शनिवार, 12 नवंबर 2016

लघुकथा – रंगीन टी.वी. – आशीष त्रिवेदी

रंगीन टी.वी… कहानी का अंश… बात उन दिनों की है जब हमारे मुल्क में टी.वी. का प्रसारण कुछ ही वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। रंगीन प्रसारण शुरू हुए तो कुछ माह ही हुए थे। तब घर में ब्लैक एंड वाइट टी.वी. होना ही बहुत शान की बात थी। रंगीन टी.वी. तो बिरले घरों में ही था। उन्हीं दिनों में आया था मेरा रंगीन टी.वी.। मेरे पिता एक सर्राफ की दुकान में एकॉउंटेंट थे। उनकी तनख्वा छोटी थी किन्तु मुझे लेकर उनके सपने बहुत बड़े थे। अतः मेरा दाखिला शहर के महंगे अंग्रेजी स्कूल में कराया था। उस स्कूल में अधिकतर धनाड्य परिवारों के लड़के ही पढ़ते थे। मेरे ग्रेड्स हमेशा ही सबसे अच्छे रहते थे। इसलिए शिक्षकों और सहपाठियों के बीच मैं बहुत लोकप्रिय था। किंतु जब वो अपने घर में खरीदे गए किसी महंगे सामान का ज़िक्र करते तो मैं उनसे कतराता था। क्योंकि मेरे पास उन्हें बताने के लिए कुछ नहीं होता था। उनमें से एक था बृजेश। उसके पिता एक बड़े कारोबारी थे। अक्सर विदेश आते जाते रहते थे। हर बार वहाँ से उसके लिए कोई न कोई महंगा खिलौना ज़रूर लाते थे। बृजेश बहुत शान से उनके बारे में बताता था। ऐसे ही एक दिन रिसेस में ब्रजेश ने सब को सुनाते हुए कहा " परसों मेरे पापा कलर टी.वी. लेकर आये हैं। " सबने उसकी बात सुनकर ताली बजाई। " तुम सब इस संडे मेरे घर आना हम सब मिलकर फ़िल्म देखेंगे कलर टी.वी. पर। " बृजेश का व्यवहार मेरे प्रति कोई ख़ास दोस्ताना नहीं था। किंतु क्योंकि सब जा रहे थे और कुछ मेरा मन भी रंगीन टी.वी. देखने को ललचा रहा था। अतः मैं भी चला गया। बृजेश का बंगला बहुत बड़ा था। हमें एक बड़े से कमरे में ले जाया गया। जहां लकड़ी के बने शोकेस में रंगीन टी.वी. रखा था। कुछ ही समय में फ़िल्म शुरू हुई। रंगीन फ़िल्म देखने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब समाचार के लिए कुछ समय के लिए फ़िल्म को रोका गया तब सभी के लिए नाश्ता आया। गगन जो बृजेश का पक्का चमचा था बोला " कुछ भी हो कलर टी.वी. देखने का मज़ा ही और है। मैं तो डैडी से जाकर ज़िद करूंगा कि वो भी कलर टी.वी. खरीदें। " कई लोगों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। मैं ही चुपचाप शरबत पी रहा था। गगन ने जानबूझ कर मुझे चिढ़ाने के लिए पूछा " क्यों तुम नहीं खरीदोगे कलर टी.वी.। " बृजेश जैसे मौका देख रहा था। फ़ौरन बोला " अरे इसके घर तो ब्लैक एंड वाइट टी.वी. भी नहीं है। ये क्या खरीदेगा। " यह कह कर वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। और कई स्वर भी उसके साथ जुड़ गए। गगन का स्वर सबसे ऊंचा था। यूँ लगा जैसे टी.वी. न होने से मेरा कोई वजूद ही नहीं है। उनकी हंसी नश्तर कि तरह कलेजा चीर गयी। मैं बिना कुछ बोले वहाँ से चला आया। घर आकर चुपचाप लेट गया। अम्मा ने पूछा तो उन्हें थका हूँ कहकर टाल दिया। खाने के वक़्त भी उन्हें भूख नहीं कहकर टालना चाहा किंतु इस बार पिताजी ने आकर प्यार से पूछा " क्या बात है, बताते क्यूँ नहीं। किसी ने कुछ कहा है। " मैं रोने लगा और सारी बात उन्हें बता दी। मेरी बात सुन कर वह भी उदास हो गए। एक दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो घर में चहल पहल थी। आस पड़ोस के लोग हमारे यहाँ जमा थे। मेरे पहुंचते ही पिताजी मुझे बैठक में ले गए। जहां मेज़ पर कपडे से ढका रंगीन टी.वी. रखा था। उसे देखते ही मैं ख़ुशी से उछल पड़ा और पिताजी के सीने से लग गया। अगले दिन स्कूल में मैंने बड़े शान से सबको रंगीन टी.वी. देखने के लिए अपने घर बुलाया। खासकर गगन और बृजेश को। उस वक़्त मैंने ये जानने का प्रयास नहीं किया कि इतना महंगा टी.वी. पिताजी कहाँ से लाये। कई सालों बाद जब मैं बाहरवीं कक्षा में था तो अम्मा ने सारी बात बताई। उस रात पिताजी को नींद नहीं आई। वो सारी रात परेशानी में इधर उधर टहलते रहे। अम्मा ने समझाया " क्यूँ परेशान होते हैं, बच्चा है समझा दीजिये समझ जाएगा। " पिताजी ने गंभीर होकर कहा " जानता हूँ समझदार है, समझ जाएगा। पर उसके दिल में चुभी फाँस नहीं निकलेगी। " कई दिन ऐसे ही परेशान रहे फिर एक दिन एक निर्णय किया। अपना संदूक खोलकर सोने की कंठ माला निकाली। ये कंठ माला मेरे परदादा को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उन ज़मींदार साहब ने दी थी जिनके यहाँ वो काम करते थे। मुझे याद है एक बार बचपन में उसे दिखाते हुए वे गर्व से बोले " ये कंठ माला उनकी स्वामिभक्ति और ईमानदारी का प्रतीक है। मेरे लिए एक धरोहर है। " कठिन से कठिन समय में भी उन्होंने उसे नहीं बेचा था। उसी कंठ माला को बेचकर वो मेरे लिए रंगीन टी.वी. लाये। उस दिन से वह रंगीन टी.वी. मेरे लिए भी मेरे पिता के प्यार का प्रतीक बन गया। आज भी मेरे बंगले में कीमती सामानों के बीच रखी है वह बेशकीमती धरोहर। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…

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