शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016
प्रेरक प्रसंग - नेपोलियन की बहादुरी
प्रेरक प्रसंग का अंश...
नेपोलियन बोनापार्ट फ़्रांस के एक महान निडर और साहसी शासक थे जिनके जीवन मे असंभव नाम का कोई शब्द नहीं था। इतिहास में नेपोलियन को विश्व के सबसे महान और अजय सेनापतियों में से एक गिना जाता है। वह इतिहास के सबसे महान विजेताओं में से माने जाते थे ।
नेपोलियन अक्सर जोखिम भरे काम किया करते थे। एक बार उन्होने आलपास पर्वत को पार करने का ऐलान किया और अपनी सेना के साथ चल पढे। सामने एक विशाल और गगनचुम्बी पहाड़ खड़ा था जिसपर चढ़ाई करने असंभव था। उसकी सेना मे अचानक हलचल की स्थिति पैदा हो गई। फिर भी उसने अपनी सेना को चढ़ाई का आदेश दिया। पास मे ही एक बुजुर्ग औरत खड़ी थी। उसने जैसे ही यह सुना वो उसके पास आकर बोले की क्यो मरना चाहते हो। यहा जितने भी लोग आये है वो मुह की खाकर यही रहे गये। अगर अपनी ज़िंदगी से प्यार है तो वापिस चले जाओ। उस औरत की यह बात सुनकर नेपोलियन नाराज़ होने की बजाये प्रेरित हो गया और झट से हीरो का हार उतारकर उस बुजुर्ग महिला को पहना दिया और फिर बोले; आपने मेरा उत्साह दोगुना कर दिया और मुझे प्रेरित किया है। लेकिन अगर मै जिंदा बचा तो आप मेरी जय-जयकार करना। उस औरत ने नेपोलियन की बात सुनकर कहा- तुम पहले इंसान हो जो मेरी बात सुनकर हताश और निराश नहीं हुए। ‘ जो करने या मरने ‘ और मुसीबतों का सामना करने का इरादा रखते है, वह लोग कभी नही हारते। याद रखें, मुसीबते ही हमें आदर्श बनाती है। जिंदगी में मुसीबते चाय के कप में जमी मलाई की तरह है, और कामयाब वो लोग हैं जिन्हेप फूँक मार के मलाई को साइड कर चाय पीना आता है। इस प्रसंग का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए….
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दिव्य दृष्टि,
प्रेरक प्रसंग
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
प्रेरक प्रसंग – साहसी स्वाति
प्रेरक प्रसंग का अंश…
पाठशाला में एक नई बालिका ने प्रवेश लिया। अध्यापिका ने कक्षा में उसका परिचय करवाया – यह स्वाति है। अब इसी कक्षा में पढ़ेगी। फिर वे स्वाति से बोली – स्वाति, तुम्हें इस कक्षा की लड़कियों से पता चल जाएगा कि वे कौन-कौन से पाठ पढ़ चुकी हैं। तुम इनकी सहायता से उन पाठों को तैयार कर सकती हो। स्वाति सुंदर थी। वह चुप-चुप सी रहती थी। उसकी कक्षा की लड़कियाँ उससे मित्रता करना चाहती थी, परंतु वह उनसे दूर-दूर रहती। लड़कियों को लगा कि स्वाति घमंडी है अत: उन्होंने उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया। एक दिन पाठशाला में बच्चों को पिकनिक पर ले जाने का निश्चय किया गया। पिकनिक का स्थान एक झील को चुना गया। झील का वातावरण बहुत आकर्षक था। पहाड़ी स्थान और फूलों की भरमार इस स्थ्ल की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे। अन्य लड़कियों को लगा कि स्वाति पिकनिक पर नहीं आएगी। परंतु पिकनिक पर जाने के लिए स्वाति सबसे पहले विद्यालय के द्वार पर खड़ी थी। सभी लड़कियाँ और अध्यापिकाएँ बस में बैठकर पिकनिक स्थल पहुँच गई। एक अच्छा स्थान देखकर अध्यापिका ने दरियाँ बिछवा दीं। कुछ लड़कियाँ वहाँ बैठ गई और हँसी-मजाक करने लगी। कुछ लड़कियाँ घूमने निकल गई। स्वाति भी अपनी सहपाठियों से अकेली ही घूम रही थी। वह एक फूल के पौधे के पास बैठ गई। अचानक धप्प की आवाज आई और एक चीख गूँज उठी। स्वाति उठकर तेजी से आवाज की ओर दौड़ पड़ी। झील के किनारे उसे एक लाल कपड़ा दिखाई दिया। वह उधर ही दौड़ने लगी। झील के पास पहुंचते ही उसे बचाओ, बचाओ की आवाज सुनाई दी। उसने देखा कि उसकी कक्षा की एक लड़की नीरू झील में गिर गई है। झील में उस स्थान में पानी कम और कीचड़ अधिक था। वह भाग दलदल बना हुआ था। क्या स्वाति नीरु को बचा पाई? क्या अन्य लोगों ने स्वाति और नीरू को वहाँ देखा? आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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दिव्य दृष्टि,
प्रेरक प्रसंग
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बाल कहानी – चतुर कौन
कहानी का अंश…..
एक जंगल था। उस जंगल में सियार, लोमड़ी, भेडिया और सिंह चारों एक साथ रहते थे। जंगल का राजा अपने साथियों के साथ बड़े आराम से रहता था। सियार, लोमड़ी और भेडिया खुश थे, बहुत खुश। सिंह राजा था। लोमड़ी मंत्री थी। भेडिया सेनापति था और सियार था अर्दली। एक दिन की बात है । सिंह ने मुँह खोलकर जम्हाई ली। पास ही भेडिया बैठा हुआ था। उसने कहा – सरकार, आपके मुँह से बदबू आ रही है। सिंह नाराज हो गया। वह बोला – मैं जंगल का राजा हूँ। मेरे मुँह से बदबू कैसे आ सकती है?
उसने इतना कहकर भेडिये पर झपट्टा मारा। एक ही झपट्टे में उसकी गरदन तोड़ दी। पंजो से उसका पेट फाड़ दिया। बेचारा भेडिया बेमौत मारा गया। यह देखकर सियार और लोमड़ी डर गए। अगले दिन सिंह ने मुँह खोलकर फिर से जम्हाई ली और सियार से पूछा – अब तू बता, क्या मेरे मुँह से बदबू आती है?
सियार ने कल भेडिये की बुरी हालत देख ली थी। उसने सोचा कि राजा का मिजाज गरम हो गया है। हमें नरमी से काम लेना चाहिए। वह बोला – हुजूर, आपके मुँह से तो इलायची की खुशबू आ रही है। अहा! क्या प्यारी सुगंध है। यह कहकर वह सिंह की तारीफ के पुल बाँधने लगा और जोर-जोर से हँसने लगा। सिंह ने डाँटकर कहा – चापलूस कहीं का। तुझसे मुझे यही आशा थी। इतना बड़ा यह जंगल, इसका मैं अकेला राजा। ताजा खून मैं पीऊं, जानवरों को नोच-नोच कर मैं खाऊँ, कलेजी मैं चबाऊँ, फिर मेरे मुँह से बदबू न आएगी तो किसके मुँह से आएगी? तेरी तो मति मारी गई है। कहता है कि खुशबू आ रही है। सियार भी सिंह की नाराजगी का शिकार हो गया। अब बाकी बची लोमड़ी। अगले दिन राजा ने यही सवाल लोमड़ी से पूछा। लोमड़ी बोली – सरकार, मुझे तो जुकाम हो गया है, बदबू-खुशबू का कुछ पता ही नहीं चलता। सिंह उसकी ओर देखता रह गया। कहा भी गया है – जैसी चले बयार, पीठ तब तैसी कीजीए। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए….
