शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016
कविताएँ - अरविंद अवस्थी
कविता का अंश...
विवाह के मंडप में,
दिये के साथ,
स्थापित कलश,
क्या-क्या नहीं सहा,
उसने वहाँ पहुँचने के लिए।
बार-बार रौंदा गया,
कुम्हार की थाप और,
धूप सहकर भी,
उसे पकने के लिए,
जाना पड़ा है अग्नि-भट्ठी में।
उतरना पड़ा है खरा,
हर कसौटी पर,
रंग जाना पड़ा है,
चित्रकार की तूलिका से।
तभी तो मिट्टी का कलश,
बन गया है मूल्यवान,
तपकर, सजकर,
सोने के कलश-सा ।
ऐसी ही अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
संपर्क - e mail : awasthiarvind@gmail.com
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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