बुधवार, 15 जून 2016

असम का हिंदुत्व अन्य राज्यों के हिंदुत्व से अलग

डॉ. महेश परिमल

देश के पूर्वोत्तर में पहली बार भगवा फहराया है। भाजपा खेमे में खुशियां मनाई जा रही हैं। अब पार्टी को यह नहीं सोचना है कि उनका काम खत्म हो गया। बल्कि उनका काम तो अब शुरू हुआ है। असम में भगवा फहराना बड़ी बात नहीं है, बल्कि भगवा फहरता रहे, यह बड़ी बात होगी। भाजपा की असली चुनौती तो अब शुरू हुई है। यह सोचना भूल होगी कि यहां भी हिंदुत्व का नारा लगातार वैतरणी पार कर ली जाएगी। असम का हिंदुत्व देश के अन्य राज्यों के हिंदुत्व से बिलकुल ही अलग है। इसलिए असम को हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बनानी होगी। यहां भाजपा सोच को एक नई दिशा देनी होगी। जैसे अन्य राज्यों में धर्म के मामले को चतुराई से सुलझा लिया जाता है, वैसा यहां नहीं हो सकता। इसलिए भाजपा ने भले ही असम पर फतह कर ली हो, पर अभी भी कई चुनौतियां इंतजार में हैं।
 यह सच है कि भाजपा ने असम पर विजय हिंदुत्व के बल पर ही पाई है। पर असम का हिंदुत्व भारत के अन्य राज्यों से बिलकुल ही अलग है। गुजरात और राजस्थान में हिंदुत्व का मोटा अर्थ गोहत्या बंद कहा जाता है। बिहार और उत्तरप्रदेश में राम मंदिर के मुद्दे पर हिंदुओं को उत्तेजित किया जा सकता है। असम के हिंदू आज भी भोजन में गोमांस का सेवन करते हैँ। उनके लिए गोमांस का मुद्दा नकारा है। वहां के हिदुओं को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की बात करें, तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। उनके लिए तो वे बंगला देशी ही जीवन-मरण का प्रश्न हैं, जिनके कारण उनका जीना ही मुहाल हो गया है। भाजपा ने वहां के लोगों को यह आश्वासन दिया है कि वह घुसपैठियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी। इन घुसपैठियों के कारण भविष्य में वहां के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो सकते हैं। इस समस्या के हल का वचन भाजपा ने दिया है, इसलिए वह सत्ता पर काबिज हो पाई है। अब यदि भाजपा इस समस्या का हल प्राथमिकता के साथ नहीं करती, तो असमवासियों के पास पछताने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। इसलिए भाजपा यदि अपने वादे पर अमल करती है, तो उसे चुन-चुनकर एक-एक बंगलादेशी को वापस उनके देश भेजना होगा। तभी वह अपने मतदाताओं के विश्वास पर खरी उतरेगी। इन्हीं घुसपैठियों के कारण असम का वातावरण रह-रहकर दूषित हो रहा है। यह अब ओर दूषित न हो, इसके लिए सारे प्रयास भाजपा को ही करने होंगे।
असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल अभी 5 साल पहले तक असम गण परिषद में थे, वे पार्टी छोड़कर भाजपा में आए हैं। वे संघ परिवार की कट्‌टर हिंदू विचारधारा में नहीं पले-बढ़े हैं। पर बंगलादेशी घुसपैठियों को लेकर वे शुरू से ही सख्त हैं। इस विषय पर उनके विचार काफी तीव्र और आक्रामक हैं। 1983 में जब इंदिरा गांधी ने इल्लिगल माइग्रेंट सडिटरमिनेशन बाय ट्रिब्यूनल एक्ट नामक विवादास्पद कानून बनाया था। इसके अनुसार 1951 से लेकर 1971 तक जो भी बंगलादेशी भारत आए हैं, उनके भारत की नागरिकता मिल जाएगी। सर्वानंद जब असम गण परिषद में थे, तब वे उक्त विवादास्पद कानून के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट पहुंच गए। वहां उन्होंने पिटीशन लगाई, अंतत: इस कानून को रद्द करवाने में सफलता पाई। यही कारण है कि असम के लोग उन्हें देवता की तरह पूजते हैं। उन्हें महानायक मानते हैं। भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान यह कहा भी था कि वह यदि सत्ता पर आती है, तो 1951 से लेकर 1971 तक जितने भी बंगलादेशी असम के तमाम स्थानों पर बस गए हैं, उनके दिया जाने वाला मताधिकार रद्द किया जाएगा। अब वही वचन पूरा करने का समय आ गया है।
