सोमवार, 31 अक्तूबर 2016
लघुकथा - प्रतिबिंब - शैलजा दुबे
कहानी का अंश....
वो एक बार फिर निराश, हताश सोफे पर धम्म से बैठ गया। उसकी फाइल हाथ से छूट गई। डिग्रियाँ, सर्टिफिकेट पंखे की हवा में यहाँ-वहाँ उड़ने लगे। वह स्तब्ध, शांत, भावशून्य अपनी आशाओं, आकांक्षाओं को हवा में उड़ते देख रहा था। वह एक शिक्षित, संस्कारी, सभ्य नौजवान था, किंतु फिर भी बेरोज़गार था। उसके परिवार में माता-पिता और चार बहनें थीं। पिता सेवा निवृत्त हो चुके थे। माँ दूसरों के कपड़े सिलकर चार पैसे कमाने की कोशिश करती थी, पर अब उसकी भी आँखें कमज़ोर हो चली थीं। बहनें पढी-लिखी थी, नौकरी करना चाहती थीं, लेकिन पिता के आदर्शों और मूल्यों के आगे बेबस थीं। पिता नहीं चाहते थे कि लोग कहें कि बेटियों की कमाई खा रहे हैं। लेकिन लोगों का क्या, उनका तो काम ही है कहना। कैसी भी परिस्थिति हो उन्हें तो कहना ही है, जैसे इस काम के उन्हें पैसे मिलते हों। खैर.... उस नौजवान से परिवार के सदस्यों को बहुत उम्मीदें थीं। या यूँ कह लीजिए कि उसके कंधों पर ही परिवार का दारोमदार था। सोफे पर बैठा वह अचानक उठकर बैठ गया। तेज़ रोशनी से उसकी आँखें चौंधियाने लगीं। उसके सामने एक आकृति थी। उसने घबराकर पूछा, कौन हो तुम? तुम तो मेरी तरह ही दिख रहे हो। उस आकृति ने कहा, ‘हाँ, मैं तुम्हारा ही प्रतिबिंब हूँ। मैं तब आता हूँ, जब इंसान गहरे अंधकार, पीड़ा और अवसाद की गहराइयों में डूबने लगता है और उसे एक क्षण भी नहीं लगता अपना जीवन समाप्त करने में। वह ये विस्मृत कर देता है कि जीवन अमूल्य है, वरदान है और इस जीवन का अंत करके होगा क्या! क्या तुम उन लोगों को और परेशानी, अकेलापन नहीं दे जाओगे जो तुमसे जुड़े हैं। यह सब सुनकर उस नौजवान का चेहरा धीरे-धीरे सामान्य व स्थिर हो रहा था। उसके प्रतिबिंब ने कहा, यदि तुम्हें ईश्वर ने इस संसार में भेजा है तो तुम्हारे लिए रास्ते भी अवष्य बनाए होगें। आवश्यकता इस बात की है कि तुम उन राहों को खोजो, और एक बात सदैव याद रखना कि जो वस्तु सरलता से प्राप्त हो जाती है, उसका आनंद अधिक समय तक नहीं रहता लेकिन जो वस्तु थोड़े परिश्रम, कठिनाई से प्राप्त होती है उसका आनंद अनंत समय तक रहता है। उठो, और नए सिरे से एक बार फिर प्रयास करो क्योंकि ईश्वर की लीला को कोई नही समझ सकता। वह जो करता है अच्छे के लिए करता है। इतना कहकर वो प्रतिबिंब वहाँ से अदृश्य हो गया। अब उस नौजवान में नई आशा, विश्वास, उत्साह का संचार था। उसने अपनी बिखरी हुई डिग्रियाँ, सर्टिफिकेट समेटे और उन्हें करीने से फाइल में जमाकर चल दिया उस ओर जहाँ से रोशनी आ रही थी.... इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
लघुकथा
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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