शनिवार, 5 नवंबर 2016
कहानी सरहद की... - भूपेन्द्र कुमार दवे
कहानी का अंश...
‘सरहद पर तैनात जवानों के सामने प्रकृति की खुली किताब होती है जिस पर ईश्वर की
इबारत शायद विश्व के सभी ग्रंथों से ज्यादा जीवन को पवित्रता संपन्न कराने की क्षमता रखती है।
मेरे साथी ने उत्तर-पश्चिम सरहदों का नजारा देखकर यह कहा था। उसने प्रश्न किया था, ‘यह
सरहद यहाँ आकर रुक क्यों जाती है? सारे विश्व को यदि यह अपने आगोश में ले ले तो मनुष्य की
पहुँच ईश्वर तक आसान हो जाएगी।’
तभी प्रकृति की आड़ में छिपकर किलबिलाते आतंकियों को देख वह सहम गया। मैंने उसे
सतर्क होने कहा और हम दुबककर उनकी गतिविधियों को देखने लगे। प्रकृति के आँचल को
लहराते हवा के झोंके ने हमारी अंतरात्मा को सुकून देना जारी रखा ताकि हम शान्त चित्त से विश्व
के अमनचैन की विचार-लहरियों में खोये रहें। हम अपने हृदय में कितने ही पुण्य-विचारों को सहेज
कर रखें, पर दुर्विचार के घरोंदों में पले खूँखार कर्मों से विकृत हुए लोग मानते कहाँ हैं? वे तो कीड़ों
की तरह अमन-चैन के रेशमी कपड़ों को तार-तार करने की उधेड़बुन में लगे रहते हैं।
लुक-छिपकर आक्रमण की लालसा लिया वह आतंकी जत्था अचानक गोलियाँ बरसाने
लगा। हमारी आँखों के सामने सरहद की चमचमाती रेखा को धुँआ की परत से ढँकने का असफल
प्रयास करनेवालों को देख मेरे साथी ने ऊँची चट्टान पर चढ़कर उन्हें ललकारा। उसकी आवाज
चहुँओर प्रतिध्वनित हो गूँज उठी -- हृदय में प्रेरणा की अलख जगाने -- मस्तिष्क में कर्तव्यबोध
की रश्मियाँ कोंधाने -- रक्तवाहिनियों में उमंग का संचार करने -- समस्त ज्ञानेन्द्रियों में नवस्फूर्ति
उत्तेजित करने।
एक जत्था धराशाही हुआ। फिर एक और को हमने नस्तेनाबूत कर दिया। गाजर घाँस की
तरह उनकी नई ऊग देख हम लगातार प्रहार करते रहे। समय हमारी सफलता की इबारत लिखता
रहा। पर सूर्यदेवता अस्ताचल की ओर बढ़े जा रहे थे। दरख्तों के लंबे साये धीरे धीरे अंधकार में
परिणित होते जा रहे थे। मैंने अपने साथी को नीचे उतर आने कहा, ‘संजय, अब नीचे उतर आवो।’‘बस एक और बचा है,’ उसने कहा।
तभी एक साथ दो गोलियों की आवाज आई।
और जैसे ही सन्नाटा फैला तो मुझे सरसराहट सुनाई दी जैसे कुछ लुढ़कता मेरे करीब आ गिरा हो।
‘मैंने सब को मार गिराया,’ मेरे मित्र की वह आवाज थी। मैंने नीचे देखा। संजय का खून से लथपथ
शरीर पड़ा था। ‘ओफ्’, एक चीख-सी निकल पड़ी।
‘ये क्या हुआ?’ मैंने प्रश्न किया।
‘कुछ नहीं, बस सबका सफाया हो गया,’ यह कह वह मुस्कराया।
‘तुम्हें क्या हुआ?’ मैंने प्रश्न दोहराया।
‘मुझे कुछ नहीं हुआ। तुम मेरी फिक्र मत करो। बस एक बात ध्यान से सुन लो, मेरे भाई।’
मेरे लिये ‘भाई’ संबोधन का प्रयोग संजय ने पहली बार किया था। अतः मेरे मुख से भी निकल
पड़ा, ‘भाई, बोलो, तुम ठीक तो हो?’
‘आतंकी जीवन से छुटकारा पाने की खुशी में उस अंतिम आतंकी ने भी गोली चलाई और
वह गोली दौड़कर मुझे धन्यवाद देती मेरे सीने को चूम गई। खैर, इसकी चिंता मत करो। मेरी बात
सुनो। रक्षाबंधन का त्यौहार आने ही वाला है। मेरी छोटी बहन उसकी तैयारी में लगी होगी। मेरी
जगह तुम्हें जाकर राखी बँधवानी होगी। बोलो, तुम ऐसा कर पावोगे?’
मेरी निरुत्तर अवस्था को भाँपकर संजय ने आगे कहा, ‘लेकिन रक्षाबंधन के दिन तक उसे
मेरे बारे में कुछ नहीं बताना। और सुनो ....’
जलप्रपात में होड़ लगाती पानी की धाराओं की तरह संजय के मुख से अक्षर शब्द बन
धड़धड़ाकर नीचे गिर रहे थे। वह अपनी बहन के बारे में सबकुछ एक साथ बताने को आतुर था। वह
कहने लगा, ‘राखी बँधवाते समय अपनी कलाई को एक बार झटका देकर देखना, मेरी बहन का
गुस्सा। उसे शान्त करने तुम्हें ही पहल करनी पड़गी। अपनी बाहों में भरकर उस गुड़िया के दाँयें
और फिर बाँयें गाल को चूमना होगा। तब कहीं वह प्यार से राखी बाँधेगी।’ उसने यह भी कहा कि
इस सुखद अनुभव को पाने मुझे संजय के न होने की खबर को छुपाये रखना होगा। संजय की
आवाज शैनः-शैनः क्षीण होने लगी और मैं देखता रहा खून से भरे तालाब में पड़े प्राण को तैरते --
वेदना की भारी भरकम चट्टान के तले प्राण को मचलते। मैं देखता रहा वेग से चलती हुई साँसों का
सामने गहरी खाई देख अचानक रुक जाना -- हमेशा के लिये।
‘संजय’ मेरी चीख चारों ओर फैली पर्वत श्रृंखला से प्रतिध्वनित हो अश्रूपूर्ण बादलों की तरह
टकराकर बरसने को आतुर हो उठी थी -- जिसे ‘बादलों का फटना’ कहते हैं। संजय कहा करता था
कि प्रकृति को निहारो -- जीवन इसी तरह पनपता है और मृत्यु का आलिंगन करवाता है।
रक्षाबंधन के दिन मैंने वर्दी पहनी और कैप भी धारण कर ली ताकि कम से कम दूर से यह
न मालूम हो कि आनेवाला संजय नहीं और कोई है। मंच पर नाटक खेलना सहज हो सकता है, पर
जीवन में किसी अन्य का ‘रोल’ करना माथे पर पसीना ला देता है। हर कदम पर हृदय चार-पाँच
बार धड़क उठता था, जिसमें से दो-तीन धड़कनों का अंदाज साँसें ले भी न पाती थी।
संजय का घर अब करीब से नजर आने लगा था। घर के मुख्य द्वार पर कढ़ी सतरंगी
रंगोली, आम्रपत्तियों के तोरण और रंग-बिरंगी झालर देख त्यौहार के उमंग की झलक मुझे मिलने
लगी थी। बाहर बरामदे में कुर्सी पर संजय की माँ इंतजार कर रही थी और बहन कुर्सी के पीछे
अनंत में एकटक देखती अपने भैया के आने की बाट जोह रही थी।
मैं आगे बढ़ने के लिये उतावला हो बड़े-बड़े कदम रखने लगा। सोचा कि बहन को आवाज दे
अपने आने की सूचना दूँ, पर इस उतावलेपन ने मुझे उसका नाम ही विस्मृत करा दिया। शुक्र
समझो कि माँ ही बोल उठी, ‘देख राधा बेटी, तेरे भैया चले आ रहे हैं।’ हाँ, याद आया कि संजय ने
यही नाम बताया था। पर तब तक वह ग्यारह बरस की बच्ची उछलकर घर के अंदर चली गई थी --
