शनिवार, 14 नवंबर 2009
....एक घड़ी की मौत
राग तैलंग
घर में दीवाल घड़ी का एक निश्चित स्थान हुआ करता था। उस एक बेजान घड़ी से घर के सजीवों और निर्जीवों के संबंध और कार्य-व्यवहार संचालित हुआ करते। आंखें घड़ी के उस स्थान को देखने की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थीं कि उस एक दिन घड़ी को वहां न पाकर उनमें पानी आ गया। उस खाली स्थान पर घड़ी के हस्ताक्षर पढ़े जा सकते थे। घड़ियां कैसे अपनी जगह दर्ज कर लेती हैं, यह समझ में आ रहा था। घड़ी अपने स्थान पर नहीं थी, फिर भी घर का हर बच्चा स्कूल जाते वक्त उस स्थान पर नजर डालता था। दफ्तर जाते समय बड़ा आदमी जल्दी-जल्दी में ही सही, उस स्थान के खाली हो जाने से, घर से भुनभुनाते हुए निकलता था। गृहिणी के कई कामों के घंटों की इबारत उस घड़ी के छोटे और बड़े कांटों के बीच बनने वाले कोणों पर टंगी होती थी। एक डायरी की तरह। उस डायरी के पन्ने चिंदी-चिंदी हो चुके थे। बुजुर्गवार उस स्थान के आसपास अब ज्यादा बेचैनी से टहलते पाए जाते। उन्हें लगता यह समय बोझ बन चुका है और अब कभी नहीं कटेगा। घड़ी के न होने से नल के आनेका, दूध वाले के आने का, काम वाली का या किसी भी अपेक्षित के आने का इंतजार लंबा हो चुका था। उस स्थान के खाली हो जाने से सब तरफ खालीपन का अहसास हो रहा था। घड़ी के अभाव में सारे अंदाज गड्डमड्ड हो चुके थे। जीवन में चिड़ियों के चहचहाने का, रातरानी की महक फैलने का एक तय समय होता है, यह महसूस किया जा सकता था। घड़ी के वहां न होने से घर की पूरी समय-सारणी गड़बड़ा गई थी। वह घड़ी देखने में जरूर कैलेंडरों की तरह आकर्षक और मादक नहीं थी, पर वह घर के भीतर का सब कुछ बांधे रखती थी। अब उसकी जगह लगने वाली तमाम प्रस्तावित चीजों में सब रंगीन चीजें थीं, मगर उनमें घड़ी का नाम नहीं था। घड़ी इतिहास बन चुकी थी। उस एक घड़ी से सब अपनी घड़ियां मिलाते थे, वे घड़ियां भी शोक संतप्त थीं। उन्हें पहनने वालों के साथ भी गड़बड़झाला चल रहा था। उस घड़ी ने अपने नियत स्थान पर खड़े रह कर सबको चलना सिखाया था। उसने कई दफे समय के बारे में लोगों में एक दर्शन पैदा किया था। आज समय अपने साथ है। आज बुरी घड़ी टल गई। वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता, कल अपना भी टाइम आएगा। समय के बारे में ऐसे दार्शनिक वाक्य
उस घड़ी की उपस्थिति में ही बोले गए थे। उस वक्त घड़ी एक दार्शनिक की तरह बिल्कुल चुप थी। समय दूसरों की भाषाओं में अपना मौन व्यक्त करता है। एक समय घर के बीचों-बीच वाला वह कमरा जो घड़ी की वजह से घड़ी वाली खोली कहलाता था, अब इलेक्ट्रॉनिक घड़ियों, लैपटॉप, मोबाइल से अंट चुका था और इससे घर के लोगों को लगने लगा कि उसे अब घड़ी वाला कमरा कहना उचित नहीं है। इस तरह मनुष्य की एक अप्रतिम खोज के नाम पर हुए कमरे का नामकरण बदल कर ड्राइंगरूम हो गया। उस घड़ी की टिक-टिक के साथ घर के एक-एक इंच का नक्शा बदल रहा था। साथ ही बदले जा रहे थे पहचान के कुछ नाम। समूचा आकाश फैल रहा था। तारे, ग्रह, पिंड सब दूर छिटक रहे थे। लगता था किसी एक बड़े से हाथ में से फिसल कर सब चीजें भाग रही हैं, एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में। जमाने में बाजार ने घरों में इतनी घड़ियां ठूंस दी थीं कि लोग घड़ी देखते ही यह कह कर भागने को उद्यत रहते ‘समय नहीं है’। आधुनिकता ने सभी घड़ियों के भीतर का समय चूस लिया था और लोग फुर्सत की एक घड़ी को तरस गए थे। रिटायरमेंट, शादी, जन्मदिन, परीक्षा में सफलता पर घड़ी देने का रिवाज खत्म हो चुका था, क्योंकि घड़ियों का बाजार मूल्य इतना गिर चुका था कि इस बात की पूरी आशंका थी कि घड़ी पाने वाला अपमानित महसूस कर जाए। घड़ियां सुधारने वाले घड़ीसाज और उनकी एक आंख में लगने वाले लैंस और उस जमाने की घड़ियां फॉसिल्स में तब्दील हो चुके थे। एक समय के बाद वह खाली स्थान कब भर गया किसी ने गौर ही नहीं किया। चूंकि
समय का अनुशासन, जो उस घड़ी के रहते हुआ करता था, उससे वह घर मुक्त हो चुका था। ऐसा सभी घरों में हो रहा था। यह स्वच्छंद संस्कृति के विकास का दौर था, जिसमें ऐसी घड़ियों की मौत सबसे जरूरी थी, जिनके बूते चला करती थी घरों की शांत और संतोषप्रद जिंदगी। संस्कृति-समाज-घर के ताने-बाने के टूटने के लिए बस एक घड़ी के लुप्त होने की जरूरत होती है
राग तैलंग
(जनसत्ता से साभार)
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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एक-एक कर ऐसे ही सभी चीज़ें विलुप्त हो रही हैं. जो कल था आज नहीं रह गया, जो आज है कल नहीं रहेगा. समय ख़ुद लगातार 'नहीं होता' जाता है, तो भला उसे मापने वाला कैसे बचेगा?
जवाब देंहटाएंवह 'घडी' अब लुप्त हो गई ...
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