मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016
ग़ज़ल – 2 – विमल कुमार शर्मा
ग़ज़ल का अंश…
रेत के ये ढेर मुझसे आज कुछ कहने लगे,
ये मरुस्थल आज क्यों अच्छा मुझे लगने लगा।
सर्द हवा ने रेत पर तस्वीर तेरी खींच दी,
देखकर चेहरा तेरा अच्छा मुझे लगने लगा।
रोशनाइयों में क्यों अब मन मेरा लगता नहीं,
अब अंधेरों का सिला अच्छा मुझे लगने लगा।
सादगी इस शख्सियत में आ गई है इस कदर,
जो भी हो जैसा भी हो अच्छा मुझे लगने लगा।
इन अंधेरे रास्तों का अब सफर थमता नहीं,
यादों का तेरी काफिला अच्छा मुझे लगने लगा।
याद तेरी आ रही है एक खिलौने की तरह,
मन मेरा क्यों आज फिर बच्चा मुझे लगने लगा।
टूटे स्वप्न पीठ पर लादे चला था मैं कही,
बातों का तेरी कारवाँ अच्छा मुझे लगने लगा।
इस कदर मशगूल रहता हूँ मैं खुद में आज कल,
अपना शक्लों मिजाज भी अच्छा मुझे लगने लगा।
ऐसी ही कुछ चुनिंदा ग़ज़लों का मजा ऑडियो की मदद से लीजिए…
लेबल:
ग़ज़ल,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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