शनिवार, 19 नवंबर 2016
कविता - 1 - खाना बनाती स्त्रियाँ - कुमार अंबुज
कविता का अंश...
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया।
फिर हिरणी होकर,
फिर फूलों की डाली होकर,
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ,
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप,
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा,
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले,
भीतर की कलियों का रस मिलाया,
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज।
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया।
और डायन कहा तब भी,
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया।
फिर बच्चे को गोद में लेकर,
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया।
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना।
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया।
फिर बेडौल होकर।
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया।
सितारों को छूकर आईं तब भी।
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया।
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से,
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में,
बाहर के तूफान में,
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया।
फिर वात्सल्य में भरकर,
उन्होंने उमगकर खाना बनाया।
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया।
बीस आदमियों का खाना बनवाया।
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण,
पेश करते हुए खाना बनवाया।
कई बार आँखें दिखाकर,
कई बार लात लगाकर,
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर,
आप चीखे - उफ इतना नमक!!!
और भूल गए उन आँसुओं को,
जो जमीन पर गिरने से पहले,
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में।
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया,
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए,
खा लिया गया था खाना,
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली।
उस अतिथि का शुक्रिया,
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया।
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही,
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की।
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं,
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया,
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी।
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी,
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ,
उनके गले से, पीठ से,
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना।
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक,
और वे कह रही हैं यह रोटी लो,
यह गरम है।
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा।
फिर दोपहर की नींद में,
फिर रात की नींद में,
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया।
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून,
झुकने लगी है रीढ़,
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया।
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है,
पिछले कई दिनों से उन्होंने,
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है।
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें