बुधवार, 30 नवंबर 2016
प्रेरक प्रसंग - पगडंडी
लेख का अंश...
चौड़े रास्ते ने पास चलती पगडंडी से कहा -
"अरी पगडंडी, मेरे रहते मुझे तुम्हारा अस्तित्व अनावश्यक-सा जान पड़ता है। व्यर्थ ही तुम मेरे आगे-पीछे, जाल-सा बिछाए चलती हो!"
पगडंडी ने भोलेपन से कहा, "नहीं जानती, तुम्हारे रहते लोग मुझ पर क्यों चलते हैं। एक के बाद एक दूसरा चला। और फिर, तीसरा, इस तरह मेरा जन्म ही अनायास और अकारण हुआ है!"
रास्ते ने दर्प के साथ कहा, "मुझे तो लोगों ने बड़े यत्न ने बनाया है, मैं अनेक शहरों-गावों को जोड़ता चला जाता हूँ!"
पगडंडी आश्चर्य से सुन रही थी। "सच?" उसने कहा, "मैं तो बहुत छोटी हूँ!"
तभी एक विशाल वाहन, घरघराकर रास्ते पर रुक गया। सामने पड़ी छोटी पुलिया के एक तरफ़ बोर्ड लगा था, "बड़े वाहन सावधान! पुलिया कमज़ोर है।"
वाहन, एक भरी हुई यात्री-गाड़ी थी, जो पुलिया पर से नहीं जा सकती थी। पूरी गाड़ी खाली करवाई गई। लोग पगडंडी पर चल पड़े। पगडंडी, पुलिया वाले सूखे नाले से जाकर, फिर उसी रास्ते से मिलती थी। उस पार, फिर यात्रियों को बैठाकर गाड़ी चल दी।
रास्ते ने एक गहरा नि:श्वास छोड़ा! "री, पगडंडी! आज मैं समझा छोटी से छोटी वस्तु, वक्त आने पर मूल्यवान बन जाती है।"
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प्रेरक प्रसंग

प्रेरक प्रसंग - दिन और रात - शैल अग्रवाल
लेख का अंश...
बहुत समय पहले की बात है जब सृष्टि की शुरुआत ही हुई थी। दिन और रात नाम के दो प्रेमी थे। दोनों में खूब गहरी पटती पर दोनों का स्वभाव बिल्कुल ही अलग-अलग था। रात सौंदर्य-प्रिय और आराम-पसंद थी तो दिन कर्मठ और व्यावहारिक, रात को ज़्यादा काम करने से सख़्त नफ़रत थी और दिन काम करते न थकता था। रात आराम करना, सजना-सँवरना पसंद करती थी तो दिन हरदम दौड़ते भागते रहना। रात आराम से धीरे-धीरे बादलों की लटों को कभी मुँह पर से हटाती तो कभी वापस उन्हें फिर से अपने चेहरे पर डाल लेती। कभी आसमान के सारे तारों को पिरोकर अपनी पायल बना लेती तो कभी उन्हें वापस अपनी चूनर पर टाँक लेती। लेटी-लेटी घंटों बहती नदी में चुपचाप अपनी परछाई देखती रहती। कभी चंदा-सी पूरी खिल जाती तो कभी सिकुड़कर आधी हो जाती। दूसरी तरफ़ बौखलाया दिन लाल चेहरा लिए हाँफता पसीना बहाता, हर काम जल्दी-जल्दी निपटाने की फिक्र में लगा रहता।
आमने-सामने पड़ते ही दिन और रात में हमेशा बहस शुरू हो जाती। दिन कहता काम ज़्यादा जरूरी है और रात कहती आराम। दोनों अपनी-अपनी दलीलें रखते, समझने और समझाने की कोशिश करते पर किसी भी नतीजे पर न पहुँच पाते। जान नहीं पाते कि उन दोनों में आखिर कौन बड़ा है, गुणी है. . .सही है या ज़्यादा महत्वपूर्ण है। हारकर दोनों अपने रचयिता के पास पहुँचे। भगवान ने दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुनीं और कहा कि मुझे तो तुम दोनों का महत्व बिल्कुल बराबर का लगता है तभी तो मैंने तुम दोनों को ही बनाया और अपनी सृष्टि में बराबर का आधा-आधा समय दिया। गुण-अवगुण कुछ नहीं, एक ही पहलू के दो दृष्टिकोण हैं। हर अवगुण में गुण बनने की क्षमता होती है। पर रात और दिन को उनकी बात समझ में न आई और वहीं पर फिर से उनमें वही तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई।
हारकर भगवान ने समझाने की बजाय, थोड़े समय के लिए रात को दिन के उजाले वाली चादर दे दी और दिन को रात की अँधेरे वाली, ताकि दोनों रात और दिन बनकर खुद ही फ़ैसला कर सकें। एक दूसरे के मन में जाकर दूसरे का स्वभाव और ज़रूरतें समझ सकें। तकलीफ़ और खुशियाँ महसूस कर पाएँ। और उस दिन से आजतक सुबह बनी रात जल्दी-जल्दी अपने सारे काम निपटाती है और रात बने दिन को आराम का महत्व समझ में आने लगा है। अब वह रात को निठल्ली और आलसी नहीं कहता बल्कि थकने पर खुद भी आराम करता है। सुनते हैं अब तो दोनों में कोई बहस भी नहीं होती। दोनों ही जान जो गए हैं कि अपनों में छोटा या बड़ा कुछ नहीं होता।
इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति कम या ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं। सबके अपने-अपने काम हैं, अपनी-अपनी योग्यता और ज़रूरतें हैं। जीवन सुचारु और शांतिमय हो इसके लिए काम और आराम, दोनों का ही होना ज़रूरी है। आराम के बिना काम थक जाएगा और काम के बिना आराम परेशान हो जाएगा। अब दिन खुश-खुश सूरज के संग आराम से कर्मठता का संदेश देता है। जीवन पथ को उजागर करता है और रात चंदा की चाँदनी लेकर घर-घर जाती है, थकी-हारी दुनिया को सुख-शांति की नींद सुलाती है। हर शाम-सुबह वे दोनों आज भी अपनी-अपनी चादर बदल लेते हैं. . .प्यार से गले मिलते हैं इसीलिए तो शायद दिन और रात के वह संधि-पल जिन्हें हम सुबह और शाम के नाम से जानते हैं आज भी सबसे ज़्यादा सुखद और सुहाने लगते हैं।
कौन जाने यह विवेक का जादू है या संधि और सद्भाव का. . .या फिर उस संयम का जिसे हम प्यार से परिवार कहते हें। शायद सच में अच्छा बुरा कुछ नहीं होता प्यार और नफ़रत बस हमारी निजी ज़रूरतों का ही नाम है. . .बस हमारी अपनी परछाइयाँ हैं। पर अगर कोण बदल लो तो परछाइयाँ भी तो घट और बढ़ जाती हैं। तभी तो हम आप उनके बच्चे, जो यह मर्म समझ पाए, अपने पूर्वजों की बनाई राह पर आजतक खुश-खुश चलते हैं।
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प्रेरक प्रसंग

कविता - नैपथ्य - गौरव भारती
कविता का अंश...
'नेपथ्य'
नेपथ्य का कवि हूँ मैं,
अपने अल्फ़ाज़,
बुन रहा हूँ,
घोसलें की माफ़िक।
रोज हर रोज,
लड़ते हुए,
अनगिनत चरित्रों से।
इस छटपटाहट में कि,
निकल कर रूबरू होऊं,
अपने किरदार के साथ,
अपने अंदाज़ के साथ।
हो एक लंबा संवाद,
मेरे और तुम्हारे साथ।
सुनो मुझे देखो मुझे,
यह मैं नहीं एक जमात है,
जिसकी एक ही कहानी ,
मेरे पास है,
खोल रख रहा हूँ,
समक्ष तुम्हारे।
मानो उधेड़ रहा हूँ,
बुनी हुयी स्वेटर।
एक छोर पकड़कर,
ज्यों उधेरती है स्त्री,
समझने के लिए डिजाइन।
अंत में एक अनुभव,
तुम्हारे पास होगा।
एक जमात तुम्हारे साथ होगी।
मैं शायद नेपथ्य से निकलकर,
मंच पर आ जाऊंगा।
एक नयी कविता,
नए भावबोध,
नयी तलाश,
नए प्रतिमान,
नयी ऊर्जा के साथ,
तुम्हारी ही कहानी,
अपने अंदाज मे,
कह सुनाऊंगा ।
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सोमवार, 28 नवंबर 2016
26/11 का जवाब क्यों नहीं दे पाया भारत?
27 नवम्बर 2016 को सन स्टार में प्रकाशित आलेख
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अभिमत

शनिवार, 26 नवंबर 2016
आखिर किसके कारण भारत 26/11 का जवाब नहीं दे पाया?
डॉ. महेश परिमल
आज 26/11 यानी पूरी मायानगरी 3 दिनों तक आतंकियों के हवाले रहने की तारीख। इसी के साथ उन शहीदों की याद
भी, जिन्होंने देश के लिए खुद को कुर्बान कर दिया। उसके बाद
तो कसाब को कबाब देने से लेकर उसकी फांसी तक चली लम्बी राजनीति। हाल ही में देश
पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन की किताब आई है, जिसमें इस
रहस्य से परदा उठाने की कोशिश की है कि आखिर भारत ने पाकिस्तान से 26/11 का बदला क्यों नहीं लिया? किताब में यह तो साफ नहीं
है कि जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी चाहते थे कि इसका पाकिस्तान को करारा जवाब दिया
जाना चाहिए, तो भी हम जवाब क्यों नहीं दे पाए? हाल ही में जब उड़ी में पाकिस्तानी आतंकियों ने हमारे देश के 18 जवानों की हत्या कर दी थी, तब उसका जवाब सर्जिकल
स्ट्राइक से दिया गया था। इसके बाद कांग्रेसियों का यह बयान आया कि इसके पहले भारत
ने कई बार सर्जिकल स्ट्राइक किया था, पर उसका प्रचार-प्रसार
नहीं किया था। प्रधानमंत्री द्वारा की गई कार्रवाई की आलोचना करते हुए विपक्षी
नेताओं ने यहां तक कह दिया था कि यह सर्जिकल स्ट्राइक फर्जी था। पर उन्हीं
कांग्रेसियों से यह पूछा जाए कि तो फिर भरत ने 26/11 का जवाब
क्यों नहीं दिया, तो सभी खामोश हो जाते हैं। इस पर कोई भी
कांग्रेसी कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं है।
26/11 के समय पूरा देश पाकिस्तान के
खिलाफ उबल रहा था। चारों तरफ केवल गुस्सा ही गुस्सा दिखाई दे रहा था। दस आतंकियों
ने पूरे देश को तीन दिनों तक खामोश कर दिया था। मायानगरी के तो हाल ही बुरे थे।
तीन दिनों तक वह आतंकियों की बंधक रही। उस समय सभी को यही लग रहा था कि यही समय है,
जब पाकिस्तान को करारा जवाब दे दिया जाए। राजनीतिक गलियारों में भी
इस दिशा में गंभीरता से सोचा जा रहा था। पर क्या हो रहा था, इसकी
अधिकृत जानकारी आज तक किसी को नहीं मिली। शिवशंकर मेनन ने इससे परदा उठाने की एक
छोटी सी कोशिश जरूर की है। पर बात पूरी तरह से साफ नहीं की है। पर जो कुछ बताया है,
उससे यह तो बिलकुल ही साफ हो जाता है कि आखिर किसके कहने से
पाकिस्तान को करारा जवाब नहीं दे पाए?
मुम्बई पर जब आतंकी हमला
हुआ, उस समय
विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ही थे। अपनी किताब बिटवीन लाइंस’ में
वे लिखते हैं कि26/11 के बाद पूरे विश्व में भारत की यह छवि
उभरी कि भारतीय सैनिक कायर हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि मुम्बई जब तक बंधक रही,
तो उसका लाइव प्रसारण टीवी के माध्यम से पूरी दुनिया देख रही थी। इस
वजह से भारतीय सैनिकों का भी खून खौल रहा था। वे तैयार थे, एक
इशारे के लिए, ताकि पूरी शिद्दत के साथ पाकिस्तान पर टूट
पड़ें। पर उनकी यह हसरत पूरी नहीं हो पाई। भारत को सक्षम होते हुए कायर मान लिया
गया। मेनन कहते हैं कि हमले के बाद वे निजी तौर पर पाकिस्तान पर हमले के पक्षधर
थे। उनके मत के अनुसार मुर्दिक में अथ्यावा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थित
लश्करे तोयबा के प्रशिक्षण शिविर पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का था। आगे वे कहते हैं
कि 26/11 के बाद भारत को शर्मसार हालात से बाहर लाने की
कोशिश की जानी थी। पूरी योजना थी कि पाकिस्तान पर सीधे न सही, पर कुछ अलग ही तरीके से प्रहार किया जाए। उस दौरान सुरक्षा सलाहकार
एम.के.नारायण ने देश की तीनों सेनाध्यक्षों के साथ मिलकर बैठक भी की थी। इसमें कुछ
बड़े नेता भी शामिल थे। मेनन ने उस दौरान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह समझाने का प्रयास किया था कि यदि विश्व में अपनी
साख बचानी है, तो हमें पाकिस्तान को करारा जवाब देना ही
होगा। इससे लोगों में जो गुस्सा उबल रहा है, उसे शांत किया
जा सकता है। उनका कहना था कि मेरे विचार से पाकिस्तान ने अब अपनी मर्यादा की सीमा
तोड़ दी है। इसलिए उसे करारा जवाब दिया जाना बहुत जरूरी है। यही वक्त का तकाजा है।
अपनी किताब में मेनन
लिखते हैं कि तत्कालीन विदेश मंत्री और इस समय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी
पाकिस्तान पर हमले के पक्षधर थे। प्रणब मुखर्जी ने यहां तक कह दिया था कि भारत के
सभी विकल्प खुले हुए हैं। निजी बैठक में उन्होंने कहा था कि यदि भारत पाकिस्तान पर
हमला करता है, तो उसके
बाद जो हालात बनेंगे, उससे किस तरह से निपटा जाए। यहां तक
सोच लिया गया था कि यदि जवाब में पाकिस्तान भी भारत पर हमला करता है, तो उस समय क्या करना है? इस दौरान सभी कुछ ठीक था,
पाकिस्तान को करारा जवाब दे ही दिया जाए, जोश
के इस माहौल पर अचानक ही किसी ने ठंडा पानी डाल दिया। यह काम किसने किया, इसे तो मेनन ने किताब में नहीं बताया है, उन्होंने
इस संबंध में केवल इतना ही कहा है कि आखिर में यह तय हुआ कि पाकिस्तान पर आक्रमण
करने के बदले आतंकवादी हमले का राजनीतिक तरीके से जवाब दिया जाए। मेनन की किताब
बिटवीन लाइंस अभी तक पढ़ने में नहीं आई है। पूरी पढ़ने के बाद ही समझा जा सकता है कि
लोगों के उत्साह को कम करने का काम आखिर किसने किया? पाकिस्तान
के खिलाफ युद्ध न करने का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का था,
जिनका रिमोट कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में था। मेनन ने
ही लिखा है कि आखिर भारत ने पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं किया? इसका सीधा सा जवाब है कि सरकार के सर्वोच्च स्थान पर बैठे लोग ने ही यह तय
किया था कि पाकिस्तान पर हमला करने से कितना फायदा है, उससे
अधिक फायदा तो हमला न करने से है। आखिर यह सर्वोच्च किसका हो सकता है, कौन उस पर बैठा है, इसे उस समय के हालात से समझा ही
जा सकता है।
लश्करे तोएबा ने जब 13 दिसम्बर 2001 को देश की संसद पर हमला किया था, तब तत्कालीन
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान पर हमला करने के लिए तैयार हो गए थे।
पर अमेरिकी दबाव के कारण उन्होंने अपना विचार बदल दिया था। आज नरेंद्र मोदी के रूप
में देश का ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो पाकिस्तान के
परमाणु बम से नहीं डरता, न ही अमेरिका के सामने झुकता है।
यही कारण है कि आज पाकिस्तान को नरेंद्र मोदी आंख की किरकिरी लग रहा है। पर सीधे
हमले न कर छद्म हमले कर रहा है। आज वह चारों तरफ से घिर गया है, ऐसे में अब उसका विरोध उसी के देश में हो रहा है। विरोध का यह स्वर लगातार
मुखर हो रहा है। पर 26/11 के वक्त ही पाकिस्तान को करारा
जवाब दे दिया जाता, तो आज हालात यह न होते।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016
कविताएँ - 2 - सरिता शर्मा
कुछ पलों के लिए... कविता का अंश...
कुछ पलों के लिए, आओ मिल जाएँ हम,
खुशबुओं की तरह, बादलों की तरह।
भूल जाएँ चलो मान अभिमान को,
सूफियों की तरह, पागलों
की तरह!
चल पड़ें आज कोलाहलों से परे,
रिक्त कर लें हृदय हलचलों से भरे,
धड़कनों में बुनें राग अनुराग का,
नृत्य करती हुई पायलों
की तरह!
वर्जना के जगत में सहज भूल सा,
प्यार खिलता रहा जंगली फूल सा,
धमनियों में घुला चाहतों का ज़हर,
हम महकने लगे संदलों
की तरह!
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कविताएँ - सरिता शर्मा
मैं पिघलती दर्द की चट्टान हूँ... कविता का अंश...
मैं पिघलती दर्द की चट्टान हूँ।
उड़ रही है रेत जलती,
मन मरुस्थल की धरा है।
पास आकर छू न लेना,
आग से अन्तर भरा है।
मैं अषाढ़ी मेघ की,
बरसात से अन्जान हूँ।
दायरा छोटा रहा,
अकुला उठीं साँसें घुटन में।
क्या कहूँ इस पीर ने,
इतने पसारे पांव मन में।
मैं व्यथा का आसरा हूँ,
पीर का ईमान हूँ।
जूझता जीवन रहा है,
मैं विरोधों में पली हूँ।
दूर करने को अँधेरे,
उम्र भर मैं तो जली हूँ।
रात का अन्तिम प्रहर हूँ,
भोर पर कुर्बान हूँ।
थी कभी सपना किसी के ,
झील से गहरे नयन का।
टूट कर गिर जाऊंगी,
जैसे कोई तारा गगन का ।
मैं किसी की ज़िन्दगी का,
आख़िरी अरमान हूँ।
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बुधवार, 23 नवंबर 2016
कविताएँ - डाँ. मधु प्रधान
आओ बैठें नदी किनारे... कविता का अंश...
आओ बैठें नदी किनारे,
गीत पुराने फिर दोहराएँ।
कैसे किरनों ने पर खोले,
कैसे सूरज तपा गगन में,
कैसे बादल ने छाया दी,
कैसे सपने जगे नयन में,
सुधियाँ उन स्वर्णिम दिवसों की,
मन के सोये तार जगाएँ।
जल में झुके सूर्य की आभा,
और सलोने चाँद का खिलना,
सिन्दूरी बादल के रथ का,
लहरों पर इठला कर चलना,
बिम्ब पकड़ने दौड़ें लहरें,
खुद में उलझ उलझ रह जाएँ ।
श्वेत पांखियों की कतार ने,
नभ में वन्दनवार सजाये,
प्रकृति नटी के इन्द्रजाल में,
ये मन ठगा-ठगा रह जाये,
धीरे-धीरे संध्या उतरी,
लेकर अनगिन परी कथाएँ।
आओ बैठे नदी किनारे...
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कविताएँ - आभा सक्सेना
आसमान में अंकित सूरज... कविता का अंश...
आसमान में अंकित सूरज,
मेरा तुमको आमंत्रण है।
राज करो आकर धरती पर,
बदली में कैसा
विचरण है?
हुए कई दिन पास न आए,
ऐसी भी है क्या मजबूरी?
ठिठुर रहे हैं बच्चे-बूढ़े,
प्रश्न यहाँ पर,
जन्म-मरन है।
देखो कितनी किरनें फूटीं,
कितनी ही आशायें रूठीं,
आ जाओ अब मेरे प्यारे,
कितने मैंने किए
जतन हैं।
रूठ गये हैं अलाव यहाँ पर,
ठंडी पड़ गयी चिंगारी भी।
हुए बहुत मायूस ये पंछी,
लौट चले वह अपने,,
वतन हैं।
आसमान में अंकित सूरज,
मेरा तुमको आमंत्रण है।
राज करो आकर धरती पर,
बदली में कैसा
विचरण है?
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कविताएँ - डाँ. सरस्वती माथुर
गुलाबी, अल्हड़ बचपन... कविता का अंश...
मैंने बचपन के सामान को,
अपनी स्मृति के कोटर में डाल दिया है।
ताला लगा कर समय का,
चाबी को सँभाल लिया है ।
बचपन के घर आँगन की,
हवाओं में बिखरी किलकारियों,
गुलाबी रिश्तों की बिखरी बातों,
दीवारों पर टँगी,
बुज़ुर्गों की,
तस्वीरों को ,
सतरंगी बीते दिनों को,
बिखरी यादों के मौसम को,
बचपन की धुरी के चारों ओर,
चक्कर काटते माँ बाबूजी,
भाई भावज और उपहार से मिले,
अल्हड मीठे दिनों को,
अमूल्य पुस्तक-सा सहेज लिया है।
और संचित कर जीवन कोश में,
इंद्रधनुषी सतरंगी चूनर में,
बाँध दिया है।
अब यह पोटली मेरी धरोहर है,
जिसे मैं किसी से बाँट नही सकती।
कभी भी बचपन की चीज़ों को,
कबाड़ की चीज़ों की तरह,
छाँट नहीं सकती, क्योंकि
यह पूँजी है,
मैरे विश्वास की,
कृति है श्रम की,
जहाँ सें मैं,
आरंभ कर सकती हूँ,
यात्रा मन की,
गुलाबी बचपन की।
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कविता,
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कविताएँ - कृष्णकुमार तिवारी किशन
कविता का अंश...
बूढी माँ का मन
अनमन है ।
उमर घटी है, समय नटी है,
अब करतब दिखलाए।
दो बेटों के बीच ठनी है, वो
किसको समझाए ?
आज स्वयं से ही,
अनबन है ।
व्याकुल चित्त हुआ बूढी माँ का,
घडी-घडी घबराए।
दोनों ही अपनी ऊँगली है,
कितना किसे दबाए ?
हृदय में बढती,
धड़कन है।
शांत हो गयी लहरें बँटकर,
माँ मझधार पड़ी।
अपने ही घर के कोने में सहमी-
सी रही खड़ी।
पल पल तड़पन ही
तड़पन है ।
खांसी आती ताने लेकर,
आफत नई -नई।
आज बड़े कल छोटे का दिन,
माँ है बँटी हुई।
टुकड़ों पर पलता
जीवन है।
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संपर्क - kktiwari.70@rediffmail.com
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मंगलवार, 22 नवंबर 2016
कविता - अंतरमन का अवलोकन- निसर्ग भट्ट
कविता का अंश...
उन खोखले वादों की कटारों से,
हम हर रोज़ कटते रहते हैं,
उन भयंकर भ्रम जालों से,
बहार निकल नहीं पाते हैं ।
उस अदृश्य आशा की तलाश में,
हर रोज़ भटकते रहते हैं,
हर शाम खुद से ही हार कर,
फिर मायूस हो जाते हैं ।
उन अविरत आडंबरों से,
हम इतने कायर बन चुके हैं,
अपनी ही सच्चाई के सुरों को,
हम सुन नहीं पाते हैं ।
अपने ही झूठ के जंगलों में,
अक्सर हम खों जाते है,
अपमानों के आँसुओं को,
घूँट घूँट कर हम पी जाते हैं ।
कभी दोस्ती के दलदल में,
तो कभी प्रेम के मृगजाल में,
हर बार हम फँस जाते हैं,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उस दर्द ए दरिया में,
हर बार हम डूब जाते हैं ।
आकर्षणों की आँधी में,
हर बार हम बह जाते हैं,
औकात से आगे सोचने की गलती,
अक्सर हम कर जाते हैं ।
घनघोर निराशा की नाव में,
हम अक्सर हिंचकोले खाते हैं,
उन अनगिनत ठोकरों के बाद,
अब दर्द को भी महसूस नहीं कर पाते हैं ।
हर दिन पैसे की अंधी प्यास में,
खुद को ही बेचते रहते हैं,
अब तो खुद ही बोली लगाकर,
खुद को ही खरीदते रहते हैं।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
E-mail - nisarg1356@gmail.com
दूरभाष - 8460284736
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रविवार, 20 नवंबर 2016
जेल में होंगे बेनाम सम्पत्ति वाले
18 नवम्बर को सन स्टार दिल्ली में प्रकाशित आलेख
http://www.dailysunstar.com/hin/epaper/index.php?city=Delhi&date=18/11/16&page=10
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आज का सच