पिछले दो दशकों में भाजपा ने असम में स्वयं को शक्तिशाली बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। यह नहीं भूलना चाहिए कि वहां संघ परिवार की शाखाएं अभी नहीं, बल्कि 1946 से चल  रही हैं। असम के कोने-कोने में संघ की शाखाएं फैल गई हैं। 1946 के बाद भारत का विभाजन, फिर 1950 में भूकम्प के बाद इसी संघ परिवार ने वहां खूब काम किया। इससे संघ का प्रभाव बढ़ा। संघ परिवार के लिए बंगलादेश से आए घुसपैठिओं का मतलब वहां के मुस्लिमों तक ही था। बंगलादेश से जो हिंदू रोजी-रोटी की तलाश में असम में आते, वे संघ परिवार की नजर में घुसपैठिए नहीं, पर निराश्रित थे। उन्हें आसरा और नौकरी देने के लिए संघ परिवार हमेशा तैयार रहता। असम के लोगों की नजर में वे घुसपैठिए न तो हिंदू थे और न ही मुस्लिम। उनकी नजर में वे लोग बाहर के आदमी थे। पश्चिम बंगाल के शिक्षित हिंदू भी असम आते, तो असम के लोग स्वयं को असुरक्षित समझने लगते। उन्हें यह डर सताने लगता कि अब सरकारी नौकरियों में हमारे लिए अवसर कम हो जाएंगे। हमारा लाभ इन्हें मिलने लगेगा। संघ परिवार ने लगातार परिश्रम कर असम के मूल हिंदुओं को पश्चिम बंगाल और बंगला देश से आने वाले हिंदुओं के लिए सहिष्णुता का वातावरण बनाया था।
2016 के चुनाव में बंगलादेश से आने वाले मुस्लिम आबादी के मामले को मुख्य मुद्दा बनाने में भाजपा को सफलता मिली, इसका कारण बहुत ही सरल था। 1961 में असम की कुल आबादी में हिदुओं का प्रतिशत 69.75 प्रतिशत था और 24.70 प्रतिशत मुस्लिमों का था। 2011 में हिंदू जनसंख्या का प्रतिशत घटकर 61.46 प्रतिशत हो गई और मुस्लिमों का बढ़कर 34.22 प्रतिशत पहुंच गई। इससे असम के मूल निवासियों में यह भय बैठ गया कि अगर सब कुछ ऐसा ही चलता रहा, तो बहुत ही जल्द यहां के हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। संभव है, उन्हें कश्मीरी पंडितों की तरह अपना असम भी छोड़ना पड़े। इस भय का भाजपा ने इस चुनाव में पूरा फायदा उठाया। असम में संघ परिवार का दूसरा बड़ा मिशन वहां ईसाई मिशनरीज द्वारा आदिवासियों का धर्म परिवर्तन से रोकना है। इसके लिए वहां बहुत से अस्पताल और स्कूलें खोली गईं। इससे लोगों में जागरूकता आने लगी। दूसरी ओर वहां के आदिवासियों द्वारा गोमांस के सेवन पर शंकराचार्य ने आदिवासियों को हिंदू मानने से ही इंकार कर दिया। तत्कालीन सरसंघसंचालकन गोलवलकर ने यह दलील दी थी कि आदिवासी अज्ञानतावश ऐसा कर रहे हैं। इस दलील को मान्य रखते हुए द्वारकापीछ के शंकराचार्य असम के आदिवासियों को हिंदू मानने के लिए राजी हो गए।
असम की जो 34 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, उसमें असम के मुस्लिमों के अलावा बंगाल से आने वाले मुस्लिमों का भी समावेश होता है। बदरुद्दीन अजमल जैसे मुस्लिम नेता उन्हें संगठित करने में सफल रहे हैं। भाजपा यदि मुस्लिम आबादी को लेकर कोई भी कदम उठाती है, तो उसका खुलकर विरोध भी होगा, यह तय है। इसलिए भाजपा के लिए असम पहले भी एक पहेली था, अब भी है। इस पहेली को सुलझाना ही होगा, नहीं तो यह जीत अधूरी मानी जाएगी। आखिर कुछ सोच-समझकर मतदाताओं ने अपना कीमत वोट भाजपा को दिया है। इसलिए भाजपा जीत की खुशी न मनाकर आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर ले, तो ही काफी होगा। कसौटी की इस घड़ी में सर्बानंद सोनावाल के लिए भी मुश्किल काम है। पर लोगों का विश्वास हे कि वे इस समस्या को सुलझाने में कामयाब हो जाएंगे।
डॉ. महेश परिमल

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