सोमवार, 6 जून 2016
कहानी - रोशनी बुझे दीये की - भूपेन्द्र कुमार दवे
कहानी का अंश... ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी और मैं अपने डिब्बे की ओर लपका। क्रोध आने पर साँसें उतनी नहीं फूलती, जितनी क्रोध पर काबू पाने के लिये अंतः में उठी बेचैनी से फूलती हैं। मैं धम्म से सीट पर बैठ गया।
‘इतना क्रोध भी अच्छा नहीं होता,’ मेरे बाजू में बैठे हुए व्यक्ति ने कहा। वह शायद उसी जगह मौजूद था जहाँ मैं चीखा था --- ‘अंधी है क्या? दिखता नहीं क्या?’
मैं कुछ कहता, उसके पहले वह कहने लगा, ‘आप उस अपाहिज बच्चे की मदद कर रहे थे। अच्छा काम करते समय तो मन ईश्वर द्वारा संचालित होता है। तब क्रोध तो उठना ही नहीं चाहिये। खैर, अब वह सब भूल जाईये।’
मैंने कहा, ‘मुझे अपने से ज्यादा उस बच्चे की फिक्र थी। दिव्यांग बच्चों के विद्यालय के संचालक की हैसीयत से उनकी सारी जिम्मेदारी मुझ पर ही तो है।
यह सुन उस व्यक्ति ने गहरी साँस लेते हुए कहा, ‘जिम्मेदारियाँ तो जिन्दगी भर एक के बाद एक आती ही जाती हैं। उनका थम जाना जिन्दगी को नीरस बना देता है। परन्तु कुछ जिम्मेदारियाँ बड़ी विचित्र-सी होती हैं --- न तो वह निभायी जाती है और जब तक वह पूरी नहीं होती तो चुभती ही जाती हैं --- जिन्दगी का हर क्षण को भारी बनाती हुई।’
यह बोलते-बोलते वह भावुक हो उठा। फिर अपने को संयत कर आगे कहने लगा, ‘एक ऐसी ही जिम्मेदारी मुझ त्रस्त करे जा रही है। सोचता हूँ कि आप के पास शायद इसका निदान मिल जावे।’ फिर अचानक उसने प्रश्न किया, ‘क्या आप मदद कर सकेंगे?’
‘अवश्य, यदि संभव हो सके तो’, मैंने कहा।
‘आप दिव्यांग संस्था से जुड़े हैं, इसलिये सोचता हूँ कि आप अवश्य कुछ कर सकेंगे। बात यह है कि मेरी पत्नी ने बीस बरस पहले एक बच्ची को जन्म दिया था। परन्तु बच्ची के पाँचवे जन्म दिन के बाद अचानक मेरी पत्नी को लगा कि वह आगे अपनी इस बच्ची को सम्हाल नहीं पावेगी और उसने उसे अनाथालय में देने का मन बना लिया। उस समय मैं भी विदेश गया हुआ था। अतः मैंने सहमती दी और पत्नी ने गोद देने के सहमती-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिये थे।’
अपनी आँखों की नमी को छिपाने के असफल प्रयास करने के बाद उसने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, ‘अभी कुछ समय से पत्नी अपनी इस इकलौती संतान के खो जाने से विचलित हो उठी है। मैं भी हर तरह का प्रयास कर उस बच्ची की खोज नहीं कर पाया हूँ।’
आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें