सोमवार, 30 नवंबर 2009
संस्कारों की पूंजी जीवन भर साथ देती है
आज के अभिभावक अपने बच्चों को आगे बढाने के लिए तो हर संभव सुविधाएं प्रदान करते हैं लेकिन उन्हें मूल्य और संस्कार देने की तरफ उनका ध्यान कम ही होता है । एक समय था जब संयुक्त परिवारों
की गहन परम्परा इस देश में रची बसी थी और हर बच्चा होश संभालने पर अपने आसपासी दादा दादी के रूप में ऐसे स्नेहिल बुजुर्गों को देखता था जिनकी सुबह गहन पूजा पाठ से होती थी। हाथ में रामायण या
गीता रखने वाले इन बुजुर्गों को अगर संस्कारों की पाठशाला कहा जाए तो गलत नहीं होगा। जीवन में त्याग स्नेह और द्यढ चरित्र की क्या महत्ता होती है यह बात इन बुजुर्गों से बखूबी सीखी जा सकती थी । आज के दौर में भौतिक सुख सुविधाओं में जरूर अप्रत्याशित वृध्दि हुई है लेकिन मनुष्यता मूल्य और संस्कार तेजी से कम हुए हैं। दरअसल आगे बढने की होड में व्यक्ति जिन चीजों को बाधा समझकर पीछे छोड देता है वही आगे जाकर उसके गले का फंदा बन जाती हैं। हमारे आसपास की दुनिया इन दिनों कुछ इस कदर रफ्तार पकड चुकी है कि सभी के पास आज समय का बेहद अभाव है। समय नहीं होने की वजह से यह दौर इंस्टैट काफी की तरह हो गया है । यानी जो कुछ करना है तुरन्त करना है। यही वजह है कि इस दौर में संस्कार और आचार व्यवहार के तौर तरीके भी किसी डिब्बाबंद खाद्य सामग्री की तरह बाजार में उपलब्ध हैं।
युवा पीढी को बिगडैल घोडों का हुजूम कहने वालों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगर इन घोडों पर मूल्य और संस्कारों की लगाम कसी जाती तो ये नायाब घोडे साबित होते। आज भी युवा पीढी के कई ऐसे प्रतिनिधि नजर आते हैं जिनका मूल्य और संस्कारों से गहरा रिश्ता है और इसी वजह से वह सह अस्तित्व के महत्व को भी अच्छी तरह समझते हैं। बच्चो जब छोटे होते हैं तब अभिभावक यह बात आसानी से सोच और कह पाते हैं कि उनकी बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं है और वे सिर्फ उनके बेहतर जीवन की कामना करते हैं लेकिन वृध्दावस्था की सांझ जब घिरती है तो फिर उन्हें अपने ही याद आते हैं। इन हालात में अगर हानगर या विदेश में रहने वाला बच्चा फोन करने से कतराए तो किसी माता या पिता की क्या हालत हो सकती है इसे बखूबी समझा जा सकता है। बच्चो का भविष्य संवारने और उसे जीवन की हर ुख सुविधा देने का संकल्प अच्छी बात है लेकिन इसके साथ ही उसे संस्कारों की पाठशाला में जीवन मूल्यों का पाठ पढाना भी जरूरी है। ये मूल्य जिन्दगी के उतार चढाव में संजीवनी बूटी का काम करते हैं। जीवन का हर पल चुनौती है जिसका जवाब बंदूक धन नाराजगी और निराशा से नहीं दिया जा सकता है। इन परिस्थितियों में यही मूल्य और संस्कार व्यक्ति को मुश्किलों को पार ले जाते हैं क्योंकि इनमें धैर्य और धर्म का पाठ छिपा है। कोशिश करिए कि बच्चों में बचपन से ही संस्कार और मूल्यों का क्रमिक विकास हो। जीवन की चुनौतियों से जूझने के लिए उसे स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित मत बनाइए। अगर वह अपना होमवर्क किसी बच्चो से शेयर करता है तो डांट का नहीं बल्कि प्रशंसा का हकदार है। बचपन की इसी भोली भाली दुनिया में वह सीख सकता है कि जीवन दूसरों की मदद करने और मदद लेने के मानवीय तंतुओं पर ही टिका है। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि स्वार्थपरता और सिर्फ अपने बारे में सोचने की बात अगर उसके मन में घर कर गयी तो इसका शिकार खुद उसके माता पिता भी हो सकते हैं।
जीवन में यांत्रिकता को स्थान न दें