राखी की थाली सजाने। मैंने आगे बढ़कर माँ के पैर छुए, पर वह किं-कर्तव्य-विमूढ़ सी बैठी रही।
उन्होंने अपनी मुठ्ठी में एक चिठ्ठी पकड़ रखी थी। उसे मेरी ओर आगे बढ़ाते हुए कहने लगी,
‘बेटा, तू जानता है कि माँ के लिये यह कितना कठिन काम था। पर तुझे आते देख, सच कहूँ कि
मुझे लगा जैसे मेरा संजू ही चला आ रहा है। आ बेटा, अंदर चल। राधा बिटिया राखी की थाली
तैयार कर तुम्हारा ही इंतजार कर रही है’ और वह मुझे सीधे पूजाघर में ले आयी।
देखा फर्श पर पीढ़ा बिछा था। सामने आरती की थाल सजी रखी थी, जिसमें राखी,
नारियल, मिठाई सभी कुछ सजाकर रखा हुआ था। वर्ष भर के इंतजार के बाद आये पर्व पर अपने
प्यारे भैया की कलाई पर पवित्र प्रेम के बंधन की पूरी तैयारी कर रखी थी राधा ने। मुझे देख वह
चहक उठी और लपक कर मेरे गले लग गई। हाथ पकड़कर मुझे आसन पर बिठाया और एक चित्त
से रस्म पूरी करने में जुट गई। मेरी कोई बहन न होने के कारण यह अनुभव अद्भुत सौन्दर्य भरा
लग रहा था। बहन कितनी प्यारी होती है! कितनी भोली होती है! भाई के हृदय के कितने करीब।
दीपक की रोशनी में लिप्त खुद बाती और घी बनी भाई के जिगर में उजाला बनाये रखने
लालायित।
जैसे ही वह राखी बाँधने लगी तो मुझे संजय की याद आयी और उसके बताये अनुसार मैंने
अपनी कलाई हिला दी। बस क्या था -- राधा चिल्ला पड़ी, ‘माँ, देखो, भैया क्या कर रहे हैं?’ इतना
कह वह माँ की तरफ दौड़ पड़ी और कहने लगी, ‘माँ, भैया हाथ हिला देते हैं ताकि मैं राखी न बाँध
सकूँ। मैं अंधी हूँ इसलिये मेरा मजाक उड़ा रहे हैं।’ और वह रोने लगी।
‘अंधी’ यह शब्द तीर की तरह वेग से आता मुझे लुहलुहान कर उठा। मैं स्तब्ध रह गया।
हाय! अपनी कलाई हिलाकर मैं यह क्या कर बैठा? ‘राधा अंधी है,’ यह संजय ने नहीं बताया था।
मेरी परेशानी माँ समझ गई और दाँये-बाँये गाल पर चुम्मी लेने का इशारा करने लगी। मैंने आगे
बढ़कर सिसकती राधा के गीले गालों को चूम लिया। सुबह की पहली किरण को देखते ही नन्हीं
चिड़िया की तरह राधा चहक उठी। वह खुश हो उमंग से भरी राखी बाँधती रही और मेरे आँसू
लगातार बहते रहे। माँ ने इशारा किया ताकि मैं अपने आँसू पर काबू पा सकूँ और राधा को कतई
अहसास न होने दूँ कि उसका भाई अब इस संसार में नहीं है। मैं राधा के लिये उपहार स्वरूप दो
चीजें लाया था -- राजस्थानी लहंगा-चुनरी और पढ़ने के लिये किताब। शुक्र था कि दोनों की पेकिंग
अलग-अलग थी। मैंने किताब अपने पीछे छिपा ली। मैं अब उसे किताब क्या देता!
जाते समय माँ मुझे छोड़ने बाहर तक आयी। ‘माँ, जब तक जिन्दा हूँ, इस दिन आता
रहूँगा,’ मैं जैसे-तैसे रुँध गले से कह पाया। तभी अचानक माँ की आँखों से टपकते आँसुओं ने मुझे
विस्मित कर दिया। ‘माँ, ये आँसू क्यों?’ मेरा मन मुझसे पूछने लगा।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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