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बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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मैनेजमेंट फंडा – एन. रघुरामन
क्या आप विजयी मुस्कान से 2016 को विदा कर रहे हैं?
लेख का अंश… छह साल के आदित्य ने अपने पिता का हाथ थामकर पूछा – पापा, क्या मैं कभी दूसरे बच्चों की तरह जी पाऊंगा? 37 साल के पिता रूपेश शिंदे ने तुरंत जवाब दिया – हाँ, हाँ, क्यों नहीं? और वे तेजी से कॉरिडोर में अपने आँसू पोंछते हुए आगे चल दिए क्योंकि वे जानते थे कि आदित्य को लेकर उनकी उम्मीदें छूटती जा रही हैं। वे डरावने कर्ज में डूब चुके हैं। दिल में छेद के साथ जन्मे बच्चे की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है। जबकि इलाज नवी मुंबई के सबसे अच्छे अस्पताल में करवा रहे हैं। नवी मुंबई में ही वे रहते हैं और वहीं काम करते हैं। रूपेश ने बेटे से वादा किया था कि वह हमउम्र बच्चों की तरह तंदुरूस्त हो जाएगा। बेटे की दो सर्जरी करवाई लकिन कोई सफलता नहीं मिली। दिल की समस्या ऐसी थी कि उसका अधिकतर समय बिस्तर पर ही बीतता था या फिर चेयर पर। थोड़ा-सा भी पैदल चलता, तो उसकी साँसे फूलने लगती थीं। बच्चों की तरह दौड़ना तो दूर की बात थी। सर्जरियों और ऑपरेशनों के बाद की देखभाल ने रूपेश को कर्ज के पहाड़ तले दबा दिया है। नवी मुंबई में फाइनेन्शियल कंसल्टेंसी चलाने वाले मीना और श्रीराम के यहाँ रूपेश ड्राइवर है। वे सतर्क थे कि उनके एम्प्लायर्स को कोई परेशानी न हो। बाजार में गिरावट की खबरे हैं। कुछ एम्प्लायर्स कर्मचारियों के खाते में नोटबंदी के पुराने नोट बदलने के लिए जमा कर रहे हैं। रूपेश के एम्प्लायर्स का व्यवहार उसके प्रति बहुत अच्छा है। मीना ने रूपेश के चेहरे पर निराशा के भाव पढ़ लिए और कारण पूछा। रूपेश ने पूरी कहानी बताई तो आदित्य को लेकर उनकी उम्मीदों ने बड़ी छलांग लगाई। क्योंकि मीना कई डाक्टर्स को जानती थीं। ये डॉक्टर उनके क्लाईंट थे। पहले उन्होंने इनसे कंसल्ट किया। इसी के साथ अपने कर्मचारियों, क्लाईंट और दोस्तों से भी डोनेशन का आग्रह किया। एक कर्मचारी, जिसकी सैलेरी सिर्फ 25000 रुपए महीना थी, उसने पाँच हजार का चैक दिया। सिर्फ दो ही दिन में 25 लाख रुपए का डोनेशन आदित्य के लिए जमा हो गया। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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गुरुवार, 29 दिसंबर 2016
बाल कहानी – गोलू की बाँसुरी – डॉ. उषा यादव
कहानी का अंश…
एक लड़का था। उसका नाम था गोलू। वह दुनिया में बिलकुल अकेला था पर वह अपने गुणों के कारण सारे गाँव का प्रिय था। कोई उसे बचा हुआ खाना दे देता, तो कोई उसे अपने बच्चों के पुराने कपड़े। कोई अपने घर के बरामदे में सोने के लिए जगह दे देता। इसी तरह उसके दिन कट रहे थे। एक दिन शाम को गाँव के बाहर बने देवी मंदिर के पास बच्चे खेल रहे थे। तभी एक बाँसुरी वाला वहां आया और उसकी मीठी बाँसुरी की आवाज सुनकर बच्चे उसके आसपास जमा हो गए। वे कहने लगे – बाँसुरी वाले जाना नहीं, हम अभी अपने घर से पैसे लेकर आते हैं। कहते हुए बच्चो ने सरपट दौड़ लगाई और थोड़ी देर में ही घर से पैसे लेकर आ गए। बाँसुरी वाले की सभी बाँसुरी थोड़ी देर में ही बिक गई। सिर्फ एक बाँसुरी बाकी रही। नन्हा गोलू भी उसी झुंड में खड़ा था। बाँसुरी वाले ने उसे पुचकारते हुए कहा – बेटा, तुम्हें बाँसुरी पसंद नहीं है क्या? तुम अपने घर से पैसे लेकर क्यों नहीं आए? एक बच्चा बोला – इसका तो घर ही नहीं है। इसका इस दुनिया में कोई नहीं है। बाँसुरी वाले का मन भारी हो गया। उसने अपनी आखरी बाँसुरी उसे पकड़ाते हुए कहा – देखो बेटा, यह बाँसुरी थोड़ी चटकी हुई है, इसलिए मैं इसे नहीं बेच रहा था। तुम इसे रख लो। तुम्हें इसके लिए कुछ नहीं देना होगा। यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए उपहार है। गोलू का चेहरा खुशी से चमक उठा। उसे वह चटकी हुई बाँसुरी हजार कीमती खिलौनों से भी बढ़कर लगी। बेचारे ने जिंदगी में पहली बार मनोरंजन की कोई चीज पाई थी। बाँसुरी को लेकर अपने सीने से ऐसे चिपका लिया, जैसे कभी छोड़ेगा ही नहीं। तभी एक भिखारिन जैसी एक औरत वहाँ आई। उसके चेहरे पर उदासी थी। वह बोली – बच्चो, क्या कोई बाँसुरीवाला यहाँ आया था क्या? वह कहाँ गया? एक बच्चा बोला – उसकी सारी बाँसुरियाँ हमने खरीद ली। वह चला गया। यह सुनकर उस औरत की आँखें भर आई और वह बोली – मेरा बेटा पंद्रह दिन से बीमार है। वह झोपड़ी में पड़ा हुआ है। उसने बाँसुरी की आवाज सुनकर मुझे बाँसुरी खरीदने के लिए यहाँ भेजा था। पर अब तो बाँसुरी वाला यहाँ नहीं है। दूसरा बच्चा बोला – तुमने आने में देर कर दी। भिखारिन बोली – तुम सभी के पास तो ढेरों खिलौने हैं। क्या तुम अपनी बाँसुरी मुझे दे सकते हो। तुम लोग तो खाते-पीते घर के लड़के हो। यदि तुम में से कोई मुझे बाँसुरी देगा तो मेरा बेटा खुश हो जाएगा। बच्चे तो आखिर बच्चे थे। वे भला अपनी बाँसुरी उसे कैसे देते? तो क्या गोलू को उस भिखारीन स्त्री पर दया आई? क्या उसने अपनी बाँसुरी उसे दे दी? या वह भी दूसरे बच्चो की तरह ही वहाँ से चलीा गया? बेचारी उस स्त्री को अपने बच्चे के लिए बाँसुरी मिली या नहीं?
यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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प्रेरक कहानी - व्यापारी की चार पत्नी
कहानी का अंश...
शहर मे एक अमीर व्यापारी अपनी चार पत्नीयो के साथ रहता था. वह अपनी चौथी पत्नी को अपनी बाकी पत्नियों से ज्यादा प्यार करता था. वह उसे खुबसूरत कपड़े खरीद के देता और स्वादिष्ट मिठाईया खिलाता. वह उसकी बहुत देखभाल करता था. वह अपनी तीसरी पत्नी से भी बहुत प्यार करता था. उसे उस पर बहुत गर्व भी था लेकिन वह उसे अपने मित्रो से दूर रखता क्योकि उसे डर था की वो उसको छोड़ कर किसी दुसरे आदमी के साथ भाग ना जाए. वह अपनी दूसरी पत्नी को भी प्यार करता था. दूसरी पत्नी उसकी बहुत देखभाल करती थी और व्यापारी उसपर काफी भरोसा करता था. जब भी व्यापारी को कोई परेशानी होती तो वह अपनी दूसरी पत्नी के पास ही जाता था और वो व्यापारी की हमेशा मदद करती थी और उसे बुरे समय से बचाती थी. व्यापारी की पहली पत्नी बहुत वफादार साथी थी. वह घर का देखभाल करती थी. पहली पत्नी ने व्यापारी की धन-दौलत और व्यापार को बनाये रखने मे बहुत अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन व्यापारी अपनी पहली पत्नी को प्यार नहीं करता था, ना तो देखता और ना ही उसकी देखभाल करता था. लेकिन पहली पत्नी व्यापारी को बहुत प्यार करती थी.
एक दिन व्यापारी बीमार पड़ गया. उसकी बीमारी लम्बे समय तक चलती गयी और व्यापारी को लगा की वह जल्द ही मरने वाला है. उसने अपने शानदार जीवन के बारे में सोचा और खुद से कहा की अभी मेरी चार पत्निया है लेकिन मरूँगा अकेला ही. कितना अकेला हूँ मै. तब उसने अपनी चौथी पत्नी को बुलाया और पूछा की मै तुमसे सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ, महंगे कपडे और स्वादिष्ट मिठाईया खरीद के देता हूँ, अब जब मै मरने वाला हूँ तो क्या तुम मेरा साथ दोगी और मेरे साथ चलोगी. पत्नी ने कहा बिलकुल नहीं, उसने आगे कुछ नहीं कहा और वहा से चली गयी. चौथी पत्नी का ये जवाब व्यापारी के मन पे चाकू की तरह चल गया और वह उदास हो गया. अब व्यापारी ने अपनी तीसरी पत्नी को बुलाया और कहा मैंने जिन्दगी भर तुम्हे बहुत प्यार किया. अब जब मै मरने वाला हूँ तो क्या तुम मेरा साथ दोगी और मेरे साथ चलोगी. तीसरी पत्नी ने जवाब दिया नहीं और कहा की यहाँ जिन्दगी बहुत अच्छी है, मै तुम्हारे मरने के बाद मै किसी ओर के साथ शादी कर लुंगी. व्यापारी का दिल डूब गया. तब उसने दूसरी पत्नी को बुलाया और कहा की जब भी मै किसी परेशानी में होता हूँ तो तुम्हे याद करता हूँ और तुम हमेशा मेरी मदद करती हो. अब मुझे दोबारा तुम्हारी मदद की जरुरत है. जब मै मर जाऊंगा तो क्या तुम मेरा साथ दोगी ओर मेरे साथ चलोगी. तीसरी पत्नी ने जवाब दिया मुझे माफ़ करना. इस बार मै तुम्हारी मदद नहीं कर सकती. हाँ कब्र में तुम्हे दफ़नाने तक तुम्हारा साथ जरुर दे सकती हूँ. इस उत्तर से तो जैसे व्यापारी पर बादल ही फट पड़ा. तब एक आवाज आई “मै तुम्हारा साथ दूंगी और तुम्हारे साथ चलूंगी जहाँ तुम जाओगे” व्यापारी ने देखा ये पहली पत्नी की आवाज थी. वो काफी दुबली पतली थी जैसे की कुपोषण से पीड़ित हो. व्यापारी ने कहा “मुझे तुम्हारी बहुत देखभाल करनी चाहिए थी जितनी मै कर सकता था”.
दरअसल, हम सबकी जीवन में चार पत्निया होती है. चौथी पत्नी हमारा शरीर होता है, हम इसे जितना खिला ले, इसे सुन्दर बनाने में जितनी कोशिश कर ले, जितना समय लगा ले लेकिन मृत्यु प्राप्त होने पर ये शरीर हमें छोड़ देगा. तीसरी पत्नी है हमारी संपत्ति, जब हम मर जायेंगे तो ये दुसरे के पास चली जायेगी. हमारी दूसरी पत्नी होती है परिवार और मित्र. चाहे ये हमारे कितने भी करीब क्यों ना हो, कितना ही प्यार क्यों ना करते हो लेकिन ज्यादा से ज्यादा वो हमारी कब्र तक या हमे जलाने तक ही हमारे साथ रह सकते है. हमारी पहली पत्नी है हमारी आत्मा, सांसारिक खुशियों के लिए जिसकी हम उपेक्षा कर देते है. केवल यही वह चीज है जो हमारा साथ देगी और जहाँ जहाँ हम जायेंगे हमारे साथ साथ जाएगी, इसलिए हमें अभी से इसके साथ अपने संबंधो को विकसित और मजबूत करना चाहिए और इसकी देखभाल करनी चाहिए, इसे शुद्ध करना चाहिए.
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प्रेरक कहानी
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बाल कहानी - चतुर राजा
कहानी का अंश...
एक बार की बात है, एक नगर में एक राजा रहता था जिसके खजाने भरपूर भरे हुए थे. एक दिन कालू नाम के चोर ने राजा के खजाने को चोरी करने की योजना बनाई. आधी रात को कालू राजा के महल में चोरी करने पहुँच गया. वह खजाने के दरवाजे में छेद करने लगा. राजा भी उस समय जगा हुआ था, उसे कुछ आवाज सुनाई दी, वह बाहर आया, आवाज खजाने की दिशा से आ रही थी, वह इसे जांचने वहाँ गया. राजा ने साधारण से वस्त्र पहने हुए थे और चोर उन्हें पहचान नहीं पाया. राजा ने कालू से पूछा तुम कौन हो और क्या कर रहे हो. कालू ने कहा मै चोर हूँ और खजाना लुटने आया हूँ, मुझे लगता है कि तुम भी चोर हो और इसी इरादे से आये हो. कोई नहीं, हम दोनों साथ ही अंदर चलकर खजाना लुट लेते हैं और खजाने का आधा-आधा हिस्सा कर लेंगे. उन्होंने ऐसा ही किया और खजाने का सारा पैसा और जवाहरात लूटकर आधा-आधा बाँट लिया. वहाँ हीरे के तीन टुकड़े भी पड़े हुए थे. चोर ने कहा कि इन हीरे के तीन टुकड़ो को दोनों में कैसे बाँटेंगे, तब राजा ने सुझाव दिया की हम इन तीन हीरे के टुकड़ो में से एक गरीब राजा के लिए छोड़ देते है और एक-एक हम रख लेते हैं. चोर इस बात पर राजी हो गया. जब चोर अपना हिस्सा लेकर जाने लगा, तब राजा ने उससे उसका नाम और पता पूछा. कालू ने सच बोलने की कसम खा राखी थी इसलिए उसने सब कुछ सच-सच बता दिया.
राजा ने अपना हिस्सा लिया और उसे अपने कमरे में छुपा दिया. अगली सुबह उसने अपने प्रमुख मंत्री को खजाने का निरीक्षण करने के लिए कहा. मंत्री ने निरीक्षण करते वक्त देखा कि सारा खजाना खाली हो गया है, केवल हीरे का एक टुकड़ा ही बचा है. उसे पता चल गया कि खजाना चोरी हो गया है. उसने हीरे को उठाया और अपनी जेब में रख लिया. उसने सोचा कि सब सोचेंगे कि चोर ने सारा खजाना चुराया है और कोई मुझ पर शक भी नहीं करेगा. मंत्री ने राजा को सारी बात बताई कि सारा खजाना चोरी हो चूका है, कुछ भी नहीं बचा. राजा ने अपने सिपाहियों को बोला कि वे कालू को पकड़ कर दरबार में ले आये. सिपाहियों ने ऐसा ही किया, जब कालू दरबार में पहुँचा तो वह राजा को पहचान नहीं पाया कि वह उसका चोर साथी है. राजा ने उससे पूछा कि क्या तुम ही वही चोर हो जिसने सारा खजाना लुटा है और कुछ नहीं छोड़ा. कालू ने सच सच बता दिया कि मैंने आधा खजाना लुटा है आधा मेरे साथी ने लुटा है, मैंने साथी चोर की सलाह पर वहाँ एक हीरे का टुकड़ा आपके लिए छोड़ दिया था और वो टुकड़ा वही पर होगा. मंत्री ने राजा से कहा कि यह चोर झूठ बोल रहा है, मैंने खुद जाँचा है वहाँ कुछ नहीं था. राजा ने अपने सिपाहियों से कहा कि वे मंत्री की तलाशी ले. तलाशी के वक्त मंत्री की जेब से वो हीरे का टुकड़ा मिल गया. इस प्रकार राजा ने अपनी चतुराई से अपना खजाना भी बचा लिया और अपने मंत्री की वफादारी के बारे में भी पता लगा लिया.
इस प्रकार कालू ने चोर होते हुए भी सच बोला जबकि मंत्री ने ना केवल चोरी की बल्कि झूठ भी बोला. कालू से बड़ा चोर राजा का मंत्री था क्योकि मंत्री राजा का वफादार होता है, राजा अपने मंत्री पर भरोसा करता है और उससे बुरे वक्त पर सलाह मांगता है. राजा का मंत्री चोर और जूठा था और ऐसे गुण वाले मंत्री से ना केवल राजा को बल्कि पुरे राज्य को नुकसान हो सकता है. कहने का मतलब ये है कि ज्यादा खतरा अच्छे लोगो के बुरा काम करने से है. इसलिए हमें अपना जीवन ईमानदारी और मेहनत से जीना चाहिए। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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बाल कहानी – चतुर नौकर
कहानी का अंश…
बहुत समय पहले की बात है। एक गांव में एक लालची और क्रूर साहूकार रहता था। वह अपने नौकरों को अजीब-अजीब सवाल पूछा करता था और जब वे उसके सवालों के जवाब नहीं दे पाते थे, तो वह उनकी नाक कटा डालता था। उसकी इस प्रकार की कार्रवाई से कई लोग अपनी नाक से हाथ धो बैठे थे। उसकी इस प्रसिद्धि को सुनकर एक चालाक आदमी ने उस साहूकार को झटका देने का विचार बनाया और एक दिन वह उस निर्दयी साहूकार के पास जा पहुँचा। साहूकार ने उसे नौकरी देने के पहले पूछा – तुम मेरी शर्त के बारे में तो जानते ही हो ना? आदमी ने कहा – हाँ मुझे आपकी शर्त के बारे में मालूम है, फिर भी मैं आपके यहाँ नौकरी करना चाहता हूँ क्योंकि मैं बेरोजगार हूँ और मुझे काम की बहुत जरूरत है। इसलिए मुझे आपकी यह शर्त मंजूर है लेकिन मेरी भी एक शर्त है। साहूकार ने पूछा – वह क्या? आदमी बोला – यदि आप भी मुझसे सवाल पूछने में असमर्थ रहे तो आपको भी मुझसे नाक कटवानी पड़ेगी। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
मंगलवार, 27 दिसंबर 2016
बाल कहानी - मलुंगाई - विमला मेहता
कहानी का अंश...
हजारों बरस पहले फिलीपिंस देश के पहाड़ी कस्बे में एक बूढ़ा रहता था। उसका नाम मलुंगाई था। उसकी पत्नी का नाम था मगंदा। उनकी कोई संतान नहीं थी। वे पेड़-पौधो को ही अपनी संतान मानकर उनकी देखभाल करते थे। बागियो में फूलों के अनेक वृक्ष थे। जून-जुलाई में वहाँ फूल से वृक्ष लद जाते थे। तब परियां वहाँ आती थी। उन्हें फूलों से बहुत प्यार था। रात में परियां झुंड बनाकर धरती पर आती थी। भोर की किरणें फूटते ही वे परीलोक लौट जाती थीं। उनमें लाल परी थी जिसे मनुष्य लोक की नदियों, तालाबाें और पहाड़ों में घूमना बहुत अच्छा लगता था। वे मनुष्य लोक में अधिक समय बिताना चाहती थी। परंतु परीलोक के नियमानुसार उसे सूरज उदय होने से पूर्व ही लौट आना होता था। एक दिन परी अपनी सहेलियों के साथ वहां से जब लौअ रही थी, तो उसकी छड़ी वहीं पर पड़ी रह गई। परीलोक पहुँच कर उसने छड़ी खोजी पर वह उसे नहीं मिली । तब उसने धरती पर आकर उसे खोजा। बूढ़ा मलुंगाई उसके पास आया और उसने बताया कि छड़ी उसके पास है, मगर वह उसे अपने साथ परीलोक की सैर करवा दे। परी ने कहा कि उसके पंख नहीं हैं, इसलिए वह उसे परीलोक नहीं ले जा सकती। तब परी मां के कहने पर लाल परी ने उसे जो भी वस्तु चाहिए वह देने का वादा किया पर मलुंगाई ने उससे सोना-चांदी, हीरे-मोती कुछ भी न मांगा, तो फिर मलुंगाई ने क्या मांगा? जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए....
