मंगलवार, 22 नवंबर 2016
कविता - अंतरमन का अवलोकन- निसर्ग भट्ट
कविता का अंश...
उन खोखले वादों की कटारों से,
हम हर रोज़ कटते रहते हैं,
उन भयंकर भ्रम जालों से,
बहार निकल नहीं पाते हैं ।
उस अदृश्य आशा की तलाश में,
हर रोज़ भटकते रहते हैं,
हर शाम खुद से ही हार कर,
फिर मायूस हो जाते हैं ।
उन अविरत आडंबरों से,
हम इतने कायर बन चुके हैं,
अपनी ही सच्चाई के सुरों को,
हम सुन नहीं पाते हैं ।
अपने ही झूठ के जंगलों में,
अक्सर हम खों जाते है,
अपमानों के आँसुओं को,
घूँट घूँट कर हम पी जाते हैं ।
कभी दोस्ती के दलदल में,
तो कभी प्रेम के मृगजाल में,
हर बार हम फँस जाते हैं,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उस दर्द ए दरिया में,
हर बार हम डूब जाते हैं ।
आकर्षणों की आँधी में,
हर बार हम बह जाते हैं,
औकात से आगे सोचने की गलती,
अक्सर हम कर जाते हैं ।
घनघोर निराशा की नाव में,
हम अक्सर हिंचकोले खाते हैं,
उन अनगिनत ठोकरों के बाद,
अब दर्द को भी महसूस नहीं कर पाते हैं ।
हर दिन पैसे की अंधी प्यास में,
खुद को ही बेचते रहते हैं,
अब तो खुद ही बोली लगाकर,
खुद को ही खरीदते रहते हैं।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
E-mail - nisarg1356@gmail.com
दूरभाष - 8460284736
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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