शनिवार, 19 नवंबर 2016
कविता - 3 - उपकार - कुमार अंबुज
कविता का अंश...
मुसकराकर मिलता है एक अजनबी,
हवा चलती है उमस की छाती चीरती हुई,
एक रुपये में जूते चमका जाता है एक छोटा सा बच्चा,
रिक्शेवाला चढ़ाई पर भी नहीं उतरने देता रिक्शे से,
एक स्त्री अपनी गोद में रखने देती है उदास और थका हुआ सिर,
फकीर गाता है सुबह का राग और भिक्षा नहीं देने पर भी गाता रहता है।
अकेली भीगी कपास की तरह की रात में,
एक अदृश्य पतवार डूबने नहीं देती जवानी में ही जर्जर हो गए हृदय को,
देर रात तक मेरे साथ जागता रहता है एक अनजान पक्षी,
बीमार सा देखकर अपनी बर्थ पर सुला लेता है सहयात्री,
भूखा जानकर कोई खिला देता है अपने हिस्से का खाना,
और कहता है वह खा चुका है।
जब धमका रहा होता है चैराहे पर पुलिसवाला,
एक न जाने कौन आदमी आता है कहता है,
इन्हें कुछ न कहें ये ठीक आदमी हैं,
बहुत तेजी से आ रही कार से बचाते हुए,
एक तरफ खींच लेता है कोई राहगीर,
जिससे कभी बहुत नाराज हुआ था वह मित्र,
यकायक चला आता है घर,
सड़क पर फिसलने के बाद सब हँसते हैं नहीं हँसती एक बच्ची।
जब सूख रहा होता है निर्जर झरना,
सारे समुद्रों, नदियों, तालाबों, झीलों और जलप्रपातों के,
जल को छूता हुआ आता है कोई कहता है मुझे छुओ,
बुखार के अँधेरे दर्रे में मोमबत्ती जलाये मिलती है बचपन की दोस्त।
एक खटका होता है और जगा देता है ठीक उसी वक्त,
जब दबोच रहा होता है नींद में कोई अपना ही,
रुलाई जब कंठ से फूटने को ही होती है,
अंतर के सुदूर कोने से आती है ढाढ़स देती हुई एक आवाज,
और सोख लेती है कातर कर देनेवाली भर्राहट,
इस जीवन में जीवन की ओर वापस लौटने के,
इतने दृश्य हैं चमकदार,
कि उनकी स्मृति भी देती है एक नया जीवन।
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कविता - 2 - क्रूरता - कुमार अंबुज
कविता का अंश...
धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा,
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी,
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा,
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा,
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग,
पराजित न होने के लिए नहीं,
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे,
तब आएगी क्रूरता।
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी,
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में,
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में,
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी,
निरर्थक हो जाएगा विलाप,
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू,
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा,
तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को,
फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी,
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी,
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे,
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता,
और सभी में गौरव भाव होगा,
वह संस्कृति की तरह आएगी,
उसका कोई विरोधी न होगा,
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य,
और अधिक ऐतिहासिक हो,
वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी,
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा,
हमारा सारा श्रृंगार,
यही ज्यादा संभव है कि वह आए,
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना।
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दिव्य दृष्टि

कविता - 1 - खाना बनाती स्त्रियाँ - कुमार अंबुज
कविता का अंश...
जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया।
फिर हिरणी होकर,
फिर फूलों की डाली होकर,
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ,
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप,
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा,
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले,
भीतर की कलियों का रस मिलाया,
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज।
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया।
और डायन कहा तब भी,
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर उन्होंने खाना बनाया।
फिर बच्चे को गोद में लेकर,
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया।
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना।
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया।
फिर बेडौल होकर।
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया।
सितारों को छूकर आईं तब भी।
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया।
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से,
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में,
बाहर के तूफान में,
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया।
फिर वात्सल्य में भरकर,
उन्होंने उमगकर खाना बनाया।
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया।
बीस आदमियों का खाना बनवाया।
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण,
पेश करते हुए खाना बनवाया।
कई बार आँखें दिखाकर,
कई बार लात लगाकर,
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर,
आप चीखे - उफ इतना नमक!!!
और भूल गए उन आँसुओं को,
जो जमीन पर गिरने से पहले,
गिरते रहे तश्तरियों में कटोरियों में।
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया,
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए,
खा लिया गया था खाना,
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली।
उस अतिथि का शुक्रिया,
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया।
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही,
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की।
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं,
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया,
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी।
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी,
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ,
उनके गले से, पीठ से,
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना।
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक,
और वे कह रही हैं यह रोटी लो,
यह गरम है।
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा।
फिर दोपहर की नींद में,
फिर रात की नींद में,
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया।
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून,
झुकने लगी है रीढ़,
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया।
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है,
पिछले कई दिनों से उन्होंने,
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है।
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

कहानी - मिठाईवाला - भगवतीप्रसाद वाजपेयी
कहानी का अंश...
बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।"
इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।
बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते - "इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।" सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गली भर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता, और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।
राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए! वे दो बच्चे थे - चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया, तो बोला - "मेला घोला कैछा छुन्दल ऐ?"
मुन्नू बोला - "औल देखो, मेला कैछा छुन्दल ऐ?"
दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घर भर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अन्त में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा - "अरे ओ चुन्नू - मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए है?"
मुन्नू बोला - "दो पैछे में! खिलौनेवाला दे गया ऐ।"
रोहिणी सोचने लगी - इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!
एक जरा-सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती।
छह महीने बाद।
नगर भर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे - "भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है सो भी दो-दो पैसे भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा। मेहनत भी तो न आती होगी!"
एक व्यक्ति ने पूछ लिया - "कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नही देखा!"
उत्तर मिला - "उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफा बाँधता है।"
"वही तो नहीं, जो पहले खिलौने बेचा करता था?"
"क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?'
"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"
"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।"
प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता - "बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला।"
रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरन्त ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन ही मन कहा - "खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।"
रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई - "जरा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए है।"
विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाजे पर आकर मुरलीवाले से बोले - "क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"
किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते-हाँफते हुए बच्चों का झुण्ड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे - "अम बी लेंदे मुल्ली, और अम बी लेंदे मुल्ली।"
मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला - "देंगे भैया! लेकिन जरा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए ही हैं, और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।... हाँ, बाबूजी, क्या पूछा था आपने कितने में दीं!... दी तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से है, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।" विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुस्करा दिए। मन ही मन कहने लगे - कैसा है। देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले - "तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"
मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला - "आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं - दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबूजी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरलियाँ नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हजार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं।"
विजय बाबू बोले - "अच्छा, मुझे ज्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"
दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुण्ड में मुरलियाँ बेचता रहा। उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसन्द करते, मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।
"यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैए, तुमको वही देंगे। ये लो।... तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा वही लो।.... ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब?....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।"
इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से सुनिए....
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कहानी,
दिव्य दृष्टि

हम पंछी उन्मुक्त गगन के - शिवमंगल सिंह सुमन
कविता का अंश...
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

कविता - हरिशंकर परसाई
कविता का अंश...
जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा।
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा।
औरों के स्वर में स्वर भर कर,
अब तक गाया तो क्या गाया?
सब लुटा विश्व को रंक हुआ,
रीता तब मेरा अंक हुआ।
दाता से फिर याचक बनकर,
कण-कण पाया तो क्या पाया?
जिस ओर उठी अंगुली जग की,
उस ओर मुड़ी गति भी पग की।
जग के अंचल से बंधा हुआ,
खिंचता आया तो क्या आया?
जो वर्तमान ने उगल दिया,
उसको भविष्य ने निगल लिया।
है ज्ञान, सत्य ही श्रेष्ठ किंतु
जूठन खाया तो क्या खाया?
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कविता,
दिव्य दृष्टि

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016
बाल कविताएँ - हरीश परमार
बाल कविताएँ – हरीश परमार
मेरी प्यारी गुडिया… कविता का अंश….
ठुमक-ठुमक कर आँगन में,
चल रही है मेरी बिटिया।
रूनझुन-रूनझुन बाजत है,
उसके पैरों की पायलिया।
एक कदम फिर दो कदम,
धीरे-धीरे आगे बढ़ती,।
अब गिरी कि तब गिरी,
लेकिन सँभल-सँभल जाती।
हाथ उठाकर दूर भगाए,
जब आँगन में उतरे चिडिया।
कभी मम्मी, कभी पापा के,
पीछे-पीछे चलती है।
थक जाती पर नहीं बैठती,
हर दम चलना चाहती है।
सबके मन को भली लगे,
उसकी तुतली-तुतली बतियाँ।
मेरा तो है एक ही सपना,
बड़ी हो जाए मेरी बिटिया।
पढ़े-लिखे और नाम कमाए,
देश का गौरव बन जाए,
मेरी प्यारी-प्यारी बिटिया।
ऐसी ही अन्य मनभावन बालकविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविताएँ

बाल कविताएँ - हरीश परमार
एक सुबह…. कविता का अंश…
पहाड़ों के पीछे से एक बालक,
लाल रंग उड़ाता लाया।
काली चादर लपेट कर,
उजली चादर बिछा गया।
सुबह-सुबह मन कहे,
मीठी-मीठी धूप लगे।
चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके,
जाने क्या-क्या बात कहे।
शीतल-शीतल चली हवा,
मन पावन होने लगा।
सुमन सारे लगे महकने,
मन भावन होने लगा।
सूरज के उगते ही देखो,
माँ की ममता जागी।
बछिया को दूध पिलाने,
गाय भी रँभाने लगी।
पूजा की थाली लेकर,
माँ मंदिर जाने लगी।
राम-नाम गुनगुना रही,
मेरे मन की गली-गली।
डाली झूमे धीमे-धीमे,
मंद-मंद फूल मुस्काए।
रंगबिरंगी तितली आई,
काला भौंरा गुनगुनाए।
नई सुबह, नई उमंग,
पंछियों ने खोले पर।
दाना चुगने, तिनका चुनने,
पंछियों ने छोड़ा घर।
ऐसी ही अन्य मनभावन कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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बाल कविताएँ

