सोमवार, 28 मार्च 2016

कहानी - वैरागी - जयशंकर प्रसाद

दिव्य दृष्टि के श्रव्यसंसार में सुनिए जयशंकर प्रसाद की कहानी - वैरागी... प्रस्तुत है कहानी के कुछ अंश... वैरागी ने कुछ सूखी लकडिय़ाँ सुलगा दीं। अन्धकार-प्रदेश में दो-तीन चमकीली लपटें उठने लगीं। एक धुँधला प्रकाश फैल गया। वैरागी ने एक कम्बल लाकर स्त्री को दिया। उसे ओढक़र वह बैठ गई। निर्जन प्रान्त में दो व्यक्ति। अग्नि-प्रज्वलित पवन ने एक थपेड़ा दिया। वैरागी ने पूछा-'कब तक बाहर बैठोगी?'' ''रात बिता कर चली जाऊँगी, कोई आश्रय खोजूँगी; क्योंकि यहाँ रहकर बहुतों के सुख में बाधा डालना ठीक नहीं। इतने समय के लिए कुटी में क्यों आऊँ?'' वैरागी को जैसे बिजली का धक्का लगा। वह प्राणपण से बल संकलित करके बोला-''नहीं-नहीं, तुम स्वतन्त्रता से यहाँ रह सकती हो।'' ''इस कुटी का मोह तुमसे नहीं छूटा। मैं उसमें समभागी होने का भय तुम्हारे लिए उत्पन्न न करूँगी।''-कहकर स्त्री ने सिर नीचा कर लिया। वैरागी के हृदय में सनसनी हो रही थी। वह न जाने क्या कहने जा रहा था, सहसा बोल उठा- ''मुझे कोई पुकारता है, तुम इस कुटी को देखना!''-यह कहकर वैरागी अन्धकार में विलीन हो गया। स्त्री अकेली रह गई।

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