शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016
सिंहासन बत्तीसी - 1 - रत्नमंजरी
कहानी का अंश...
अंबावती में एक राजा राज करता था। उसका बड़ा रौब-दाब था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियाँ थी। एक थी ब्राहृण दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राहृणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राहृणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्यणी का बेटा दीवान बना। बाद में वहाँ बड़े झगड़े हुए। उनसे तंग आकर वह लड़का घर से निकल पड़ा और धारापूर आया। हे राजन्! वहाँ का राजा तुम्हारा पिता था। उस लड़के ने राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में करके उज्जैन पहुँचा। संयोग की बात कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य ने चालाकी से शंख को मरवा डाला और स्वयं गद्दी पर बैठ गया।
एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलने गया। बियावान जंगल। रास्ता सूझे नहीं। वह एक पेड़ चढ़ गया। ऊपर जाकर चारों ओर निगाह दौड़ाई तो पास ही उसे एक बहुत बड़ा शहर दिखाई दिया। अगले दिन राजा ने अपने नगर में लौटकर उसे बुलवाया। वह आया। राजा ने आदर से उसे बिठाया और शहर के बारे में पूछा तो उसने कहा, “वहाँ बाहुबल नाम का राजा बहुत दिनों से राज करता है। आपके पिता गंधर्वसेन उसके दीवान थे। एक बार राजा को उन पर अविश्वास हो गया और उन्हें नौकरी से अलग कर दिया। गंधर्बसेन अंबावती नगरी में आये और वहाँ के राजा हो गए। हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जब तक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगा, तब तक आपका राज अचल नहीं होगा। मेरी बात मानकर राजा के पास जाओं और प्यार में भुलाकर उससे तिलक कराओं।”
विक्रमादित्य ने कहा, “अच्छा।” और वह लूतवरण को साथ लेकर वहाँ गया। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और बड़े प्यार से उसे रखा। पाँच दिन बीत गए। लूतवरण ने विक्रमादित्य से कहा, “जब आप विदा लोगे तो बाहुबल आपसे कुछ माँगने को कहेगा। राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उस पर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखण्ड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें साँचे में ढालकर बत्तीस पुतलियाँ लगाई गई हैं। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को माँग लेना।”
इसके आगे की कथा ऑडियो के माध्यम से जानिए...
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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