बुधवार, 16 नवंबर 2016
कहानी - राजा बेटा - भारती परिमल
कहानी का अंश...
चारू चंद्र की चंचल किरणें खेल रही है जल-थल में… मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए मैं चाँद की सुंदरता निहारने छत पर पहुँची। यह मेरा रोज का क्रम था। भोजन करने के बाद कुछ देर छत पर टहलना। आज वैसे भी काफी देर हो गई थी। टहलते हुए मैंने एक युवक को स्ट्रीट लाइट की रोशनी में तल्लीनता से पढ़ते हुए देखा। इस युवक को आज मैं पहली बार नहीं, कई बार देख चुकी हूँ। रात को जब ट्रेफिक कम हो जाता है, तो अकसर वह चौराहे पर बने चबूतरे पर बैठकर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ता हुआ दिख ही जाता है।
आज मन में जाने क्या हुआ कि मैँ सीढ़याँ उतरकर उसके पास पहुँच गई। अपनेपन के साथ उससे यहाँ बैठकर पढ़ने का कारण पूछा। करीब दस मिनट की हमारी बातचीत में यह बातें सामने आईं – मेहुल इंजीनियरिंग कॉलेज का थर्ड ईयर का स्टुडेन्ट है। घर में वह और उसकी माँ दोनों ही हैं। पिता की मृत्यु एक साल पहले किसी बीमारी की वजह से हो गई थी। माँ दूसरों के घर खाना बनाकर घर का गुजारा चला रही है और मेहुल अपनी कॉलेज की फीस के लिए सांध्यकालीन अखबार बेचने के साथ-साथ ट्यूशन भी पढ़ाता है। पिछले एक-दो महीने से माँ की तबियत ठीक न होने के कारण घर की आर्थिक स्थिति चरमरा गई है। बिजली बिल न भरने के कारण घर की बिजली कट गई है। इसलिए वह अपनी पढ़ाई स्ट्रीट लाईट की रोशनी में कर रहा है। मुझे उस मेहनती युवक पर गर्व महसूस हुआ और मैं ‘राजा बेटे’ को दुआएँ देती हुई घर आ गई।
सुबह जब मैंने हेमंत और बच्चों को मेहुल के बारे में बताया तो वे लोग भी उसकी प्रशंसा करने लगे। अब तो अकसर रात को टहलते हुए मैं और हेमंत उसे देख ही लेते। वह भी मुझे देखकर नमस्ते की मु्द्रा में सिर हिला देता। एक दिन हेमंत ने कहा – चलो, नीचे चलकर उसे एक बॉटल पानी देकर आते हैं, पता नहीं कब से बैठा पढ़ रहा है और कब तक पढेगा? मैं उनसे एक कदम और आगे!!! पानी के साथ ही थोड़ा-सा नमकीन भी रख लिया। हेमंत मेरी सदाशयता पर मुस्करा उठे। मेहुल हमारी इस आत्मीयता से बड़ा खुश हुआ। थोड़ा-सा झेंपते हुए उसने यह चीजें स्वीकार कर ली। उसने बताया कि अभी उसके सेमेस्टर चल रहे हैं, इसलिए करीब एक-दो तो बज ही जाते हैं। उसका घर पास में ही है। अब उसकी माँ की तबियत पहले से अच्छी है और उन्होंने काम पर जाना शुरू कर दिया है। बस, एक महीने बाद वे लोग बिजली बिल भर देंगे और घर में फिर से बिजली आ जाएगी। मैंने बातों ही बातों में कहा कि किसी से पैसे उधार क्यों नहीं ले लेते हो? हेमंत ने भी पूछा - कितने रूपए भरने हैं? क्या हम कुछ मदद करें?
मेहुल स्पष्ट स्वर में बोला – नहीं, शुक्रिया। मेरे पिताजी ने मुझे एक चीज बहुत अच्छी सिखाई है, भले ही दो कौर कम खाओ, मगर किसी से उधार मत लो। मैं और माँ इसीलिए किसी से उधार लेना नहीं चाहते हैं। बस एक महीने की ही तो बात है। हम उसे गुडनाईट कहते हुए घर आ गए।
एक बार देर रात को हम एक पार्टी से लौट रहे थे। रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे। सुनसान रास्तों पर भय भी लग रहा था। तभी एक दो बाइक्स हमारे बिलकुल करीब से तेजी से निकली। वे नवयुवक इतनी स्पीड में चला रहे थे, कि हमसे टकराते हुए बचे। उन युवकों को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे उसी स्पीड से बाइक्स पर करतब करते हुए गुजर गए। हेमंत और मुझे गुस्सा तो बहुत आया मगर आज की पीढ़ी को क्या कहा जा सकता है? जब भीड़ में ही वे तेजी से चलाते हैं तो यह तो सुनसान सड़क थी। उन्हें मनमानी करने से भला कौन रोक सकता है?
हम घर के करीब पहुँचे, तो एकदम से मेहुल का खयाल आया। आज चौराहा सुनसान था। मेहुल घर चला गया होगा। हो सकता है, उसके सेमेस्टर खत्म हो गए हों। तभी चौराहे से थोड़ा आगे किनारे की तरफ एक युवक को बेसुध हालत में देखा। कहीं यह मेहुल तो नहीं? कहीं उसने पीकर तो नहीं रखी? उसे देखकर तो ऐसा नहीं लगता!!! लेकिन आज के युवकों का कोई भरोसा भी तो नहीं! हेमंत ने जाने क्या सोचकर कार रोकी और उसे करीब से देखने के लिए आगे बढ़े। जब चेहरा पलटकर देखा तो हम अवाक रह गए!!! वो मेहुल ही था। उसके सिर से खून बह रहा था और वह कराह रहा था। हे ईश्वर!!! किसी ने उसे जोरदार टक्कर मारी थी। फिर तो हमने जल्दी से उसे कार की पिछली सीट पर लेटाया और पास के ही हॉस्पिटल ले गए। घर पर फोन करके बच्चों को घटना की जानकारी दी और हम वहीं रूक गए। पेपर्स की औपचारिकता पूर्ण करने के बाद डॉक्टर्स उसे ऑपरेशन थियेटर में ले गए थे। चार-पाँच घंटे बाद जब दरवाजा खुला तो उन्होंने मेहुल को खतरे से बाहर बताया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि हमें उसका एक पैर काटना पड़ा। हमारे पास और कोई चारा ही नहीं था। हम दोनों हैरान थे। हमें तो लगा था कि केवल सिर पर ही चोट आई है। पैर की तरफ तो ध्यान ही नहीं दिया था। बस उसे हॉस्पिटल ले जाने की जल्दी थी।
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मंगलवार, 15 नवंबर 2016
लेख - भारत की महान नारी - गार्गी
लेख का अंश...
गर्गवंश में वचक्नु नामक महर्षि थे जिनकी पुत्री का नाम वाचकन्वी गार्गी था। बृहदारण्यक उपनिषद् में इनका ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ बडा ही सुन्दर शास्त्रार्थ आता है।
एक बार महाराज जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा लेने के लिए एक सभा का आयोजन किया। राजा जनक ने सभा को संबोधित करके कहा: "हे महाज्ञानीयों, यह मेरा सौभाग्य है कि आप सब आज यहाँ पधारे हैं। मैंने यहाँ पर १००० गायों को रखा है जिन पर सोने की मुहरें जडित है। आप में से जो श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हो वह इन सब गायों को ले जा सकता है।" निर्णय लेना अति दुविधाजनक था, क्योंकि अगर कोई ज्ञानी अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी माने तो वह ज्ञानी कैसे कहलाये?
तब ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्यों से कहा: "हे शिष्यों! इन गायों को हमारे आश्रम की और हाँक ले चलो।" इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का यथाविधि उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी उपस्थित थी।
याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने के लिए गार्गी उठीं और पूछा "हे ऋषिवर! क्या आप अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी मानते हैं?"
याज्ञवल्क्य बोले, "माँ! मैं स्वयं को ज्ञानी नही मानता परन्तु इन गायों को देख मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है।" गार्गी ने कहा "आप को मोह हुआ, यह इनाम प्राप्त करने के लिए योग्य कारण नही है। आप को यह साबित करना होगा कि आप इस इनाम के योग्य हैं। अगर सर्व सम्मति हो तो में आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहूंगी, अगर आप इनके संतोषजनक जवाब प्रदान करें तो आप इस इनाम के अधिकारी होंगे।"
गार्गी का पहला सवाल बहुत ही सरल था। परन्तु उन्होंने अन्तत: याज्ञवल्क्य को ऐसा उलझा दिया कि वे क्रुध्द हो गए। गार्गी ने पूछा था, हे ऋषिवर! जल के बारे में कहा जाता है कि हर पदार्थ इसमें घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है?
अपने समय के उस सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवक्ल्य ने आराम से और ठीक ही कह दिया कि जल अन्तत: वायु में ओतप्रोत हो जाता है। फिर गार्गी ने पूछ लिया कि वायु किसमें जाकर मिल जाती है और याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में। पर गार्गी तो अदम्य थी वह भला कहां रुक सकती थी? वह याज्ञवल्क्य के हर उत्तर को प्रश्न में तब्दील करती गई और इस तरह गंधर्व लोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्र लोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक और ब्रह्म लोक तक जा पहुंची और अन्त में गार्गी ने फिर वही सवाल पूछ लिया कि यह ब्रह्मलोक किसमें जाकर मिल जाता है? इस पर गार्गी को लगभग डांटते हुए याज्ञवक्ल्य ने कहा-’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’ यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा मस्तिष्क ही फट जाए।
गार्गी का सवाल वास्तव में सृष्टि के रहस्य के बारे में था। अगर याज्ञवल्क्य उसे ठीक तरह से समझा देते तो उन्हें इस विदुषी दार्शनिका को डांटना न पड़ता। पर गार्गी चूंकि अच्छी वक्ता थी और अच्छा वक्ता वही होता है जिसे पता होता है कि कब बोलना और कब चुप हो जाना है, तो याज्ञवल्क्य की यह बात सुनकर वह परमहंस चुप हो गई।
पर अपने दूसरे सवाल में गार्गी ने दूसरा कमाल दिखा दिया। उसे अपने प्रतिद्वन्द्वी से यानी याज्ञवल्क्य से दो सवाल पूछने थे तो उसने बड़ी ही शानदार भूमिका बांधी। गार्गी बोली, "ऋषिवर सुनो। जिस प्रकार काशी या विदेह का राजा अपने धनुष पर डोरी चढ़ाकर, एक साथ दो अचूक बाणों को धनुष पर चढ़ाकर अपने दुश्मन पर सन्धान करता है, वैसे ही मैं आपसे दो प्रश्न पूछती हूँ।" यानी गार्गी बड़े ही आक्रामक मूड में थी और उसके सवाल बहुत तीखे थे। आगे क्या हुआ? जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
लेख

लेख- भारतेंदु हरिश्चन्द्र के बारे में...
लेख का अंश...
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद प्रसिद्ध है। भारतेंदु हिन्दी साहित्य में नवयुग के निर्माणकर्ता थे। हिन्दी में उन्होंने जिस साहित्यिक परम्परा की नींव डाली, आज का साहित्यिक भवन उसी पर टिका हुआ है। इन्होंने अपनी प्रतिभा का एक -एक अंश हिन्दी को अर्पित कर दिया। हिन्दी को राजदरबारों से निकालकर इन्होंने जनजीवन के निकट लाने का सराहनीय प्रयास किया। भारतेंदु का जन्म सन १८५० में काशी के एक धनी वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता सेठ गोपालचंद्र 'गिरधरदास' उपनाम से कविता किया करते थे। दुर्भाग्य से बचपन में ही माता पिता के देवासान के कारण भारतेंदु जी को व्वास्थित रूप से पढने -लिखने का अवसर नही मिल सका । किंतु उन्होंने अपने स्वाध्याय से हिन्दी,उर्दू,मराठी ,गुजराती,बंगला ,अंग्रेजी तथा संस्कृत आदि भाषाओँ का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
१८ बर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्र निकाला ,जिसमे तत्कालीन अच्छे विद्वानों के लेख निकलते थे। आपने कई स्कूल ,क्लब ,पुस्तकालय तथा नाट्यशालाओं आदि की स्थापना की और अपना बहुत सा धन व्यय करके उसे चलाते रहे । धन को इस प्रकार पानी की तरह बहाने से जीवन के अन्तिम समय इन्हे बहुत कष्ट उठाना पड़ा। अंत में क्षय रोग से ग्रस्त होने के कारण ३५ बर्ष की अल्पायु में ही सन १८८५ में इनका देहांत हो गया।
भारतेंदु ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। जीवन के मात्र ३५ बर्षो में आपने लगभग १५० से अधिक ग्रंथो की रचना की । भारतेंदु जी सबसे बड़ी विशेषता यह थी की ये एक साथ कवि,नाटक कार ,पत्रकार एवं निबंधकार थे। हिन्दी के अनेक नवीन विधाओं के जन्मदाता के रूप में आप प्रसिद्ध है। कविता ,नाटक और निबंध के द्वारा इन्होने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की ,साथ ही साथ अनेक कविओं और लेखकों को आर्थिक सहायता देते रहकर इन्होने हिन्दी साहित्य के विभिन्न अंगों का विकास किया। आर्थिक क्षति उठाते हुए इन्होने अनेक पत्रिकाएं निकाली और हर्प्रकार से हिन्दी को समृद्ध करने का प्रयत्न किया। उनकी इसी सेवा के प्रभावित होकर हिन्दी जगत ने उन्हें भारतेंदु की उपाधि से विभूषित किया और उनके नाम से उनका युग चला । भारतेंदु के साहित्य में देश प्रेम,सामाजिक दुरवस्था और कुप्रथाओं का विरोध ,धार्मिक रूढियों और अंधविश्वासों का खंडन ,स्त्री-शिक्षा और स्वतंत्रता आदि सामाजिक विषयों का समावेश हिन्दी साहित्य में पहली बार हुआ । आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भारतेंदु के विषय में लिखा है - 'अपनी सर्वतोमुखीप्रतिभा के बल से एक ओर वे पद्माकर और द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे,दूसरी ओर से बंगदेश के माईकेलऔर हेमचन्द्र के श्रेणी में। एक ओर तो राधा -कृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नई भक्तमाल गूंथते दिखायी देते थे दूसरीओर मंदिरों में अधिकारियों और टिकाधारी भक्तों के चरित्र की हँसी उडाते और स्त्री शिक्षा ,समाज सुधार आदि परव्याख्यान देते पाये जाते थे । प्राचीन और नवीन का यही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु काल की कला का विशेष माधुर्य है।प्राचीन और नवीन के उस संधि काल में जैसी शीतल छाया का संचार अपेक्षित था,वैसी ही शीतल कला के साथ भारतेंदुका उदय हुआ ,इसमे संदेह नही।'
भारतेंदु जी के बारे में और जानकारी प्राप्त करने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए...
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लेख

कहानी - वीर बालक ध्रुव
कहानी का अंश...
राजा उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्याएं थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीतिसे ध्रुव तथा सुरुचिसे उत्तम नामक पुत्र हुए । यद्यपि सुनीति बडी रानी थी किंतु राजा उत्तानपादका प्रेम सुरुचिके प्रति अधिक था । एक बार राजा उत्तानपाद ध्रुवको गोद में लिए बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहां आई । अपने सौतके पुत्र ध्रुवको राजाकी गोदमें बैठे देख कर वह ईष्र्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुवको राजाकी गोदसे खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोदमें बिठाते हुए कहा, 'रे मूर्ख! राजाकी गोदमें वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोखसे उत्पन्न हुआ है । तू मेरी कोखसे उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारणसे तुझे इनकी गोदमें तथा राजसिंहासनपर बैठनेका अधिकार नहीं है । यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करनेकी है तो भगवान नारायणका भजन कर । उनकी कृपासे जब तू मेरे गर्भसे उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा ।
पाँच वर्षके बालक ध्रुवको अपनी सौतेली माताके इस व्यवहारपर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था? इसलिए वह अपनी मां सुनीतिके पास जाकर रोने लगा । सारी बातें जाननेके पश्चात् सुनीति ने कहा, ‘संपूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखोंको देनेवाले भगवान नारायणके अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करनेवाला और कोई नहीं है । तू केवल उनकी भक्ति कर ।' आगे क्या हुआ? जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए....
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कविता - ख़याल - भारती परिमल
कविता का अंश...
शाम तन्हाई में,
यूँ ही खयाल आया…
दिन-रात के पुल पर,
जिंदगी चलती है या
जिंदगी के पुल पर,
दिन-रात चलते है?
सुख-दुख के पहियों पर,
जिंदगी घूमती है या
जिंदगी के पहियों पर,
सुख-दुख घूमते हैं?
आशा-निराशा के झूले पर,
जिंदगी झूलती है या
जिंदगी के झूले पर,
आशा-निराशा झूलते हैँ?
यादों-वादों के जंगल में,
जिंदगी उलझी है या
जिंदगी के जंगल में
यादें-वादें उलझे हैं?
मिलन-जुदाई के दो तट पर,
जिंदगी खड़ी है या
जिंदगी के तट पर,
मिलन-जुदाई खड़े हैं?
ऐसे ही खयालों की
ज़मीन पर टहलते-टहलते,
रात गहरा गई,
चाँदनी बिखर गई।
किसी ने झटका लटों को,
और कहा – खयालों को भी,
यूँ ही झटक लो।
देखा, तो
जिंदगी थी…
मुस्करा रही थी…
और कह रही थी…
न सोचो मेरे बारे में,
न उलझों मुझ में,
बस मेरे साथ-साथ चलते चलो,
तुम हो तो मैं हूँ,
मैं हूँ तो तुम हो।
एक-दूजे का हाथ थामे,
हमें चलना है,
आगे बढ़ते जाना है।
और मैं
चल पड़ी…
चलती रही…
चलती रहूँगी…. चलती रहूँगी….।
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सोमवार, 14 नवंबर 2016
बाल कहानी - शेर और किशमिश
कहानी का अंश...
एक खूबसूरत गांव था। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा हुआ। पहाड़ी के पीछे एक शेर रहता था। जब भी वह ऊंचाई पर चढ़कर गरजता था तो गांव वाले डर के मारे कांपने लगते थे।
कड़ाके की ठंड का समय था। सारी दुनिया बर्फ से ढंकी हुई थी। शेर बहुत भूखा था। उसने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था। शिकार के लिए वह नीचे उतरा और गांव में घुस गया।
वह शिकार की ताक में घूम रहा था। दूर से उसे एक झोपड़ी दिखाई दी। खिड़की में से टिमटिमाते दिए की रोशनी बाहर आ रही थी। शेर ने सोचा यहां कुछ न कुछ खाने को जरूर मिल जाएगा। वह खिड़की के नीचे बैठ गया। झोपड़ी के अंदर से बच्चे के रोने की आवाज आई। ऊं...आं... ऊं...आं..। वह लगातार रोता जा रहा था। शेर इधर-उधर देखकर मकान में घुसने ही वाला था कि उसे औरत की आवाज आई- 'चुप रहे बेटा। देखो लोमड़ी आ रही है। लेकिन बच्चे पर उसकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। फिर उसने उसे भालू का डर दिखाया, लेकिन बच्चा रोता ही रहा। वह भालू से भी नहीं डरा। अब तो शेर को बड़ी हैरानी हुई कि यह बच्चा तो किसी से भी नहीं डरता। तभी महिला ने कहा कि वो देखो शेर आ रहा है। वह खिड़की के पास बैठा हुआ है। शेर को ताज्जुब हुआ कि उसे कैसे पता चला कि मैं यहाँ पर हूँ? लेकिन बच्चे का रोना तो फिर भी चालू ही था। उसे तो शेर से भी डर नहीं लगा। आखिर ऐसा कैसे हुआ? आगे क्या हुआ? वह शेर क्या सचमुच बच्चे से डर गया? या बच्चा बाद में चुप हो गया? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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बाल कहानी - स्वर्ग के दर्शन
कहानी का अंश...
लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी। एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा।
दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया। उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम- चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- ‘‘बच्चे! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।’’
स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्यकर्मों का रुपया चलता है। अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।
जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला। एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी। अब रोते क्यों हो? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है।
दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे। उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना। मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’
लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया। बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।
मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है। लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।
लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- ‘बाबा! आप क्यों रो रहे है?’
साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था। बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गङ्गा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी।
लक्ष्मी नारायण ने कहा- ‘बाबा! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।’
साधु बोला- ‘तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा।’
लक्ष्मी नारायण ने कहा- ‘मुझे दुःख नहीं होगा बाबा! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया लेलीजिये।’
साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।
जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।
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बाल कहानी - स्वीटी को मिली सीख
स्वीटी को मिली सीख
कहानी का अंश…
एक थी शरारती लड़की। नाम था स्वीटी। उसकी शरारतों से घर के सभी लोग परेशान थे। मम्मी तो सबसे ज्यादा परेशान थी। आखिर छह साल की नन्हीं लड़की सभी की नकल करे और सबका मजाक उड़ाए, तो यह तो वास्तव में परेशानी की ही बात थी। मम्मी ने उसे प्यार से कितनी ही बार समझाया- बेटा, ऐसा नहीं करते। किसी की नकल करना अच्छी बात नहीं होती। लेकिन शरारती स्वीटी अपनी मम्मी की बात एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती। वह हमेशा पापा के पेपर पढ़ने के तरीके, मम्मी की साड़ी पहनने का ढंग, दादाजी के बोलने, दादीजी के पूजा करने और चाचा के उठने-बैठने की नकल उतारती थी और बदले में सभी से डाँट भी खाती थी। स्वीटी को एक दूसरा शौक था- टी.वी. देखना। पापा समझाते हुए कहते – स्वीटी, ज्यादा समय तक टी.वी. नहीं देखते, अधिक पास से टी.वी. नहीं देखते, यह अच्छी बात नहीं है। स्वीटी जवाब देती – लेकिन पापा, कार्टून नेटवर्क तो मेरा सबसे प्यारा शो है। मुझे तो इसे देखना बहुत अच्छा लगता है। आप भी देखिए, आपको भी मजा आएगा। पापा को गुस्सा आ जाता वे कहते – तो फिर पढ़ोगी कब? तुम्हें बाहर खेलने जाना चाहिए। खेलने से शरीर की कसरत होती है। शरीर में स्फूर्ति आती है। दिन भर टी.वी. के सामने बैठे रहने से आँखे और शरीर दोनों ही खराब हो सकते हैं। स्वीटी पर न तो पापा की बातों का असर होता और न ही मम्मी की समझाइश का। बहुत हुआ तो पापा के घर में रहते समय वह होमवर्क कर लेती और फिर जैसे ही पापा घर से बाहर गए कि स्वीटी बैठ जाती टी.वी. के सामने। स्वीटी को घूमना भी अच्छा लगता था। आखिर स्वीटी की इन सभी बातों से घर के लोग परेशान हो गए थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि स्वीटी को सीख मिल गई? वह सुधर गई! यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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बाल कहानी

शनिवार, 12 नवंबर 2016
कविता - औरतें अजीब होतीं हैं...
कविता का अंश...
लोग सच कहते हैं - औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं
नींद की स्याही में उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं।
टटोलती रहतीं
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर
पति का मन
और जब जागती सुबह
तो पूरा नहीं जागती।
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं, घर बाहर...
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशायें
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं ।
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...
कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडि़या,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...
सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती ,न ठीक से मरती
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती
कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये, चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन, वो भाभी, वो दीदी...
चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिखही जाती है
काॅरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती
नाखूनों से सूखा आटा झाडते
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई वो लेडी डाॅक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है...
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फ़जा़एं सचमुच खिलखिलातीं हैं :
तो ये सूखे कपड़ों, अचार ,पापड़
बच्चों और सब दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...
खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है ।
अनगिनत खाईयों पर
अनगिनत पुल पाट देतीं...
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...
जि़न्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या ?
ऐसा कोई करता है क्या ?
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कविता,
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लघुकथा – रंगीन टी.वी. – आशीष त्रिवेदी
रंगीन टी.वी… कहानी का अंश…
बात उन दिनों की है जब हमारे मुल्क में टी.वी. का प्रसारण कुछ ही वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। रंगीन प्रसारण शुरू हुए तो कुछ माह ही हुए थे। तब घर में ब्लैक एंड वाइट टी.वी. होना ही बहुत शान की बात थी। रंगीन टी.वी. तो बिरले घरों में ही था। उन्हीं दिनों में आया था मेरा रंगीन टी.वी.।
मेरे पिता एक सर्राफ की दुकान में एकॉउंटेंट थे। उनकी तनख्वा छोटी थी किन्तु मुझे लेकर उनके सपने बहुत बड़े थे। अतः मेरा दाखिला शहर के महंगे अंग्रेजी स्कूल में कराया था। उस स्कूल में अधिकतर धनाड्य परिवारों के लड़के ही पढ़ते थे। मेरे ग्रेड्स हमेशा ही सबसे अच्छे रहते थे। इसलिए शिक्षकों और सहपाठियों के बीच मैं बहुत लोकप्रिय था। किंतु जब वो अपने घर में खरीदे गए किसी महंगे सामान का ज़िक्र करते तो मैं उनसे कतराता था। क्योंकि मेरे पास उन्हें बताने के लिए कुछ नहीं होता था। उनमें से एक था बृजेश। उसके पिता एक बड़े कारोबारी थे। अक्सर विदेश आते जाते रहते थे। हर बार वहाँ से उसके लिए कोई न कोई महंगा खिलौना ज़रूर लाते थे। बृजेश बहुत शान से उनके बारे में बताता था।
ऐसे ही एक दिन रिसेस में ब्रजेश ने सब को सुनाते हुए कहा " परसों मेरे पापा कलर टी.वी. लेकर आये हैं। " सबने उसकी बात सुनकर ताली बजाई। " तुम सब इस संडे मेरे घर आना हम सब मिलकर फ़िल्म देखेंगे कलर टी.वी. पर। "
बृजेश का व्यवहार मेरे प्रति कोई ख़ास दोस्ताना नहीं था। किंतु क्योंकि सब जा रहे थे और कुछ मेरा मन भी रंगीन टी.वी. देखने को ललचा रहा था। अतः मैं भी चला गया। बृजेश का बंगला बहुत बड़ा था। हमें एक बड़े से कमरे में ले जाया गया। जहां लकड़ी के बने शोकेस में रंगीन टी.वी. रखा था। कुछ ही समय में फ़िल्म शुरू हुई। रंगीन फ़िल्म देखने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब समाचार के लिए कुछ समय के लिए फ़िल्म को रोका गया तब सभी के लिए नाश्ता आया। गगन जो बृजेश का पक्का चमचा था बोला " कुछ भी हो कलर टी.वी. देखने का मज़ा ही और है। मैं तो डैडी से जाकर ज़िद करूंगा कि वो भी कलर टी.वी. खरीदें। " कई लोगों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। मैं ही चुपचाप शरबत पी रहा था। गगन ने जानबूझ कर मुझे चिढ़ाने के लिए पूछा " क्यों तुम नहीं खरीदोगे कलर टी.वी.। " बृजेश जैसे मौका देख रहा था। फ़ौरन बोला " अरे इसके घर तो ब्लैक एंड वाइट टी.वी. भी नहीं है। ये क्या खरीदेगा। " यह कह कर वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। और कई स्वर भी उसके साथ जुड़ गए। गगन का स्वर सबसे ऊंचा था। यूँ लगा जैसे टी.वी. न होने से मेरा कोई वजूद ही नहीं है। उनकी हंसी नश्तर कि तरह कलेजा चीर गयी। मैं बिना कुछ बोले वहाँ से चला आया।
घर आकर चुपचाप लेट गया। अम्मा ने पूछा तो उन्हें थका हूँ कहकर टाल दिया। खाने के वक़्त भी उन्हें भूख नहीं कहकर टालना चाहा किंतु इस बार पिताजी ने आकर प्यार से पूछा " क्या बात है, बताते क्यूँ नहीं। किसी ने कुछ कहा है। " मैं रोने लगा और सारी बात उन्हें बता दी। मेरी बात सुन कर वह भी उदास हो गए।
एक दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो घर में चहल पहल थी। आस पड़ोस के लोग हमारे यहाँ जमा थे। मेरे पहुंचते ही पिताजी मुझे बैठक में ले गए। जहां मेज़ पर कपडे से ढका रंगीन टी.वी. रखा था। उसे देखते ही मैं ख़ुशी से उछल पड़ा और पिताजी के सीने से लग गया। अगले दिन स्कूल में मैंने बड़े शान से सबको रंगीन टी.वी. देखने के लिए अपने घर बुलाया। खासकर गगन और बृजेश को।
उस वक़्त मैंने ये जानने का प्रयास नहीं किया कि इतना महंगा टी.वी. पिताजी कहाँ से लाये। कई सालों बाद जब मैं बाहरवीं कक्षा में था तो अम्मा ने सारी बात बताई। उस रात पिताजी को नींद नहीं आई। वो सारी रात परेशानी में इधर उधर टहलते रहे। अम्मा ने समझाया " क्यूँ परेशान होते हैं, बच्चा है समझा दीजिये समझ जाएगा। " पिताजी ने गंभीर होकर कहा " जानता हूँ समझदार है, समझ जाएगा। पर उसके दिल में चुभी फाँस नहीं निकलेगी। "
कई दिन ऐसे ही परेशान रहे फिर एक दिन एक निर्णय किया। अपना संदूक खोलकर सोने की कंठ माला निकाली। ये कंठ माला मेरे परदादा को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर उन ज़मींदार साहब ने दी थी जिनके यहाँ वो काम करते थे। मुझे याद है एक बार बचपन में उसे दिखाते हुए वे गर्व से बोले " ये कंठ माला उनकी स्वामिभक्ति और ईमानदारी का प्रतीक है। मेरे लिए एक धरोहर है। " कठिन से कठिन समय में भी उन्होंने उसे नहीं बेचा था।
उसी कंठ माला को बेचकर वो मेरे लिए रंगीन टी.वी. लाये।
उस दिन से वह रंगीन टी.वी. मेरे लिए भी मेरे पिता के प्यार का प्रतीक बन गया। आज भी मेरे बंगले में कीमती सामानों के बीच रखी है वह बेशकीमती धरोहर। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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लघुकथा

