शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016
एक फूल खिलना चाहता है - गोविंद कुमार गुंजन
निबंध का अंश...
हवा में कसमसाहट-सी महसूस होती है। भीतर कुछ कसकता है। एक कातरता, एक उद्वेग और क्लांति मन पर छाई हुई है। मैं खिड़की खोलकर देखता हूँ तो उस हवेली के पीछे का उजाड़ हिस्सा नज़रों में छा जाता है। वह हवेली पिछले कई सालों से बंद थी। उसके ऊपरी गुंबदों में कबूतरों ने घर बना लिया था। गाँव से दूर एकाकी इस हवेली के आसपास की खाली जगह में घास-पात ज़रूर उगा हुआ था, पर वक्त के साथ वह सब सूख चुका था। पिछले एक-दो सालों में तो ठीक से बारिश का पानी तक नहीं मिला था, इसलिए और भी अजीब-सी वीरानी छा चुकी थी।
मैंने सुबह इस हवेली को खुलवाया था। एक मज़दूर सफ़ाई के लिए लगाया था। वह सफ़ाई में व्यस्त था, और मैं कुर्सी पर पड़े-पड़े कुछ पढ़ रहा था। सांसों में कुछ कसैली गंध आ रही थी। मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। दोपहर का समय था। मैंने खिड़की खोली तो हवेली के पीछे का उज़ाड़ मैदान नज़र आया। दूर एक पहाड़ी दिखती थी। आसपास कुछ पेड़ थे जिनके पत्तों की चमक खो चुकी थी। मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा था। वातावरण में एक अलग तरह की गंध फैली थी। अचानक मेरी दृष्टि मैदान के एक कोने में गई, वहाँ एक पौधा वातावरण से अनजान हरियाली चादर ओढ़कर मुस्करा रहा था। उसकी शाख पर एक अधखिली कली नींद से अलसाई हुई थी। लगता था यह कली अभी अपना पूरा मुँह खोलकर बगासी लेगी और अपनी आँखें खोल देगी। मैंने देखा उस पौधे की पत्तियाँ उस कली पर अपनी हरी चादर से छाया कर रही थीं। पौधे की शाखाओं में एक चौकस सजगता थी। वहाँ एक फूल का जन्म होने वाला था। एक अतिरिक्त देखभाल में पत्तियाँ सजगता से उस कली को सँभाल रही थीं। मुझे उन पत्तियों में एक तालबद्ध, नादपूर्ण और सराग कर्तव्य निष्ठता निनादित होती लगी। मैं चकित हुआ।
मैंने देखा है किस प्रकार नए बच्चे के जन्म पर चिंतित एक गरीब परिवार में घबराहट व्याप्त रहती है। मैंने बिना स्वागत के जन्म लेते हुए मनुष्य के बच्चों को भी देखा है। कांसे की थाली बजाकर बच्चे के जन्म की खुशी मनाती हुई मानवी खुशी का और खोखली हाड़-मांस की पुतलियों की दुर्दशा होते हुए भी देखा है। ऐसे में बच्चे का जन्म किसी खुशी का नहीं, संताप की स्तब्धता का रूप ले लेता है। मुझे इतना झकझोरा हैं इस सच ने कि मनुष्य के जन्म तक को इतना अवांछित समझने वाली इस दुनिया में कई बार मनुष्य की गरिमा पर मुझे अपना भरोसा बनाए रखना तक कठिन जान पड़ा है। ऐसी दुनिया में एक फूल के जन्म को लेकर किसी पौधे की शाखाओं और पत्तियों में एक ऐसी धृतिमान और लालसाहीन ललक पाकर मैं मनुष्य होने की अनुभूति का सुखद पारितोषिक पा गया। मैं निहाल हो रहा था इस नज़ारे पर, सचमुच यह विलक्षण अनुभूति थी।
मैं हवेली का दरवाज़ा खोलकर उस पौधे के पास जा पहुँचा। मैं उसके पास ज़मीन पर बैठ गया। मैं उस उष्मा को अपनी सांसों से छूना चाहता था। मैं सूरज की किरणों में उस कलिका के प्रसव हेतु आकाश मार्ग से उतरती हुई सावित्री रूपी ममतामयी धाय को आते देख रहा था। मैंने उस कलिका को धारण कर रही डाली की आभा को देखा उसका प्रभास ललाम था। उस हरित उज्ज्वल डाल ने ताज़े पत्तों से कलिका का बदन ढांप रखा था। वहाँ फूल खिलना चाह रहा था। यह चाहत बड़ी प्यारी थी। मैं उसके पास बैठकर स्वस्ति वाचन करने लगा।
मैं उस फूल का स्वागत कर रहा था, जो अभी-अभी चटखेगा और इस विशाल ब्रह्माण्ड में अपनी नगण्य-सी उपस्थिति दर्ज कराएगा। उसकी नगण्यता उसकी अल्पता नहीं, ब्रह्माण्ड की विशालता का एक निर्मम नियम मात्र है, जिसमें नगण्य होते हुए भी उस एक फूल की महिमा कम नहीं होगी। उसका पराग उसका सौरभ उसकी गंध हवाओं की गोद में खेलेगी, और आकाश छू आएगी। उसे कोई नहीं जानेगा, पर वह अपनी अल्पज्ञता में ही अपनी पहचान स्वयं करेगी और अपने निर्वाण को प्राप्त होगी। उस फूल का खिलना व्यर्थ नहीं जाएगा इतना मुझे विश्वास है इसलिए मैं उसके जन्म के क्षणों का साक्षी होने और इस ब्रह्मांड में उसके आगमन का स्वागत करने हेतु तत्पर बैठा हूँ।
इधर हवाओं में कसैली-सी गंध फैली हुई हैं। यह गंध बारूद की गंध है। धरती पर हर पल हर क्षण कहीं न कहीं कोई युद्ध चल रहा है। मिसाइलें दागी जा रही है। परमाणु परीक्षण हो रहे हैं। घातक बीमारियों के जीवाणुओं को भी हथियार बनाकर आदमी के भीतर बैठा राक्षस अट्टाहास कर रहा है। मासूमियत घबरा रही है। कोमलताएँ काँप रही हैं। सुंदरताएँ मुरझाए जा रही हैं। संवेदनाएँ मूर्छित है। कोई दैत्य अपने विशाल पैरों के नीचे चीटियों की तरह ज़िंदगियों को कुचलता हुआ चला जा रहा है, ऐसे में अपनी दुनिया से अनजान यह नन्हा-सा फूल खिलना चाह रहा है। आखिर क्यों?
मैं उस फूल से पूछता हूँ। तुम यहाँ क्यों खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें पता है कि जिस वीराने में तुम अपना सौंदर्य, रूप, रस और सुगंध लेकर पल भर के लिए खिलना चाहते हो, क्या वहाँ किसी के पास उस एक पल का मोल समझने का माद्दा भी है या नहीं? क्या तुम्हें पता है, हवाओं में उड़ती हुई यह राख किसी चूल्हे से नहीं किसी श्मशान से चली आ रही हैं। तुम्हारे जन्म से पहले अपनी श्मशानी-बारूदी राख के द्वारा तुम्हारा अभिषेक करने वाला यह मृत्यकामी संसार तुम्हारे जन्म के लिए ज़रा भी उत्सुक नहीं लगता फिर तुम क्यों यहाँ खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें यहाँ खिलते हुए डर नहीं लगता?
इस अधूरे निबंध को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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