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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शनिवार, 24 दिसंबर 2016
बाल कहानी – परी नियोबिया
कहानी का अंश…
यूनान देश में एक राजा था – टैन्टेलस। वह बहुत ही क्रूर था। टैन्टेलस अपने आपको देवता जीयस का बेटा कहता था। यूनान के सभी लोग टैन्टेलस के नाम से थर –थर काँपते थे। धीरे-धीरे टैन्टेलस का आतंक आसपास के कई देशों में भी फैलने लगा। अत्याचारी टैन्टेलस को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। वह दुनिया का सबसे प्रतापी राजा बनने का सपना देख रहा था। बादशाह टैन्टेलस ने आखिर देवताओं को प्रसन्न करने की ठानी। वह देवताओं को प्रसन्न करके अधिक शक्तिशाली बनना चाहता था। इसलिए उसने उनके सम्मान में एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया। उसने ढेरों व्यंजन बनवाए। उनमें से कुछ व्यंजन ऐसे भी थे, जो देवता कभी ग्रहण नहीं करते थे। टैन्टेलस का एक बेटा था – पेलोप्स। उसका स्वभाव अपने पिता के स्वभाव से बिलकुल अलग था। टैन्टेलस बुराई का प्रतीक था, तो पेलोप्स अच्छाई का। वह टैन्टेलस को हमेशा समझाता कि दूसरों का भला करे, उन्हें किसी भी तरह का दुख न दे। लेकिन टैन्टेलस पर उसकी बातों का कोई असर नहीं होता था। उसने अपना तरीका नहीं बदला। दूसरी ओर पेलोप्स ने भी अपने पिता को समझाने का प्रयास जारी रखा। वह लगातार प्रयास करता ही रहा। इस पर टैन्टेलस ने क्रोधित होकर पेलोप्स को एक अँधेरे तहखाने में कैद कर दिया। भोज में देवताओं को निषिद्ध भोजन दिया गया। जिससे देवता नाराज हो गए। उनमें से एक थी नियोबिया परी। वह पेलोप्स की बहुत अच्छी दोस्त थी। वह पेलोप्स को चारों ओर खोजने लगी लेकिन पेलोप्स कहीं दिखाई नहीं दिया। अंत में उसे पता चला कि वह अँधेरे तहखाने में कैद है। परी ने देवताओं को पेलोप्स को छोड़ने का आग्रह किया। उसने टैंटेलस की शिकायत देवताओं से कर दी। देवताओं की कृपा से तहखाने के ताले अपने आप खुल गए। पेलोप्स बाहर आ गया। नियोबिया ने जब उसे सकुशल देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुई। देवताओं ने टैन्टेलस को श्राप दिया। क्या था वह श्राप? श्राप का प्रभाव कब तक रहा? नियोबिया और पेलोप्स की दोस्ती कब तक बनी रही? राजा टैन्टेलस का स्वभाव बदला कि नहीं? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए…
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बाल कहानी
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2016
कहानी - पतिव्रता सुलोचना
कहानी का अंश....
सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोर्इ संदह नहीं है। परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आए।
मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुर्इ उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृतान्त लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भार्इ लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कर्इ वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।
पति की भुजा-लिखित पंकितयाँ पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावणने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुर्इ सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'मुझे अब सती हो जाना चाहिए।' किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।"
सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- "देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधी की लिखी को कौन बदल सकता है। आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी। श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है। अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आर्इ हूँ। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे। आगे की कथा जानने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए….
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मधुशाला - भाग - 7 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना हो जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
पिरिशष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
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मधुशाला - भाग - 6 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।
साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।
जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।
नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।
मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।
देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।
एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।
बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँत भाँत का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।
जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।
कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।
बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।
छोड़ा मैंने पंथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।
यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।
कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।
कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।
दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हूँ, घूम रही है मधुशाला।।११८।
मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंबित करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।
किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।
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लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बुधवार, 21 दिसंबर 2016
मधुशाला - भाग 5 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
ढलक रही हो तन के घट से,संगिनि,जब जीवन-हाला,
पात्र गरल का ले जब अंतिम साकी हो आनेवाला,
हाथ परस भूले प्याले का,स्वाद-सुरा जीव्हा भूले,
कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला।।८१।
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी-दल,प्याला,
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना-
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।
नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।
यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।
पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।
जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।
कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।
'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।
हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।
प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।
मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।
मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।
किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।
उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।
साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मधुशाला - भाग 4 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला,
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।
आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।
आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।
सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।
दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।
क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।
मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।
क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।
लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।
कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।
ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।
क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।
प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।
अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।
यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।
यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।
याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।
गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।
यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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मधुशाला - भाग 3 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।
चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।
घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।
हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।
धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।
सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।
और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।
आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।
सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।
वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।
कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।
एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।
बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।
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मधुशाला - भाग 2 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।
सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।
बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।
हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।
साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।
अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।
साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
मधुशाला - भाग 1 - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।
भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।
मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।
मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।
सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।
जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।
मेहंदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।
हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।
बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।
बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
मंगलवार, 20 दिसंबर 2016
बाल कहानी – मेहनती रामदीन
कहानी का अंश…
एक गाँव में एक किसान रहता था। खेती-बाड़ी कर वह अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाता था। उसके घर में एक लड़का नौकरी करता था। उसका नाम था रामदीन। पिछले कुछ वर्षों में बारिश न होने के कारण गाँव में पानी की बहुत कमी थी। रामदीन बहुत लापरवाह था। वह पानी का मोल नहीं समझता था। पानी को बरबाद करता रहता था। किसान ने उसे कई बार समझाया कि पानी बहुत मूल्यवान है, इस तरह से उसे बरबाद मत करो लेकिन रामदीन को किसान की बातों का असर नहीं होता था। एक दिन गुस्से में आकर किसान ने उसे घर से निकाल दिया। रामदीन गाँव से निकलकर जंगल में भटकता रहा। भूख और प्यास से उसका बुरा हाल था। आखिर वह एक गाँव में पहुँचा। उसकी जान में जान आई। उसने सोचा – शायद गाँव में कुछ खाने को मिल जाए। जब वह गाँव में अंदर पहुँचा तो देखा कि एक कुँए के पास बहुत से लोग इकट्ठेक हैं। उसने पूछा – क्या बात है? एक गाँववाला बोला- कुछ दिन पहले तक इस कुँए में बहुत पानी था। ठंडा और मीठा पानी। लेकिन अब न जाने क्या हो गया, कुँए का पानी सूख गया है। ऐसा क्यों हुआ, कुछ समझ में नहीं आता है। हम सोच रहे हैं कि कोई इस कुँए में उतरे और इस रहस्य का पता लगाए लेकिन कोई तैयार ही नहीं है।
रामदीन ने सोचा कि यदि मैं इस रहस्य का पता लगाउं तो इनाम भी मिल सकता है। उसने गाँव वालों से कहा कि वह इस कुँए में उतरने के लिए तैयार है। गाँववालों ने एक मजबूत रस्सी से एक बड़ी बाल्टी को बाँधा और उसमें रामदीन को बैठाया। फिर उसे कुँए में उतार दिया। कुँए की तली में पहुँचते ही रामदीन बड़ी जोर से चीखा। उसे अपनी पीठ पर कुछ भारी बोझ-सा महसूस हुआ। उसकी चीख सुनकर गाँववालों ने जल्दी से रस्सी को खींचकर उसे बाहर निकाला। देखा तो रामदीन की पीठ पर एक मगरमच्छ था। यह देखकर वे लोग डर गए और वहाँ से भाग गए। रामदीन भी लोगों की चीख-पुकार सुनकर भागने लगा। भागते-भागते वह एक निर्जन स्थान पर पहुँचा। अचानक उसे अपनी पीठ पर हल्कापन महसूस हुआ। उसने पीठ की ओर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था। अचानक सामने की ओर उसे एक सुंदर लड़की दिखाई दी। लड़की ने कहा –घबराओ नहीं, मैं ही तुम्हारी पीठ पर बैठी हुई थी। लेकिन मैं इस रूप में ज्यादा देर तक नहीं रह सकती। मैं चिडिया बन जाउँगी। तुम मुझे एक पिंजरे में बंद करके राजा के पास ले जाना। मैं उन्हें मधुर गीत सुनाउँगी। गीत सुनकर राजा मोहित हो जाएगा और वह तुमसे कहेगा कि यह चिडिया मुझे दे दो। वह तुम्हें इसके लिए मुँहमाँगी कीमत देने के लिए तैयार हो जाएगा। लेकिन तुम धन-दौलत की लालच में नहीं आना। तुम राजा से उसका बाजूबंद माँगना। उसे लेने के बाद ही मुझे राजा को सौंपना। कुछ ही क्षण में वह लड़की चिडिया बन गई। रामदीन उसे लेकर आगे बढ़ गया। कुछ दूर चलकर उसने चिडिया के लिए एक पिंजरा खरीदा और उसमें चिडिया को कैद कर दिया। वह राजमहल पहुँचा। महल पहुँचते ही चिडिया ने मधुर स्वर में गाना शुरू कर दिया। राजा ने जब उसका गीत सुना तो वह उस पर मोहित हो गया और रामदीन को बुलाकर उससे चिडिया की माँग की । रामदीन ने अपनी शर्त राजा के सामने रख दी। पहले तो राजा ने आनाकानी की पर बाद में वह अपना बाजूबंद देने के लिए तैयार हो गया।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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सोमवार, 19 दिसंबर 2016
कविता - यह है भारत देश हमारा - सुब्रह्मण्यम भारती
कविता का अंश...
चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है।
जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है।
नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस धारा,
बहती है क्या कहीं और भी, ऎसी पावन कल-कल धारा?
सम्मानित जो सकल विश्व में, महिमा जिनकी बहुत रही है
अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है।
गाएँगे यश ह्म सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा,
आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा।
यह है भारत देश हमारा, महारथी कई हुए जहाँ पर,
यह है देश मही का स्वर्णिम, ऋषियों ने तप किए जहाँ पर,
यह है देश जहाँ नारद के, गूँजे मधुमय गान कभी थे,
यह है देश जहाँ पर बनते, सर्वोत्तम सामान सभी थे।
यह है देश हमारा भारत, पूर्ण ज्ञान का शुभ्र निकेतन,
यह है देश जहाँ पर बरसी, बुद्धदेव की करुणा चेतन,
है महान, अति भव्य पुरातन, गूँजेगा यह गान हमारा,
है क्या हम-सा कोई जग में, यह है भारत देश हमारा।
विघ्नों का दल चढ़ आए तो, उन्हें देख भयभीत न होंगे,
अब न रहेंगे दलित-दीन हम, कहीं किसी से हीन न होंगे,
क्षुद्र स्वार्थ की ख़ातिर हम तो, कभी न ओछे कर्म करेंगे,
पुण्यभूमि यह भारत माता, जग की हम तो भीख न लेंगे।
मिसरी-मधु-मेवा-फल सारे, देती हमको सदा यही है,
कदली, चावल, अन्न विविध अरु क्षीर सुधामय लुटा रही है,
आर्य-भूमि उत्कर्षमयी यह, गूँजेगा यह गान हमारा,
कौन करेगा समता इसकी, महिमामय यह देश हमारा।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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कहानी - प्रायश्चित्त - देवी नागरानी
कहानी का अंश...
वह अनपढ़ थी. पढ़ाई क्या होती है, इसका बीज शायद बचपन में उसके
कोमल ज़हन में बोया ही नहीं गया, या परिस्थितियों ने इजाज़त ही न दी. छोटे से
गांव की गूंगी गाय-सी यह अल्हड अनाड़ी-सी लड़की खेती-बाड़ी में काम करते हुए
बड़ी हुई. रईसी क्या होती है, ऐशो-आराम क्या होता है उसे पता ही नहीं था.
परिश्रम करना, पानी भरना, ढोरों को चारा डालना और दूध दही बाजार में जाकर
बेच आना, यही काम उसके बस का था.
जिसके लिए वह काम करती थी, वह उसका कौन लगता था इसका भी उसे
पता न था. गांव की जवान युवतियों के मुंह से सुना था कि जब वह चार साल की
थी तो उसके माता-पिता गांव में आई बाढ़ में डूब गए और वह खुद इस बंदे के
पल्ले पड़ गई. वह था तो पिता की उम का, पर मटमैली नज़रों का धनी था. जैसे
ही वह कुछ समझदार हुई तो उसे लगा कि उसकी छेदती निगाहें उसके जवान बदन
को चीरकर आरपार आती जाती रही. वह जब 16 वर्ष की हुई तो उसे गाँव के मंदिर में
ले जाकर पंडित को साक्षी बनाकर उसे अपनी पत्नी बनाकर घर ले आया. गाँव के
लोगों से ‘गृहलक्ष्मी’ कह कर परिचय करवा दिया, परिचय क्या उसके पत्नी होने
का ऐलान था. वह कुछ भी न थी, पर अब गृहलक्ष्मी से लक्ष्मी बन गई.
संसार की रचना का आदि मूल सूत्र शायद इसी एक रिश्ते की बुनियाद पर
खड़ा है. इंसान और पशु में एक ही फर्क रहा है. यह सुविधा अनुसार मर्यादा का
पालन करता है और उसे धर्म का नाम दे देता है, बाकी कोई भी लक्ष्मण रेखा पार
करने में वह किसी जानवर से कतई कम नहीं. ऐसे विचार लक्ष्मी के मन में
अक्सर पैदा होते ‘वह’ उसके साथ हैवानों जैसा बर्ताव करता, उसके शरीर को मांस
के लोथड़े की तरह रौंदता. यह भावना तब ज़ोर पकड़ने
लगी जब वह माँ बनी. जब ‘मोना’ पैदा हुई तो वह और व्यस्त रहने लगी. तीन
सालों के बाद मोहन पैदा हुआ. अब लक्ष्मी कुछ कुछ मान -अपमान की परिभाषा
समझने लगी. मोना के सामने अपने पति के मुंह से तिरस्कृत शब्द सुनती तो
अपमान की आग में झुलसने लगती. वह अपनी बेइज्ज़ती इतनी बार करा चुकी थी
कि इज्ज़त क्या होती है यह अहसास भी उसके शब्दकोष से स्थगित हो चूका था.
बस बयाँ होती थी स्थिति, जब वह ‘आदमी’ शराब पीकर, मदहोशी में झूमते हुए
घर आता. और काली रात के ढल जाने पर दिन की रोशनी में सिर्फ़ लक्ष्मी के
शरीर के नीले निशान ही सच को जाहिर करते.
इसी तरह कुछ साल बीते और देखते देखते मोना दस साल की हो गई. चाहे
वह बाप से डरती थी, पर माँ के लिए उसके मन में अभी भी एक सॉफ्ट कॉर्नर
रही. गांव के स्कूल में पढ़ती थी कभी जो पढ़कर आती उसे माँ के सामने दोहराते
हुए कहती- “माँ मास्टर ने बताया कि ज़ुल्म करनेवाला गुनहगार है, पर जुल्म को
सहने वाला भी उससे बड़ा गुनहगार है, क्या यह सच है, या केवल किताबों में दर्ज
है?”
मोना मां से यह सवाल बार-बार पूछती-“माँ तुम क्यों कुछ नहीं कहती, क्यों
चुपचाप सह लेती हो?
“...........................”
‘माँ कुछ तो कहो.’ .....बस सवाल खुद को दोहराते ही रह जाते. लक्ष्मी जवाब दे
तो क्या? वह रोकर सहे, या चिलाकर सहे, या ख़ामोश रहे या खुद को बांटे क्या
फर्क पड़ता? ज़ुल्म तो ज़ुल्म है, एक करता जाए, दूसरा सहता जाए, शायद इस घर
का यही नियम है. उसके पास और कोई विकल्प ही न रहा. अब तो वह दो बढ़ते
बच्चों की माँ भी थी. चुप्पी में अपने ग़नीमत समझ कर चुप्पी साध लेती.
0
मोना और मोहन दोनों ने माँ की कोख से जन्म तो लिया
पर कभी पालने में झूल न पाए थे. उन्होंने कभी मां की प्यार भरी लोरी नहीं
सुनी. बस सुनी तो सिर्फ पिता की कड़कती हुई आवाज़ या उसके लोहे जैसे हाथों से
माँ के नाजुक बदन पर कड़कती बिजलियों जैसी मार की आवाज़. वे छोटे थे, पर
इतने भी छोटे नहीं कि वे यह भी न समझ पाए कि उनकी माँ पर जुल्म हो रहा
है, वह बेबस और मजबूर है. वे जानते थे, हर रोज़ रात को जब उनके पिता घर में
घुसते, तो किस तरह मां सहमी-सहमी सी अपना चेहरा सूत की चुनरी से ढांप कर
खाट के कोने पर एक पोटली की तरह बैठ हुई होती, और उनके आते ही उठ खड़ी
होती.
3
‘अब इस तरह क्या खड़ी हो? जाओ पापड़ पानी ले आओ…’ और वे कपड़े
बदलकर फ़क़त एक बनियान में और एक पुरानी सालों से इस्तेमाल की हुई लूंगी
पहनकर उसी खाट पर लेट जाते. कभी तो घर में घुसते ही गालियों की बौछार शुरू
कर देते-‘ न जाने कैसे मैं फंस गया हूँ इस जंजाल में?’ फ़कत मैं एक ही कमाने
वाला, और तुम तीनों बैठ कर खाने वाले. तुम क्यों नहीं कुछ हाथ पैर चलाती हो?
घर बैठे चार पैसे कमाओगी तो पता पड़ जाएगा कि काम करना क्या होता है?
परिश्रम का पसीना बहाना क्या होता है? निकम्मों की तरह रोटी पका कर, रोटी
खाकर, बिल्कुल बेसूद सी हो गई हो.’
लक्ष्मी ऐसे जहरीले शब्द सुनाने व् झेलने की आदी हो गई थी, आज नहीं,
पिछले 10 सालों से. एक कहावत है ‘नई दुल्हन नौ दिन, ज्यादा से ज्यादा दस
दिन!’ पर लक्ष्मी को तो दस दिन भी नयी नवेली होने का सुख नसीब न हुआ था,
सुहागन के सारे अरमान धरे के धरे रह गए. मिला तो फ़क़त यह चूल्हा-चौका,
यही झाडू-पोता उसे विरासत में मिला.
कभी कभी मोना और मोहन आपस में आंखों की अनुच्चारित भाषा में
बतियाते. एक दिन लक्ष्मी पर इतनी मार पड़ी कि उसे तेज़ बुखार चढ गया. उसके
शक्तिहीन बदन से जैसे किसी ने प्राण खींच लिए. खटिया पर बिना हिले डुले
कराहती पड़ी रही. मोना अब छोटी न रही, बारह साल की हो गई थी. वह क्षुब्ध
नज़रों में माँ की ओर देखते हुए कहने लगी-’ भगवान करे ऐसा बाप न हो तो ही
अच्छा है.’
इस बात को एक हफ्ता गुजर गया. हालत ने न सुधरने की ठान ली. घाव
भरने का नाम ही न लेते. हक़ीम से दवा लाकर पिता ने मोना को देते हुए कहा
‘यह माँ के घाव पर लगा दो, घाव जल्दी ठीक हो जाएंगे, और दावा दूध के साथ
पिला देना.’
मोना का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. जुल्म सहने की भी हद होती है.
पहली बार पिता के सामने ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज उठाते हुए कहा-’ ठीक हो
4
जाएगी, फिर क्या? फिर मार खाएगी, फिर गिरेगी, पड़ेगी, कराहती रहेगी और फिर
मरहम लगाने पर उठ खड़ी होगी, फिर से मार खाने के लिए! इससे बेहतर यह है
कि आप उसे एक ही बार इतना मारें कि वह मर जाये, और इस पीड़ा को मुक्ति
पा ले. मुझे तो याद नहीं आता है कि मैंने कभी माँ मुस्कुराते हुए देखा है, या कभी
इस घर में मान-सम्मान पाते हुए देखा है. इसके साथ तो हमेशा बदी का व्यवहार
होता आया है, और करने वाल कोई और नहीं, आप ही हैं. जोरावर के आगे
कमज़ोर का क्या बस चलेगा? उसे पड़ी रहने दो उसे पड़े पड़े मर जाने दो,..’ ऐसा
कहकर वह रोने लग गई. मोहन छोटा था, पर था तो उसका भाई. अपनी दोनों बाहें
बहन के गले में डाल कर उसे चुप कराने लगा.
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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रविवार, 18 दिसंबर 2016
कविता - शहीद की माँ - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
इसी घर से
एक दिन
शहीद का जनाज़ा निकला था,
तिरंगे में लिपटा,
हज़ारों की भीड़ में।
काँधा देने की होड़ में
सैकड़ो के कुर्ते फटे थे,
पुट्ठे छिले थे।
भारत माता की जय,
इंकलाब ज़िन्दाबाद,
अंग्रेजी सरकार मुर्दाबाद
के नारों में शहीद की माँ का रोदन
डूब गया था।
उसके आँसुओ की लड़ी
फूल, खील, बताशों की झडी में
छिप गई थी,
जनता चिल्लाई थी-
तेरा नाम सोने के अक्षरों में लिखा जाएगा।
गली किसी गर्व से
दिप गई थी।
इसी घर से
तीस बरस बाद
शहीद की माँ का जनाजा निकला है,
तिरंगे में लिपटा नहीं,
(क्योंकि वह ख़ास-ख़ास
लोगों के लिये विहित है)
केवल चार काँधों पर
राम नाम सत्य है
गोपाल नाम सत्य है
के पुराने नारों पर;
चर्चा है, बुढिया बे-सहारा थी,
जीवन के कष्टों से मुक्त हुई,
गली किसी राहत से
छुई छुई।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
कविता - गीत मेरे - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ,
वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ,
छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ,
और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ,
कह उठे संसार, आया ज्योति का क्षण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
दूर कर मुझमें भरी तू कालिमा जब,
फैल जाए विश्व में भी लालिमा तब,
जानता सीमा नहीं है अग्नि का कण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
जग विभामय न तो काली रात मेरी,
मैं विभामय तो नहीं जगती अँधेरी,
यह रहे विश्वास मेरा यह रहे प्रण,
गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन।
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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कविता - मेघदूत के प्रति - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
"मेघ" जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
हो धरणि चाहे शरद की
चाँदनी में स्नान करती,
वायु ऋतु हेमंत की चाहे
गगन में हो विचरती,
हो शिशिर चाहे गिराता
पीत-जर्जर पत्र तरू के,
कोकिला चाहे वनों में,
हो वसंती राग भरती,
ग्रीष्म का मार्तण्ड चाहे,
हो तपाता भूमि-तल को,
दिन प्रथम आषाढ़ का में
'मेघ-चर' द्वारा बुलाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
भूल जाता अस्थि-मज्जा-
मांसयुक्त शरीर हूँ मैं,
भासता बस-धूम्र संयुत
ज्योति-सलिल-समीर हूँ मैं,
उठ रहा हूँ उच्च भवनों के,
शिखर से और ऊपर,
देखता संसार नीचे
इंद्र का वर वीर हूँ मैं,
मंद गति से जा रहा हूँ
पा पवन अनुकूल अपने
संग है वक-पंक्ति, चातक-
दल मधुर स्वर गीत गाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
झोपडी़, ग्रह, भवन भारी,
महल औ' प्रासाद सुंदर,
कलश, गुंबद, स्तंभ, उन्नत
धरहरे, मीनार द्धढ़तर,
दुर्ग, देवल, पथ सुविस्त्तत,
और क्रीडो़द्यान-सारे,
मंत्रिता कवि-लेखनी के
स्पर्श से होते अगोचर
और सहसा रामगिरि पर्वत
उठाता शीशा अपना,
गोद जिसकी स्निग्ध छाया
-वान कानन लहलहाता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता इस शैल के ही
अंक में बहु पूज्य पुष्कर,
पुण्य जिनको किया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब श्री राम के वे,
थी यहाँ पे वास करती,
देखता अंकित चरण उनके
अनेक अचल-शिला पर,
जान ये पद-चिन्ह वंदित
विश्व से होते रहे हैं,
देख इनको शीश में भी
भक्ति-श्रध्दा से नवाता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता गिरि की शरण में
एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आश्रम घिरा बन
तरु-लताओं से सघनतर,
इस जगह कर्तव्य से च्युत
यक्ष को पाता अकेला,
निज प्रिया के ध्यान में जो
अश्रुमय उच्छवास भर-भर,
क्षीणतन हो, दीनमन हो
और महिमाहीन होकर
वर्ष भर कांता-विरह के
शाप के दुर्दिन बिताता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
था दिया अभिशाप अलका-
ध्यक्ष ने जिस यक्षवर को,
वर्ष भर का दंड सहकर
वह गया कबका स्वघर को,
प्रयेसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला
किन्तु शापित यक्ष
महाकवि, जन्म-भरा को!
रामगिरि पर चिर विधुर हो
युग-युगांतर से पडा़ है,
मिल ना पाएगा प्रलय तक
हाय, उसका शाप-त्राता!
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देख मुझको प्राणप्यारी
दामिनी को अंक में भर
घूमते उन्मुकत नभ में
वायु के म्रदु-मंद रथ पर,
अट्टहास-विलास से मुख-
रित बनाते शून्य को भी
जन सुखी भी क्षुब्ध होते
भाग्य शुभ मेरा सिहाकर;
प्रणयिनी भुज-पाश से जो
है रहा चिरकाल वंचित,
यक्ष मुझको देख कैसे
फिर न दुख में डूब जाता?
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
देखता जब यक्ष मुझको
शैल-श्रंगों पर विचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,
यक्षिणी को निज कुशल-
संवाद मुझसे भेजने की
कामना से वह मुझे उठबार-
बार प्रणाम करता
कनक विलय-विहीन कर से
फिर कुटज के फूल चुनकर
प्रीति से स्वागत-वचन कह
भेंट मेरे प्रति चढा़ता
'मेघ' जिस जिस काल पढ़ता,
मैं स्वयं बन मेघ जाता!
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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कविता - यह लघु सरिता का बहता जल - गोपाल सिंह नेपाली
कविता का अंश...
यह लघु सरिता का बहता जल,
कितना शीतल, कितना निर्मल,
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह निर्मल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल छल-छल,
तन का चंचल मन का विह्वल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन भर, रजनी भर, जीवन भर,
धोता वसुधा का अन्तस्तल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
हिम के पत्थर वो पिघल पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकल,
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल,
नित जलकर भी कितना शीतल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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कविता - हिमालय और हम - गोपाल सिंह नेपाली
कविता का अंश...
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।
(1)
इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही ।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्तक नहीं झुकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(2)
अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती ।
फिर संध्या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती ।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी ?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्त अपनाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(3)
हर संध्या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है ।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है ।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(4)
जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी ।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।।
कोई क्या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(5)
टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं ।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं ।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शनिवार, 17 दिसंबर 2016
प्रचार का नया तरीका
हरिभूमि में प्रकाशित आलेख
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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कबीरदास जी - जीवन परिचय
परिचय का कुछ अंश...
कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।
कबीर के माता- पिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर "नीमा' और "नीरु' की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।
कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है -
"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'
कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द ज उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- `हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।
जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।
कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
"कहत कबीर सुनहुं रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।'
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-
`मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'
उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं-
`हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, `हरि जननी मैं बालक तोरा'
उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।
कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दु:खी थे:
"अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।''
कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे:
"जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।''
कबीरदास जी का पूर्ण परिचय प्राप्त करने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
लेख
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कबीरदास - कुछ लोकप्रिय दोहे अर्थ सहित
संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। यहाँ हम उनके कुछ लोकप्रिय दोहे अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं -
दोहा:- हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि हिन्दुओं को राम प्यारा है और मुसलमानों (तुर्क) को रहमान| इसी बात पर वे आपस में झगड़ते रहते है लेकिन सच्चाई को नहीं जान पाते |
दोहा:- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब |
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो| जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे|
दोहा:- निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय|
अर्थ: कबीर जी कहते है कि निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति बिना पानी और साबुन के हमारे स्वभाव को स्वच्छ कर देते है|
दोहा:- माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरु की सीख|
अर्थ: कबीरदास जी कहते कि माँगना मरने के समान है इसलिए कभी भी किसी से कुछ मत मांगो|
दोहा:- साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय|
अर्थ: कबीर दास जी कहते कि हे परमात्मा तुम मुझे केवल इतना दो कि जिसमे मेरे गुजरा चल जाये| मैं भी भूखा न रहूँ और अतिथि भी भूखे वापस न जाए|
दोहा:- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय|
अर्थ:- कबीर कहते कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रार्थना करते है| अगर सुख में भगवान को याद किया जाये तो दुःख क्यों होगा|
दोहा:- तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते है कभी भी पैर में आने वाले तिनके की भी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकिं अगर वही तिनका आँख में चला जाए तो बहुत पीड़ा होगी| ऐसे ही अन्य दोहों का अर्थ सहित आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
दोहे
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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