कविता - यह धरती कितना देती है - सुमित्रानंदन पंत
कविता का अंश...
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडे बिछाकर।
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
और जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये,
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की ,
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में ,
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा-आँगन के कोने में कई नवागत ,
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे ,
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन,
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे,
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर,
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं,
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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बाल कहानी - मुर्गे का सुरीला गाना - उपासना बेहार
कहानी का अंश...
राधेश्याम किसान गाँव से दूर अपने खेत में घर बना कर रहते थे, उनके पास एक मुर्गा था, कई साल पहले जब मुर्गा छोटा चूजा था, तब राधेश्याम बाबा उसे बाजार से खरीद कर लाये थे, तभी से वह उनके साथ रहता आ रहा था. राधेश्याम मुर्गे को अपने बच्चे जैसा प्यार करते थे और हमेशा उसकी रखवाली करते थे. पास में ही जंगल होने के कारण मुर्गे की सुरक्षा के लिए घर के चारों ओर कँटीले तार से घेरा बना दिया था ताकि कोई भी जानवर अंदर आ कर उसे खा न सके. उस जंगल में एक लोमड़ी रहती थी. एक दिन उसने इस मोटे मुर्गे को देख लिया. उसका जी मुर्गे को खाने को ललचाने लगा लेकिन कँटीले तारों की वजह से वो मुर्गे के पास पहुँच नहीं सकती थी. उसने एक प्लान बनाया, दूसरे दिन सुबह-सुबह जब मुर्गा बाँग देने लगा और जोर-जोर से “कुकड़ू कू” की आवाज निकालने लगा, तभी लोमड़ी वहाँ पहुँची. उसे देख कर मुर्गा डर गया, लोमड़ी ने मीठी आवाज में कहा “दोस्त डरो मत. मैं तुम्हें नहीं खाऊंगी, तुम्हारी आवाज कितनी सुरीली है, मैंने आजतक इतनी मीठी आवाज नहीं सुनी.” यह कह कर लोमड़ी चली गई. रात भर मुर्गा सोचता रहा ‘क्या मेरी आवाज वाकई में सुरीली है?’.
अब लोमड़ी रोज मुर्गे के बाँग देने के समय आती और उसके आवाज की बहुत तारीफ करती. धीरे-धीरे मुर्गे को भी लगने लगा कि उसकी आवाज सुरीली है और वो बहुत अच्छा गाता है. जब लोमड़ी ने देखा कि मुर्गा उसके झाँसे में आ गया है, तब एक दिन उसने कहा “दोस्त मुर्गे क्या तुम पूरी जिन्दगी इसी जगह गुजार दोगे, अपनी मधुर आवाज को दुनिया के सामने नहीं लाओगे. यहाँ तुम्हारी कद्र करने वाला कोई नहीं है, मेरे साथ चलो मैं तुम्हें बड़ा गायक बना दूँगी, खूब पैसे मिलेंगे और तुम मालामाल हो जाओगे.” मुर्गे ने कहा “मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकता. राधेश्याम बाबा ने बताया है कि लोमड़ी हमारी दुश्मन होती हैं. तुम मुझे मार कर खा जाओगे”. लोमड़ी को लगा शिकार हाथ से निकल जाएगा, उसने मुर्गे से प्यार से कहा “दोस्त मैं चाहती तो तुम्हें कब का खा गई होती लेकिन मैं चाहती हूँ कि जैसे तुमने मुझे अपनी आवाज का दीवाना बना दिया है वैसे ही पूरी दुनिया को बना दो”. मुर्गा घमंड से चूर हो गया, उसने कहा “कल सुबह राधेश्याम बाबा शहर जाने वाले हैं, उनके जाने के बाद हम चलेगें.” लोमड़ी खुश हो गई. उसे रात भर नींद नहीं आई, इतना मोटा मुर्गा कल उसे खाने को मिलेगा, ये सोच के ही उसके मुँह में पानी आने लगा. उधर मुर्गे को भी नींद नहीं आ रही थी, वो सोच रहा था कि कल वो दुनिया को अपना गाना सुनाएगा और सब उसके दीवाने हो जाएँगे.
सुबह राधेश्याम बाबा शहर के लिए निकल गए, थोड़ी देर में लोमड़ी मुर्गे को लेने आ गई. मुर्गा लोमड़ी के साथ चल पड़ा. जब वो दोनों बीच जंगल में पहुँचे तो मुर्गे ने कहा “तुम तो मुझे शहर ले जाने वाले थे, वहाँ लोगों को मेरा गाना सुनाना था पर तुम बीच जंगल क्यों ले आई?.” लोमड़ी ने हँसते हुए मुर्गे से कहा “हम शहर नहीं जा रहे हैं. पता है मुर्गे तुम बहुत बेसुरा गाते हो, वो तो मैंने झूठ बोला था ताकि तुम मेरे बहकावे में आ जाओ और उस कटीले तारों से बाहर निकलो, अगर मैं उन मजबूत तारों को पार करती तो मुझे चोट लग जाती जिससे मैं मर जाती. अब मैं तुम्हें मारूंगी और मजे से तुम्हें खाऊंगी.” मुर्गे को अपनी मूर्खता पर बहुत पछतावा हुआ. उसे राधेश्याम बाबा की चेतावनी याद आई. पर मुर्गे ने हार नहीं मानी और सोचा ‘मौत तो सामने है, कम से कम एक बार बचने की कोशिश जरुर करनी चाहिए.’ उसने अपने डर को दूर कर आसपास नजर घुमाई तो देखा कि सामने ही एक बड़ा पेड़ है. उसे पता था कि लोमड़ी पेड़ में चढ़ नहीं पाएगी. मुर्गा तेजी से उड़ कर पेड़ की डंगाल पर चढ़ गया. लोमड़ी को समझ नहीं आया वो क्या करे. लोमड़ी पेड़ के नीचे बैठ गई. देर तक मुर्गे के पेड़ से नीचे उतरने का इंतजार करती रही और थक कर सो गई. मुर्गे को इसी पल का इंतजार था वो धीरे से पेड़ से उतरा और घर की ओर दौड़ लगा दी, सीधे अपने घर आ कर ही दम लिया. मुर्गे ने सोचा अब वो किसी की झूठी बातों में नहीं फँसेगा और राधेश्याम बाबा की बात को ध्यान से सुनेगा. इस बाल कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
ई मेल-upasana2006@gmail.com
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