मंगलवार, 21 जून 2016
कहानी - अपूर्व दिशा - दिव्या माथुर
कहानी का अंश... ‘तुम ठीक कहते हो; आज सुबह उगते हुए सूर्य का वर्णन जिस प्रवरता से तुमने किया, मैं भी नहीं कर सकती थी. जानते हो मणि, मैंने अपनी आँखों पर दुपट्टा बाँध लिया था? मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मैं एक अनोखी दुनिया में थी जो इस प्रत्यक्ष दुनिया से कहीं ज़्यादा बेहतर, कहीं अधिक खूबसूरत थी, स्वपनिल, माँ के आंचल में दुबके बच्चे सी सुरक्षित. सचमुच तुम्हारी आवाज़ में जादू है. एक क्षण तो ऐसा आया कि मैंने दुपट्टा उतार फेंका यह देखने के लिए कि क्या ऊषा सचमुच उतनी ही खूतसूरत थी किंतु लगा कि जैसे मैंने रंगीन चश्मा उतार दिया हो. तुम्हें क्या ऐसी अधीरता होती है कभी, मणि?’ शमा और मणि में कहने-सुनने पर कोई रोक न थी, वे बेझिझक अपनी बात एक दूसरे से कह सुन सकते थे और प्रत्येक शंका का समाधान, चाहे उन्हें फिर बहस में घंटों लग जाए, निकल ही आता था.
‘तुम भूल जाती हो, शम्मी, कि मैंने अपनी आँखों पर पट्टी नहीं बाँध रखी जिसे मैं जब चाहूँ उतार फेकूं.’ मणि शमा के चेहरे को टटोलते हुए बोला, ‘तुम्हें घबराहट इसलिए हुई कि तुम जानती थी तुम पट्टी उतार कर देख सकती हो. कमी तो मुझे तब महसूस हो जब दोनों दृश्य मेरे भोगे हुए हों. रही मेरे वर्णन की सजीवता की बात तो तुमने जो मेरी भाषा में रंग भरे हैं, उनसे तुम स्वयं ही प्रभावित होती रहती हो.’
‘वाह, क्या बात कहीं है जनाब ने, दिल ख़ुश कर दिया. मैं तो क्या, तुम्हारे वे सभी श्रोतागण, जिनमें महिलाओं की संख्या पुरुषों से कहीं अधिक है, हम सभी तुम्हारी बातों के दीवाने हैं. अपनी फ़ैन-मेल का जवाब देने बैठोगे तो नानी याद आ जाएगी.’ ‘नहीं, यह काम बाद में. अब तुम आराम करोगी, समझी? ऐसी हालत में स्त्रियाँ घंटों सोती हैं और एक तुम हो कि बैठने का नाम नहीं लेतीं.’ मणि ने उसे उठने से रोक लिया और उसका सिर अपनी गोदी में रखकर उसके बाल सहलाने लगा किंतु शमा अधिक देर निश्चल रह ही नहीं पाई.
‘इटली से मौसा जी का जवाब आ गया है. तुम्हें याद है न कि पिछले महीने मैंने उनको पत्र लिखा था?’
‘वही जिन्होंने सारे घरवालों की इच्छा के विरूद्ध अन्तर्जातीय और वह भी एक नेत्रहीन प्रोफेसर से विवाह किया था?’
‘हाँ और जानते हो मौसा जी मौसी की तरह ही विलक्षण हैं. फिलासफी में रिसर्च कर रहे हैं; विषय भूल रही हूँ...’
‘शम्मी, तुम्हारे परिवार में क्या अक्षमों को अपनाने की प्रथा चली आ रही है?’
‘अब मैंने इसलिए तो यह बात शुरू नहीं की थी कि...’
आगे की कहानी ऑडियो के माध्यम से जानिए...
लेबल:
कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें