को ये सबसे पहले महसूस करते हैं। उसके बाद अपने विचार समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। आम जनता अपने आसपास फैली जहरीली हवाओं को पहचान नहीं पाती, इसलिए ये समाज के संवेदनशील लोग केनेरी पक्षी की भूमिका अदा करते हैँ। अपने जान जोखिम में डालकर ये लोगों को सचेत करते हैं कि आने वाला समय काफी संवेदनशील है, जो खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए सचेत हो जाएं। लोगों को सचेत करने वाले यही सर्जक, कवि, कलाकार, लेखक अपनी इसी ख्ूबी के कारण समाज के पहरुए का काम करते हैं। इसलिए इनका स्थान विशिष्ट होता है। इस समय ये काम नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने किया है। स्वयं को मिले सम्मान सरकार को लौटाते हुए इन्होंने अपनी तरफ से विरोध का स्वर मुखर किया है। इस स्वर में वह पीड़ा प्रस्फुटित होती है, जो उनकी पहचान है।
इस समय देश में जो कुछ भी हो रहा है, वह एक संवेदनशील समाज के लिए घातक है। इससे बौद्धिक वर्ग कुछ अनमना-सा महसूस कर रहा है। विख्यात साहित्यकार नयनतारा सहगल ने कितनी ही समस्याओं को लेकर देश के प्रधानमंत्री और अन्य प्रबुद्ध वर्ग के मौन को लेकर अपना विरोध व्यक्त किया है। इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने की घोषणा भी कर दी है। उनका अनुसरण करते हुए अशोक वाजपेयी ने भी स्वयं को मिले पुरस्कार लौटा दिए हैं। स्वाभाविक है, कुछ लोग इसे भाजपाई खेमे के विरोध के रूप में देख रहे हों और इसे राग कांग्रेसी’ बता रहे हों। पर क्या यह पूरा सच है? नयनतारा सहगल को कांग्रेसी कहकर उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। भले ही वे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भांजी हों, पर केवल इसी कारण से उन्हें हाशिए पर नहीं डाला जा सकता। उनकी पहचान एक साहित्यकार के रूप में भी है। पहली बार उन्होंने लोगों का ध्यान अपने उपन्यास ‘टाइम टू बी हेपी’ से खींचा। इसके बाद तो ‘स्टार्म इन चंडीगढ़’ ‘मिस्टेकन आईडेंटटिटी’ और ‘रिच लाइफ अस’ जैसे उपन्यासों के माध्यम ने साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। यही नहीं समय-समय पर उन्होंने सर्जनात्मक साहित्य के साथ-साथ अपने आसपास के राजनीतिक, सामाजिक अौर वैश्विक परिवेश पर भी अपने विचार व्यक्त करती रहीं हैं। नयनतारा जवाहर लाल नेहरू की भांजी है, इस आवरण से तो वे तभी मुक्त हो गई थीं, जब उन्होंने इंदिरा गांधी के शासन में उनका विरोध किया था। अपनी किताब इंदिरा गांधी इमर्जेंसी एंड स्टाइल में उन्होंने व्यक्तिपूजा, एकाधिकार के कारण लोकतंत्र की छटपटाहट को व्यक्त किया था। उस समय उनका यह रूप भाजपा को बहुत भला लगा था। स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने नयनतारा को एक ‘जाग्रत सर्जक’ ही एक जाग्रह प्रहरी हो सकता है, कहकर उनकी प्रशंसा की थी। वही नयनतारा अब भाजपा शासन की बुराई कर रहीं हैं, तो इसे कांग्रेसी राग कहा जा रहा है। किस तरह की दोहरी मानसिकता है लाेगों की? दूसरी ओर अशोक वाजपेयी को हिंदी के ख्यातनाम कवि के रूप मे पहचाना जाता है। सरकार के कई महत्वपूर्ण पदों को संभाला है उन्होंने। गैर सरकारी साहित्यिक संस्थाओं के लिए उन्होंने काफी काम किया है। उनका कार्यकाल कांग्रेस शासन में अधिक रहा, इसलिए लोग उन्हें ‘कांग्रेस कवि’ कहते हैं। परंतु जिनकी कविता के प्रशंसक अटल बिहारी वाजपेयी हों और उन्होंने ही अशोक जी को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया हो, तो फिर वे किस तरह से कांग्रेसी कवि हो गए? इसका जवाब किसी भाजपाई के पास नहीं है।
इन दोनों बुद्धिजीवियों ने वर्तमान राजनीतिक वातावरण में बढ़ रही धर्मांधता, मानवीय मूल्यों के हनन और स्वेच्छाचारी विचारधारा के अतिक्रमण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है। यह एक चुनौतीभरा काम है। नयनतारा ने साहित्य अकादमी द्वारा मिले सम्मान को वापस करते हुए यह मुद्दा उठाया हे कि देश में स्थापित हितों के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों की हत्या हो रही है,तब साहित्य अकादमी खामोश क्यों बैठी है? दादरी हत्या के मामले में प्रधानमंत्री अब तक मौन क्यों हैं? इस पर भी उन्होंने अपना विरोध मुखर किया है। नयनतारा ने इसके पहले कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या, वामपंथी विचार गोविंद पानसरे की हत्या और सुधारवादी नेता नरेंद्र दाभोलकर की हत्या का उल्लेख किया है। ये तीनोें बुद्धिजीवी अपने-अपने क्षेत्र में अपनी तरह का योगदान देते रहे हैं। तीनों की हत्या में समानता है। तीनों ही मामले में धर्मांध लोगों को इनकी सक्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही थी। ये उनके लिए आंख की किरकिरी बन गए थे। एम.एम. कलबुर्गी भी साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे। अपने लेखन में उन्होंने समय-समय पर धार्मिक रूढ़ियों, उन्माद, क्रियाकांडों की निरर्थकता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर तीखा प्रहार भी किया था। मूर्ति में क्या कोई शक्ति है, इसकी जांच के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उस पर विहिप और बजरंग दल वाले भड़क उठे, उनकी काफी आलोचना हुई। अंतत: 30 अगस्त को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। गोविंद पानसरे महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत के साम्यवादी विचारक थे। राजनीतिक विचारधारा वामपंथी होने के कारण वे समाज की रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठाते रहते। शिवाजी पर केंद्रित उनकी किताब काफी विवादास्पद हुई थी। शिवाजी पर उनके दृष्टिकोण से शिवसेना एवं अन्य धार्मिक कट्टरवादी संस्थाएं उनके विरोध में आ खड़ी हुई थीं। उन पर तीन बार प्राणघातक हमला हुआ। ऐसे ही एक हमले में गत फरवरी में वे अपनी जान गवां बैठे। इसी तरह नरेंद्र दाभोलकर भी समाज में फैली कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधश्रद्धा, क्रियाकांडों, धार्मिक पाखंडों आदि पर जमकर प्रहार करते। अपनी इसी प्रहारक क्षमता के कारण वे धर्म के नाम पर ढोंग करने वाले कथित बाबाओं के लिए परेशानी का कारण बन गए थे। कितनी बार उन्हें जान से मारने की धमकी मिली। उन पर हमले भी हुए। अंधश्रद्धा निर्मूलन संबंधी विधेयक लाने के लिए वे पूरे महाराष्ट्र में अभियान चला रहे थे। इसके कारण कितने ही सांप्रदायिक संगठनों के निशाने पर आ गए थे। अंतत: उन्हें भी अपनी जान खोनी पड़ी।
उपरोक्त तीनों मामलों से एक बात यही निकलकर आती है कि क्या गोविंद पानसरे ने शिवाजी के प्रति अपने विचार रखने का अधिकार नहीं है। क्या वे अपनी नई नजर, नए तर्क से अपने विचार व्यक्त नहीं कर सकते? मूर्ति में बसने वाले ईश्वर वास्तव में हमारे भीतर बसते हैं, ऐसा कहने वाले कलबुर्गी अपने ही बचपन में की गई नादानी का किस्सा बताते हैं, तो कुछ लोगों के सर पर आसमान क्यों टूट पड़ता है? यह ईश्वरीय तत्व का अपमान है या सत्य की तरफ ले जाने वाला एक नूतन अभिगम है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हम सभी को प्राप्त है। यह लोकतंत्र का प्राण है। इसके अलावा यह हिंदू धर्म का मर्म भी है। प्राचीन वेदग्रंथों में भी ब्रह्म को व्याख्यायित करने के लिए मंथन करने वाले शिष्यों को गुरु सतत ‘नेति...नेति’ कहकर सत्य की तरफ ले जाते रहे हैं। क्या उस समय उनके शिष्यों ने अपने गुरु पर हमला किया था। ब्रह्म यह नहीं है, ऐसा लगातार कहने वाले गुरु को हम नास्तिक कहने में जरा भी संकोच नहीं करते। विचारों की ताजगी को खुले रूप में स्वीकारना ही हिंदू धर्म का लचीलापन है। इसी लचीलेपन के कारण ही हिंदू धर्म हजारों साल के बाद भी पूरी शिद्दत के साथ अडिग है। इतने सारे आक्रमणों के बाद भी उसमें जरा भी विचलन नहीं आया है। उसकी अविचलता ही उसकी पहचान है। तो क्या आज यदि कुछ लोग ज्वलंत मामलों में अपना नया विचार रखते हैं, तो सचमुच हिंदू धर्म खतरे में पड़ जाएगा? यदि वास्तव में ऐसा होता, तो यह धर्म कब का नेस्तनाबूत हो चुका होता। नयनतारा सहगल हो या अशोक वाजपेयी, यदि वे अपना विरोध दर्ज करते हैं, तो उन्हें गंभीरता से सुनना ही होगा। आखिर उन्हें एेसा कहने और करने की नौबत क्यों आई, इस पर गहराई से विचार आवश्यक है। न कि उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर किसी तरह की टिप्पणी की जाए। समाज में यदि विरोध नहीं होगा, तो नए विचार कैसे आएंगे। विरोध तो सामाजिक विकास का अभिन्न अंग है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। यदि हमने विरोध को नहीं स्वीकारा, तो मंजीरों के शोर में हम भी क्रमश: तालिबानी मानसिकता के प्रभाव में आ जाएंगे। इसका हमें आभास भी नहीं होगा। विरोध को कुचलना समाधान नहीं है, बल्कि विरोधियों का हौसला बुलंद करना है।
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
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