बुधवार, 16 नवंबर 2016
कहानी - राजा बेटा - भारती परिमल
कहानी का अंश...
चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल-थल में… मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए मैं चाँद की सुंदरता निहारने छत पर पहुँची। यह मेरा रोज का क्रम था। भोजन करने के बाद कुछ देर छत पर टहलना। आज वैसे भी काफी देर हो गई थी। टहलते हुए मैंने एक युवक को स्ट्रीट लाइट की रोशनी में तल्लीनता से पढ़ते हुए देखा। इस युवक को आज मैं पहली बार नहीं, कई बार देख चुकी हूँ। रात को जब ट्रेफिक कम हो जाता है, तो अकसर वह चौराहे पर बने चबूतरे पर बैठकर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ता हुआ दिख ही जाता है।
आज मन में जाने क्या हुआ कि मैँ सीढ़याँ उतरकर उसके पास पहुँच गई। अपनेपन के साथ उससे यहाँ बैठकर पढ़ने का कारण पूछा। करीब दस मिनट की हमारी बातचीत में यह बातें सामने आईं – मेहुल इंजीनियरिंग कॉलेज का थर्ड ईयर का स्टुडेन्ट है। घर में वह और उसकी माँ दोनों ही हैं। पिता की मृत्यु एक साल पहले किसी बीमारी की वजह से हो गई थी। माँ दूसरों के घर खाना बनाकर घर का गुजारा चला रही है और मेहुल अपनी कॉलेज की फीस के लिए सांध्यकालीन अखबार बेचने के साथ-साथ ट्यूशन भी पढ़ाता है। पिछले एक-दो महीने से माँ की तबियत ठीक न होने के कारण घर की आर्थिक स्थिति चरमरा गई है। बिजली बिल न भरने के कारण घर की बिजली कट गई है। इसलिए वह अपनी पढ़ाई स्ट्रीट लाईट की रोशनी में कर रहा है। मुझे उस मेहनती युवक पर गर्व महसूस हुआ और मैं ‘राजा बेटे’ को दुआएँ देती हुई घर आ गई।
सुबह जब मैंने हेमंत और बच्चों को मेहुल के बारे में बताया तो वे लोग भी उसकी प्रशंसा करने लगे। अब तो अकसर रात को टहलते हुए मैं और हेमंत उसे देख ही लेते। वह भी मुझे देखकर नमस्ते की मु्द्रा में सिर हिला देता। एक दिन हेमंत ने कहा – चलो, नीचे चलकर उसे एक बॉटल पानी देकर आते हैं, पता नहीं कब से बैठा पढ़ रहा है और कब तक पढेगा? मैं उनसे एक कदम और आगे!!! पानी के साथ ही थोड़ा-सा नमकीन भी रख लिया। हेमंत मेरी सदाशयता पर मुस्करा उठे। मेहुल हमारी इस आत्मीयता से बड़ा खुश हुआ। थोड़ा-सा झेंपते हुए उसने यह चीजें स्वीकार कर ली। उसने बताया कि अभी उसके सेमेस्टर चल रहे हैं, इसलिए करीब एक-दो तो बज ही जाते हैं। उसका घर पास में ही है। अब उसकी माँ की तबियत पहले से अच्छी है और उन्होंने काम पर जाना शुरू कर दिया है। बस, एक महीने बाद वे लोग बिजली बिल भर देंगे और घर में फिर से बिजली आ जाएगी। मैंने बातों ही बातों में कहा कि किसी से पैसे उधार क्यों नहीं ले लेते हो? हेमंत ने भी पूछा - कितने रूपए भरने हैं? क्या हम कुछ मदद करें?
मेहुल स्पष्ट स्वर में बोला – नहीं, शुक्रिया। मेरे पिताजी ने मुझे एक चीज बहुत अच्छी सिखाई है, भले ही दो कौर कम खाओ, मगर किसी से उधार मत लो। मैं और माँ इसीलिए किसी से उधार लेना नहीं चाहते हैं। बस एक महीने की ही तो बात है। हम उसे गुडनाईट कहते हुए घर आ गए।
एक बार देर रात को हम एक पार्टी से लौट रहे थे। रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे। सुनसान रास्तों पर भय भी लग रहा था। तभी एक दो बाइक्स हमारे बिलकुल करीब से तेजी से निकली। वे नवयुवक इतनी स्पीड में चला रहे थे, कि हमसे टकराते हुए बचे। उन युवकों को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे उसी स्पीड से बाइक्स पर करतब करते हुए गुजर गए। हेमंत और मुझे गुस्सा तो बहुत आया मगर आज की पीढ़ी को क्या कहा जा सकता है? जब भीड़ में ही वे तेजी से चलाते हैं तो यह तो सुनसान सड़क थी। उन्हें मनमानी करने से भला कौन रोक सकता है?
हम घर के करीब पहुँचे, तो एकदम से मेहुल का खयाल आया। आज चौराहा सुनसान था। मेहुल घर चला गया होगा। हो सकता है, उसके सेमेस्टर खत्म हो गए हों। तभी चौराहे से थोड़ा आगे किनारे की तरफ एक युवक को बेसुध हालत में देखा। कहीं यह मेहुल तो नहीं? कहीं उसने पीकर तो नहीं रखी? उसे देखकर तो ऐसा नहीं लगता!!! लेकिन आज के युवकों का कोई भरोसा भी तो नहीं! हेमंत ने जाने क्या सोचकर कार रोकी और उसे करीब से देखने के लिए आगे बढ़े। जब चेहरा पलटकर देखा तो हम अवाक रह गए!!! वो मेहुल ही था। उसके सिर से खून बह रहा था और वह कराह रहा था। हे ईश्वर!!! किसी ने उसे जोरदार टक्कर मारी थी। फिर तो हमने जल्दी से उसे कार की पिछली सीट पर लेटाया और पास के ही हॉस्पिटल ले गए। घर पर फोन करके बच्चों को घटना की जानकारी दी और हम वहीं रूक गए। पेपर्स की औपचारिकता पूर्ण करने के बाद डॉक्टर्स उसे ऑपरेशन थियेटर में ले गए थे। चार-पाँच घंटे बाद जब दरवाजा खुला तो उन्होंने मेहुल को खतरे से बाहर बताया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि हमें उसका एक पैर काटना पड़ा। हमारे पास और कोई चारा ही नहीं था। हम दोनों हैरान थे। हमें तो लगा था कि केवल सिर पर ही चोट आई है। पैर की तरफ तो ध्यान ही नहीं दिया था। बस उसे हॉस्पिटल ले जाने की जल्दी थी।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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