बुधवार, 30 नवंबर 2016
कविता - नैपथ्य - गौरव भारती
कविता का अंश...
'नेपथ्य'
नेपथ्य का कवि हूँ मैं,
अपने अल्फ़ाज़,
बुन रहा हूँ,
घोसलें की माफ़िक।
रोज हर रोज,
लड़ते हुए,
अनगिनत चरित्रों से।
इस छटपटाहट में कि,
निकल कर रूबरू होऊं,
अपने किरदार के साथ,
अपने अंदाज़ के साथ।
हो एक लंबा संवाद,
मेरे और तुम्हारे साथ।
सुनो मुझे देखो मुझे,
यह मैं नहीं एक जमात है,
जिसकी एक ही कहानी ,
मेरे पास है,
खोल रख रहा हूँ,
समक्ष तुम्हारे।
मानो उधेड़ रहा हूँ,
बुनी हुयी स्वेटर।
एक छोर पकड़कर,
ज्यों उधेरती है स्त्री,
समझने के लिए डिजाइन।
अंत में एक अनुभव,
तुम्हारे पास होगा।
एक जमात तुम्हारे साथ होगी।
मैं शायद नेपथ्य से निकलकर,
मंच पर आ जाऊंगा।
एक नयी कविता,
नए भावबोध,
नयी तलाश,
नए प्रतिमान,
नयी ऊर्जा के साथ,
तुम्हारी ही कहानी,
अपने अंदाज मे,
कह सुनाऊंगा ।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

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