जीवन में जैसे जैसे समझदारी का स्तर बढ़ता है, लोग इस तरह की शिकायतें भी खूब करते हैं कि अब ङ्क्षजदगी में पहले जैसा मजा नहीं रहा। ऐसा क्यों होता है कि बचपन और युवावस्था का आनंद विवाहित जीवन में प्रवेश और उम्र बढने के साथ जाता रहता है। यह भी सवाल उठ सकता है कि ऐसी समझदारी किस काम की जिसकी वजह से जीवन में आनंद का भाव निरंतर कम होता जाए। इसी पृष्ठभूमि पर किसी ने बहुत खूबसूरत शेर कहा है 'अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने अक्ल लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दें यानी ङ्क्षजदगी में दिल के साथ दिमाग का होना भी बहुत जरूरी है। लेकिन कभी कभी सिर्फ दिल से काम लेना चाहिए। काफी हद तक इस बात में सच्चाई भी है कि दिमाग की उधेड़बुन ङ्क्षजदगी के आनंद से हमें दूर कर देती है। याद कीजिए उस निर्दोष बचपन को जो होमवर्क के गुंताड़े से दूर पतंगबाजी का जमकर लुत्फ उठाता है। घर लौटने पर माता पिता की पिटाई भी उस आनंद को कम नहीं करती है और दूसरे दिन फिर मैदान में हाथ में चरखी लिए बच्चों की पतंग आसमान की बुलंदियों की छूती रहती थी। इसी तरह युवावस्था में कॉलेज से भाग कर फिल्म देखना। देर रात तक चौराहों पर मित्रों के साथ चाय की चुस्कियों में ङ्क्षजदगी के हर गम को घोल कर पी जाना और ठहाके लगाते रहने वाले बेफिक्र यौवन को भला कौन भूल सकता है। उन बुजुर्गों की सभी तारीफ करते हैं, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि उनकी उम्र जरूर बढ गई लेकिन दिल अभी भी जवान है। निस्संदेह ऐसे बुजुर्ग चुस्त दुरूस्त भी रहते हैं और नई पीढी के साथ बेहतर संवाद कायम करने के साथ उनके बीच लोकप्रिय भी रहते हैं। आइए अब इस बात को भी समझने की कोशिश करते हैं कि उम्र बढने के साथ व्यक्ति के भीतर क्या कुछ घटता है। उम्र बढने के साथ शायद अधिकतर लोगों के भीतर संदेह.भय.असुरक्षा और मतलब परस्ती जैसे भाव भी बढते जाते हैं। जीवन में जब ढेर सारे नकारात्मक भाव एकत्र हो जाते हैं तो वह आनंद पर कुंडली मार बैठ जाते हैं। एक उम्र के बाद अगर दोस्ती व्यक्ति के लिए सिर्फ समझौता हो जाए तो फिर मन की बातें वह किस मित्र से कहेंगा। याद कीजिए जवानी का वह दौर जब कुछ भी अच्छा बुरा घटता था और आप सीधे उसे शेयर करने के लिए अपने सबसे प्रिय मित्र के पास तुरंत पहुंचते थे। अब व्यक्ति के लिए किसी से कुछ शेयर करना तो दूर उसे यही डर लगा रहता है कि उसकी कोई अच्छी या बुरी बात किसी को पता न चल जाए। सभी ने महसूस किया है कि निश्छल व्यक्ति संत महात्मा और शुद्ध आचरण वाले लोगों के व्यक्तित्व में उनकी प्रौढ़ वय के बावजूद बचपन और युवावस्था के भाव बहुधा झलक जाते हैं। यही उनकी प्रसन्नता का राज है। भले ही व्यक्ति को उम्र ४० साल हो और वह किसी कंपनी में शीर्ष पद पर हो लेकिन कभी कभी छत पर जाकर बच्चे के साथ पतंग उडाने या किसी चौराहे पर चाट के ठेले पर गोलगप्पे खाने के लुफ्त से वंचित नहीं रहना चाहिए। काम का बोझ व्यक्ति की पीठ पर इस निर्मम तरीके से नहीं लद जाना चाहिए कि वो उसके बचपन और जवानी की सभी सुखद स्मृतियों को खुरच खुरच कर मिटा दे। ङ्क्षजदगी का हर हिस्सा अपने आप में संपूर्ण होता है और उसका एक दूसरे के साथ अभिन्न संबंध होता है। जीवन में परिपक्वता की उम्र में प्रवेश करने के बाद बचपन और जवानी की रोमांचक और आनंद भरी दुनिया की तरफ रूख न करना ही व्यक्ति को पीडा से भरता है और जीवन को मशीनी बनाता है। व्यक्ति यह जरूर याद रखें कि जीवन में कैसे आगे बढना है.मकान की किस्त कब चुकानी है.बॉस को कैसे खुश रखना है.बीबी बच्चों के जीवन को कैसे खुशहाल बनाना है और धनवान कैसे बनना है। लेकिन इन बातों के साथ यह भी याद रखें कि बचपन में उस कौन सी मिठाई पसंद थी.जवानी में किस गजल को सुन कर उसकी आंख से आंसू निकल पडते थे और किस दोस्त के साथ बैठ कर उसे जीवन के वास्तविक आनंद की अनुभूति होती थी। यकीन जानें ऐसा करने पर आप इस निराशावादी भाव से एकदम बाहर निकल आएंगे कि इन दिनों मेरा जीवन बस एक ठंडी मशीन बन कर रह गया है।
लेबल:
चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें