गुरुवार, 3 नवंबर 2016
कहानी - अनमोल क्षण - भूपेन्द्र कुमार दवे
कहानी का अंश...
एक शरारती बच्चे की तरह ठंड़ गुदगुदाने के लिये झाँक-झाँककर जगह ढूँढ़ रही थी। सिर के टोपे और कोटे के कालर के बीच, दस्ताने और ऊपर खिसकी बाँह के अंदर, पैर के मोजे और पतलून की मोहरी के बीच। चश्मे के नीचे मेरी लंबी नाक की दो सुरंगों को देख वह ठंड़ तो खिलखिलाकर लगातार गुदगुदाने में मस्त हो उठी थी। मैंने महसूस किया कि ठंड़ शरारती ही नहीं, बच्चों जैसी जिद्दी भी होती है।
मैं कोहरे को चीरता जैसे ही एयरपोर्ट पहुँचा तो देखा कि वहाँ पहले से आए मुसाफिरों के मुरझाये चेहरे ठिठुर रहे थे। मैं अटैची घसीटता आगे बढ़ा। उड़ान को देर थी। ‘मैं वक्त पर आ गया हूँ,’ मैं बुदबुदाया।
‘तुम मूर्ख हो,’ यह जताने ऊपर लगा मानीटर दमक रहा था। लिखा था कि कोहरे के कारण उड़ान देर से होगी।
‘उड़ान रद्द भी हो सकती है,’ किसी ने कँपकँपाती आवाज में अपनी पत्नी से कहा। सभी यात्री कुर्सियों पर बैठे थे। हरेक ने दो कुर्सियाँ हथिया रखी थीं। एक खुद के बैठने के लिये और दूसरी अपना हेंड़बैग रखने। मुसाफिरों में कुछ भारतीय थे और शेष विदेशी। लेकिन दो कुर्सियों पर कब्जा करने का तरीका सबका एक-सा था। तीन घंटे हेंड़बैग थामे भला कौन खड़ा रह सकता है? इतने लंबे इंतजार में सब ‘एटीकेट’ चकनाचूर हो जाता हैं। मैं फर्श पर उकडूँ बैठ गया। नीचे बिछी ‘टाइलस्’ बर्फ-सी थीं। पर सिर को घुटनों और हथेलियों के बीच दुबकना अच्छा लग रहा था।
लोग आपस में बतिया रहे थे। ठंड़ में फुसफुसाहट शोर की तरह सुनाई पड़ रही थी। लोग व्यवस्था की बिंगे निकाल रहे थे -- मौसम को दोष दे रहे थे। स्वयं को भाग्यहीन कहनेवाले कह रहे थे, ‘मैं जब भी यात्रा पर निकलता हूँ तो कम्बख्त ट्रेन को तभी लेट होना होता है। हवाई जहाज से जाने की सोचता हूँ तो उड़ान को ‘केंसल’ होने की पड़ी रहती है।’ ईश्वर को भी गैरजिम्मेदार कहनेवालों की कमी नहीं थी। मैं उनकी फुसफुसाहट को सुन, मन बहलाता रहा। लेकिन कुछ देर बाद जो फुसफुसाहट हो रही थी वह थम गई। सन्नाटे में ठंड़ी हवा की आवाज भी सताने लगती है। मैं बचपन में हवाई जहाज पर लिखे निबंध को याद करने लगा। महासागर पार जाने के लिये हवाई उड़ान सबसे सरल माध्यम है। इससे समय की बचत होती है। यात्रियों की सुविधा का भी ध्यान रखा जाता है। ये सारी बातें जो बच्चे लिखते थे, खोखली नजर आ रहीं थी। इसकी वजह एक ही थी, जिसे अंग्रेजी में बोरडम और हिन्दी में बोरियत कहते हैं। बोरियत का अर्थ है बैठे-ठाले बेफजूल बातें सोचकर खिन्न होना, दिमाग को खंगालकर निरर्थक विचारों को उबाल देना, चित्त को अव्यवस्थित कर चिंता की कंटीली झाड़ियों में उलझाना, मन को फुरसतिया समझकर इधर-उधर दौड़ाकर थकान पैदा करना, खुद को जबरदस्त टोंचा देकर बेचैन करना, भाग्य को कोसकर स्वतः को हताशा का पुलिंदा बना लेना, फिर अनावश्यक पुरानी यादों को तोड़-मरोड़कर स्मरण करना और अंत में इन सब को मिलाकर बनी बोरियत की सलाद को रह रहकर चखना और मुँह बिचकाना। आप कहेंगे कि सबसे बड़ा बोर वो है जो बोरडम की हालात में बोरियत की परिभाषा करने बैठ जाए। आगे की कहानी जानिए आॅडियो की मदद से...
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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