मंगलवार, 7 जून 2016
पिता के पत्र पुत्री के नाम - 22
भाषा, लिखावट और गिनती... लेख के बारे में... हम तरह-तरह की भाषाओं का पहले ही जिक्र कर चुके हैं और दिखा चुके हैं कि उनका आपस में क्या नाता है। आज हम यह विचार करेंगे कि लोगों ने बोलना क्यों सीखा।
हमें मालूम है कि जानवरों की भी कुछ बोलियाँ होती हैं। लोग कहते हैं कि बंदरों में थोड़ी-सी मामूली चीजों के लिए शब्द या बोलियॉं मौजूद हैं। तुमने बाज जानवरों की अजीब आवाजें भी सुनी होंगी जो वे डर जाने पर और अपने भाई- बंदों को किसी खतरे की खबर देने के लिए मुँह से निकालते हैं। शायद इसी तरह आदमियों में भी भाषा की शुरुआत हुई। शुरू में बहुत सीधी-सादी आवाजें रही होंगी। जब वे किसी चीज को देख कर डर जाते होंगे और दूसरों को उसकी खबर देना चाहते होंगे तो वे खास तरह की आवाज निकालते होंगे। शायद इसके बाद मजदूरों की बोलियॉं शुरू हुईं। जब बहुत-से आदमियों को कोई चीज खींचते या कोई भारी बोझ उठाते नहीं देखा है? ऐसा मालूम होता है कि एक साथ हाँक लगाने से उन्हें कुछ सहारा मिलता है। यही बोलियॉं पहले-पहल आदमी के मुँह से निकली होंगी।
धीरे-धीरे और शब्द बनते गए होंगे जैसे पानी, आग, घोड़ा, भालू। पहले शायद सिर्फ नाम ही थे, क्रियाएँ न थीं। अगर कोई आदमी यह कहना चाहता होगा कि मैंने भालू देखा है तो वह एक शब्द ''भालू'' कहता होगा और बच्चों की तरह भालू की तरफ इशारा करता होगा। उस वक्त लोगों में बहुत कम बातचीत होती होगी। धीरे-धीरे भाषा तरक्की करने लगी। पहले छोटे-छोटे वाक्य पैदा हुए, फिर बड़े-बड़े। किसी जमाने में भी शायद सभी जातियों की एक ही भाषा न थी। लेकिन कोई जमाना ऐसा जरूर था जब बहुत सी तरह-तरह की भाषाएँ न थीं। मैं तुमसे कह चुका हूँ कि तब थोड़ी-सी भाषाएँ थीं। मगर बाद को, उन्हीं में से हर एक की कई-कई शाखाएँ पैदा हो गई।
सभ्यता शुरू होने के जमाने तक, जिसका हम जिक्र कर रहे हैं भाषा ने बहुत तरक्की कर ली थी। बहुत-से गीत बन गए थे और भाट व गवैये उन्हें गाते थे। उस जमाने में न लिखने का बहुत रिवाज था और न बहुत किताबें थीं। इसलिए लोगों को अब से कहीं ज्यादा बातें याद रखनी पड़ती थीं। तुकबंदियों और छंदों को याद रखना जयादा सहल है। यही सबब है कि उन मुल्कों में जहाँ पुराने जमाने में सभ्यता फैली हुई थी, तुकबंदियों और लड़ाई के गीतों का बहुत रिवाज था। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
लेख
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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