शुक्रवार, 10 जून 2016

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 24

राजा, मंदिर और पुजारी... लेख के बारे में... हमने पिछले खत में लिखा था कि आदमियों के पाँच दरजे बन गए। सबसे बड़ी जमात मजदूर और किसानों की थी। किसान जमीन जोतते थे और खाने की चीजें पैदा करते थे। अगर किसान या और लोग जमीन न जोतते और खेती न होती तो अनाज पैदा ही न होता, या होता तो बहुत कम। इसलिए किसानों का दरजा बहुत जरूरी था। वे न होते तो सब लोग भूखों मर जाते। मजदूर भी खेतों या शहरों में बहुत फायदे के काम करते थे। लेकिन इन अभागों को इतना जरूरी काम करने और हर एक आदमी के काम आने पर भी मुश्किल से गुजारे भर को मिलता था। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा दूसरों के हाथ पड़ जाता था खासकर राजा और उसके दरजे के दूसरे आदमियों और अमीरों के हाथ। उसकी टोली के दूसरे लोग जिनमें दरबारी भी शामिल थे उन्हें बिल्कुल चूस लेते थे। हम पहले लिख चुके हैं कि राजा और उसके दरबारियों का बहुत दबाव था। शुरू में जब जातियाँ बनीं, तो जमीन किसी एक आदमी की न होती थी, जाति भर की होती थी। लेकिन जब राजा और उसकी टोली के आदमियों की ताकत बढ़ गई तो वे कहने लगे कि जमीन हमारी है। वे जमींदार हो गए और बेचारे किसान जो छाती फाड़ कर खेती-बारी करते थे, एक तरह से महज उनके नौकर हो गए। फल यह हुआ कि किसान खेती करके जो कुछ पैदा करते थे वह बँट जाता था और बड़ा हिस्सा जमींदार के हाथ लगता था। बाज मंदिरों के कब्जे में भी जमीन थी, इसलिए पुजारी भी जमींदार हो गए। मगर ये मंदिर और उनके पुजारी थे कौन। मैं एक खत में लिख चुका हूँ कि शुरू में जंगली आदमियों को ईश्‍वर और मजहब का खयाल इस वजह से पैदा हुआ कि दुनिया की बहुत-सी बातें उनकी समझ में न आती थीं और जिस बात को वे समझ न सकते थे, उससे डरते थे। उन्होंने हर एक चीज को देवता या देवी बना लिया, जैसे नदी, पहाड़, सूरज, पेड़, जानवर और बाज ऐसी चीजें जिन्हें वे देख तो न सकते थे पर कल्पना करते थे, जैसे भूत-प्रेत। वे इन देवताओं से डरते थे, इसलिए उन्हें हमेशा यह खयाल होता था कि वे उन्हें सजा देना चाहते हैं। वे अपने देवताओं को भी अपनी ही तरह क्रोधी और निर्दयी समझते थे और उनका गुस्सा ठंडा करने या उन्हें खुश करने के लिए क़ुरबानियाँ दिया करते थे। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...

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